जानलेवा महँगाई ग़रीबों के जीने के अधिकार पर भी हमला है!
केंद्र सरकार देश भर में आतंकवाद, नक्सलवाद और माओवाद आदि का हव्वा खड़ा कर रही है लेकिन उससे बड़े संकट या यानि बेरोजगारी और महँगाई से फैलने वाली भूख और कुपोषण पर सरकार ही नहीं, बल्कि पूँजीपतियों के रहमोकरम पर पलने वाला मीडिया भी चुप्पी साधे हुए है। जबकि सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती महँगाई से बहुसंख्यक आबादी के सामने जीने का संकट उत्पन्न हो गया है। पिछले साल से अब तक खाद्य पदार्थ 70 प्रतिशत महंगे हो चुके है। छह महीने में ही खाने-पीने की चीज़ों के दामों में 15 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी है। और माना जा रहा है कि सूखे के चलते खाद्य-पदार्थों की की कीमतों में वृद्धि हो सकती है।
अब भले ही प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री और योजना आयोग देश की अर्थव्यवस्था के जल्द ही पटरी पर आने का आश्वासन दे रहे हों और मुद्रास्फीति की दर शून्य से नीचे जा रही हो, लेकिन आम आदमी के लिए इन आश्वासनों और ऑंकड़ों का कोई मतलब नहीं है। उनके अनुभव और इन आश्वासनों तथा ऑंकड़ों में जमीन-आसमान का अंतर है। इस महँगाई ने देश की भारी आबादी के लिए हालात कितने मुश्किल कर दिये हैं इसका अन्दाज़ा लगाने के लिए बस यह तथ्य याद कर लेना ज़रूरी है कि 84 करोड़ लोग सिर्फ 20 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करते हैं। इनमें से भी लगभग एक तिहाई आबादी तो महज़ 11 रुपये रोज़ पर जीती है। इस महँगाई में यह आबादी किस तरह जी रही होगी इस भयावहता को केवल आंकड़ों आदि से बयान भी नहीं किया जा सकता है।
देश के 44 करोड़ असंगठित मज़दूरों पर महँगाई की मार सबसे बुरी तरह पड़ रही है। शहरों में करोड़ों मज़दूर उद्योगों में 1800 से 2500 रुपये मासिक की मज़दूरी पर काम कर रहे हैं। इसमें से भी मालिक बात-बात पर पैसे काट लेता है। लगभग एक तिहाई से लेकर आधी मज़दूरी मकान के किराये, बिजली, बस भाड़े आदि में चली जाती है। ज्यादातर मज़दूर इलाकों में मकानमालिक ही किराने आदि की दूकानें भी खोलकर बैठे रहते हैं और मज़दूरों को मनमानी कीमतों पर सामान बेचते हैं। ज्यादातर मज़दूर थोड़ा-थोड़ा सामान लेते हैं और उन्हें उधार खरीदना पड़ता है इसलिए वे उनसे ही खरीदने को मजबूर होते हैं। उन्हें खाद्य पदार्थों के सामान्य से अधिक दाम चुकाने पड़ते हैं।
ऐसी भीषण महँगाई के पहले ही देश की तीन चौथाई आबादी के भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे जरूरी पौष्टिक तत्वों की लगातार कमी होती गयी है। आम आदमी के लिए प्रोटीन के मुख्य स्रोत दालों की कीमत में पिछले एक साल के अन्दर 110 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। कहा जाता था कि आलू भूख से लड़ने में ग़रीबों की मदद करता है। लेकिन इस वक्त आलू के दाम भी उनकी क्रयशक्ति से बाहर हो गये हैं। हरी सब्जियाँ, दाल और दूध तो गरीब आदमी के भोजन से गायब ही चुके हैं। इसी का नतीजा है कि कुपोषण के कारण कम वजन वाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक द्वारा किये गये एक अध्ययन से पता चला कि आज प्रति व्यक्ति औसत खाद्य उपलब्धता बंगाल में 1942-43 में आये भीषण अकाल के दिनों के बराबर पहुँच चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में बहुतेरे परिवारों को दोनों वक्त या सप्ताह के सातों दिन खाना नहीं मिलता। आज भी लगभग नौ हजार बच्चे रोज कुपोषण और उससे होने वाली बीमारियों के कारण मर जाते हैं।
सवा सौ जिलों में सूखे के कारण बहुत बड़ी आबादी के सामने तो भुखमरी के हालात पैदा हो गये हैं। यह हालत केवल बारिश न होने के कारण नहीं हुई है जैसा कि सरकार बार-बार बताने की कोशिश कर रही है। इसके लिए व्यापारियों की मुनाफाखोरी की हवस और उसे शह देने वाली सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं।
दरअसल कीमतें बढ़ने के लिए उत्पादन की कमी, मानसून आदि मुख्य कारण हैं ही नहीं। अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमतें बढ़ना भी इसका कारण नहीं है। अगर ऐसा होता तो गेहूँ और चावल की कीमतें अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में कम होने के बाद देश में इनकी कीमतें गिरनी चाहिए थीं। महँगाई की असली वजह यह है कि खेती की उपज के कारोबार पर बड़े व्यापारियों, सटोरियों और कालाबाज़ारियों का कब्ज़ा है। ये ही जिन्सों के दाम तय करते हैं और जानबूझकर बाज़ार में कमी पैदा करके चीज़ों के दाम बढ़ाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में कृषि उपज और खुदरा कारोबार के क्षेत्र को बड़ी कम्पनियों के लिए खोल देने के सरकार के फैसले से स्थिति और बिगड़ गयी है। अपनी भारी पूँजी और ताक़त के बल पर ये कम्पनियाँ बाज़ार पर पूरा नियंत्रण कायम कर सकती हैं और मनमानी कीमतें तय कर सकती हैं।
सरकार ने वायदा कारोबार की छूट देकर व्यापारियों को जमाखोरी करने का अच्छा मौका दे दिया है। अब सरकार बेशर्मी से कह रही है कि जमाखोरों के कारण महँगाई बढ़ी है। लेकिन इन जमाखोरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के बजाय केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को कार्रवाई करने की नसीहत देकर खुद को बरी कर लेना चाहती है। लेकिन केन्द्र हो या राज्य सरकारें, जमाखोरी करने वाले व्यापारियों पर कोई हाथ नहीं डालना चाहता। हर पार्टी में इन व्यापारियों की दखल है और सभी पार्टियाँ इनसे करोड़ों रुपये का चन्दा लेती हैं। पिछले चुनावों में इन मुनाफाखोरों ने अरबों रुपये का चन्दा पार्टियों को दे दिया था।
पूँजीवादी नीतियों के कारण अनाजों के उत्पादन में कमी आती जा रही है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आज खेती संकट में है। पूँजीवाद में उद्योग के मुकाबले खेती का पिछड़ना तो लाज़िमी ही होता है लेकिन भूमण्डलीकरण के दौर की नीतियों ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। अमीर देशों की सरकारें अपने फार्मरों को भारी सब्सिडी देकर खेती को मुनाफे का सौदा बनाये हुए हैं। लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में सरकारी उपेक्षा और पूँजी की मार ने छोटे और मझोले किसानों की कमर तोड़ दी है। इसका सीधा असर उन देशों में खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है।
वैश्विक पैमाने पर खेती का कारोबार चन्द दैत्याकार कम्पनियों के कब्जे में आ चुका है जो खाद-बीज-कीटनाशक और मशीनों जैसे खेती के साधनों से लेकर फसलों के व्यापार तक को नियन्त्रित करती हैं। यही कम्पनियाँ इथेनॉल के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सरकारी सब्सिडी का भी फायदा उठा रही हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि खाद्यान्न की खेती के लिए तय ज़मीनों का इस्तेमाल अमीरों की कारें दौड़ाने के लिए इथेनॉल के उत्पादन में किया जा रहा है।
सबसे बड़ा कारण यह है कि मेहनतकश जनता की मज़दूरी में लगातार आ रही गिरावट के कारण उसकी खरीदने की शक्ति कम होती जा रही है। देश की अर्थव्यवस्था जब चमक रही थी तब भी आम मेहनतकश आबादी की वास्तविक आमदनी में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी।
भारी अर्द्धसर्वहारा आबादी और निम्नमध्यवर्गीय आबादी को भी पेट भरने के लिए अपनी ज़रूरतों में कटौती करनी पड़ रही है। बहुत बड़ी आबादी छँटनी, वेतन में कटौती और बेरोज़गारी के कारण तबाही के कगार पर है लेकिन इस आबादी के लिए सरकार के पास कोई राहत योजना नहीं है।
हाल में देश के कई शहरों में किये गये एक सर्वेक्षण में लोगों ने अपने लिये सबसे बड़ा खतरा महँगाई को बताया था। उनकी नज़र में ख़तरों की लिस्ट में आतंकवाद आठवें नंबर पर था। अम्बाला में एक नागरिक ने कहा कि देश की सुरक्षा को खतरा आतंकवाद से नहीं आलू से है। जब आलू 25 रुपये किलो बिकेगा तो लोग आतंकवादी नहीं बनेंगे तो क्या करेंगे? थैलीशाहों की सेवा में लगे देश के हुक्मरानों को तो यह जानलेवा महँगाई कोई समस्या नज़र नहीं आती लेकिन ग़रीबों के भीतर सुलगती गुस्से की आग को अब ज्यादा दिनों तक दबाये नहीं रखा जा सकता।
बिगुल, नवम्बर 2009
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