आज़ादी के बाद का सबसे बर्बर और साम्प्रदायिक देशव्यापी पुलिसिया दमन
आज़ादी के बाद इस देश के हुक्मरानों ने सैकड़ों बार अपनी अवाम का ख़ून बहाया है। साम्प्रदायिक पुलिसिया दमन की ख़ूनी कहानियाँ मेरठ-मलियाना-भागलपुर से लेकर ’84 के सिख दंगों तक अनगिनत हैं। लेकिन एक साथ देश के अनेक हिस्सों में जिस तरह से इस बार सत्ता ने दमन और नफ़रत का खेल खेला है, वह अभूतपूर्व है। ख़ुद पर लगे दंगा भड़काने के सारे आरोपों को मुख्यमंत्री बनते ही वापस ले लेने वाले आदित्यनाथ ने जैसे उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया है।
पुलिस अक्सर साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में निष्क्रिय रहकर भीड़ को अल्पसंख्यकों पर हमले करने देती रही है। या भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठी-गोली चलाने में अल्पसंख्यकों पर जानबूझकर ज़्यादा से ज़्यादा नुक़्सान पहुँचाने के लिए हमला करती है।
लेकिन इस बार योगी आदित्यनाथ की पुलिस ख़ुद दंगाई, हत्यारी और बलात्कारी भीड़ बन गयी है। ज़ाहिर है कि उन्हें ऊपर से बेख़ौफ़ रहने के निर्देश थे और इसके साथ मिलकर लम्बे समय से फैलाये साम्प्रदायिक ज़हर और नफ़रत के असर में पुलिस ही नहीं, सीआरपीएफ़ और रैपिड ऐक्शन फ़ोर्स के जवानों ने भी सारी हदें पार कर दीं। यह एक बेहद ख़तरनाक स्थिति है।
इससे पहले अनेक प्रदर्शनों में बड़े पैमाने पर हिंसा, तोड़फोड़ और आगज़नी हुई है लेकिन योगी सरकार दफ़ा 144 की पाबन्दी को मार्शल ला की तरह लागू कर रही है। प्रदर्शनकारियो को दंगाई और आतंकवादी कहकर उनसे दुश्मन की तरह बर्ताव किया जा रहा है। गिरफ़्तार लोगों को जेल भेजने से पहले थानों में ले जाकर बुरी तरह पीटा गया। बुज़ुर्गों और महिलाओं तक को बुरी तरह मारा गया। लखनऊ में सम्मानित ऐक्टिविस्टों, मो. शोएब, एस.आर. दारापुरी, सदफ़ जाफ़र, रॉबिन वर्मा, दीपक कबीर आदि को न केवल झूठे आरोपों में गिरफ़्तार किया गया बल्कि उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया और निचली अदालत से उनकी ज़मानत भी ख़ारिज कर दी गयी।
योगी की पुलिस ने हैवानियत की सारी हदें पार करते हुए मुज़फ़्फ़रनगर में अनाथ बच्चों के एक मदरसे से क़रीब 100 बच्चों को ज़बरन भीतर घुसकर गिरफ़्तार किया और थाने में उनके साथ पाशविक बलात्कार किया। बड़े पैमाने पर औरतों के साथ बदसलूक़ी की गयी। बनारस में भी अनेक प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ताओं और छात्रों को झूठे आरोपों में गिरफ़्तार किया गया। यहाँ के मुस्लिम मोहल्लों में भी पुलिस ने मारपीट और लूटपाट का ताण्डव मचाया। कानपुर, गोरखपुर, बहराइच सहित अनेक शहरों की भी यही कहानी है। कानपुर में तो जिन लोगों को पुलिस की गोलियाँ लगी हैं, उन्हें ही अब अभियुक्त बनाकर एफ़आईआर दर्ज की जा रही है। पहले नंगई से झूठ बोलने के बाद अब पुलिस जगह-जगह गोली चलाने की बात मान रही है।
ज़ाहिर है कि ऊपर से आदेश मिले बिना पुलिस इस स्तर पर नहीं उतर सकती थी। यह एक बेहद ख़तरनाक स्थिति है। जो लोग आज नफ़रत के नशे में ख़ुश हो रहे हैं कि “मुल्लों” को सबक़ सिखाया जा रहा है, उन्हें भी डरना चाहिए। पुलिस उनकी नहीं है। पुलिस सरमायेदारों और सत्ताधीशों के हाथ का डण्डा है। आपके सिर पर भी गिरेगा देर-सबेर!
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2020
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