चिता पे जिनके पांव नहीं जलते…
नमक मजदूरों की दिल दहलाने वाली दास्तान

नवकाश दीप

विश्व के दूसरे मजदूरों की ही भांति भारत में भी नमक के खेतों में काम करने वाले मजदूर बदहाली का जीवन जी रहे हैं। सरकार के मुताबिक करीब एक लाख मजदूर नमक उद्योग में लगे हुए हैं लेकिन वास्तव में इनकी गिनती तीन लाख से भी ज्यादा है। इनमें भी सबसे बड़ी संख्या गुजरात के नमक मजदूरों की है। यहां के नमक के खेत 10 एकड़ से लेकर 500 एकड़ तक के होते हैं जो ज्यादातर बड़ी कम्पनियों और बड़े ठेकेदारों के अधीन हैं। ये मजदूरों की लूट करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। बेहद कठिन परिस्थितियों में नमक मजदूरों को दिन में बारह घंटे, हफ्ते में सात दिन और साल में आठ महीने काम करना पड़ता है। इसके बदले मजदूरों को सिर्फ 20–70 रु. दिहाड़ी मिलती है। हाड़तोड़ करके इंसानों के लिए बेहद जरूरी नमक पैदा करने वाले ये मजदूर इन काम के आठ महीनों में मुश्किल से दो वक्त की रोटी कमा पाते हैं। पर वर्ष के बाकी चार महीने बेरोजगारी की मार झेलते इन मजदूरों को यह भी नसीब नहीं होता। ये मजदूर ज्यादातर गांव छोड़कर अपने परिवार सहित काम करने के लिए आते हैं। झुग्गी–झोपड़ी में रहते हैं। बिजली नहीं, साफ पानी नहीं, बच्चों के लिए स्कूल नहीं, स्वास्थ्य सुविधा नहीं अर्थात इंसान होकर भी इंसान जैसी जिन्दगी नहीं, मूल्य पैदा करने वालों का कोई मूल्य नहीं।

नमक के खेतों में काम करने वाले मजदूरों को अपना खाना बनाकर भोर में ही लगभग 4–5 बजे तक खेतों में पहुंचना होता है। इसके लिए उन्हें भोर में तीन बजे ही उठ जाना पड़ता है। मजदूर इन खेतों में दोपहर के 11-12 बजे तक काम करते हैं और शाम को पांच बजे के बाद फिर काम पर लग जाते हैं। दोपहर को आग उगलते सूरज के नीचे इन खेतों में काम करना नामुमकिन हो जाता है। सूरज की तेज किरणें नमक के खेतों की जमीन से टकराकर और भी तेज हो जाती हैं और आंखों को अंधी करती हैं। इसके बावजूद नमक मजदूरों के लिए इस तेज रोशनी से बचने वाले चश्मों का कोई प्रबंध नहीं, जिस कारण इन मजदूरों की आंखें कई प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त होती हैं। खारे पानी में खेती करना एवं नमक के टोकरे सिर पर उठाकर 50–50 फुट की दूरी तक लेकर जाना बेहद खतरनाक काम है क्योंकि जिस्म पर गिरी पानी की एक बूंद भी शरीर की चमड़ी में जलन या छाले पैदा कर देती है। नमक मजदूरों में लगभग 40 प्रतिशत औरतें हैं जो कई प्रकार की बीमारियां जैसे छाले, जलन, सिर दर्द, बाल झड़ना आदि से पीड़ित हैं। मजदूरों को इन बीमारियों से बचाने के लिए कोई प्रबंध नहीं किया जाता।

नमक मजदूर उम्र भर कर्जे में डूबे रहते हैं। अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें ठेकेदारों से कर्ज लेना पड़ता है और फिर उसे चुकाने के लिए परिवार सहित सख्त मेहनत करते हैं। यह हर नमक मजदूर की आम कहानी है। ये लोग जोड़ी के हिसाब से मैनेजर या खेत–मालिक से कर्ज लेते हैं और फिर अगले मौसम में जोड़ी को उसी मालिक के खेत में काम करना पड़ता है। अगर वे कर्ज चुका दें तो जोड़ी किसी दूसरे मालिक के खेत में काम कर सकती है वरना कर्ज चुक जाने तक उसी नमक खेत मालिक से बंधी रहती है। ऐसे मजदूरों को ज्यादातर एक ही स्थान पर एक हफ्ते से ज्यादा काम नहीं करवाया जाता। इससे मालिकों का दोहरा फायदा होता है। एक तो मजदूर संगठित नहीं हो पाते और मालिकों को मजदूरों का, उन्हें दिये गये मेहनताने का रिकार्ड नहीं रखना पड़ता। इस प्रकार पूंजीपति मजदूरों का ज्यादा से ज्यादा शोषण करने में और अपने लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने में सफल रहते हैं।

मजदूरों का शोषण यहीं खत्म नहीं होता। कम्पनियों के एजेण्ट मजदूर सप्लाई करने के पैसे कम्पनियों से तो लेते ही हैं, साथ में मजदूरों से भी कमीशन खाते हैं। काम के मौसम के शुरू में नमक खेतमालिक मजदूरों को केवल 20–20 रुपये दिहाड़ी देते हैं। बड़ी निजी कम्पनियां आसपास के गांवों के मजदूरों को दिहाड़ी पर रखती हैं। ट्रक पर सामान लादने और उतारने वाले मजदूरों को 100 किलो का बड़ा थैला उठाने के लिए सिर्फ 30–50 पैसे प्रति थैला ही दिये जाते हैं। नमक की पैकिंग करने वाले मजदूरों को भी बहुत कम मजदूरी दी जाती है। आधा किलो की हजार थैलियां पैक करने के लिए एक मजदूर को 30 रुपये और एक किलो की 1000 थैलियां पैक करने के लिए एक मजदूर को 40 रुपये मिलते हैं।

मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी इतनी कम होती है कि वे पक्के घर बने का सपना भी नहीं देख सकते। इस कारण वे लोग नमक के खेतों में ही झुग्गी–झोपड़ियां बनाकर रहते हैं। 1998 में आये तूफान की वजह से हजारों अग्रीयों (गुजरात के नमक मजदूर) की मौत हो गयी थी। अग्रीयों की इतनी बड़ी संख्या में हुई मौतों का कारण कुदरत का वजह नहीं बल्कि गरीबी थी, किसी भगवान का कोप नहीं बल्कि मालिकों द्वारा अग्रीयों का शोषण था। इनकी झुग्गी–झोपड़ियां इतनी कमजोर थीं कि तूफान के आगे टिक न सकीं। गरीबी के कारण अग्रीय कभी स्कूल नहीं जा पाते। इनकी अनपढ़ता का फायदा उठाकर मालिक हिसाब–किताब में भी इनको ठगते हैं। छोटी उम्र में ही अग्रीय नमक के खेतों में काम करने लगते हैं। नमक के खेतों में पैदा होने वाले अग्रीयों की मौत भी इन्हीं खेतों में होती है। सारी उम्र नमक के खेतों में काम करने के कारण अग्रीयों के पैर इतने सख्त हो जाते हैं कि एक कहावत प्रचलित है कि चिता पे अग्रीयों के पांव नहीं जलते…और ये पूरे भारत के नमक मजदूरों के लिए सच है।

सरकार भी हर कदम पर पूंजीपतियों का ही साथ देती है, और दे भी क्यों न? सरकार तो खुद पूंजीपति है। राज्य और केन्द्र सरकारें क्रमश: 3 करोड़ रु. स्वत्व शुल्क और 2 करोड़ रु. कर के रूप में लेती हे। 1990 के दशक में गुजरात में पट्टे पर दी गई 16,000 एकड़ जमीन में से 93 प्रतिशत जमीन केवल 16 बड़े मालिकों और बड़ी कम्पनियों को दी गई। अलग मौकों पर सरकार नमक मजदूरों की हालत सुधारने की घोषणाएं करती हं लेकिन मजदूरों की हालत लगातार बदतर होती जा रही है। पूंजीपतियों की सरकार जब तक रहेगी तब तक मजदूरों की हालत कभी नहीं सुधरेगी।

बिगुल, फरवरी 2004


 

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