वैश्विक वित्तीय संकट का नया ‘तोहफा’ – ग़रीबी, बेरोजगारी के साथ बाल मजदूरी में भी इजाफा
शिवानी
अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट ”लड़कियों को एक मौका दो : बाल मजदूरी की रोकथाम – भविष्य की कुंजी” (गिव गर्ल्स ए चांस : टैकलिंग चाइल्ड लेबर – ए की टू द फ्यूचर) के मुताबिक वैश्विक वित्तीय संकट ज्यादा से ज्यादा बच्चों को विशेषकर लड़कियों को बाल मजदूरी की ओर धकेल रहा है। 12 जून को बाल श्रम के ख़िलाफ अन्तरराष्ट्रीय दिवस के उपलक्ष्य में विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के शीर्षस्थ संस्थानों में से एक आई.एल.ओ. ने ख़ुद इस तथ्य का खुलासा किया। ग़ौरतलब है कि दो साल पहले 2007 में, एक अन्य रिपोर्ट में आई.एल.ओ. ने इस बात पर भी रोशनी डाली थी कि उदारीकरण, निजीकरण की नीतियाँ लागू होने के बाद से भारत में बाल श्रमिकों की संख्या में 10 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
हाल की इस रिपोर्ट में सीधे-सीधे शब्दों में यह भी कहा गया है कि दुनियाभर में प्लेग की तरह फैल रही आर्थिक मन्दी के फलस्वरूप ग़रीबी बढ़ी है और यही कारण है कि ग़रीब परिवारों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने की जगह काम पर भेजना पड़ रहा है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि विश्वभर में आज लगभग दस करोड़ से भी ज्यादा लड़कियाँ ऐसी हैं, जो बाल मजदूरी कर रही हैं और इनमें से अधिकतर तो निकृष्टतम कोटि की मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं।
साफ तौर पर यह रिपोर्ट उन तमाम सरकारी एवं ग़ैर-सरकारी कवायदों के मुँह पर एक करारा तमाचा है, जो मानती हैं कि बाल श्रम का उन्मूलन कानून बनाकर किया जा सकता है। भारत में बाल मजदूरी के ख़िलाफ तो कानून बना ही हुआ है, मगर यह कितना कारगर साबित हुआ है, इसकी असलियत सभी जानते हैं। ऐसे ‘नख-दन्त विहीन’ कानूनों को तो पूँजीपति वर्ग अपनी जेब में लेकर घूमता है और खुलेआम इनका उल्लंघन करके मखौल उड़ाता है। अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की अन्धी हवस में पूँजीपति वर्ग ज्यादा से ज्यादा महिलाओं और बच्चों को काम पर रखता है ताकि ख़र्च तो कम से कम हो और लाभ ज्यादा से ज्यादा।
एक बात जो यहाँ ध्यान देने योग्य है वह यह कि आई.एल.ओ. बाल मजदूरी में बढ़ोत्तरी को महज आर्थिक मन्दी के दौर की उपज बताता है। लेकिन एक ऐसी व्यवस्था जो मुनाफे पर आधारित हो, वह फिर चाहे मन्दी का दौर हो या विकृत विकास का, मुनाफे के लालच में मासूम बचपन को भी नहीं बख्शती, उसे भी लील जाती है। यह एक और नया ‘तोहफा’ है आम मेहनतकश जनता के लिए इस व्यवस्था की ओर से। जब महँगाई, भूखमरी, कुपोषण, बेरोजग़ारी, अशिक्षा, छँटनी, ग़रीबी जैसे बेशकीमती ‘तोहफे’ देकर इसका पेट नहीं भरा तो बाल मजदूरी के रूप में एक नया उपहार भेंट करने चली। बात एकदम साफ है। बाल मजदूरी का खात्मा इस व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर सम्भव ही नहीं है।
बाल मजदूरी को मिटाने के लिए जरूरी है पूँजीवाद को मिटाना, उस मानवद्रोही व्यवस्था को मिटाना जो बच्चों से उनका बचपन छीन लेती है, उन्हें घोर नारकीय अन्धकारमय जीवन जीने के लिए मजबूर कर देती है।
बिगुल, जुलाई 2009