सच्चाई को ख़ून की नदियों में भी नहीं डुबोया जा सकता
मक्सिम गोर्की के उपन्यास माँ का एक अंश
जासूस ने एक गार्ड को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा और आँखों से माँ की तरफ़ इशारा किया। गार्ड ने उसे देखा और वापस चला गया। इतने में दूसरा गार्ड आया और उसकी बात सुनकर उसकी भवें तन गयीं। यह गार्ड एक बूढ़ा आदमी था – लम्बा कद, सफ़ेद बाल, दाढ़ी बढ़ी हुईं उसने जासूस की तरफ़ देखकर सिर हिलाया और उस बेंच की तरफ़ बढ़ा जिस पर माँ बैठी हुई थी। जासूस कहीं ग़ायब हो गया।
गार्ड बड़े इत्मीनान से आगे बढ़ रहा था और त्योरियाँ चढ़ाये माँ को घूर रहा था। माँ बेंच पर सिमटकर बैठ गयी।
“बस, कहीं मुझे मारें न!” माँ ने सोचा।
गार्ड माँ के सामने आकर रुक गया और एक क्षण तक कुछ नहीं बोला।
“क्या देख रही हो?” उसने आखि़रकार पूछा।
“कुछ भी नहीं,” माँ ने उत्तर दिया।
“अच्छा यह बात है, चोर कहीं की! इस उमर में यह सब करते शरम नहीं आती!”
उसके शब्द माँ के गालों पर तमाचों की तरह लगे – एक… दो; उनमें कुत्सा का जो घृणित भाव था वह माँ के लिए इतना कष्टदायक था कि जैसे उसने किसी तेज़ चीज़ से माँ के गाल चीर दिये हों या उसकी आँखें बाहर निकाल ली हों…
“मैं? मैं चोर नहीं हूँ, तुम ख़ुद झूठे हो!” उसने पूरी आवाज़ से चिल्लाकर कहा और उसके क्रोध के तूफान में हर चीज़ उलट-पुलट होने लगी। उसने सूटकेस को एक झटका दिया और वह खुल गया।
“सुनो! सुनो! सब लोग सुनो!” उसने चिल्लाकर कहा और उछलकर पर्चों की एक गड्डी अपने सिर के ऊपर हिलाने लगी। उसके कान में जो गूँज उठ रही थी उसके बीच उसे चारों तरफ़ से भागकर आते हुए लोगों की बातें साफ़ सुनायी दे रही थीं।
“क्या हुआ?”
“वह वहाँ – जासूस…”
“क्या बात है?”
“कहते हैं कि यह चोर है…”
“देखने में तो बड़ी शरीफ़ औरत मालूम होती है! छिः छिः!”
“मैं चोर नहीं हूँ!” माँ ने चिल्लाकर कहा; लोगों की भीड़ अपने चारों तरफ़ एकत्रित देखकर उसकी भावनाओं का प्रबल वेग थम गया था।
“कल राजनीतिक कैदियों पर एक मुक़दमा चलाया गया था और उनमें मेरा बेटा पावेल व्लासोव भी था। उसने अदालत में एक भाषण दिया था – यह वही भाषण है! मैं इसे लोगों के पास ले जा रही हूँ ताकि वे इस पढ़कर सच्चाई का पता लगा सकें…”
किसी ने बड़ी सावधानी से उसके हाथ से एक पर्चा ले लिया। माँ ने गड्डी हवा में उछालकर भीड़ की तरफ़ फेंक दी।
“तुम्हें इसका मजा चखा दिया जायेगा!” किसी ने भयभीत स्वर में कहा।
माँ ने देखा कि लोग झपटकर पर्चे लेते हैं और अपने कोट में तथा जेबों में छुपा लेते हैं। यह देखकर उसमें नयी शक्ति आ गयी। वह अधिक शान्त भाव से और ज़्यादा जोश के साथ बोलने लगी; उसके हृदय में गर्व और उल्लास का जो सागर ठाठें मार रहा था उसका उसे आभास था। बोलते-बोलते वह सूटकेस में से पर्चे निकालकर दाहिने बायें उछालती जा रही थी और लोग बड़ी उत्सुकता से हाथ बढ़ाकर इन पर्चों को पकड़ लेते थे।
“जानते हो मेरे बेटे और उसके साथियों पर मुक़दमा क्यों चलाया गया? मैं तुम्हें बताती हूँ, तुम एक माँ के हृदय और उसके सफ़ेद बालों का यकीन करो – उन लोगों पर मुक़दमा सिर्फ़ इसलिए चलाया गया कि वे लोगों को सच बातें बताते थे! और कल मुझे मालूम हुआ कि इस सच्चाई से… कोई भी इंकार नहीं कर सकता – कोई भी नहीं!
भीड़ बढ़ती गयी, सब लोग चुप थे और इस औरत के चारों तरफ़ सप्राण शरीरों को घेरा खड़ा था।
“ग़रीबी, भूख और बीमारी – लोगों को अपनी मेहनत के बदले यही मिलता है! हर चीज़ हमारे खि़लाफ़ है – ज़िन्दगी-भर हम रोज़ अपनी रत्ती-रत्ती शक्ति अपने काम में खपा देते हैं, हमेशा गन्दे रहते हैं, हमेशा बेवक़ूफ़ बनाये जाते हैं और दूसरे हमारी मेहनत का सारा फ़ायदा उठाते हैं और ऐश करते हैं, वे हमें जंजीर में बँधे हुए कुत्तों की तरह जाहिल रखते हैं – हम कुछ भी नहीं जानते, वे हमें डराकर रखते हैं – हम हर चीज़ से डरते हैं! हमारी ज़िन्दगी एक लम्बी अँधेरी रात की तरह है!”
“ठीक बात है!” किसी ने दबी जबान में समर्थन किया।
“बन्द कर दो इसका मुँह!”
भीड़ के पीछे माँ ने उस जासूस और दो राजनीतिक पुलिसवालों को देखा और वह जल्दी-जल्दी बचे हुए पर्चे बाँटने लगी। लेकिन जब उसका हाथ सूटकेस के पास पहुँचा, तो किसी दूसरे के हाथ से छू गया।
“ले लो, और ले लो!” उसने झुके-झुके कहा।
“चलो, हटो यहाँ से!” राजनीतिक पुलिसवालों ने लोगों को ढँकेलते हुए कहा। लोगों ने अनमने भाव से पुलिसवालों को रास्ता दिया; वे पुलिसवालों को दीवार बनाकर पीछे रोके हुए थे; शायद वे जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहे थे। लोगों के हृदय में न जाने क्यों इस बड़ी-बड़ी आँखों और उदार चेहरे तथा सफ़ेद बालोंवाली औरत के प्रति इतना अदम्य आकर्षण था। जीवन में वे सबसे अलग-थलग रहते थे, एक-दूसरे से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था, पर यहाँ वे सब एक हो गये थे; वे बड़े प्रभावित होकर इन जोश-भरे शब्दों को सुन रहे थे; जीवन के अन्यायों से पीड़ित होकर शायद उनमें से अनेक लोगों के हृदय बहुत दिनों से इन्हीं शब्दों की खोज में थे। जो लोग माँ के सबसे निकट थे वे चुपचाप खड़े थे; वे बड़ी उत्सुकता से उसकी आँखों में आँखें डालकर ध्यान से उसकी बातें सुन रहे थे और वह उनकी साँसों की गर्मी चेहरे पर अनुभव कर रही थी।
“खिसक जा यहाँ से, बुढ़िया!”
“वे अभी तुझे पकड़ लेंगे!–”
“कितनी हिम्मत है इसमें!”
“चलो यहाँ से! जाओ अपना काम देखो!” राजनीतिक पुलिसवालों ने भीड़ को ठेलते हुए चिल्लाकर कहा। माँ के सामने जो लोग थे वे एक बार कुछ डगमगाये और फिर एक-दूसरे से सटकर खड़े हो गये।
माँ को आभास हुआ कि वे उसकी बात को समझने और उस पर विश्वास करने को तैयार थे और वह जल्दी-जल्दी उन्हें वे सब बातें बता देना चाहती थी जो वह जानती थी, वे सारे विचार उन तक पहुँचा देना चाहती थी जिनकी शक्ति का उसने अनुभव किया था। इन विचारों ने उसके हृदय की गहराई से निकलकर एक गीत का रूप धारण कर लिया था, पर माँ यह अनुभव करके बहुत झुब्ध हुई कि वह इस गीत को गा नहीं सकती थी – उसका गला रुँध गया था और स्वर भर्रा गया था।
“मेरे बेटे के शब्द एक ऐसे ईमानदार मज़दूर के शब्द हैं जिसने अपनी आत्मा को बेचा नहीं है! ईमानदारी के शब्दों को आप उनकी निर्भीकता से पहचान सकते हैं!”
किसी नौजवान की दो आँखें भय और हर्षातिरेक से उसके चेहरे पर जमी हुई थीं।
किसी ने उसके सीने पर एक घूँसा मारा और वह बेंच पर गिर पड़ी। राजनीतिक पुलिसवालों के हाथ भीड़ के ऊपर ज़ोर से चलते हुए दिखायी दे रहे थे, वे लोगों के कन्धे और गर्दनें पकड़कर उन्हें ढँकेल रहे थे; उनकी टोपियाँ उतारकर मुसाफिरख़ाने के दूसरे सिरे पर फेंक रहे थे। माँ की आँखों के आगे धरती घूम गयी, पर उसने अपनी कमज़ोरी पर काबू पाकर अपनी बची-खुची आवाज़ से चिल्लाकर कहा:
“लोगो, एक होकर ज़बरदस्त शक्ति बन जाओ!”
एक पुलिसवाले ने अपने मोटे-मोटे बड़े से हाथ से उसकी गर्दन पकड़कर उसे ज़ोर से झंझोड़ा।
“बन्द कर अपनी जबान!”
माँ का सिर दीवार से टकराया। एक क्षण के लिए उसके हृदय में भय का दम घोंट देनेवाला धुआँ भर गया, पर शीघ्र ही उसमें फिर साहस पैदा हुआ यह धुआँ छँट गया।
“चल यहाँ से!” पुलिसवाले ने कहा।
“किसी बात से डरना नहीं! तुम्हारी ज़िन्दगी जैसी अब है उससे बदतर और क्या हो सकती है…”
“चुप रह, मैंने कह दिया!” पुलिसवाले ने उसकी बाँह पकड़कर उसे ज़ोर से धक्का दिया। दूसरे पुलिसवाले ने उसकी दूसरी बाँह पकड़ ली और दोनों उसे साथ लेकर चले।
“उसे कटुता से बदतर और क्या हो सकता है जो दिन-रात तुम्हारे हृदय को खाये जा रही है और तुम्हारी आत्मा को खोखला किये दे रही है!”
जासूस माँ के आगे-आगे भाग रहा था और मुट्ठी तान-तानकर उसे धमका रहा था।
“चुप रह, कुतिया!” उसने चिल्लाकर कहा।
माँ की आँखें चमकने लगीं और क्रोध से फैल गयीं; उसके होंठ काँपने लगे।
“पुनर्जीवित आत्मा को तो नहीं मार सकते!” उसने चिल्लाकर कहा और अपने पाँव पत्थर के चिकने फ़र्श पर जमा दिये।
“कुतिया कहीं की!”
जासूस ने उसके मुँह पर एक थप्पड़ मारा।
“इसकी यही सजा है, इस चुड़ैल बुढ़िया की!” किसी ने जलकर कहा।
एक क्षण के लिए माँ की आँखों के आगे अँधेरा छा गया; उसके सामने लाल और काले धब्बे से नाचने लगे और उसका मुँह रक्त के नमकीन स्वाद से भर गया।
लोगों के छोटे-छोटे वाक्य सुनकर उसे फिर होश आया:
“ख़बरदार, जो उसे हाथ लगाया!”
“आओ, चलो यार!”
“बदमाश कहीं का!”
“एक दे ज़ोर का!”
“वे हमारी चेतना को तो ख़ून से नहीं उँड़ेल सकते!”
वे माँ की पीठ और गर्दन पर घूँसे बरसा रहे थे, उसके कन्धों और सिर पर मार रहे थे; हर चीज़ चीख़-पुकार, क्रन्दन और सीटियों की आवाज़ों का एक झंझावात बनकर उसकी आँखों के सामने नाच रही थी और बिजली की तरह कौंध रही थी। उसके कान में एक ज़ोर का घुटा हुआ धमाका हुआ; उसका गला रुँध गया; उसका दम घुटने लगा और उसके पाँवों तले कमरे का फ़र्श धँसने लगा; उसकी टाँगें जवाब देने लगीं; वह तेज़ छुरी के घाव जैसी चुभती हुई पीड़ा से तिलमिला उठी, उसका शरीर बोझल हो गया और वह निढाल होकर झूमने लगी। पर उसकी आँखों में अब भी वही चमक थी। उसकी आँखें बाक़ी सब लोगों की आँखों को देख रही थीं; उन सब आँखों में उसी साहसमय ज्योति की आग्नेय चमक थी जिसे वह भली-भाँति जानती थी और जिसे वह बहुत प्यार करती थी।
पुलिसवालों ने उसे एक दरवाज़े के अन्दर ढँकेल दिया।
उसने झटका देकर अपनी एक बाँह छुड़ा ली और दरवाज़े की चौखट पकड़ ली।
“सच्चाई को तो ख़ून की नदियों में भी नहीं डुबोया जा सकता…”
पुलिसवालों ने उसके हाथ पर ज़ोर से मारा।
“अरे बेवक़ूफ़ो, तुम जितना अत्याचार करोगे, हमारी नफ़रत उतनी ही बढ़ेगी! और एक दिन यह सब तुम्हारे सिर पर पहाड़ बनकर टूट पड़ेगा!”
एक पुलिसवाला उसकी गर्दन पकड़कर ज़ोर से उसका गला घोंटने लगा।
“कमबख्तो…” माँ ने साँस लेने को प्रयत्न करते हुए कहा।
किसी ने इसके उत्तर में ज़ोर से सिसकी भरी।
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन