एक पंजाबी मज़दूर के शब्द ‘प्रवासी मज़दूरों ने पंजाब को गन्दा कर दिया है’ – क्या वाक़ई ऐसा है?
राजविन्दर
मज़दूरों के साथ बातचीत के दौरान कई बार पंजाबी मज़दूरों की तरफ़ से यह एतराज़ ज़ाहिर किया जाता है कि “यूपी, बिहार के मज़दूरों के आने से वेतन/पीस रेट कम हो गये हैं, पंजाबी मज़दूरों की क़द्र भी कम हो गयी है।” कई पंजाबी मज़दूर तो नफ़रत भरे शब्दों के ज़रिये अपने दिल का ग़ुस्सा निकालते हैं। वे अपनी समस्याओं का ज़िम्मेदार प्रवासी मज़दूरों को ठहराते हैं और ऐसा सोचते हुए वे सरकार और पूँजीपतियों को निर्दोष मान लेते हैं। लुधियाना के छोटे-बड़े कारख़ानों में भी प्रवासी, पंजाबी मज़दूर अलग-अलग गुटों में बँटे हुए हैं। इस इलाक़ाई फूट का पूँजीपति बाख़ूबी लाभ उठाते हैं और ऐसी फूट को खाद-पानी देने का काम भी करते हैं। कारख़ानों में आम तौर पर चौकीदारी, दफ़्तरी कामों, आदि में पंजाबी मज़दूरों की संख्या ज़्यादा रखी जाती है। जिस कारण ज़्यादा सख़्ती से काम करवाना मालिकों के लिए आसान हो जाता है। ऐसा श्रम-विभाजन प्रवासी मज़दूरों के अन्दर भी पंजाबी मज़दूरों के प्रति नफ़रत का कारण बनता है। मज़दूरों की हड़तालों के वक़्त भी इलाक़ाई गुटों में बँटे मज़दूरों को संगठित करने में मुश्किलें पेश आती हैं। जागरूक मज़दूरों को यह बात चुभती भी है। संगठन बनाने के मामले में तो कई प्रवासी मज़दूर कहते भी हैं कि जब तक स्थानीय मज़दूर साथ नहीं देंगे तब तक प्रवासी मज़दूरों का संघर्ष के मैदान में टिके रहना मुश्किल है। क्यूँकि हड़तालों के वक़्त स्थानीय मज़दूर ज़्यादा समय तक डटे रह सकते हैं। जब कि प्रवासी मज़दूरों के पास स्थानीय सम्पर्क नहीं होते उनके लिए कमरे का किराया, राशन जैसी समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। पंजाबी मज़दूरों का भी एतराज़ है कि अगर मालिक वेतन/पीस रेट कम करते हैं तो प्रवासी मज़दूर काम बन्द (हड़ताल) करने के लिए तैयार नहीं होते, श्रम क़ानूनों को लागू कराने या वेतन बढ़ाने की लड़ाई में भी सहयोग नहीं देंगे। कई बार खाने-पीने, रहन-सहन, रीति-रिवाजों, आदि जैसी सांस्कृतिक विभिन्नता भी गुटबन्दी का काम करती है।
राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विभिन्नता सारे विश्व में ही स्थानीय और प्रवासी मज़दूरों में आपसी टकराव का कारण भी बनती है। पर प्रवासी मज़दूरों की तरफ़ से मुख्य एतराज़ कम वेतन पर काम करना ही होता है। ये सारा कुछ विदेश गये पंजाबी मज़दूरों को भी भुगतना पड़ता है। ऐसे हालात में रहते हुए मज़दूर सरकार और पूँजीपतियों की भूमिका को नज़र-अन्दाज़ कर देते हैं।
मुख्य बात यह है कि प्रवास करना मज़दूरों का शौक़ नहीं मजबूरी है। दूसरे मज़दूरों का पंजाब आना और पंजाबी मज़दूरों का विदेशों में जाना पूँजीवादी ढाँचे की नीतियों के कारण ही है। अगर आदमी को उसकी पारिवारिक रिहाइश के पास काम मिलेगा तो वह प्रवास नहीं करेगा, वो उसी जगह काम करने को तरजीह देगा और ऐसे विवाद भी खड़े नहीं होंगे। पर पूँजीवादी ढाँचे के अन्तर्गत विकास असमान होता है। पूँजीपति सस्ती श्रम शक्ति के साथ-साथ कारख़ाने के लिए सस्ते कच्चे माल की उपलब्धता, आवागमन के साधन, तैयार माल के लिए मण्डी, स्थानीय सरकार का कारख़ाने के प्रति नरम रुख़ आदि को ध्यान में रखकर ही कारख़ाना लगाता है ना कि लोगों के रोज़गार की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर। यह असमान विकास कुछ क्षेत्रों में ज़्यादा तरक़्क़ी और कुछ को पीछे ले जाता है। यह पिछड़े हुए क्षेत्र उन्नत क्षेत्रों की तरफ़ सस्ती श्रम शक्ति के लगातार प्रवाह को यक़ीनी बनाते हैं। पक्के रोज़गार का न मिलना और पूँजीवादी विकास के फलस्वरूप छोटे-मोटे धन्धों का चौपट होना है इस प्रवाह को और तेज़ कर देता है। आज हमारे देश के ऐसे ही हालात हैं।
सारे नागरिकों को पक्का रोज़गार, मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएँ देना सरकार की ज़िम्मेदारी और लोगों का संवैधानिक अधिकार है। पर हमारे देश में केन्द्रीय और राज्य सरकारें इन ज़िम्मेदारियों से भाग रही हैं। देश के ख़ज़ाने पूँजीपतियों के लिए तो खुले हैं पर आम लोगों के लिए ख़ाली हैं। लोगों के एकजुट संघर्ष के डर से ख़तरनाक काले क़ानून बनाने के साथ-साथ धार्मिक, क्षेत्रीय और जात-पात को उभार कर फूट डाली जा रही है। जात-धर्म-क्षेत्र आधारित पूँजीपतियों की राजनीतिक पार्टियाँ और संगठन ऐसी फूटों को और मज़बूत कर रहे हैं। इसलिए मज़दूरों को पूँजीपतियों की ऐसी शातिराना चालों से सावधान रहना चाहिए। जात-धर्म-क्षेत्र से ऊपर उठकर संगठित संघर्ष के ज़रिये ही मज़दूर अपने हालात बदल सकते हैं, ना कि एक-दूसरे को दोषी ठहरा कर।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2019
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