रेलवे के निजीकरण की पटरी पर बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से भागती मोदी सरकार
हज़ारों रेलकर्मी सड़कों पर मगर केन्द्रीय यूनियनें बयानबाज़ी से आगे बढ़ने को तैयार नहीं
सत्यम
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में रेलवे को निजीकरण की पटरी पर बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से दौड़ा दिया गया है। रेलवे का किश्तों में निजीकरण तो बहुत पहले ही शुरू हो चुका था, पर मोदी के पिछले कार्यकाल में उसे तेज़ किया गया और अब तो रेलवे को पूँजीपतियों के हाथों में सौंप देने की क़वायद अन्धाधुन्ध तरीक़े से शुरू कर दी गयी है। रेल मंत्री पीयूष गोयल की अगुवाई में रेल मंत्रालय 100 दिन का ऐक्शन प्लान या ‘कुकर्म योजना’ लेकर आया है जिसे 31 अगस्त 2019 तक लागू करने के लिए तत्काल कार्रवाई करने के निर्देश दिये गये हैं। भूल से भी यह मत सोचियेगा कि इस ‘’ऐक्शन प्लान’’ में भेड़-बकरी की तरह यात्रा करने को मजबूर करोड़ों आम यात्रियों की सुविधाएँ बढ़ाने, रेल की सुरक्षा व्यवस्था मज़बूत करने या रेलवे में खाली पड़े 2.6 लाख पदों को भरने की बातें की गयी हैं। जी नहीं! इन छोटे-मोटे कामों के लिए मोदी सरकार थोड़े ही न आयी है।
ऐक्शन प्लान में कई और घातक प्रस्तावों के साथ निजी यात्री गाड़ियाँ चलाने का प्रस्ताव है। 100 दिनों के भीतर ऐसी दो गाड़ियाँ चलने लगेंगी। लखनऊ से नई दिल्ली के बीच चलने वाली सेमी हाई-स्पीड एसी ट्रेन, तेजस एक्सप्रेस देश की पहली निजी ट्रेन होगी। इतना ही नहीं, सरकार राजधानी और शताब्दी जैसी प्रीमियर गाड़ियों का संचालन भी निजी ऑपरेटरों को सौंप देना चाहती है जिसके लिए अगले 4 महीनों में टेंडर जारी हो जायेंगे। यह प्रयोग सफल हो गया तो फिर एक-एक तमाम ट्रेनें देशी-विदेशी कम्पनियों को चलाने के लिए सौंपने का रास्ता साफ़ हो जायेगा।
ऐक्शन प्लान में दूसरा बड़ा प्रस्ताव है रेलवे की उत्पादन इकाइयों का निगमीकरण, यानी उन्हें कॉरपोरेशन बना देना। रेल बोर्ड द्वारा तैयार दस्तावेज़ के अनुसार रेल की 7 उत्पादन इकाइयों, प. बंगाल में चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स, उत्तर प्रदेश के वाराणसी में डीज़ल इंजन कारख़ाना और रायबरेली में मॉडर्न कोच फ़ैक्ट्री, पंजाब के कपूरथला में रेल कोच फ़ैक्ट्री, पटियाला में डीज़ल आधुनिकीकरण कारख़ाना, चेन्नई में इंटिग्रल कोच फ़ैक्ट्री और बैंगलोर में व्हील एंड ऐक्सल प्लांट और इन 7 इकाइयों से सम्बद्ध सभी वर्कशॉपों को ‘इंडियन रेलवे रोलिंग स्टॉक कम्पनी’ नाम से एक कम्पनी बनाकर उसके हवाले कर दिया जायेगा। यह और कुछ नहीं, बल्कि उत्पादन को निजी कम्पनियों के हाथों में सौंप देने की दिशा में पहला क़दम है। आने वाले दिनों में पहले इन कॉरपोरेशनों के शेयर निजी कम्पनियों को बेचे जायेंगे और फिर पूरे कॉरपोरेशन ही उनके हवाले कर दिये जायेंगे। महानगर टेलिफ़ोन निगम लि. (एमटीएनएल) और भारत संचार निगम लि. (बीएसएनएल) को जिस तरह बर्बाद करके औने-पौने दामों पर बेचने की तैयारी चल रही है, उसी हश्र की ओर रेलवे को भी धकेला जा रहा है।
इतना ही नहीं, सरकार के पालतू अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय के नेतृत्व में बनी रेलवे पुनर्गठन कमेटी और नीति आयोग ने ज़ोरदार सिफ़ारिश की है कि सरकार को रेलवे में निजी कम्पनियों की भागीदारी का रास्ता साफ़ कर देना चाहिए। कमेटी का कहना है कि रेलवे के ‘’नॉन-कोर फ़ंक्शन’’’ यानी अस्पतालों, स्कूलों, कारख़ानों, वर्कशॉपों, रेलवे पुलिस आदि को कम से कम अगले 10 साल के लिए निजी क्षेत्र के हवाले कर देना चाहिए।
कहने की ज़रूरत नहीं कि निजी हाथों में जाने के साथ ही रेल के किरायों में भारी बढ़ोत्तरी होगी। रेलवे पर सस्ते किराये का कितना बोझ पड़ रहा है, इसी का माहौल बनाने के लिए ‘गिव इट अप’ नाम से प्रचार अभियान चलाकर लोगों से रेल टिकट पर सब्सिडी छोड़ने के लिए कहा जा रहा है। मगर रेल यात्रियों की भारी बहुसंख्या ग़रीब और कम आय वाले लोगों की होती है। उन्हें किफ़ायती दरों पर यात्रा की सुविधा मुहैया कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। देश के आम लोगों से खरबों रुपये के टैक्स इसलिए नहीं वसूले जाते हैं कि उनसे धन्नासेठों को सब्सिडी दी जाये और नेताशाही-अफ़सरशाही की अय्याशियों का ख़र्च उठाया जाये।
जनता के पैसे से खड़े किये गये रेल संसाधनों के दम पर निजी पूँजीपति बटोरेंगे मुनाफ़ा
ट्रेनों को निजी ऑपरेटरों के हाथों में सौंपने के पीछे कितना बड़ा खेल है, इसे समझना ज़रूरी है। रेलवे जैसे उद्योग को निजी तौर पर चलाने की औक़ात भारत के किसी पूँजीपति में नहीं है। इसके लिए ज़मीन लेने, ट्रैक बिछाने, रेल गाड़ियाँ, स्टेशन, सिगनल और नियंत्रण व्यवस्था जैसे बुनियादी संसाधनों में स्थिर पूँजी की बहुत बड़ी मात्रा ख़र्च करनी पड़ेगी जिसकी वापसी में 20-25 साल तक लग जायेंगे। जबकि सिर्फ़ किसी ट्रेन का परिचालन हाथ में लेने पर स्थिर पूँजी में बहुत कम पूँजी निवेश करना पड़ेगा। सार्वजनिक पूँजी से बनी सारी बुनियादी सुविधाओं का लाभ उसे मिलता रहेगा। निजी ऑपरेटर ट्रेन के चक्कर के हिसाब से शुल्क देगा या कुल कमाई का एक हिस्सा रेलवे को चुकायेगा। वह टिकट काटने, चेक करने, साफ़-सफ़ाई आदि के लिए कुछ कर्मचारी रखेगा और भाड़ा वसूल कर अपना मुनाफा निकाल लेगा। हर्र लगे न फिटकरी रंग आये चोखा! घाटे का लगभग सारा जोखिम सार्वजनिक क्षेत्र में रहेगा, मुनाफ़े की मोटी रकम निजी मालिकों की जेब में जायेगी।
इस तरह सार्वजनिक पूँजी के दम पर निजी पूँजीपति मुनाफ़ा कमायेगा और उसकी पूँजी बढ़ती जायेगी और एक दिन वह ख़ुद रेलवे के एक हिस्से को ख़रीदने लायक़ पूँजी इकट्ठा कर लेगा। इसी तरह से पहले भी पूँजीपतियों ने सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम उपक्रमों को अच्छी तरह निचोड़कर पहले अपनी पूँजी बढ़ायी और फिर उसी पूँजी के दम पर सार्वजनिक उपक्रमों को ख़रीद लिया। पिछले तीन दशकों के दौरान केन्द्र में रही सभी पार्टियों की सरकारों ने इस काम में उनकी मदद की, लेकिन भाजपा की सरकारें इस खेल को सबसे खुल्लमखुल्ला खेलती रही हैं। वाजपेयी सरकार ने तो पहली बार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बेचने के लिए ‘विनिवेश मंत्रालय’ ही बना दिया था। अब मोदी सरकार इस काम को चरम बेशर्मी के साथ करने पर आमादा है।
ट्रेनों के साथ ही स्टेशनों को भी निजी कम्पनियों को बेचने का काम शुरू
मोदी सरकार के 100 दिन के ऐक्शन प्लान के तहत 50 रेलवे स्टेशनों की पहचान करके उनको निजी हाथों में देने का भी फ़ैसला कर लिया गया है। भोपाल के हबीबगंज स्टेशन को दो साल पहले ही बंसल ग्रुप को दिया जा चुका है। यह कम्पनी वहाँ पर पॉवर, प्लेटफ़ॉर्म की देखभाल, पार्किंग, फ़ूड स्टॉल, रिटायरिंग रूम आदि से तो कमायेगी ही, साथ ही रेलवे स्टेशन की ज़मीन पर मॉल आदि बनाकर भी करोड़ों की कमाई करेगी। मोदी के पिछले कार्यकाल में ही 23 और स्टेशनों की बोली लगना तय हो चुका था। इनमें कानूपर सेंट्रल, इलाहाबाद, लोकमान्य तिलक, पुणे, ठाणे, विशाखापत्तनम, हावड़ा, कामाख्या, फ़रीदाबाद, जम्मू तवी, उदयपुर सिटी, सिकन्दराबाद, विजयवाड़ा, रांची, चेन्नई सेंट्रल, कोझिकोड, यशवन्तपुर, बेंगलोर कैण्ट, भोपाल, मुम्बर्इा सेंट्रल, बान्द्रा टर्मिनस, बोरिवली और इन्दौर जैसे बेहद व्यस्त और कमाई वाले स्टेशन शामिल हैं। अब नई ‘कुकर्म योजना’ में कुल 50 स्टेशनों को जोंकों के हवाले किया जायेगा। विदेशी कम्पनियाँ भी बोली लगा सकें इसलिए रेलवे में एफ़डीआई यानी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का रास्ता भी आसान बनाया जा रहा है। रेलवे के सूत्रों का कहना है कि आने वाले समय में सरकार ने ‘’पुनर्विकास’’ के नाम पर निजी हाथों में सौंपने के लिए कुल 400 स्टेशनों की फ़ेहरिस्त बना रखी है।
रेलवे के प्लेटफ़ार्मों से छोटे फेरीवालों को तो पहले ही बाहर किया जा चुका है, अब करोड़ों ग़रीब लोग जो ट्रेनों के इन्तज़ार में देश के स्टेशनों पर दिन या रातें गुज़ारते थे, वे भी बाहर कर दिये जायेंगे। अण्टी में पैसे हों तो रिटायरिंग रूम या लाउंज में जाकर इन्तज़ार करो, वरना भागो बाहर। पीने का पानी भरना हो या टॉयलेट का इस्तेमाल करना हो, सबके लिए जेब ढीली करनी पड़ेगी।
निगमीकरण के साथ ही बड़े पैमाने पर ठेकाकरण तय है
अभी रेलवे की सभी उत्पादन इकाइयों के कर्मचारी भारतीय रेल के कर्मचारी होते हैं और उनपर रेल सेवा अधिनियम लागू होता है। इन कर्मचारियों को केन्द्र सरकार की सुविधाएं मिलती हैं। निगमीकरण के बाद ग्रुप सी और डी का कोई भी कर्मचारी भारतीय रेलवे का हिस्सा नहीं होगा। ग्रुप सी और ग्रुप डी के कर्मचारी निगम के कर्मचारी हो जायेंगे जिन पर रेल सेवा अधिनियम लागू नहीं होगा। इसके अलावा कांट्रैक्ट पर कर्मचारी रखे जायेंगे। कर्मचारियों को केंद्रीय सरकार की सुविधाएँ नहीं मिलेंगी, सेवा शर्तें भी बदल जायेंगी। रेलवे बोर्ड महज़ रबर स्टैम्प बनकर रह जायेगा जो सिर्फ़ दिशानिर्देश बनाने का काम करेगा। सारी ताक़त जीएम और डीआरएम के हाथों में होगी। उनका मुख्य लक्ष्य लोगों को बेहतर सेवा देने के बजाय अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाना हो जायेगा।
निगमीकरण के पीछे सरकार का तर्क है कि निगमों के सम्बन्ध में सरकार की ज़्यादा ज़िम्मेदारी नहीं होगी और उन्हें अपना ख़र्च खुद जुटाना होगा। ज़रूरत पड़ने पर सरकार कोष का इन्तज़ाम करेगी लेकिन नयी कम्पनी आयात या निर्यात के लिए रेलवे बोर्ड पर निर्भर नहीं रहेगी। बीएसएनएल, ओएनजीसी और एचएएल जैसे विशालकाय निगमों का इस सरकार ने जो हश्र किया किया है, उसे देखते हुए अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि रेलवे के इन निगमों का क्या अंजाम होने वाला है। स्वायत्तता देने के नाम पर निगमों को घाटे में पहुँचाया जायेगा और फिर उनकी असफलता का माहौल बनाकर उन्हें निजी कम्पनियों को बेच दिया जायेगा।
निजीकरण के साथ ही रेलवे में बचे करीब 14 लाख कर्मचारियों का ही नहीं, लगभग इतने ही पेंशनरों का भविष्य भी दाँव पर लग जायेगा।
रेलवे की 26,000 नौकरियाँ ख़त्म करने पर काम शुरू
हो चुका है
जिस दिन 30 मई को दिल्ली में मोदी सरकार का शपथ ग्रहण हो रहा था, उसी दिन उत्तर रेलवे की 26,000 नौकरियाँ ख़त्म करने का फ़रमान भी जारी हो रहा था। 30 मई को उत्तर रेलवे के डिवीज़न रेलवे मैनेजर (लखनऊ) की ओर से जारी अधिसूचना में उत्तर रेलवे के कुल 13 विभागों में करीब 26,000 पदों को समाप्त करने की घोषणा कर दी गयी। मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल के अन्तिम दिनों में ही इन विभागों में कर्मचारियों की संख्या कम करके एक प्रतिशत तक लाने की बात कह दी गयी थी यानी 26,260 की जगह 264 पद ही बचेंगे। 30 मई को जारी इस अधिसूचना पत्र को लखनऊ डिवीज़न के सभी ब्रांच आफ़िसों को भेजा गया है।
इसके तहत, अकाउंट्स में 191 पद, इंजीनियरिंग में 7338 पद, मैकेनिकल (ओएफ़) में 2783 पद, मैकेनिकल (सीडब्ल्यू) में 1938 पद, मैकेनिकल (डीएसएल) में 1014 पद, एसएंडटी में 1573 पद, इलेक्ट्रिकल (जी) में 1541 पद, इलेक्ट्रिकल (टीआरडी एंड टीआरएस) में 550 पद, मेडिकल में 875 पद, स्टोर में 19 पद, सिक्योरिटी में 1292 पद और कॉमर्शियल में 2601 पद ख़त्म होंगे। यानी इन विभागों में ग्रुप सी में 18,602 और ग्रुप डी में 7,658 पद समाप्त होने हैं। ऐसा नहीं है कि रेलवे के इन विभागों के पास काम ही नहीं रह गया है। दरअसल, ये पद इसलिए ख़त्म किये जा रहे हैं क्योंकि बहुत सारे विभागों में रेलवे ने कामों को आउटसोर्स कर दिया है जिससे कर्मचारियों के पास कोई काम नहीं बचा है। काम ठेके पर बहुत कम वेतन पर कराये जा रहे हैं। सरकार ऐसे ही ठेका कर्मचारियों के सहारे रेलवे के सभी काम कराना चाहती है जिन्हें न तो न्यूनतम वेतन देना पड़े और न ही वे सारी सुविधाएँ देनी पड़ें जो रेल कर्मियों ने लम्बे संघर्षों के बाद हासिल की हैं।
सब जुमले हैं, जुमलों का क्या?
नरेन्द्र मोदी 2014 में जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो वाराणसी की अपनी विजय सभा में उन्होंने कहा था कि रेलवे को बेचने से पहले वह मर जाना पसन्द करेंगे। मगर ये सब तो जुमला किंग के जुमले हैं। नोटबन्दी के बाद उन्होंने कहा था कि जिस चौराहे पर जनता सज़ा देने के लिए बुलायेगी, वह चले आयेंगे। नोटबन्दी के शिकार तमाम लोग देश के तमाम चौराहों पर उनकी आज तक बाट जोह रहे हैं।
निजीकरण का यह अन्धाधुन्ध अभियान तो अब सामने आया है, मगर रेलवे का टुकड़े-टुकड़े में निजीकरण तो पिछले पाँच वर्षों में बहुत तेज़ हो चुका है।
निजीकरण पिछले ढाई दशक से जारी है, और यूनियनों का गाल बजाना भी!
रेलवे सहित सभी सरकारी क्षेत्रों में निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों पर अमल का पूरा प्रोग्राम तो 1995 में पाँचवे वेतन आयोग की रिपोर्ट में ही तय कर दिया गया था। उस समय ट्रेड यूनियनों के नेतागण बिना किसी ना-नुकुर के उस पर मुहर लगा आये थे। उसी समय यह दिशा तय हो गयी थी कि आने वाले वर्षों में रेलवे के बड़े-बड़े वर्कशॉपों में चमगादड़ लटकेंगे और कबूतर घोंसले बनायेंगे। उसके बाद से वर्कशॉपों और इंजीनियरिंग स्टाफ़ के कामों को एक-एक करके बाहर ठेके पर देने की गति तेज़ हो गयी। बड़ा चारा बड़े मगरमच्छों को और छोटा चारा छोटे घड़ियालों को। किश्तों में पूरे रेलवे को देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले कर देने की साज़िश की शुरुआत तो आज से करीब 25 वर्ष पहले ही हो गयी थी। वर्ल्ड बैंक के दबाव में रेलवे बोर्ड यह फ़ैसला पहले ही ले चुका था कि 18 लाख रेल कर्मचारियों की संख्या धीरे-धीरे घटाकर 9 लाख कर दी जाये। व्यापक विरोध के डर से इसे एकमुश्त करना सम्भव नहीं था, मगर धीरे-धीरे करके इसे 14 लाख तक ले आया गया है, वह भी तब जबकि रेलवे का संचालन इस बीच बहुत अधिक बढ़ गया है। रेलवे में करीब 2.6 लाख पद ख़ाली पड़े हैं। नयी भर्तियाँ बन्द हैं।
इस बीच रेलवे की तमाम परम्परागत यूनियनें विरोध के नाम पर केवल रस्मी क़वायदें करती रही हैं और इसके नेतागण गाल बजाने से आगे नहीं बढ़ते। एक समय रेलवे के जुझारू कर्मचारियों को सरकार की कुटिल चालों के सामने लाचार और निहत्था बना दिया गया है। आज भी जब रेलवे के पूरे अस्तित्व को ही दाँव पर लगा दिया गया है और लाखों कर्मचारियों के भविष्य पर डाका डाला जा रहा है, तो भी ये यूनियनें और नेतागण किसी जुझारू आन्दोलन की तैयारी करने के बजाय बस खोखली बयानबाज़ी करने में लगे हुए हैं। अख़बारी बयानों में सरकार को दी जाने वाली इनकी ”चेतावनी” को सरकार एक मज़ाक से ज़्यादा गम्भीरता से नहीं लेती। जब रायबरेली से लेकर कपूरथला, चितरंजन से लेकर बेंगलोर और चेन्नई से लेकर विशाखापत्तनम तक हज़ारों रेल कर्मी निगमीकरण के नाम पर निजीकरण की ख़तरनाक योजना के विरुद्ध सड़कों पर उतर रहे हैं, तब भी यूनियनें दृश्य से नदारद हैं, जबकि उन्हें आगे आकर इन प्रदर्शनों की अगुवाई करनी चाहिए थी और इन्हें एकताबद्ध करके एकजुट व जुझारू आन्दोलन की शक़्ल देनी चाहिए थी।
यह अस्तित्व की लड़ाई है!
कुछ समय पहले रेल कर्मी लम्बे अरसे बाद बड़े पैमाने पर नयी पेंशन योजना के विरुद्ध सड़कों पर उतरे थे। मगर अब तो उन्हें अस्तित्व की लड़ाई के लिए ख़ुद को तैयार करना होगा। इस लड़ाई की पहली शर्त है कि मज़दूरों से कटे हुए, बार-बार उन्हें धोखा देने वाले और मज़दूरों पर ही धौंसपट्टी चलाने वाले सौदेबाज़, मौक़ापरस्त नेताओं की जागीरदारी ख़त्म करके ट्रेड यूनियनों के भीतर लोकतंत्र बहाल किया जाये। ट्रेड यूनियन आन्दोलन को अब फिर से क्रान्तिकारी धार देनी होगी। मज़दूरों-कर्मचारियों को अनेक यूनियनों में बाँटकर अपनी राजनीति चमकाने वालों को किनारे करना होगा।
अगर रेलवे के निजीकरण पर आमादा मोदी सरकार के बुलडोज़र को रोकना है, तो रेलवे के तमाम मज़दूरों-कर्मचारियों को अपनी-अपनी यूनियनों में आवाज़ उठानी होगी, उनमें लोकतंत्र के नियमों-क़ायदों के पालन के लिए दबाव बनाकर नेताओं की अफ़सरशाही को ख़त्म करना होगा और उनसे पूरी जवाबदेही की माँग करनी होगी। तभी आने वाले कठिन समय की बड़ी लड़ाइयाँ एकजुट होकर लड़ी जा सकेंगी। अगर वे ऐसा कर सके तो रेलवे के साथ ही पब्लिक सेक्टर के दूसरे उपक्रमों के मज़दूरों-कर्मचारियों के लिए भी वे उम्मीद और हौसले की एक मशाल बन सकेंगे।
देश के सबसे बड़े सार्वजनिक उपक्रम को बर्बाद करके मुनाफ़ाख़ोरों के हवाले करने के विरुद्ध संघर्ष अकेले रेलकर्मियों का सवाल नहीं है। यह आम जनता और तमाम मेहनतकशों का भी सवाल है। रेल कर्मियों को अपने संघर्ष को ने केवल सार्वजनिक क्षेत्र के दूसरे मेहनतकशों के आन्दोलनों से जोड़ना होगा, बल्कि देश की आम जनता को भी अपने आन्दोलन से जोड़ना होगा। तमाम मेहनतकश जनता को भी रेलकर्मियों के संघर्ष को समझकर उनके समर्थन के लिए आगे आना होगा।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2019
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