Category Archives: आन्‍दोलन : समीक्षा-समाहार

ऑटोमोबाइल सेक्टर में एक और आन्दोलन चढ़ा कुत्सित ग़द्दारी और मौक़ापरस्ती की भेंट

आन्दोलन का नेतृत्व इस हार के लिए उतना ज़िम्मेदार नहीं है, जितना कि ये दलाल और मौक़ापरस्त ताक़तें हैं। हीरो संघर्ष का नेतृत्व करने वाली समिति में स्वतन्त्र विवेक से निर्णय लेने और मज़दूरों की सामूहिक ताक़त में यक़ीन करने का बेहद अभाव तो था ही। साथ ही, ‘बड़े भैय्या’ (ये ‘बड़े भैय्या’ कोई भी ट्रेड यूनियन संघ हो सकता था) की पूँछ पकड़कर चलने की प्रवृत्ति और मानसिकता भी मौजूद थी। लेकिन इन तमाम प्रवृत्तियों को प्रश्रय देने का काम ऐसी ही अवसरवादी ताक़तें करती हैं, जैसी कि इस आन्दोलन में मौजूद थीं।

मारुति मज़दूरों के केस का फ़ैसला : पूँजीवादी व्यवस्था की न्याय व्यवस्था का बेपर्द नंगा चेहरा

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह तब है जब हाल ही में अपने जुर्म कबूलने वाले असीमानन्द और अन्य संघी आतंकवादियों को ठोस सबूत होने और असीमानन्द द्वारा जुर्म कबूलने के बाद भी बरी कर दिया जाता है। ये दोनों मुक़दमे बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाते हैं। यह राज्य व्यवस्था और इसलिए यह न्याय व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा जेल में बन्द रखा जाना इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नकाब पूरे तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तंत्र को नुक्सान पहुँचाने का जुर्म करेगा उसे बख़्शा नहीं जायेगा।

होंडा मज़दूरों ने जंतर मंतर पर 52 दिनों तक की भूख हड़ताल! अब राजस्थान में करेंगे फिर से संघर्ष की शुरुआत!

होंडा मजदूरों को इस लड़ाई में जनता के बीच दिल्ली आने पर भारी समर्थन भी मिला। इसमें सबसे कारगर तरीका होंडा प्रोडक्ट बहिष्कार अभियान का रहा है। होंडा के संघर्ष से निकला यह विचार किस तरह एक भौतिक शक्ति बन गया यह यहाँ देखा जा सकता है। व्हाट्सएप्प पर शुरू हुआ यह अभियान होंडा मजदूरों की लड़ाई का सबसे कारगर हथियार बन गया जिसके कारण होंडा कम्पनी को काफी दिक्कत का सामना करना पड़ा है। 26 सितम्बर को दिल्ली में हुए बहिष्कार के बाद होंडा ने कोर्ट में जाकर होंडा मजदूरों को शोरूम के आगे प्रदर्शन न करने की माँग की और 5 अक्टूबर को राष्ट्रीय बहिष्कार के बाद कम्पनी ने नरेश मेहता पर केस कर दिया कि वे सोशल मीडिया पर भी होंडा के ख़ि‍लाफ़ कोई प्रचार न कर सकें।

होंडा मज़दूरों का संघर्ष जारी है!

गुडगाँव, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल, भिवाड़ी तक फैली ऑटोमोबाइल सेक्टर की औद्योगिक पट्टी में मजदूरों के गुस्से का लावा उबल रहा है जो समय समय पर फूट कर ज़मीन फाड़कर बाहर निकलता है. ऐसे गुस्से को हमें एक ऐसी यूनियन में बांधना होगा जो पूरे सेक्टर के तौर पर मजदूरों को संगठित कर सकती हो। हमें होंडा के आन्दोलन को भी पूरे औद्योगिक सेक्टर में फैलाना होगा। इस संघर्ष को हमें जंतर मंतर पर खूंटा बाँधकर चलाना होगा तो दूसरी और हमें टप्पूकड़ा से लेकर गुडगाँव-मानेसर-बावल-भिवाड़ी के मजदूरों में अपने संघर्ष का प्रचार करना चाहिए जिससे कि उन्हें भी इस संघर्ष से जोड़ा जा सके. यह इस आन्दोलन के जीते जाने की सबसे ज़रूरी कड़ी है।

वज़ीरपुर गरम रोला मज़दूरों की लम्बी हड़ताल के 2 साल होने पर

एकता हवा में नहीं बनती। मज़दूर जब एक साथ खड़े होते हैं तो उन्हें एक करने का काम उनकी यूनियन करती है जिसमें मज़दूरों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। मज़दूर अपने बीच से चुनाव करके यूनियन की नेतृत्वकारी समिति का गठन करते हैं जो मज़दूरों के आन्देालन का नेतृत्व करती है। आज दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन ही वज़ीरपुर के मज़दूरों की क्रान्तिकारी यूनियन है जिसका गठन मज़दूरों ने अपने बीच से किया था। इलाक़े में प्रवास के चलते बड़ी संख्या में बाहर से मज़दूर आये हैं और उन्हें भी यूनियन से जोड़कर यूनियन को मज़बूत बनाना होगा।

मोदी सरकार के ख़िलाफ़ बेंगलुरु की स्त्री गारमेंट मज़दूरों ने संभाली कमान

घर, कारखाने से लेकर पूरे समाज में कदम कदम पर पितृसत्ता और बर्बर पूँजीवाद का दंश झेलने वाली महिला मज़दूरों ने इस आन्दोलन की अगुआई की, पुलिसिया दमन का डटकर सामना किया और अपने हक़ की एक छोटी लड़ाई भी जीती। यह छोटी लड़ाई मज़दूर वर्ग के भीतर पल रहे जबर्दस्त गुस्से का संकेत देती है। इस आक्रोश को सही दिशा देकर महज़ कुछ तात्कालिक माँगों से आगे बढ़कर व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में मोड़ने की चुनौती आज के दौर की सबसे बड़ी चुनौती है।

रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के विरोध में देशभर में विरोध प्रदर्शन

असल में विश्वविद्यालय प्रशासन और मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी, श्रम मंत्री बण्डारू दत्तात्रेय ही रोहित की मौत के लिए ज़िम्मेदार हैं। इन्हीं की प्रताड़ना का शिकार होकर एक नौजवान ने फाँसी लगा ली। उसका दोष क्या था? यही कि उसने धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों के खिलाफ़ आवाज उठायी थी। रोहित की मौत की ज़िम्मेदार वे ताकतें हैं जो लोगों के आवाज़ उठाने और सवाल उठाने पर रोक लगाना चाहती हैं और आज़ाद ख़याल रखने वाले लोगों को गुलाम बनाना चाहती हैं।

मारुति मजदूरों के संघर्ष की बरसी पर रस्म अदायगी

अगर आज मज़दूर वर्ग के हिरावल को गुडगाँव-मानेसर-धारुहेरा-बावल तक फैली इस आद्योगिक पट्टी में मज़दूर आन्दोलन की नयी राह टटोलनी है तो पिछले आंदोलनों का समाहार किये बगैर, उनसे सबक सीखे बगैर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। अगर बरसी या सम्मलेन से यह पहलू नदारद हो तो उसकी महत्ता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। अगर ईमानदारी से कुछ सवालों को खड़ा नहीं किया जाय या उनकी तरफ अनदेखी की जाय तो यह किसी भी प्रकार से मज़दूर आन्दोलन की बेहतरी की दिशा में कोई मदद नहीं कर सकता। जहाँ इस घटना के बरसी के अवसर पर आर.एस.एस मार्का नारे लगते हैं, महिला विरोधी प्रसंगों का ज़िक्र किया जाता है वहीँ अभी बीते सम्मलेन से पिछले साढ़े तीन साल के संघर्ष का समाहार गायब रहता है। अपनी गलतियों से सबक सीखने की ज़रुरत पर बात नहीं की जाती है। ‘क्या करें’, ‘आगे का रास्ता क्या हो‘, ये सवाल भी परदे के पीछे रह जाते हैं। हमें लगता है कि आज क्रन्तिकारी मज़दूर आन्दोलन की ज़रूरत है कि दलाल गद्दार ट्रेड यूनियनों को उनकी सही जगह पहुँचाया जाय यानी इतिहास की कूड़ा गाडी में। आम मज़दूर आबादी के बीच उनका जो भी थोड़ा बहुत भ्रम बचा है उसका पर्दाफाश किया जाय। आज भी ये मज़दूरों के स्वतंत्र क्रन्तिकारी पहलकदमी की लुटिया डुबाने का काम बखूबी कर रहे हैं। श्रीराम पिस्टन से लेकर ब्रिजस्टोन के मज़दूरों का संघर्ष इसका उदाहरण हैं।

मारुति के ठेका मजदूरों द्वारा वेतन बढ़ोत्तरी की माँग पर प्रबन्धन से मिली लाठियाँ!

स्थायी मज़दूरों को कभी नहीं भूलना चाहिए कि कंपनियाँ हमेशा स्थायी मज़दूरों की संख्या कम करने की, अस्थायीकरण की ताक़ में रहती हैं, और अपने फायदे के हिसाब से उनका इस्तेमाल करती है। उन्हें जुलाई 2012 में मारुति की घटना को नहीं भूलना चाहिए जिसके बाद कंपनी ने थोक भाव से स्थायी मज़दूरों को काम से निकाला था। उनका वर्ग हित अपने वर्ग भाइयों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने में है। पूरे सेक्टर में लगातार बढ़ते ठेकाकरण, छँटनी, नये स्थायी मज़दूरों की बहाली न होना, ठेका मज़दूरों से ज़्यादा उनके लिए खतरे की घंटी है। यह दिखाता है कि स्थायी मज़दूरों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। पूँजीपतियों के इन “अच्छे दिनों” में जहाँ एक-एक कर मज़दूरों के अधिकारों पर हमले हो रहे हैं वहाँ यह कोई बड़ी बात नही होगी कि एक ही झटके में स्थायी मज़दूरों का पत्ता काटकर कारखानों-उद्योगों में शत प्रतिशत ठेकाकरण कर दिया जाये। इसीलिए मारुति ही नहीं बल्कि पूरे सेक्टर के स्थायी मज़दूरों के लिए ज़रूरी है कि वे अपने संकीर्ण हितों से ऊपर उठकर ठेकेदारी प्रथा के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलन्द करें और एक वर्ग के तौर पर एकजुट होकर संघर्ष करें।

मानेसर की ब्रिजस्टोन कम्पनी के मज़दूरों का संघर्ष ज़ि‍न्दाबाद !

प्रबंधन ने चुन चुन कर बीसियों श्रमिकों को काम से बहार का रास्ता दिखाया। इन सब के विरोध में मज़दूरों ने कोर्ट से परमिशन लेकर 17 सितम्बर को टूल डाउन किया। उस दिन उन्हें पुलिस और गुंडों के दम पर कंपनी से बाहर कर दिया गया। मज़दूरों के एक दिन के टूल डाउन के जवाब में अगले दिन कंपनी ने गैर-कानूनी तालाबंदी कर दी। अगले दिन जब श्रमिक सुबह की शिफ्ट में काम पर आये, तब गेट पर पुलिस और बाउंसरों के साथ खड़े मैनेजमेंट ने उन्हें अंदर जाने से रोका। श्रमिकों से कहा गया की उन्हे आधे घंटे बाद बताया जायेगा की उन्हें काम पर लिया जायेगा या नहीं। जब दुबारा श्रमिक गेट पर पहुंचे तब बाउंसरों ने 4 श्रमिकों को अंदर खिंच लिया। उन्हें धमकी दी गयी की या तो वे काम करें या कोरे कागज़ पर दस्तख़त कर निकल जाए। इसके बाद तक़रीबन 400 श्रमिकों ने वहीं कंपनी गेट से थोड़ी दूरी पर टेंट लगाकर हड़ताल शुरू कर दी। श्रमिकों ने मांग की कि बाहर निकाले गए 20 मज़दूरों समेत सभी को काम पर वापिस लिया जाये और यूनियन बनाने दिया जाये। इसके बाद प्रबंधन पुलिस वालों को भेज कर मज़दूरों पर दबाव बनाने का काम कर रही थी।