मज़दूरों को स्वर्ग का झाँसा देकर नर्ककुंड में डाला जाता है

रामाधार (कुं‍डली, सोनीपत)

अनिल स्टील प्लांट कुण्‍डली (सोनीपत, हरियाणा) में हैं। इस कम्पनी में टावर का सामान बनता है। यहां ठेकेदारी पर काम होता है। इसमें काम करने वाले अधिकतर मज़दूर उ. प्र. बिहार और उड़ीसा के हैं। इन सब मजदूरों को ठेकेदार फुसलाकर लाते हैं कि कम्पनी में सारी सुविधा है। दो महीने के बाद फंड कटना शुरू हो जायेगा, ई.एस.आई. कार्ड बन जायेगा। एक साल में एक बार बोनस भी मिलेगा, आठ घंटे काम करने का 5500 रु. मिलेगा और ओवर टाइम का डबल मिलेगा। 24 घंटे का काम होता है। छोटे-छोटे पुर्जें बनते हैं जितनी मर्जी हो उतना ही काम करो। रहने के लिए जगह भी मिलेगी और नाइट लगाने पर अलग से 50 रु. मिलेगा खाना खाने के लिए। इन बातों की जलेबी में गांव के वे गरीब फंस जाते हैं जिन्हें शहर की फैक्ट्रियों के बारे में उतना पता नहीं होता। ये भोले-भाले मज़दूर इन सब बातों से अपने लिए स्वर्ग की कल्‍पना करने लगते हैं पर इ‍न्हें यह कहां पता होता है कि जिस स्वर्ग की तलाश में वे जा रहे हैं वह स्वर्ग नहीं नर्ककुंड है। ठेकेदार उनको वहां से लाने के लिए अपना किराया भी लगा देते हैं। पर ‍यहां आने के साथ ही उनके स्वर्ग की कल्पना टूटने लगती है और नर्ककुंड की असलियत नजर आने लगती है। यहां उन्हें रहने के लिए जो कमरा मिलता है उसमें 15 से 20 मजदूरों को रहना पडता है। फैक्ट्री में काम पर जाते ही उन्हें पता चलता है कि वे छोटे-छोटे पुर्जे 50 किलो से लकर 450 किलो तक के हैं। यहां जियाई का काम होता है। लोहे को तेजाब के टैंक में डालने पर जो बदबूदार तीखी दुर्गंध निकलती है वह दम घोंटने वाली होती है। इससे सुरक्षा का कोई सामान नहीं दिया जाता। तेजाब के टैंक में सफाई करने के बाद इन पर सिल्वर का कलर किया जाता है। प्रदूषण का शिकार होने के कारण टी.बी. दमे जैसी बीमारियों के शिकार होने लगते हैं। बहुत-से मज़दूर तो कमरतोड़ मेहनत से राहत के लिए गांजा, शराब, भांग इत्यादि का सेवन करने लगते हैं। मजबूरी में मजदूरों को काम करना ही पड़ता है क्योंकि उनके पास वापस जाने के लिए किराया तक नहीं होता। और ठेकेदार उनका पैसा इस हफ्ते देंगे उस हफ्ते देंगे कहकर टरकाता रहता है। जब कोई एक-दो महीने काम करने के बाद बहुत जिद करता है तो 4000-4200 रु. के हिसाब से उसका हिसाब बना देते हैं। ओवरटाइम डबल का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। सिंगल रेट पर बना ओवरटाइम का पैसा लटका देते हैं। फिर दुकान से सामान, कमरा इन सबका हिसाब करने के बाद 1500 या 2000 रु. पकड़ा देते हैं। 10 या 12 दिन का पैसा रोक लेते हैं कि जब गांव से आओगे तब मिलेगा। जब मज़दूर यह कहते हैं कि पूरा हिसाब दो अब उन्हें नहीं आना है तो या तो फिर हिसाब देने से मना कर देते हैं या दो महीने बाद ले लेना यह कहते हैं। सहज ही समझा जा सकता है कि कि दो महीने बाद कोई गांव से आयेगा तो बचे पैसे के बराबर तो किराया ही खर्च हो जायेगा। फरवरी में आनंद नाम के एक मज़दूर के पैर में चोट लग गयी तो एक बार दवाई दिला दी और 500 रु. देकर कहा गांव चले जाओ। और हिसाब नहीं दिया। इस तरह गांव से लाये गये मजदूरों से गुलामों की तरह काम लिया जाता है। वे आते तो हैं तमाम तरह के सपने लेकर लेकिन यहां मिलता है कमरतोड़ मेहनत, नशा और बीमारी। और अक्सर कम उम्र के लड़कों को ही वे पकड़ते हैं। कुल लोग इतनी यातनाओं को झेलते हुए यह कहते थे कि सब कर्मों का फल है या ऊपर वाले की मर्जी है पर अब इन बातों में मेरा कोई विश्वास नहीं रहा क्योंकि हम अब अपनी आंखों से देख रहे हैं कि हमारा कर्म और फल सब बनाने के मालिक, ठेकेदार, सुपरवाइजर हैं जो हमारी मेहनत चूसकर इसी धरती पर अपने लिए स्वर्ग तथा हमारे लिए नर्क बनाते हैं।

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2017


 

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