हरिद्वार के सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओं पर संघी गुण्डों और पुलिस का हमला!
उत्तराखण्ड पुलिस के लिए मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी की माँग पर जागरूक करना “अराजकता और अशान्ति फैलाना” है!
स्थानीय पुलिस-प्रशासन हिन्दुत्ववादी संगठनों के दबाव में विरोध की किसी भी आवाज़ को दबाने पर आमादा है!

बिगुल संवाददाता

उत्तराखण्ड की त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार किस तरह से जनान्दोलनों का दमन कर रही है और प्रदेश में लोकतांत्रिक स्पेस किस हद तक सिकुड़ चुका है इसकी बानगी पिछले दिनों के दौरान हरिद्वार में मज़दूर कार्यकर्ताओं के साथ हुए व्यवहार से देखी जा सकती है।

पिछले 12 अगस्त की शाम ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के कार्यकर्ता हरिद्वार के सिडकुल (उत्तराखण्ड राज्य औद्योगिक विकास निगम) औद्योगिक क्षेत्र में ”मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन” के तहत एक प्रचार अभियान चला रहे रहे थे कि महदूद नामक इलाक़े में एबीवीपी और हिन्दू युवा वाहिनी से जुड़े कुछ लोगों ने उन पर हमला कर दिया। उन पर लोगों को भड़काने का आरोप लगाते हुए ये लोग कार्यकर्ताओं से पर्चे छीनने और पोस्टर फाड़ने की कोशिश कर रहे थे और मज़दूरों से हाथापाई करके उन्हें भगा रहे थे। जब वे इसमें सफल नहीं हुए तो उन्होंने फ़ोन करके पुलिस बुला ली जिसने आते ही बिगुल मज़दूर दस्ता के पाँच कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लिया और अन्य मज़दूरों को डरा-धमकाकर हटा दिया। कार्यकर्ताओं के कहने पर भी हमला करने वाले संघी गुण्डों पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी। थाने में बिगुल के कार्यकर्ताओं के साथ गाली-गलौच और मारपीट की गयी और देशभर से अनेक ट्रेड यूनियनों, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों आदि के फ़ोन जाने के बावजूद पुलिस यही कहती रही कि हम पर ऊपर से दबाव है, हम इनको ऐसे नहीं छोड़ सकते। यह पूरी कार्रवाई एक योजना के तहत की जा रही थी इसका अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ”मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन” के तहत जो पर्चा बाँटा जा रहा था उसका पुलिस ने कोई ज़िक्र न तो पहले दिन किया और न ही अगले दिन एसडीएम कोर्ट में पेश करने पर किया। पुलिस ने कई महीने पहले बिगुल मज़दूर दस्ता और स्त्री मज़दूर संगठन की ओर से शहीदों की याद में बाँटे गये एक पर्चे को शिकायत का आधार बनाया जिसमें बिस्मिल, अशफ़ाक, भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारियों को याद करते हुए आज साम्प्रदायिक नफ़रत फैला रहे लोगों पर चोट की गयी थी। हालाँकि उसी दिन शाम को जारी पुलिस की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया था कि ये लोग मज़दूरों को 16000 न्यूनतम मज़दूरी देने की माँग को लेकर जनसम्पर्क अभियान चला रहे थे। ज़ाहिर है कि बाद में हिन्दुत्ववादी संगठनों के दबाव में इसे हटाकर लोगों को ‘’भड़काने’’ का आरोप लगा दिया गया। इन्हीं की शह पर अगले दिन के दैनिक जागरण में एक ख़बर छापी गयी कि मज़दूरों को ”भड़काने” के कारण पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया है।

इस क्षेत्र में मज़दूरों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक और संगठित करने के प्रयास हिन्दुत्ववादी संगठनों को बहुत नागवार गुज़रते हैं और वे पहले भी कई बार ऐसे प्रचार अभियानों पर हमला करने की कोशिश कर चुके हैं लेकिन मज़दूरों के विरोध के कारण उनकी दाल नहीं गलती थी। इस बार भी जब उनकी धमकियों, मारपीट, पर्चे फाड़ने का कोई असर होता नहीं दिखा तो उन्होंने पुलिस को बुला लिया। ग़रीबों के साथ होने वाले अपराधों की सूचना मिलने के बाद भी घण्टों तक न पहुँचने वाली पुलिस फ़ौरन हाज़िर हो गयी।

अगले दिन सभी कार्यकर्ताओं को एसडीएम कोर्ट में पेश किया गया। देहरादून और हरिद्वार से कई सामाजिक कार्यकर्ताओं के सुबह ही थाने पहुँच जाने और देशभर से पड़ रहे दबाव के कारण पुलिस कार्यकर्ताओं पर शान्तिभंग के अलावा और कोई गम्भीर धारा नहीं लगा पायी। हालाँकि कुछ सूत्रों से यह ख़बर भी मिली कि पुलिस इन पर लोगों को ”विद्रोह के लिए भड़काने” की धाराएँ और रासुका लगाने की भी फ़िराक में थी। एसडीएम कोर्ट में हिन्दू वाहिनी का एक स्थानीय नेता और उसका भाई लगातार एसडीएम पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहा। एसडीएम महोदय भी पुराने पर्चे की एक-एक पंक्ति (जिसमें भाजपा और संघ की नफ़रत की राजनीति का ज़िक्र था) पढ़कर कार्यकर्ताओं को धमकाने की कोशिश करते रहे। लेकिन शाम तक चार मज़दूर कार्यकर्ताओं को निजी मुचलके पर और एक कार्यकर्ता को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश उन्हें देना पड़ा। लेकिन अभी रिहाई की काग़ज़ी कार्रवाई चल ही रही थी कि एसडीएम ने नया फ़रमान जारी कर दिया कि पाँचों कार्यकर्ताओं को 2-2 ज़मानतदार लाने होंगे। इस नये आदेश के ठीक पहले हिन्दू युवा वाहिनी के नेता काफ़ी देर तक एसडीएम के कमरे में बैठे हुए थे और एसडीएम का तमतमाया चेहरा देखकर अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि अन्दर क्या हुआ होगा। काफ़ी तर्क-वितर्क के बाद अन्तत: सभी कार्यकर्ताओं को अगले दिन 10 ज़मानतदार लेकर हाज़िर होने की शर्त पर देर शाम छोड़ा गया। अगले दिन घण्टों चले ड्रामे के बाद शाम को सभी कार्यकर्ताओं की ज़मानत की कार्रवाई पूरी हुई।

पुलिस और एसडीएम पहले दिन से लगातार इस बात पर ज़ोर दे रहे थे कि दो कार्यकर्ता ”बाहरी” हैं। जब उनसे कहा गया कि देश का संविधान किसी को देश में कहीं भी जाकर काम करने और संगठन बनाने की इजाज़त देता है और अगर ये लोग कोई ग़ैरक़ानूनी काम नहीं कर रहे हैं तो इस बात से क्या फ़र्क पड़ता है कि वे स्थानीय निवासी हैं या नहीं, तो उन्हें फटकार लगायी गयी कि ”हमें नसीहत देने की कोशिश मत करो”। उनके तर्क के हिसाब से आज अगर गाँधी चम्पारण के किसानों के लिए लड़ने गुजरात से वहाँ पहुँचते तो उन्हें ”बाहरी” कहकर गिरफ़्तार कर लिया जाता! उनके पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं था कि मज़दूरों को उनके बुनियादी अधिकारों के बारे में जागरूक करना ”अराजकता फैलाना” कैसे हो सकता है? पुलिस और एसडीएम बार-बार यही कहते रहे कि आगे से यहाँ कोई भी कार्यक्रम करना हो तो पहले शासन से अनुमति लेनी होगी।

इस घटना ने एक बार फिर साबित किया है कि हिन्दुत्ववादी गिरोह दरअसल पूँजीपतियों के दलाल और लठैत तथा मज़दूरों-मेहनतकशों के दुश्मन हैं। बिगुल मज़दूर दस्ता, नौजवान भारत सभा और स्त्री मज़दूर संगठन ने बाद में कहा कि ऐसे हमलों से वे दबने वाले नहीं हैं। उत्तराखण्ड के मज़दूरों का माँगपत्रक आन्दोलन अब और भी ताक़त के साथ आगे बढ़ाया जायेगा। उत्तराखण्ड सरकार, भगवा गिरोहों और उनके पीछे खड़े उद्योगपतियों-ठेकेदारों को यह जान लेना चाहिए कि अगर वे समझते हैं कि ऐसे टुच्चे हमलों से वे मज़दूरों की आवाज़ दबा देंगे तो वे बहुत बड़े भ्रम में हैं।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2018


 

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