सरकारी रिपोर्ट से भी उजागर हुए लगातार ख़राब होते मज़दूरों के हालात
सुरेश चौहान
शोषण और मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था, जिसमें मज़दूर और मेहनतकश आबादी हमेशा बदहाल ही होती है, की असलियत आये दिन हमारे सामने आती रहती है। हाल ही में आयी केन्द्र सरकार की एक रिपोर्ट ‘पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे’ (पी.एल.एफ.एस.) भारत में मज़दूरों की स्थिति की भयानक तस्वीर पेश कर रही है। इस सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक़ ज़्यादातर कामगार न्यूनतम स्वीकृत मानकों के आधे से भी कम कमा पाते हैं, 71 प्रतिशत बिना किसी लिखित कॉण्ट्रैक्ट के काम करते हैं, 54 प्रतिशत को भुगतान सहित छुट्टी नहीं मिलती है और ग्रामीण क्षेत्रों में 57 प्रतिशत से अधिक और शहरों में करीब 80 प्रतिशत कामगार आठ घण्टे काम के दिन (सप्ताह में 48 घण्टे) से बहुत अधिक काम करते हैं।
हालाँकि सरकारी आँकड़े पूरी सच्चाई सामने नहीं लाते और ज़मीनी अनुभव बताते हैं कि हालात वास्तव में इससे ज़्यादा ख़राब हैं, फिर भी ख़ुद को “मज़दूर नं. 1” घोषित करने वाले प्रधानमन्त्री की सरकार जब ख़ुद ऐसे आँकड़े जारी करे तो समझा जा सकता है कि स्थिति कितनी गम्भीर है।
इस रिपोर्ट में मज़दूरों की कमाई, काम के घण्टे और मज़दूर अधिकारों एवं सामाजिक सुरक्षा के बारे में कुछ तथ्य और आँकड़े पेश किये गये हैं। यह रिपोर्ट ‘नैशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गेनाइजे़शन’ द्वारा जून 2017 से जुलाई 2018 के बीच में 1 लाख घरों (4.33 लाख लोगों) में किये गये सर्वेक्षण पर आधारित है। जहाँ एक ओर महँगाई लगातार आसमान छू रही है, वहीं दूसरी ओर मज़दूरों और छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा करने वाले लोगों की कमाई ख़ुद सरकार के बनाये न्यूनतम मानकों से बेहद कम है। सातवें वेतन आयोग के अनुसार चार सदस्यों वाले एक परिवार की न्यूनतम आय 18,000 होनी चाहिए (इस आयोग की रिपोर्ट चार साल पहले आयी थी, तब से महँगाई बहुत बढ़ चुकी है)। लेकिन स्थिति यह है कि गाँवों और शहरों में ख़ुद के छोटे जोत वाले और शहरों में फुटकर काम करने या छोटी-मोटी दुकान चलाने वालों की औसत आय क्रमशः 8430 रुपये और 14792 रुपये, नियमित काम करने वालों कामगारों की औसत आय 12642 रुपये (देहात) और 17213 रुपये (शहर) है, तो वहीं अनियमित/कैज़ुअल मज़दूरों की औसत आय देहात में 7395 रुपये और शहरों में 9105 रुपये है।
हालाँकि रिपोर्ट के कुछ आँकड़ों में झोल है। इसके मुताबिक़ 52 प्रतिशत से ज़्यादा कामगार “स्व-रोज़गार” करते हैं। इनमें गाँवों में छोटी किसानी वालों को भी शामिल किया गया है। हम जानते हैं कि बहुत बड़ी संख्या आज ऐसे लोगों की है जिनका परिवार गाँव में ज़मीन के छोटे से टुकडे़ पर खेती करता है लेकिन उनका गुज़ारा मुख्य रूप से देहात या शहर में मज़दूरी करने वाले परिवार के सदस्य की कमाई से होता है। यानी, इस तथाकथित “स्व-रोज़गार” वाली आबादी का भी बड़ा हिस्सा मज़दूरी पर ही जीता है। दूसरे, इसमें करीब 24 प्रतिशत मज़दूरों को कैज़ुअल/दिहाड़ी पर खटने वाला बताया गया है, और 23 प्रतिशत नियमित कर्मचारी बताये गये हैं। वर्ष 2006 में आयी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट ने लम्बी जाँच-पड़ताल के बाद बताया था कि करीब 93 प्रतिशत कामगार अनियमित, कैज़ुअल या दिहाड़ी पर काम करते हैं। उसके बाद से स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ी ही है। न केवल कारख़ानों में, बल्कि बैंकों, रेलवे और सरकारी विभागों तक में स्थायी कर्मचारी कम किये जा रहे हैं और ठेका और दिहाड़ी पर ज़्यादा से ज़्यादा से काम कराये जा रहे हैं।
इसके अलावा, ख़ासकर शहरी इलाक़ों में, ऐसे कर्मचारी और “स्व-रोज़गार” वाले भी सैम्पल में शामिल हैं जिनकी आमदनी औसत से कई गुना ज़्यादा है। अगर इनको शामिल करने के बाद भी औसत आमदनी इतनी कम है तो ज़ाहिर है कि एक बहुत बड़ी आबादी ऐसे कामगारों की है, जो इस औसत से भी बहुत कम कमा पाते हैं।
ये आँकड़े दिखाते हैं कि आज, जब बेरोज़गारी नये-नये रिकॉर्ड बना रही है और शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं को भी निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, तो जिनके पास कुछ काम है भी, वे कितनी किल्लत की ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। इतनी आय में आज कोई बच्चा ढंग के स्कूल में जाकर शिक्षा नहीं हासिल कर सकता और यदि परिवार के किसी सदस्य को कोई बीमारी हो जाये तो सभी की हालत अधिक ख़स्ता हो जाती है। तस्वीर और भयावह हो जाती है जब आगे यह पता चलता है कि यह ज़रूरी नहीं कि यह आय 8 घण्टे प्रतिदिन काम के आधार पर ही हो। आज श्रम की उत्पादकता इतनी बढ़ चुकी है कि जितना काम आज से 70-80 साल पहले 8 घण्टे में होता था, वह आज डेढ़-दो घण्टे में ही हो जाता है। लेकिन इस तकनीकी प्रगति का लाभ इस व्यवस्था में ऊपर बैठे पूँजीपतियों और सम्पत्तिधारियों के मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए ही किया गया है; मज़दूरों की हालत तो बस बद से बदतर ही हुई है।
रिपोर्ट के अनुसार गाँवों में 57% और शहरों में 79% मज़दूर आठ घण्टों से अधिक खटते हैं, और इसके बावजूद बमुश्किल जीने भर जितना कमा पाते हैं। इसमें ज़्यादातर को ओवरटाइम की अतिरिक्त मज़दूरी नहीं मिलती, या अगर मिलती भी है तो नियम के अनुसार दोगुने के बजाय सामान्य दर पर ही मिलती है।
रिपोर्ट का अगला हिस्सा बताता है कि 71.1% मज़दूरों के पास कोई लिखित अनुबन्ध या नियुक्ति पत्र नहीं है, जिसका मतलब है कि उन्हें कभी भी नौकरी से निकाला जा सकता है। यह हाल तथाकथित ‘नियमित’ कर्मचारियों का है, और जो अनियमित या कैज़ुअल हैं, उनकी स्थिति तो और अधिक भयानक है। 54.2% को वैतनिक अवकाश नहीं मिलता है, जिसका मतलब है कि उन्हें पूरे महीने बिना किसी छुट्टी के काम करना होगा वरना वेतन के साथ नौकरी से भी हाथ गँवा सकते हैं। 49.6% को किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा के लाभ प्राप्त नहीं हैं, चाहे वह पी.एफ़. हो, बीमा हो, या पेंशन हो। यह रिपोर्ट फिर एक बार उजागर करती है कि समाज के वे लोग जो सुई से लेकर जहाज़ तक बनाते हैं और जिनकी मेहनत के बूते समाज चलता है उनका अपना जीवन किस अँधेरे में है। वे आज के इस आधुनिक युग में भी किस तरह जानवरों की-सी ज़िन्दगी गुज़ारने को मजबूर हैं, जिसमें दिन-रात खटने के बाद भी बिना किसी अधिकार और सुरक्षा के इन्सानों की बुनियादी सुविधाएँ भी हासिल नहीं कर पाते। जबकि इनकी मेहनत से पैदा हुई सम्पदा के अकूत भण्डार से मुट्ठीभर लोग ऐशो-आराम-विलासिता की ज़िन्दगी जीते हैं।
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन