Category Archives: आन्‍दोलन : समीक्षा-समाहार

डाइकिन के मज़दूरों का संघर्ष ज़िन्दाबाद!

आज डाइकिन के मज़दूरों के साथ हो रहा है, वही इस सेक्टर में काम करने वाले हर मज़दूर की कहानी है। फै़क्टरी या कम्पनी का नाम बदल जाने से वहाँ काम कर रहे मज़दूरों की समस्याएँ नहीं बदलतीं। जो परेशानियाँ डाइकिन के मज़दूरों की हैं, ठीक वही समस्याएँ अन्य कम्पनियों में काम कर रहे मज़दूरों की है। आज अलग-अलग फै़क्टरियों में मज़दूरों के अधिकारों का हनन बेरोकटोक एक ही तरीक़े से किया जा रहा है। इस शोषण को रोकने का और अपने अधिकार हासिल करने का सिर्फ़ एक ही रास्ता है और वो है सेक्टरगत एकता स्थापित करना। आज डाइकिन मज़दूरों के बहादुर साथियों के संघर्ष के समर्थन में नीमराना के हर मज़दूर को आगे आना होगा।

कपड़ा मज़दूरों की हड़ताल से काँप उठा बांग्लादेश का पूँजीपति वर्ग

वॉलमार्ट, टेस्को, गैप, जेसी पेनी, एच एण्ड एम, इण्डिटेक्स, सी एण्ड ए और एम एण्ड एस जैसे विश्व में बड़े-बड़े ब्राण्डों के जो कपड़े बिकते हैं और जिनके दम पर पूरी फै़शन इण्डस्ट्री चल रही है, उस पूरी सप्लाई श्रृंखला के मुनाफ़े का स्रोत बांग्लादेश के मज़दूर द्वारा किये गये श्रम का ज़बरदस्त शोषण ही है। सरकारें और देशी पूँजीपति मुनाफ़ा निचोड़ने की इस श्रृंखला का ही हिस्सा हैं और इसलिए पुरज़ोर कोशिश करते हैं जिससे कम से कम वेतन बना रहे और उनका शासन चलता रहे। पुलिस, सरकार, ट्रेड यूनियनों के कुछ हिस्सों और पूँजीपतियों का एक होकर मज़दूरों को यथास्थिति में बनाये रखने की कोशिश करना साफ़ दर्शाता है कि ये सभी मज़दूर विरोधी ताक़तें हैं।

देश-भर में 8-9 जनवरी को हुई आम हड़ताल से मज़दूरों ने क्या पाया? इस हड़ताल से क्या सबक़ निकलता है?

जहाँ तक केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बात है तो इनसे पुछा जाये कि एकदिनी हड़ताल करने वाली इन यूनियनों की आका पार्टियाँ संसद विधानसभा में मज़दूर विरोधी क़ानून पारित होते समय क्यों चुप्पी मारकर बैठी रहती हैं? जब पहले से ही लचर श्रम क़ानूनों को और भी कमज़ोर करने के संशोधन संसद में पारित किये जा रहे होते हैं, तब ये ट्रेड यूनियनें और इनकी राजनीतिक पार्टियाँ कुम्भकर्ण की नींद सोये होते हैं। सोचने की बात है कि सीपीआई और सीपीएम जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और वि‍धानसभाओं में हमेशा मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनाती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं?

मौजूदा किसान आन्दोलन और इनकी माँगें, क्या इनसे ”किसानी के संकट” और गाँव के ग़रीबों की समस्याओं का हल सम्भव है?

देश के ग़रीब किसानों के हालात वाक़ई बद से बदतर हो रहे हैं। 30 दिसम्बर 2016 को जारी की गयी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (‘एनसीआरबी’) के आँकड़ों के अनुसार साल 2015 में कुल 12,602 किसानों और खेत मज़दूरों ने आत्महत्याएँ की थीं। अपनी जान देने वालों में 7,114 ख़ुदकाश्त किसान, 893 पट्टे पर ज़मीन लेकर खेती करने वाले किसान और 4,595 खेत मज़दूर शामिल थे। 2014 की ‘एनसीआरबी’ की रिपोर्ट के अनुसार 2014 में कुल 12,360 किसानों और खेत मज़दूरों ने जान दी थी। इनमें 4,949 ख़ुदकाश्त किसान, 701 पट्टे पर ज़मीन लेकर खेती करने वाले किसान और 6,710 खेत मज़दूर थे। 2018 के आँकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार के चार साल के शासन काल में 50 हज़ार से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। कहना नहीं होगा कि न केवल किसान बल्कि खेत मज़दूर भी आत्महत्याओं की भेंट चढ़ते हैं। पूँजीवाद में छोटा माल उत्पादक हमेशा संकट में रहता है तथा यही चीज़ किसानी पर भी लागू होती है।

फ़्रांस की सड़कों पर फूटा पूँजीवाद के ख़िलाफ़ जनता का गुस्सा

फ़्रांस के लगभग सभी बड़े शहरों में मज़दूर, छात्र-युवा और आम नागरिक राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की पूँजीपरस्त नीतियों के विरोध में सड़कों पर हैं और विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। यह लेख लिखे जाते समय ‘येलो वेस्ट मूवमेण्ट’ नाम से मशहूर इस स्वत:स्फूर्त जुझारू आन्दोलन को शुरू हुए एक महीने से भी अधिक का समय बीत चुका है। मैक्रों सरकार द्वारा ईंधन कर में बढ़ोतरी करने के फ़ैसले के विरोध से शुरू हुआ यह आन्दोलन देखते ही देखते संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा आम जनता की ज़िन्दगी की बढ़ती कठिनाइयों के ख़िलाफ़ एक व्यापक जनउभार का रूप धारण करने लगा और आन्दोलन द्वारा उठायी जा रही माँगों में न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने, करों का बोझ कम करने, अमीरों पर कर बढ़ाने और यहाँ तक कि राष्ट्रपति मैक्रों के इस्तीफ़े जैसी माँगें शामिल हो गयीं। आन्दोलन की शुरुआत में मैक्रों ने इस बहादुराना जनविद्रोह को नज़रअन्दाज़ किया और उसे सशस्त्र बलों द्वारा बर्बरतापूर्वक दमन के सहारे कुचलने की कोशिश की। कई जगहों पर प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों की झड़पें भी हुईं। इस आन्दोलन के दौरान अब तक क़रीब 2000 प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया जा चुका है। परन्तु जैसाकि अक्सर होता है पुलिसिया दमन की हर कार्रवाई से आन्दोलन बिखरने की बजाय और ज़्यादा फैलता गया और जल्द ही यह जनबग़ावत जंगल की आग की तरह फ़्रांस के कोने-कोने तक फैल गयी।

हरियाणा में नगर परिषद, नगर निगम, नगर पालिका के कर्मचारियों की हड़ताल समाप्त

हड़ताल का नेतृत्व नगरपालिका कर्मचारी संघ, हरियाणा ने किया था जोकि जोकि सर्व कर्मचारी संघ, हरियाणा से सम्बन्ध रखता है। 16 दिन की हड़ताल का कुल परिणाम यह निकला की कर्मचारियों की तनख्वाह 11,700 से बढ़ाकर 13,500 कर दी गयी है। पक्का करने की माँग, ठेका प्रथा ख़त्म करने की माँग और समान काम का समान वेतन देनें की माँग पर सरकार ने वही पुराना कमेटी बैठने का झुनझुना कर्मचारी नेताओं को थमा दिया जिसे लेकर वे अपने-अपने घर आ गये। इस चीज़ में कोई दोराय नहीं है कि फ़िलहाली तौर पर मिल रहे संघर्षों के हासिल को अपने पास रख लिया जाये और आगे के संघर्षों की तैयारी की जाये। किन्तु फ़िलहाल और लम्बे समय से देश सहित हरियाणा प्रदेश में भी मज़दूर-कर्मचारी आन्दोलनों में अर्थवाद पूरी तरह से हावी है।

महाराष्ट्र में किसानों और आदिवासियों का ‘लाँग मार्च’ : आन्दोलन के मुद्दे, नतीजे और सबक़

पिछले दिनों महाराष्ट्र में किसानों और आदिवासियों का बड़ा आन्दोलन हुआ हालाँकि इसके प्रचार में व साथ ही नामकरण में आदिवासियों का अलग से नाम नहीं था। उत्तरी महाराष्ट्र के नासिक से हज़ारों लोग 9 मार्च को विधानसभा घेराव के लिए पैदल मार्च करते हुए चलना शुरू हुए, पैदल जत्थे में बच्चे-बूढ़े-महिलाएँ और जवान सभी शामिल थे। मुम्बई पहुँचने तक रास्ते से जत्थे में और लोग भी जुड़ते चले गये। 12 तारीख़ को किसान और आदिवासी मुम्बई के ऐतिहासिक ‘आज़ाद मैदान’ पहुँचे।

मारुति मानेसर प्लाण्ट के मज़दूरों की सज़ा के एक वर्ष पूरा होने पर पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था द्वारा पूँजी की चाकरी की पुरज़ोर नुमाइश

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह मुक़दमा बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय-व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाता है। यह राज्य-व्यवस्था और इसी का एक अंग यह न्याय-व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा समय के लिए जेल में बन्द रखा जाना, इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नक़ाब पूरी तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तन्त्र को नुक़सान पहुँचाने का जुर्म करेगा पूँजीवादी न्याय की देवी उसे क़तई नहीं बख़्शेगी।

हरियाणा में आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों का आन्दोलन : सीटू और अन्य संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों की इसमें भागीदारी या फिर इस आन्दोलन से गद्दारी?!

12 फ़रवरी से हड़ताल पर बैठी हरियाणा की आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों की माँग थी कि उनका मानदेय बढ़ाया जाये और उन्हें कर्मचारी का दर्ज़ा दिया जाये। समेकित बाल विकास विभाग और आँगनवाड़ी की देशभर में खस्ता हालत से शायद ही कोई अनजान होगा। हरियाणा की आँगनवाड़ी भी अव्यवस्था से अछूती नहीं है। आँगनवाड़ियों में खाने की गुणवत्ता का निम्न स्तर, राशन की आपूर्ति में देरी के साथ-साथ तमाम समस्याएँ सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े करती हैं। आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों पर काम का दबाव निश्चय ही योजना को प्रभावित करता है।

दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन के नेतृत्व में दिल्ली की आँगनवाड़ी महिलाओं की शानदार जीत!

सरकार ने हड़ताल को कमजोर करने के लिए सुपरवाइज़र और सीडीपीओ पर दबाव डालकर महिलाओं को डरा-धमकाकर आँगनवाड़ी खुलवाने की कोशिशें कीं। कुछेक महिलाओं ने इनके डर से आँगनवाड़ी खोली भी। इससे निपटने के लिए यूनियन ने भी अपनी कार्रवाई की। महिलाओं की पिकेटिंग टीम बनायी गयी और जगह-जगह सेण्टरों पर जाकर डरी हुई अपनी बहनों को हौसला दिया गया और समझाया गया कि सुपरवाइ़जर और सीडीपीओ की गीदड़ भभकियों से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है, वे आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं, आपके साथ आपकी यूनियन है। इस पिकेटिंग का ज़बरदस्त असर हुआ और जो भी महिलाएँ डर रही थी, उनमें साहस और हिम्मत आयी और वे भी हड़ताल में शामिल हो गयीं।