श्रम क़ानूनों में ”सुधार” के नाम पर सौ साल के संघर्षों से हासिल अधिकार छीनने की तैयारी में है सरकार

सम्पादक मण्डल

मोदी सरकार के तीन वर्ष पूरे होने पर फ़र्ज़ी सर्वेक्षणों और कॉरपोरेट घरानों के पालतू मीडिया के ज़रिये माहौल बनाया जा रहा है कि देश की भारी आबादी सुखी और प्रसन्न है और सरकार को दुआएँ दे रही है। मगर सच्चाई सभी जानते हैं। लाख छिपाने के बाद भी यह कड़वा सच छिप नहीं रहा है कि साफ़्टवेयर इंजीनियरों से लेकर दिहाड़ी मज़दूरों तक लाखों की संख्या में बेरोज़गार हो रहे हैं। हर साल दो करोड़ रोज़गार देने के चुनावी जुमले के बावजूद सच यह है कि पिछले तीन सालों से रोज़गार पैदा होने की दर घटते-घटते नहीं के बराबर पहुँच गयी है। बेकाबू महँगाई ने लोगों का जीना हराम कर रखा है, भले ही टीवी चैनलों के लिए यह कोई ख़बर न हो। एक के बाद मेहनतकशों के अधिकारों पर हमले किये जा रहे हैं ताकि इस सरकार के आक़ा, देशी-विदेशी पूँजीपति बेरोकटोक उन्हें लूट सकें। देश की जनता के मेहनत और प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर तिजोरियाँ भरने के लिए देशी-विदेशी कम्पनियों को खुली छूट देने में पिछली सभी सरकारों के रिकॉर्ड को पूरी नंगई से तोड़ने पर यह सरकार आमादा है। अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है, खेती के संकट ने छोटे किसान और खेतिहर मज़दूरों के लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल कर दिया है, मगर देश में ”विकास” लगातार जारी है। यह किसका विकास है, समझना मुश्कि‍ल नहीं है।
इसी सच्चाई पर पर्दा डालने और इससे ध्यान भटकाने के लिए तमाम तरह के झूठे मुद्दे उभारे जा रहे हैं और आने वाले कठिन समय में लोग एकजुट होकर आवाज़ न उठा सकें इसलिए उन्हें जाति-धर्म, गाय-मन्दिर-मस्जिद आदि-‍आदि के नाम पर बाँटा और लड़ाया जा रहा है। लोग बेमतलब के सवालों पर आपस में लड़ने में लगे रहें तो सरकार को उनकी जेब और गर्दन काटने की तैयारी करने में आसानी हो जाती है।
नरेन्द्र मोदी को गद्दी पर बिठाने के लिए हज़ारों करोड़ ख़र्च करने वाले तमाम थैलीशाह लगातार यह माँग करते रहे हैं कि मोदी सरकार आर्थिक ”सुधार” की गति और तेज़ करे। सुधार से उनका सबसे पहला मतलब होता है कि मज़दूरों को और अच्छी तरह निचोड़ने के रास्ते में बची-खुशी बन्दिशों को भी हटा दिया जाये। मोदी सरकार इस माँग को पूरा करने में जी-जान से जुटी हुई है।
श्रम मंत्रालय संसद में छह विधेयक पारित कराने की को‍शिश में है। इनमें चार विधेयक हैं – बाल मज़दूरी (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक, बोनस भुगतान (संशोधन) विधेयक, छोटे कारखाने (रोज़गार के विनियमन एवं सेवा शर्तें) विधेयक और कर्मचारी भविष्यनिधि एवं विविध प्रावधान विधेयक। इसके अलावा, 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनाने का काम जारी है, जिनमें से दो – मज़दूरी पर श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता – पहले पेश की जा चुकी हैं और तीसरी – सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता – का मसौदा पिछले मार्च में जारी किया गया। कहने के लिए श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मकसद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।
श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने पहले ही यह कहकर सरकार की नीयत साफ़ कर दी थी, ”श्रम क़ानूनों का मौजूदा स्वरूप विकास में बाधा बन रहा है, इसीलिए सुधारों की आवश्यकता है।” कहने की ज़रूरत नहीं कि विकास का मतलब पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ना ही माना जाता है। मज़दूरों को बेहतर मज़दूरी मिले, उनकी नौकरी सुरक्षित हो, उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा और परिवार को सुकून की ज़िन्दगी मिले, इसे विकास का पैमाना नहीं माना जाता। इसलिए, विकास के लिए ज़रूरी है कि थैलीशाहों को अपनी शर्तों पर कारोबार शुरू करने, बन्द करने, लोगों को काम पर रखने, निकालने, मनचाही मज़दूरी तय करने आदि की पूरी छूट दी जाये और मज़दूरों को यूनियन बनाने, एकजुट होने जैसी ”विकास-विरोधी” कार्रवाइयों से दूर रखा जाये।
पिछले मार्च में, श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय ने श्रम क़ानूनों को सरल बनाने के नाम पर की जा रही कवायद के तहत लेबर कोड की तीसरी श्रृंखला जारी की। इस मसौदा संहिता में मज़दूरों-कर्मचारियों को सामाजिक और रोज़गार सुरक्षा प्रदान करने से संबंधित 15 केंद्रीय श्रम क़ानूनों के प्रावधानों को एक में मिला दिया गया है। ये क़ानून हैं: कर्मचारी राज्य बीमा क़ानून, कर्मचारी फंड एवं विविध प्रावधान क़ानून, कर्मचारी मुआवज़ा क़ानून, मातृत्व लाभ क़ानून, ग्रेच्युटी भुगतान क़ानून, असंगठित मज़दूर सामाजिक सुरक्षा क़ानून, भवन एवं अन्य निर्माण श्रमिक कल्याण उपकर (सेस) क़ानून, बीड़ी श्रमिक कल्याण उपकर (सेस) क़ानून, बीड़ी श्रमिक कल्याण कोष क़ानून, लौह अयस्क खदान, मैंगनीज़ अयस्क खदान और क्रोम अयस्क खदान कल्याण उपकर क़ानून, माइका खदान श्रमिक कल्याण उपकर क़ानून तथा श्रमिक कल्याण कोष क़ानून, लाइमस्‍टोन और डोलोमाइट खदान श्रमिक कल्याण कोष क़ानून, चलचित्र श्रमिक कल्याण उपकर क़ानून और चलचित्र श्रमिक कल्याण कोष क़ानून।
संहिता औपचारिक क्षेत्र के साथ ही अनौपचारिक क्षेत्र पर भी लागू होती है और इसमें कैज़ुअल, पीस रेट, फ‍िक्स्ड टर्म वर्कर, घर से काम करने वाले और घरेलू मज़दूर भी शामिल किये गये हैं। इसमें सरकार की ओर से पेंशन, प्रॉविडेंट फंड, मातृत्व लाभ, बीमारी, विकलांगता आदि लाभ सहित तमाम तरह की नयी योजनाएँ बनाने की बात की गयी है। इनका लाभ लेने के लिए मज़दूरों को अपने राज्य के सामाजिक सुरक्षा बोर्ड में पंजीकरण कराना होगा जिसके लिए आधार कार्ड आवश्यक होगा। हर पंजीकृत मज़दूर का एक सामाजिक सुरक्षा खाता दिया जाएगा जिसे विश्वकर्मा कार्मिक सुरक्षा खाता (विकास) नाम दिया गया है।
इन प्रावधानों के अमल के लिए कई नयी संस्थाएँ बनाने की बात की गयी है। इनमें प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा परिषद, केंद्रीय साामजिक सुरक्षा बोर्ड और राज्य सामाजिक सुरक्षा बोर्ड शामिल हैं। इनके अलावा मज़दूरों के पंजीकरण, अंशदान प्राप्त करने, कोषों और लाभों के भुगतान के प्रबंधन के लिए लाइसेंसधारी बिचौलिया एजेंसियों को शामिल किया जाएगा। कर्मचारी प्रॉविडेंट फंड स्कीम, कर्मचारी पेंशन योजना, कर्मचारी जमा आधारित बीमा योजना तथा कर्मचारी राज्य बीमा क़ानून के तहत विभिन्न योजनाओं को खत्म कर दिया जायेगा। विभिन्न राज्यों में असंगठित मज़दूरों के लिए बनी कल्याण योजनाओं और कल्याण कोषों को भी खत्म कर दिया जायेगा। यह भी स्पष्ट नहीं है कि मौजूदा योजनाओं में जिन श्रमिकों-कर्मचारियों को लाभ मिल रहा है, उन्हें नई योजनाओं में वही लाभ मिलते रहेंगे या नहीं।
दावा किया जा रहा है कि इस नये क़ानून से देश के सभी मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा मिलेगी, लेकिन इसमें झोल ही झोल हैं। पंजीकरण सिर्फ उन्‍हीं इकाइयों का होगा जिनमें केंद्रीय सरकार द्वारा अधिसूचित सीमा के बराबर या उससे ज्‍़यादा मज़दूर काम करते हों। फिलहाल, बिजली इस्तेमाल करने वाले जिन उद्योगों में 10 मज़दूर काम करते हैं, या बिना बिजली वाले जिन उद्योगों में 20 मज़दूर काम करते हैं वे कारखाना क़ानून के दायरे में आते हैं। मोदी सरकार काफी समय से इस सीमा को दोगुना, यानी बिजली वाले उद्योगों में 20 मज़दूर और बिना बिजली वाले उद्योगों में 40 मज़दूर करने की कोशिश में है। अगर ऐसा हुआ तो एक झटके में देश के हज़ारों कारखाने और वर्कशॉप कारखाना क़ानून के दायरे से बाहर हो जायेंगे। उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के आँकड़े बताते हैं कि 2011-12 में कुल 1.75 लाख फैक्ट्रियों में से करीब एक लाख फैक्ट्रियों में 30 से कम मज़दूर काम करते थे। सभी कारखानों के 36 प्रतिशत में 14 से कम मज़दूर थे। वैसे यह आँकड़ा असलियत से बहुत पीछे है क्योंकि बहुत बड़ी संख्या में कारखाने कहीं पंजीकृत ही नहीं हैं या उनके आँकड़े सरकार के पास हैं ही नहीं। अगर सरकार अपने इरादे में कामयाब हो गयी तो 70 प्रतिशत से ज़्यादा फैक्ट्रियाँ कारखाना क़ानूनों के दायरे से बाहर हो जायेंगी और मज़दूर अपनी कार्यदशाओं, अधिकारों और सुरक्षा के मामले में पूरी तरह मालिकों के रहमो-करम पर हो जायेंगे। उनके पास कानूनी सुरक्षा पाने का कोई रास्ता नहीं होगा। इसके अलावा, सरकार कुछ अन्य श्रेणियों के कामगारों को संहिता के दायरे से बाहर रखने की छूट नियोक्ताओं को दे सकती है। किसी प्रतिष्ठान के आदेश के तहत अप्रेंटिस माने गये कामगारों को भी इसमें शामिल नहीं किया जायेगा। सभी जानते हैं कि कम्पनियाँ बड़े पैमाने पर अप्रेंटिस कामगारों से अपने नियमित काम कराती हैं और कई-कई साल तक उन्हें अप्रेंटिस ही रखा जाता है।
सामाजिक सुरक्षा के लाभ प्राप्त करने के लिए मज़दूरों को जो अंशदान देना होगा वह संगठित और अनौपचारिक क्षेत्र के लिए बराबर रखा गया है। असंगठित कामगारों को भी अपनी मासिक मज़दूरी का 12.5 प्रतिशत देना होगा और स्व-रोज़गार करने वाले कामगारों को 20 प्रतिशत देना होगा। दूसरी ओर, इस बारे में कोई स्पष्‍टता नहीं है कि नये क़ानून के तहत बनने वाले विभिन्न कल्याण कोषों में सरकार कोई अंशदान करेगी या नहीं। इतना ही नहीं, क़ानून के तहत केंद्र सरकार किसी भी नियोक्ता या नियोक्ताओं के वर्ग को सेस की वसूली से छूट दे सकती है। ऐसी छूटें पिछली तारीख से भी दी जा सकती हैं!
अधिकांश काम ठेका और विभिन्न श्रेणी के मजदूरों से करवाने वाले न केवल छोटे-मझोले, बल्कि बड़े कारखाने भी इन दिनों श्रम क़ानूनों का या तो एकदम पालन नहीं करते या बस नाममात्र को करते हैं। श्रम कार्यालय या श्रम इंस्पेक्टरों की भूमिका इन दिनों दलाल से अधिक कुछ भी नहीं रह गयी है। अब इस स्थिति को कानूनी जामा पहनाकर मालिकों को एकदम खुला हाथ दिया जा रहा है।
सबसे बड़ा सच तो यह है कि छोटे-छोटे प्लांटों से लेकर घरेलू वर्कशॉपों तक ठेका, उपठेका और पीसरेट पर उत्पादन के काम को इसतरह बाँट दिया गया है कि उनमें काम करने वाले अधिकांश मजदूरों का कोई रिकार्ड नहीं रखा जाता। ठेका, कैजुअल या अप्रेण्टिस मज़दूर को मिलने वाले कानूनी हक भी उन्हेंे हासिल नहीं होते। व्यवहारत: वे दिहाड़ी मज़दूर होते हैं जो सरकार और श्रमविभाग के लिए अदृश्य होते हैं। नये श्रम सुधारों द्वारा श्रम विभागों को एकदम निष्प्रभावी बनाकर इस किस्म के अनौपचारिकीकरण को अब ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि विदेशी कम्पनियाँ और देश के छोटे बड़े सभी पूँजीपति खुले हाथों से और मनमाने ढंग से अतिलाभ निचोड़ सके।
एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि मसौदा संहिता के कई प्रावधान प्रॉविडेंट फंड ही नहीं बल्कि गेच्युटी और विभिन्न कल्याण कोषों के लिए इकट्ठा की गयी राशि‍यों को भी शेयर बाज़ार में निवेश करने की ओर इशारा करते हैं। संहिता में ऐसे निवेशों पर किसी सीमा की बात नहीं की गयी है। यानी, सट्टा बाज़ार बैठ जाने या किसी बड़े घपले-घोटाले की चपेट में आने से करोड़ों कामगारों की सामाजिक सुरक्षा के लिए जमा धन एक झटके में डूब सकता है। मज़दूर संगठनों के तमाम विरोध के बावजूद सरकार ने यह निर्णय पहले ही ले लिया है कि वह मजदूरों के पी.एफ. संचय का 5 से लेकर 15 प्रतिशत तक ‘सट्टा आधारित शेयर बाज़ार’ में निवेश करेगी। निवेश की जाने वाली इस रकम को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने के लिए मजदूरों के पगार से पी.एफ. कटौती की रकम बढ़ाने और इस दायरे में ज्यादा से ज्यादा मजदूरों को लाने का निर्णय लिया गया है। इसके लिए कारखानेदारों के अतिरिक्त वित्त बाजार के मगरमच्छ भी लम्बे समय से सरकार पर दबाव बनाये हुए थे। सरकार का यह निर्णय, देश में मजदूरों की अतिसीमित संख्या के लिए जो भी मरियल-विकलांग सामाजिक सुरक्षा स्कीम थी, उसके ताबूत में कील ठोकने की शुरुआत है। ई.पी.एफ. के बदले में ‘नेशनल पेंशन स्कीम’ का जो विकल्प दिया जा रहा है, वह मात्र एक सामान्य बचत स्कीम है। ई.पी.एफ. से सब्सक्राइबर के परिवार को लाभ मिलते थे, वह एन.पी.एस. से नहीं मिलेगा। तुर्रा यह कि कुछ और संशोधनों के जरिए, छोटे कारखानों की मदद करने के नाम पर सरकार अब यह प्रावधान करने जा रही है कि 10 से 40 मजदूरों वाले कारखानों के मजदूरों को ई.पी.एफ. से पहले के मुकाबले अब कम लाभ मिला करेगा। 75 प्रतिशत औद्योगिक मज़दूर ऐसे ही कारखानों में काम करते हैं।
अभी तक सभी को मातृत्व लाभ मिलते थे अब इसमें कई तरह की शर्तें लगा दी गयी हैं। दूसरे बच्चे के बाद अब मातृत्व लाभ नहीं मिलेंगे। एक और शर्त यह लगा दी गयी है कि प्रसव से पहले के 12 महीनों में कम से कम 80 दिनों तक किसी प्रतिष्ठान में काम कर चुकी स्त्री को ही ये लाभ मिलेंगे। ज़ाहि‍र है कि स्त्रियों की एक बड़ी आबादी इससे वंचित हो जायेगी जिसके पास हमेशा नियमित रोज़गार नहीं होता।
मज़दूरी पर हमला
सबसे बड़ा बदलाव मज़दूरी से सम्बन्धित क़ानूनों में होने वाला है। प्रस्तावित ‘मज़दूरी पर श्रम संहिता’ चार मौजूदा क़ानूनों की जगह लेगी – न्यूनतम मज़दूरी क़ानून 1948, मज़दूरी भुगतान क़ानून 1936, बोनस भुगतान क़ानून 1965 और समान वेतन क़ानून 1976। एक ही विषय से जुड़े कई क़ानूनों की जगह पर एक नया क़ानून बनाने के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि इससे अलग-अलग क़ानूनों में मौजूद आपसी अन्तरविरोध दूर होंगे। लेकिन इस आड़ में बहुत सी बातों पर पर्दा डाला जा रहा है। न्यूनतम मज़दूरी क़ानून 1948 के तहत केन्द्र और राज्य सरकारें, दोनों ही अलग-अलग क्षेत्रों में न्यूनतम मज़दूरी तय कर सकती हैं। 45 क्षेत्र केन्द्र के दायरे में आते में हैं और 1679 क्षेत्र राज्यों के अधिकार-क्षेत्र में हैं। लेकिन ‘मज़दूरी पर श्रम संहिता’ विधेयक में न्यूनतम मज़दूरी तय करने का अधिकार सिर्फ राज्य सरकारों को देने की बात है। इसमें सभी के लिए बाध्यकारी राष्ट्रीय तल स्तरीय न्यूनतम मज़दूरी तय करने को लेकर पिछले कई वर्षों से जारी चर्चाओं को गोल ही कर दिया गया है। बाध्यकारी राष्ट्रीय तल स्तरीय न्यूनतम मज़दूरी का प्रावधान विकसित औद्योगिक देशों में भी लम्बे समय से मौजूद है। कोई भी राज्य सरकार इस बुनियादी मज़दूरी से ऊपर मज़दूरी तय कर सकती है लेकिन इससे नीचे नहीं। इसके न रहने से राज्य सरकारें मनमानी मज़दूरी तय करने के लिए आज़ाद होंगी और अपने-अपने राज्य में निवेश के लिए उद्योगपतियों को आमंत्रित करने के लिए मज़दूरी कम करने की होड़ में मज़दूरों की बलि चढ़ा देंगी। अर्जुन सेनगुप्त की अध्यक्षता में बने असंगठित क्षेत्र में उद्यमों के लिए राष्ट्रीय आयोग के सदस्‍य रहे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डा. रवि श्रीवास्तव का कहना है कि अधिकतर राज्यों में वेतन बोर्ड खस्ताहाल हैं और उनमें वर्षों से अनेक पद खाली पड़े हैं। ऐसे में मज़दूरी तय करने का ज़िम्मा राज्य सरकारोंको दे देने से भला किसे फ़ायदा होगा।”
श्रम क़ानूनों के उल्लंघन पर निगरानी से छूट
नये क़ानून को लागू करने के बारे में भी बहुत झोल है। इंस्पेक्टर राज खत्म करने और ”कारोबार करने को आसान बनाने” के नाम पर मालिकान को सारे नियम-क़ानूनों को तोड़ने-मरोड़ने की छूट तो पिछले कई वर्ष से दी जा रही है और मोदी सरकार के आने के बाद जारी दिशानिर्देशों में इसे और भी ढीला कर दिया गया था। अब नये क़ानून में एक कदम और आगे जाकर कहा गया है कि ”इंस्पेक्शन की व्यवस्था के लिए तय किये गये मानदंड लेबर कमिश्नर द्वारा समय-समय पर बदले जा सकते हैं।”
‘इंस्पेक्टर राज’ के ख़ात्मे की माँग मालिकान की ओर से लम्बे समय से उठाई जा रही है, लेकिन पहली बार लेबर इंस्पेक्टर को ही ख़त्म करने का काम मोदी सरकार करने जा रही है। ‘मज़दूरी पर श्रम संहिता’ में लेबर इंस्पेक्टर की जगह पर ‘फैसिलिटेटर’ यानी ‘कार्य सुगम बनाने वाला’ की नियुक्ति की बात कही गयी है। उनका काम होगा ”नियोक्ताओं और मज़दूरों को इस संहिता के प्रावधानों के अनुपालन के सबसे प्रभावी तरीकों के बारे में जानकारी प्रदान करना।” मज़दूरी का भुगतान क़ानून के तहत क़ानून का पालन नहीं करने और जाँच में सहयोग नहीं करने पर मालिक पर जुर्माना लगाने का प्रावधान है। लेकिन ‘मज़दूरी पर श्रम संहिता’ में कहा गया है कि मालिक के ख़ि‍लाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने से पहले फैसिलिटेटर उसे लिखित निर्देश देकर क़ानून को लागू करने का एक मौक़ा देगा। अगर निर्धारित समय के भीतर मालिक ने उसे दुरुस्त कर लिया तो फिर कोई कार्रवाई नहीं की जायेगी।
किसी भी कारखाना इलाक़े में थोड़ा समय बिताने वाला हर व्यक्ति जानता है कि श्रम विभाग मज़दूरों की सुरक्षा के लिए क्या करता है। लेबर इंस्पेक्टर मालिकों की जेब में होते हैं और श्रम क़ानूनों का नंगई से उल्लंघन होता है। फिर भी इस बात की संभावना रहती है कि मज़दूर एकजुट हों तो ऐसे उल्लंघनों पर कार्रवाई के लिए श्रम विभाग पर दबाव डाल सकते हैं। अब मालिकान को इस संभावना से भी मुक्त कर दिया गया है। कुछ साल पहले की एक रिपोर्ट के अनुसार श्रम विभाग में मौजूद कर्मचारियों को देखते हुए हालत यह है कि अगर वे रोज़ एक कारखाने का निरीक्षण करें तो भी उस कारखाने के अगले निरीक्षण का मौका पाँच साल बाद ही आयेगा। ऐसे में श्रम विभाग को और मज़बूत करने के बजाय उसके अधिकारों में कटौती के पीछे की मंशा कोई भी समझ सकता है।
ट्रेड यूनियन अधिकारों में और कटौती
नये क़ानून का सबसे प्रतिक्रियावादी पहलू है ट्रेड यूनियनों की भूमिका को खत्म करने की कोशि‍श करना। लम्बे संघर्ष से मज़दूरों ने अपनी माँगों को लेकर त्रिपक्षीय वार्ताओं का अधिकार हासिल किया था, यानी सरकार, प्रबंधन और मज़दूरों के प्रतिनिधि के रूप में ट्रेड यूनियन। अब सरकार ने राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा परिषद और केंद्रीय तथा राज्यों के सामाजिक सुरक्षा बोर्ड के रूप में सामाजिक सुरक्षा संगठनों का जो विचार पेश किया है उसमें ट्रेड यूनियनों के लिए कहीं कोई जगह नहीं है। राष्ट्रीय परिषद के पास व्यापक प्रशासकीय, नियामक और वित्तीय शक्तियाँ होंगी और वह पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में होगी।
प्रस्तावित क़ानून में मज़दूरी का भुगतान क़ानून के इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है जिसके तहत ट्रेड यूनियनें नियोक्ताओं के ऑडिट किये हुए खाते और बैलेंस शीट को देख सकती थीं। इससे वे वार्ताओं के दौरान मालिकों के ऐसे झूठे दावों को खारिज कर सकते थे कि कम्पनी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण मज़दूरों की माँगें नहीं मानी जा सकतीं। ट्रेड यूनियन बनाने के मज़दूरों के अधिकारों में अन्य कटौतियाँ पहले से जारी हैं।
मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना और भी मुश्किल कर दिया गया है। मूल क़ानून के अनुसार किसी भी कारखाने या कम्पनी में 7 मज़दूर मिलकर अपनी यूनियन बना सकते थे। फि‍र इसे बढ़ाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया। यानी किसी फै़क्टरी में काम करने वाले मज़दूरों का कोई ग्रुप अगर कुल मज़दूरों में से 15 प्रतिशत को अपने साथ ले ले तो वह यूनियन पंजीकृत करवा सकता है। मगर अब इसे बढ़ाकर 30 प्रतिशत किया जाना है। मतलब साफ़ है कि अगर फै़क्टरी मालिक ने अपनी फै़क्टरी में दो-तीन दलाल यूनियनें पाल रखी हैं तो एक नयी यूनियन बनाना बहुत कठिन होगा और फै़क्टरी जितनी बड़ी होगी, यूनियन बनाना उतना ही मुश्किल होगा। ठेका क़ानून भी अब 20 या इससे ज़्यादा मज़दूरों वाली फै़क्टरी पर लागू होने की जगह 50 या इससे ज़्यादा मज़दूरों वाली फै़क्टरी पर लागू होगा। यानी जिस फै़क्टरी में 50 से कम मज़दूर काम करते होंगे उस पर ठेका क़ानून लागू ही नहीं होगा। इसका अंजाम क्या होगा इसे आसानी से समझा जा सकता है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि पूँजीपतियों की तमाम संस्थाएँ और भाड़े के बुर्जुआ अर्थशास्त्री उछल-उछलकर सरकार के इन प्रस्तावित बदलावों का स्वागत कर रहे हैं और कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में जोश भरने और रोज़गार पैदा करने का यही रास्ता है। कहा जा रहा है कि आज़ादी के तुरन्त बाद बनाये गये श्रम क़ानून विकास के रास्ते में बाधा हैं इसलिए इन्हें कचरे की पेटी में फेंक देना चाहिए और श्रम बाज़ारों को ”मुक्त” कर देना चाहिए। विश्व बैंक ने भी 2014 की एक रिपोर्ट में कह दिया था कि भारत में दुनिया के सबसे कठोर श्रम क़ानून हैं जिनके कारण यहाँ पर उद्योग व्यापार की तरक्की नहीं हो पा रही है। पूँजीपतियों के नेता बड़ी उम्मीद से कह रहे हैं कि निजी उद्यम को बढ़ावा देने और सरकार का हस्तक्षेप कम से कम करने के हिमायती नरेन्द्र मोदी भारत में ”सुधारों” को तेज़ी से आगे बढ़ायेंगे। इनका कहना है कि उन क़ानूनों में बदलाव लाना सबसे ज़रूरी है जिनके कारण मज़दूरों की छुट्टी करना कठिन होता है।
मोदी द्वारा ‘मेक इन इण्डिया’ को रफ़्तार देने के लिए प्रस्तावित श्रम सुधारों की यह वास्तव में महज शुरुआत भर है। यह तो महज़ ट्रेलर है, पूरी पिक्चर जल्दी ही सामने आ जायेगी। बुर्जुआ और संसदमार्गी वामपंथी दलों से जुड़ी यूनियनें मजदूरों के अतिसीमित आर्थिक हितों की हिफ़ाज़त के लिए भी सड़क पर उतरने की हिम्मत और ताक़त दुअन्नी-चवन्नी की सौदेबाजी करते-करते खो चुकी है। वैसे भी देश की कुल मज़दूर आबादी में 90 फीसदी से अधिक जो असंगठित मज़दूर हैं, उनमें इनकी मौजूदगी बस दिखावे भर की ही है। अब सफेद कॉलर वाले मजदूरों, कुलीन मजदूरों और सर्विस सेक्टर के मध्यवर्गीय कर्मचारियों के बीच ही इन यूनियनों का वास्तविक आधार बचा हुआ है और सच्चाई यह है कि ‍नवउदारवाद की मार जब समाज के इस संस्तर पर भी पड़ रही है तो ये यूनियनें इनकी माँगों को लेकर भी प्रभावी विरोध दर्ज करा पाने में अक्षम होती जा रही है। बहरहाल, रास्ता अब एक ही बचा है। गाँवों और शहरों की व्यापक मेहनतकश आबादी को सघन राजनीतिक कार्रवाइयों के जरिए, जीने के अधिकार सहित सभी जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से, उनके विशिष्ट पेशों की चौहद्दियों का अतिक्रमण करके, इलाकाई पैमाने पर संगठित करना होगा। दूसरे, अलग-अलग सेक्टरों की ऐसी पेशागत यूनियनें संगठित करनी होगी, जिसके अन्तर्गत ठेका मज़दूर और सभी श्रेणी के अनियमित मज़दूर मुख्य ताकत के तौर पर शामिल हों। पुराने ट्रेड यूनियन आन्दोलन के क्रान्तिकारी नवोन्मेष की सम्भावनाएँ अब अत्यधिक क्षीण हो चुकी हैं। अब एक नयी क्रान्तिकारी शुरुआत पर ही सारी आशाएँ टिकी हैं, चाहें इसका रास्ता जितना भी लम्बा और कठिन क्यों न हो।
नवउदारवाद के दौर ने स्वयं ऐसी वस्तुगत स्थितियाँ पैदा कर दी हैं कि मज़दूर वर्ग यदि अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए नहीं लड़ेगा तो सीमित आर्थिक माँगों को भी लेकर नहीं लड़ पायेगा। मज़दूर क्रान्तियों की पराजय के बाद मज़दूर आबादी के अराजनीतिकीकरण की जो प्रवृति हावी हुई है, उसका प्रतिरोध करते हुए ऐसे हालात बनाने के लिए अब माकूल और मुफीद माहौल तैयार हुआ है कि मज़दूर वर्ग एक बार फिर नये सिरे से क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना के नये युग में प्रवेश करे। जाहिर है, यह अपने आप नहीं होगा। इसके लिए सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान और आज के नये हालात (यानी नवउदारवाद के दौर में पूँजीवाद की नयी कार्यप्रणाली) का गहन अध्ययन और जाँच-पड़ताल करके सर्वहारा क्रान्तिकारियों के नये दस्तों को मैदान में उतरना होगा। आगे का रास्ता निश्चय ही लम्बा और कठिन है, लेकिन विश्व पूँजीवाद का मौजूदा असमाधेय ढाँचागत संकट बता रहा है कि पूँजी और श्रम के बीच संघर्ष का अगला चक्र श्रम की शक्तियों की निर्णायक विजय की परिणति तक पहुँचेगा। ऐसी स्थिति में लम्बा और कठिन रास्ता होना लाजिमी है, लेकिन हजार मील लम्बे सफर ‍की शुरुआत भी तो एक छोटे से कदम से ही होती है।
पूँजीपतियों की लगातार कम होती मुनाफे़ की दर और ऊपर से आर्थिक संकट तथा मज़दूर वर्ग में बढ़ रहे बग़ावती सुर से निपटने के लिए पूँजीपतियों के पास आखि़री हथियार फासीवाद होता है। भारत के पूँजीपति वर्ग ने भी नरेन्द्र मोदी को सत्ता में पहुँचाकर अपने इसी हथियार को आज़माया है। फासीवादी सत्ता में आते तो मोटे तौर पर मध्यवर्ग (तथा कुछ हद तक मज़दूर वर्ग भी) के वोट के बूते पर हैं, लेकिन सत्ता में आते ही वह अपने मालिक बड़े पूँजीपतियों की सेवा में सरेआम जुट जाते हैं। बात श्रम क़ानूनों को कमजोर करने तक ही नहीं रुकेगी, क्योंकि फासीवाद बड़ी पूँजी के रास्ते से हर तरह की रुकावट दूर करने पर आमादा होता है और यह सब वह ”राष्ट्रीय हितों” के नाम पर करता है। फासीवादी राजनीति पूँजीपतियों के लिए काम करने और उनका मुनाफ़ा बढ़ाने को इस तरह पेश करती है कि यही देश के लिए काम करना, देश को ”महान” बनाने के लिए काम करना है। इसके लिए सभी को बिना कोई सवाल-जवाब किये, बिना कोई हक़-अधिकार माँगे काम करना पड़ेगा। लोग अपनी तबाही-बर्बादी के बारे में सोचें नहीं, इसके विरोध में एकजुट होकर लड़ें नहीं, इसी मकसद से तरह-तरह के भावनात्मक मुद्दे भड़काये जाते हैं और धार्मिक बँटवारे किये जाते हैं। देश के मेहनतकशों को अपने अधिकारों पर इस खुली डकैती के ख़ि‍लाफ़ लड़ना है या आपस में एक-दूसरे का सिर फुटौवल करना है, यह फ़ैसला उन्हें अब करना ही होगा।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2017


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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