दुनियाभर में रोज़ बढ़ते करोड़ों शरणार्थी और प्रवासी
पूँजीवाद ही ज़िम्मेदार है इस विकराल मानवीय समस्या का
पराग
एमनेस्टी इण्टरनेशनल का हालिया सर्वेक्षण बताता है कि 2018 में पूरे विश्व में 7.1 करोड़ शरणार्थी हो गये हैं जो अभी तक के इतिहास में सर्वाधिक हैं। इन शरणार्थियों में आधी संख्या बच्चों की है। आर्थिक मन्दी के दस वर्ष से भी ज़्यादा गुज़र जाने के बाद भी पूँजीवादी व्यवस्था संकट में ही है और इससे उबरने का कोई रास्ता नहीं निकल रहा है। पूँजीवाद का मुनाफ़ा कमाने का इंजन लगातार सस्ते संसाधनों और सस्ते श्रम की माँग करता है और इसलिए बड़े पूँजीवादी देश दूसरे देशों के संसाधनों पर नियंत्रण के लिए उनके आन्तरिक मामलों में दख़ल देना शुरू कर देते हैं। संसाधनों पर नियंत्रण के मामले में साम्राज्यवादी देशों के बीच अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दिता भी जन्म लेती है जिसका परिणाम इन देशों के बीच चलने वाले दीर्घकालिक युद्ध के रूप में दिखायी पड़ता है। इन युद्धों में पैदा हुई हिंसा, उत्पीड़न, अनिश्चितताओं, खाने-पीने की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में आम लोग अपने देशों को छोड़ दूसरे देशों में शरणार्थी के रूप में प्रवेश कर जाते हैं।
अमेरिका के नेतृत्व में मध्य-पूर्व क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए सीरिया, इराक़, लीबिया और अफ़ग़ानिस्तान के देशों की राजनीति में जो साम्राज्यवादी दख़ल किया गया उसके कारण वहाँ गृहयुद्ध छिड़ गया और अराजकताभरे माहौल में अनेकों लोग वहाँ से विस्थापित होकर दूसरे देशों में रहने को मजबूर हो गये। शरणार्थियों के संकट की जड़ में पूँजीवादी लूट है जो पूँजीवादी संकट के समय और विकराल होती जा रही है।
पूँजीवाद में पूँजी को बढ़ाने के लिए सस्ते से सस्ते श्रम, आसानी से उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों और उत्पाद की खपत के लिए बाज़ारों की आवश्यकता होती है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही विकसित देश, कम विकसित देशों में पूँजी का प्रवाह बढ़ाते हैं और निवेश करते हैं। विकसित देशों में श्रमशक्ति महँगी हो चुकी है और देशी संसाधनों की सीमाएँ होती हैं, इसलिए इन देशों के पूँजीपति कम विकसित देशों में निवेश करते हैं और वहाँ के श्रमिकों और संसाधनों के इस्तेमाल से अपना मुनाफ़ा बढ़ाते हैं। मुनाफ़ा बढ़ाने का एक और तरीक़ा जो पूरे विश्व में प्रचलित है वो है ग़रीब देशों के शरणार्थियों और आप्रवासियों को अपने देश में प्रवेश देना और उनसे कम वेतन पर ज़्यादा मज़दूरी करवाना। पूँजीवादी व्यवस्था की शुरुआत से ही सभी विकसित देशों ने अपनी नीतियों द्वारा अपनी सीमाओं को एक हद तक खुला रखा जिससे उनके लिए दूसरे देशों से आने वाले श्रमिकों की सेवा सस्ते में उपलब्ध होती रही। प्रवासी मज़दूर के आ जाने से स्थानीय मज़दूर की आय भी नियंत्रित हो जाती है और वह आय बढ़ाने की माँग नहीं रख सकता क्योंकि उसकी प्रतियोगिता के लिए उससे कम आय में काम करने के लिए प्रवासी मज़दूर मौजूद है। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में नैसर्गिक रूप से कोई भी विकास कुछ जगहों पर ही केन्द्रित रहता है। इसलिए दो इलाक़ो के बीच, दो राज्यों के बीच और दो देशों के बीच होने वाले विकास में अन्तर रहता है और यही कारण है कि लोगों को एक जगह से दूसरी जगह रोज़गार की तलाश में पलायन करना पड़ता है।
पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सभी को रोज़गार मिल जाये और सभी के लिए जीवन की मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध हों। ऐसा इसलिए है क्योंकि मज़दूरों की आय कम रखने के लिए ये ज़रूरी है कि कुछ बेरोज़गार क़तारों में हमेशा रहें।
भूमण्डलीकरण के इस दौर में पूँजी के प्रवाह के सभी रास्ते खोले जा रहे हैं और मज़दूरों का पलायन भी बढ़ा है परन्तु मज़दूरों के गमनागमन पर राष्ट्र की नीतियों द्वारा नियंत्रण भी लगाये जा रहे हैं। हर देश का पूँजीपति वर्ग एक स्तर पर एकजुटता रखता है और झुण्ड में ख़ुद का फ़ायदा देखता है। उस पूँजीपति वर्ग की नुमाइंदगी करते राजनीतिक दल ये जानते हैं कि यदि बहुत ज़्यादा प्रवासी मज़दूरों को रख लिया गया तो देशी मज़दूरों में ही बेरोज़गारी इतनी बढ़ जायेगी कि राजनीतिक हड़कम्प मच जायेगा और इसलिए वो प्रवासी मज़दूरों के दाख़िले में एक सन्तुलन बनाकर चलता है। जिस हद तक प्रवासी मज़दूरों की ज़रूरत रहती है उन्हें नीतियों में बदलाव लाकर दाख़िल कर लिया जाता है।
पिछले एक दशक में शरणार्थियों और आप्रवासियों के प्रवेश को लेकर कई देशों में विरोध हुए हैं। ये इसलिए हो रहा है क्योंकि बड़े पूँजीवादी देश पूँजी के भूमण्डलीय विस्तार के बाद भी आर्थिक संकट में हैं। आर्थिक मन्दी के इस दौर में इन देशों में नौकरियों में भारी गिरावट आयी है और इस कारण वहाँ के मज़दूर प्रवासी मज़दूरों को प्रतिस्पर्द्धी के रूप में देखते हैं। वहाँ का देशी मज़दूर वर्ग ये माँग कर रहा है की उनके देश की नौकरियाँ उन्हीं को मिलें और आप्रवासियों को उनके देशों से बाहर निकाल दिया जाये। पूँजीवादी संकट के कारण ही साम्राज्यवादी हस्तक्षेप भी बढ़ा और कभी धार्मिक युद्ध तो कभी सांस्कृतिक युद्ध के रूप में प्रदर्शित हुआ जिसके फलस्वरूप शरणार्थियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई।
पूँजीवादी मुनाफ़े की लूट के कारण ही प्रवासी और शरणार्थी पैदा हो रहे हैं और पूँजीवादी व्यवस्था का संकट ही इन्हें स्थानीय मज़दूरों के विरुद्ध खड़ा कर रहा है। यदि कोई व्यक्ति ग़रीब देश में पैदा होकर अमीर देश में काम करने जाता है तो ये ना तो उस देश या उस व्यक्ति की अक्षमता है और ना ही अमीर देशों का कोई एहसान है। ऐतिहासिक तौर पर अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों ने बाक़ी देशों का साम्राज्यवादी शोषण किया और औपनिवेशिक लूट भी हुई। यही बाद में दीर्घकालिक पूँजीवादी लूट का आधार बनी। मज़दूरों के विस्थापित होने के पीछे युद्ध, धार्मिक प्रताड़ना, ग़रीबी, पर्यावरण बदलाव, आर्थिक मन्दी इत्यादि कुछ मुख्य कारण देखने को मिलते हैं। इन सभी कारणों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि ये सभी पूँजीवादी व्यवस्था के संकट से जुड़े हुए हैं। जैसे-जैसे पूँजीवादी आर्थिक मन्दी गहराती जा रही है वैसे-वैसे ये सभी बढ़ रहे हैं और ज़्यादा लोगों को विस्थापित कर रहे हैं। पूँजीवादी संकट के समय जब रोज़गार में भारी कमी है तब पूँजीपति वर्ग की नुमाइंदगी करती दक्षिणपन्थी राजनीतिक पार्टियाँ स्थानीय मज़दूरों को ये विश्वास दिलाती है कि उनकी नौकरी प्रवासी मज़दूर खा गये जबकि नौकरियों के घटने और बेरोज़गारी के होने के पीछे मूल कारण तो पूँजीवाद का संकट है। दक्षिणपन्थी संगठन मज़दूरों को राष्ट्रीयताओं, सांस्कृतिक भेदभाव, भाषाई अन्तर और धार्मिक भिन्नता के आधार पर बाँटने का काम करते हैं, एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करते हैं और इस तरह पूँजीपति वर्ग की सेवा करते हैं। मज़दूरों की असली माँग ये होनी चाहिए कि चाहे वो प्रवासी हों या देशी, सभी मज़दूरों को रोज़गार और जीवन की सभी मूलभूत सुविधाएँ मिलें। असलियत तो ये ही है कि सभी मज़दूरों के अधिकार एक हैं और उनकी लड़ाई भी एक है और वह लड़ाई है इस शोषणकारी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध।
भारत में भी दक्षिणपन्थी राजनीतिक पार्टियाँ मज़दूर वर्ग को कभी हिन्दू-मुस्लिम में बाँटती हैं तो कभी स्थानीय मज़दूर और प्रवासी मज़दूर के बीच भेदभाव की राजनीति करती हैं। भाजपा जैसी फ़ासिस्ट पार्टी तो मज़दूर वर्ग को ये विश्वास दिलाना चाहती है कि उनकी सभी समस्याओं की जड़ यहाँ काम करने वाले मुस्लिम प्रवासी हैं और उन्हें देश से बाहर करके वह सब कुछ ठीक कर देगी। पर सच्चाई तो ये है कि भाजपा पूँजीपति वर्ग की नुमाइंदगी करती है और आर्थिक संकट के दौर में मज़दूर वर्ग को धर्म के आधार पर बाँटकर पूँजीपतियों की सेवा कर रही है। मज़दूरों का हित इसमें है कि वो राष्ट्रीयताओं और धार्मिक पहचानों को किनारे रखकर अपने वर्ग के हित को देखें और सभी मज़दूरों के लिए रोज़गार और मूलभूत सुविधाओं की माँग करें। प्रवासी मज़दूर भी इस व्यवस्था से प्रताड़ित हैं और इसलिए उसके साथ सांस्कृतिक और भाषाई अन्तर होने के बावजूद किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए और ना ही उसके लिए नफ़रत पालनी चाहिए। स्थानीय और प्रवासी मज़दूरों में अनेकों भिन्नताओं के बावजूद एक सबसे बड़ी समानता ये है कि दोनों का पूँजीपतियों द्वारा शोषण किया जाता है और इसलिए दोनों को एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। ऐतिहासिक दृष्टि से प्रवासन के कारण अलग-अलग पृष्ठभूमि से आने वाले मज़दूरों के मिलने में एक प्रगतिशील पहलू ये है कि इस विविधता से भरी वर्गीय एकजुटता के कारण मज़दूरों के बीच व्याप्त क्षेत्रीय, भाषाई और सांस्कृतिक संकीर्णता कम होती है और उनके बीच एक वैश्विक दृष्टिकोण विकसित होता है जो अन्ततः मज़दूर वर्ग के हित में है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019
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