मेहनतकशों के खून से लिखी पेरिस कम्यून की अमर कहानी
वैसे तो प्रेरणा और सबक लेने के लिए हमेशा ही पीछे मुड़कर इतिहास के पन्ने पलटने होते हैं, पर इतिहास की शिक्षाएं खासतौर पर उस दौर में हमारे लिए बेहद जरूरी हो जाती हैं, जब हम हार और ठहराव का सामना कर रहे होते हैं।
आज जब एक बार फि़र दुनिया के पैमाने पर पूंजीवादी ताकतें अन्तरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग और व्यापक जनता पर हावी हो गई हैं, शुरुआती समाजवादी क्रान्तियां वक्ती तौर पर असफ़ल हो चुकी हैं, तो श्रम और पूंजी के बीच की जिन्दगी-मौत की जंग के अगले चक्र की तैयारी के दौर में पेरिस कम्यून को याद करने की खास अहमियत है।
आज से 128 वर्षों पहले, 18 मार्च, 1871 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में पहली बार मजदूरों ने अपनी हुकूमत कायम की। यह धारणा चकनाचूर हो गयी कि मेहनतकश हुकूमत नहीं चला सकते। पेरिस के जांबाज मजदूरों ने न सिर्फ़ पूंजीवादी हुकूमत की चलती चक्की को उलटकर तोड़ डाला, बल्कि 72 दिनों के शासन के दौरान आने वाले दिनों का एक छोटा-सा मॉडल भी पेश कर डाला कि समाजवादी समाज में भेदभाव, गैरबराबरी और शोषण को किस तरह समाप्त किया जायेगा। आगे चलकर, 1917 की रूसी क्रान्ति ने इसी कड़ी को आगे बढ़ाया।
पेरिस कम्यून की ऐतिहासिक महत्ता और उसकी असफ़लता के कारणों की गहरी जांच-पड़ताल के बाद वैज्ञानिक समाजवाद के आविष्कारक मार्क्स और एंगेल्स ने अपने सिद्धान्तों में कई महत्वपूर्ण बातें जोड़ीं।
पेरिस कम्यून ने सर्वहारा वर्ग का कामयाब क्रान्तिकारी संघर्ष छेड़ने और राजकाज चलाने के बेशकीमती अनुभव दिये। वह असफ़ल हो गई, क्योंकि मजदूर यह अनुमान लगाने से चूक गये कि पहली सर्वहारा सत्ता को कुचलने के लिए पूरा “बूढ़ा यूरोप” एक हो जायेगा, जैसाकि मार्क्स ने पहले ही चेतावनी दी थी। पेरिस के जांबाज इंकलाबी मजदूरों की एक वैज्ञानिक विचारधारा से लैस इंकलाबी पार्टी तब तक अस्तित्व में नहीं आ सकी थी, इसके बावजूद उन्होंने उन चन्द दिनों के भीतर सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का–सर्वहारा सत्ता का-सर्वहारा जनतंत्र का एक ऐसा उदाहरण पेश किया, जो सदियों तक मेहनतकशों की राह रौशन करता रहेगा।
महान पेरिस कम्यून की कहानी हम थोड़ा पहले से, एक भूमिका के साथ शुरू करें तो बेहतर रहेगा।
पिछली सदी के मध्य में यूरोप में कल-कारखानों का तेज विकास हो रहा था। पूंजीवादी औद्योगिक क्रान्ति तेजी से आगे डग भर रही थी। इसके साथ ही संगठित औद्योगिक मजदूर वर्ग की ताकत और चेतना बढ़ती जा रही थी। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के मजदूर अपने शोषण के विरुद्ध संघर्ष को ज्यादा से ज्यादा संगठित रूप में चलाने लगे थे।
मजदूरों की मुक्ति और समाजवाद के विभिन्न विचार भी पैदा हो चुके थे और मजदूर उनके प्रभाव में थे। पर सबसे बड़ी प्रगति तब सामने आई जब मार्क्सवाद का जन्म हुआ। मजदूरों के पहले अन्तरराष्ट्रीय संगठन ‘कम्युनिस्ट लीग’ के घोषणापत्र के रूप में 1848 में मार्क्स और एंगेल्स ने अपनी ऐतिहासिक रचना ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ लिखी। 1865 में ‘इण्टरनेशनल वर्किंगमेंस एसोसियेशन’ (पहला इण्टरनेशनल) का गठन हुआ, जिसने पूरे यूरोप के मजदूर आन्दोलन को जबर्दस्त रूप से प्रभावित किया। 1868 में मार्क्स की अमर रचना ‘पूंजी’ के प्रकाशित होने तक मार्क्स और एंगेल्स के विचार (वैज्ञानिक समाजवाद) मजदूर आन्दोलन में व्याप्त तमाम काल्पनिक समाजवादी, सुधारवादी और अराजकतावादी विचारों को पीछे ढकेल चुके थे। पर अफ़सोस की बात थी कि फ्रांस के मजदूर आन्दोलन में मार्क्स के अनुयायी अभी कम थे। वहां अराजकतावादी विचारों का काफ़ी प्रभाव था, जिनके चलते पेरिस कम्यून को आगे चलकर घातक नुकसान भी उठाना पड़ा।
जुलाई 1870 में फ्रांस और प्रशा के बीच युद्ध छिड़ गया। दोनों देशों के पूंजीवादी शासक वर्ग इसकी पहले से ही गुपचुप तैयारी कर रहे थे। “लहू और लोहे” के बल पर जर्मनी को एक करने पर तुला हुआ बिस्मार्क फ्रांस के लोहे की खानों से समृद्ध और सैनिक महत्व वाले एल्सास और लोरेन प्रदेशों को दखल करना चाहता था और फ्रांस का शासक नेपोलियन तृतीय सोचता था कि दूसरे देशों से जंग जीतकर वह अपने अन्दरूनी राजनीतिक संकट पर काबू पा लेगा।
युद्ध छिड़ते ही दोनों देशों में अन्धराष्ट्रवादी और पूंजीवादी राष्ट्रभक्ति की भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। केवल प्रथम इण्टरनेशनल ने मार्क्स की रहनुमाई में, दोनों देशों के मजदूरों का आह्वान किया कि अन्धराष्ट्रवादी भावनाओं में बहने तथा युद्धोन्माद पैदा करने वाले पूंजीवादी प्रचार के धोखे में आने के बजाय वे सैन्यवाद का मुकाबला करें।
बहरहाल, भ्रष्टाचार और कुशासन से जर्जर नेपोलियन तृतीय की सत्ता, सितम्बर 1870 में प्रशा से पराजय के तत्काल बाद, भरभराकर ढह गई और पेरिस में जनतंत्र की घोषणा की गई।
पर वास्तविकता यह थी कि इस जनतंत्र पर पूरी तरह बड़े पूंजीपति काबिज थे जो जागृत मेहनतकशों से आतंकित थे। इस नई सरकार के सामने आर्थिक रूप से जर्जर फ्रांस को बचाने के दो ही रास्ते थे-या तो दुश्मन के सामने वह आत्मसमर्पण कर दे या अवाम को हथियारबन्द करके राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध संगठित करे। पूंजीपतियों की वफ़ादार सरकार ने बेधड़क पहला रास्ता चुना क्योंकि सशस्त्र अवाम से वह पहले से ही बेहद खौफज़दा था। सरकार के इस कदम से नफ़रत से भरी हुई जनता उसे “राष्ट्रीय दगाबाजी की सरकार” कहने लगी।
जनवरी 1871 में पेरिस ने आत्मसमर्पण किया। फ्रांसीसी सरजमीन पर, वर्साय में, जर्मन बादशाह के साम्राज्य की घोषणा हुई और प्रशा का राजा ही पहला जर्मन बादशाह बना। 28 फ़रवरी की शांति संधि में 5 अरब फ्रांक के जुर्माने के साथ ही पूरा अल्सास और लोरेन प्रदेश फ्रांस ने शत्रु को दे दिया। फ़रवरी, 1871 में हुए चुनाव के बाद घोर प्रतिक्रियावादी थियेर फ्रांसीसी सरकार का प्रमुख बना।
युद्ध के दौरान बने सैन्यदल ‘नेशनल गार्ड्स’ में मुख्यतः मजदूर ही शामिल थे। हथियारबन्द मजदूरों से भयभीत पूंजीपतियों का कुत्ता थियेर ‘नेशनल गार्ड्स’ में शामिल मजदूरों की बन्दूकें ले लेना चाहता था, क्योंकि उसे डर था कि वे कभी भी पूंजीपतियों पर हमला बोल सकते हैं।
1 मार्च, 1871 को भिनसारे ही थियेर सरकार ने अपनी फ़ौजों को हुक्म दिया कि वे पेरिस के सभी मजदूरों से सारे हथियार वसूल लें। मगर फ़ौजें इस हुक्म की तामीली में नाकाम रहीं। पेरिस की तमाम मेहनतकश आबादी सड़कों पर उतर आई। दो सैनिक जनरल मार डाले गये। सेना जनता से मिल गई। थियेर वर्साय भाग गया और वहां से ‘नेशनल असेम्बली’ की घोषणा करने लगा।
इसके बाद, पेरिस के मजदूरों ने आम चुनाव की एक तिथि तय की और 26 मार्च को सत्ता के सर्वोच्च अंग की हैसियत से कम्यून निर्वाचित हो गया। 28 मार्च को नगर भवन के सामने आम सभा हुई और उसमें कम्यून की घोषणा हुई। इतिहास में पहली बार मजदूर वर्ग सत्तासीन हुआ।
दुनिया की इस पहली मजदूर सरकार की स्थापना पूंजीवादी राज्य की नौकरशाही को पूरी तरह भंग करके सच्चे सार्विक मताधिकार के बाद हुई, जिसके चलते दर्जी, नाई, मोची, प्रेस मजदूर-ये सभी कम्यून के सदस्य चुने गये। कम्यून को कार्यपालिका और विधायिका, यानी सरकार और संसद-दोनों का ही काम करना था। पुरानी पुलिस और सेना को भंग कर दिया गया और पूरी मेहनतकश जनता को शस्त्र-सज्जित करने का काम शुरू किया गया। सत्तासीन होने के महज दो दिन बाद ही पुरानी सरकार के सभी बदनाम कानूनों को कम्यून ने रद्द कर दिया।
अक्टूबर 1870 से लेकर अप्रैल 1871 तक का सारा किराया रद्द कर दिया गया। गिरवी रखी गई चीजों की उधार दफ्तर द्वारा नीलामी बन्द कर दी गयी। सूदखोरी पर रोक लग गई।
कम्यून ने पहली बार वास्तविक धर्मनिरपेक्ष जनवाद को साकार करते हुए यह घोषणा की कि धर्म हर आदमी का निजी मामला है और राज्य या सरकार को इससे एकदम अलग रखा जायेगा। नतीजतन, चर्च को सत्ता से अलग कर दिया गया। धार्मिक रीतियों पर पैसे की फि़जूलखर्ची पर रोक लग गई। चर्च की सम्पत्ति को राष्ट्र की सम्पत्ति घोषित कर दिया गया। शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक चिन्हों, तस्वीरों और पूजा-प्रार्थना पर रोक लगा दी गयी।
कम्यून में विदेशी भी चुनकर आये थे क्योंकि कम्यून का मानना था कि सभी देशों के मेहनतकश भाई-भाई हैं। यही सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद का सिद्धान्त है। कम्यून ने यह घोषणा की कि “कम्यून का झण्डा विश्व गणराज्य का झण्डा है।” कम्यून अन्धराष्ट्रवाद, विस्तारवाद और राष्ट्रों के बीच युद्ध का विरोधी था। नेपोलियन द्वारा स्थापित विजय-स्तम्भ को इसीलिए ढहा दिया गया कि वह अन्धराष्ट्रवाद, विस्तारवाद और सैन्यवाद का प्रतीक था। 6 अप्रैल को ‘नेशनल गार्ड्स’ की 137वीं बटालियन ने उस बदनाम गिलोटीन को बाहर निकालकर सार्वजनिक तौर पर जला दिया जिससे गत 75 वर्षों के भीतर सैकड़ों लोगों को मृत्युदण्ड दिया गया था। यह बुर्जुआ राज्यसत्ता के आतंक के नाश का प्रतीक था।
कम्यून में महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण ओहदे और जिम्मेदारी वाले व्यक्ति को भी कोई विशेषाधिकार नहीं हासिल था। मजदूर और अफ़सरों-मंत्रियों के तनख्वाहों के भीतर पूंजीवादी हुकूमत के दौरान जो आकाश-पाताल का अन्तर था, उसे खतम कर दिया गया। अप्रैल में यह आज्ञप्ति जारी हुई कि किसी भी अधिकारी को 6,000 फ्रैंक सालाना से अधिक तनख्वाह नहीं मिलेगी।
यह रकम फ्रांस के एक कुशल मजदूर की सालाना आमदनी के बराबर थी। इसके साथ ही, न्यूनतम तनख्वाह 800 फ्रैंक सालाना से बढ़ाकर 1200 फ्रैंक कर दी गयी। अधिकारियों के एक से अधिक पदों का काम करने की एवज में किसी तरह का अतिरिक्त पारिश्रमिक या भत्ता पाने पर रोक लगा दी गयी। कम तनख्वाह वाले कर्मचारियों के जीवनयापन को सुगम बनाने के लिए तनख्वाहों से होने वाली सभी कटौतियों और अर्थदण्डों पर भी रोक लगा दी गयी।
कम्यून के कई सदस्यों ने आगे बढ़कर मिसाल पेश करने के लिए अपने मंजूर वेतन-भत्ते और सुविधाओं को भी छोड़ने का काम किया।
16 अप्रैल को कम्यून ने उन सभी कारखानों को फि़र से शुरू करने का आदेश दिया, जिन्हें उनके मालिक बन्द करके भाग गये थे। इन कारखानों के मजदूरों को कोआपरेटिव बनाने की सलाह दी गयी। ब्रेड बनाने वाले कारखानों में रातभर काम करने का चलन रोक दिया गया। रोजगार दफ्तर को बन्द कर दिया गया क्योंकि ये दलालों के कब्जे में थे जो मजदूरों का घिनौना शोषण करते थे।
पेरिस कम्यून ने सरकार चलाने के काम को “रहस्यमय”, “विशिष्ट” और “महाविद्वानों” के काम के बजाय सीधे-सीधे एक मजदूर के कर्तव्य में बदल दिया। राज्य के पदाधिकारी “विशेष औजारों से” काम करने वाले मजदूरों से अधिक कुछ भी नहीं थे।
पेरिस कम्यून में आम मेहनतकश जनसमुदाय वास्तविक स्वामी और शासक था। जब तक कम्यून कायम रहा, जन समुदाय व्यापक पैमाने पर संगठित था और सभी अहम राजकीय मामलों पर लोग अपने-अपने संगठनों में विचार-विमर्श करते थे। प्रतिदिन क्लब-मीटिंगों में करीब 20,000 ऐक्टिविस्ट हिस्सा लेते थे। कम्यून न सिर्फ़ इन बैठकों के नतीजों, सुझावों पर, बल्कि यूरोप के अन्य हिस्सों तथा प्रथम इण्टरनेशनल की विभिन्न शाखाओं से प्राप्त सुझावों पर भी विचार-विमर्श करता था। जनसमुदाय की चौकसी और आलोचना को कम्यून के सदस्य पूरी-पूरी तरजीह देते थे।
कम्यून ने जो ऐतिहासिक कदम उठाये, उन्हें लेकर वह बहुत दूर तक आगे नहीं चल सका। अपने जन्म से ही वह दुश्मनों से घिरा हुआ था, जो उसे नेस्तनाबूद करने पर तुले हुए थे। (‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ के शब्दों के अनुसार) बूढे़ यूरोप को “कम्युनिज्म का जो हौवा” 1848 में ही सता रहा था, उसे साक्षात पेरिस में खड़ा देखकर यूरोप के सभी देशों के पूंजीपतियों के कलेजे दहल उठे थे। कम्यून को कुचलने के लिए सभी प्रतिक्रियावादी ताकतें एकजुट हो गई थीं।
पेरिस के मजदूरों के विद्रोह के ठीक पूर्व मार्क्स और एंगेल्स का यह आकलन था कि अभी इसके लिए परिस्थितियाँ पूरी तरह तैयार नहीं हैं। अतः उनका सुझाव था कि क्रान्ति कुछ और तैयारियों के बाद शुरू की जानी चाहिये। पर एक बार जब पेरिस कम्यून अस्तित्व में आ गया तो उन्होंने उसका क्रान्तिकारी अभिनन्दन और पुरजोर समर्थन किया।
मार्क्स ने समाजवाद के उस शिशु मॉडल का अत्यन्त बारीकी से अध्ययन किया जो पेरिस के मजदूरों ने अपनी पहलकदमी और सामूहिक रचनात्मकता से खड़ा किया था। इसके साथ ही मार्क्स कम्यून के भविष्य को लेकर लगातार बहुत अधिक चिन्तित थे और अपने सम्पर्कों तथा इण्टरनेशनल की फ्रांस शाखा के जरिये कम्यून को लगातार अपने सुझाव दे रहे थे।
मार्क्स यह स्पष्ट समझ रहे थे कि पेरिस कम्यून को कुचलने के लिये बिस्मार्क की जो प्रशियाई फ़ौजें पेरिस के शहरपनाह के पास ही खड़ी थीं, वे या तो थियेर को मदद करतीं या फि़र खुद ही पेरिस की ओर कूच कर देतीं। इसलिए वे लगातार राय दे रहे थे कि पेरिस कम्यून की जीत को पुख्ता करने के लिए जरूरी है कि पेरिस की कामगारों की सेना पेरिस में प्रतिक्रान्ति की हर कोशिश को कुचलकर बिना रुके वर्साय की ओर कूच कर जाये जो थियेर सरकार के साथ ही पेरिस के सभी रईसों का पनाहगाह बना हुआ था। उनका कहना था कि इससे कम्यून की जीत और पुख्ता हो जाती और सर्वहारा क्रान्ति पूरे देश में फ़ैलायी जा सकती थी। यह भेद बाद में खुला कि थियेर के पास उस समय कुल जमा 27 हजार पस्तहिम्मत फ़ौजी थे, जिन्हें पेरिस के एक लाख ‘नेशनल गार्ड्स’ चुटकी बजाते धूल चटा सकते थे।
पर पेरिस कम्यून के बहादुर कम्यूनार्ड यहीं पर चूक गये। उन्होंने पेरिस में तो मजदूर वर्ग की फ़ौलादी सत्ता कायम की और बुर्जुआ वर्ग के साथ कोई रू-रियायत नहीं बरती, लेकिन वे भूल गये कि पेरिस के बाहर थियेर के पीछे सिर्फ़ फ्रांस के ही नहीं, बल्कि पूरे यूरोप के प्रतिक्रियावादी एकजुट हो रहे हैं। मार्क्स ने कम्यून के प्रमुख नेताओं-फ्रांकेल और वाल्यां को आगाह किया कि पेरिस को घेरने के लिए थियेर और प्रशियाइयों के बीच सौदेबाजी हो सकती है, अतः प्रशियाई लश्करों को पीछे धकेलने के लिए मोंतमार्त्र की उत्तरी पाख की किलेबन्दी कर लेनी चाहिये। मार्क्स इस बात को लेकर बहुत चिन्तित थे कि कम्यून वाले अपने को महज बचाव ही बचाव तक सीमित रखकर बेशकीमती समय गंवा रहे हैं और वर्साय वालों को अपने सैन्यबल की किलेबन्दी कर लेने का मौका दे रहे हैं। उन्हों कम्यूनार्डों को लिखा कि प्रतिक्रियावादी की मांद को ध्वस्त कर डालिये, फ्रांसीसी राष्ट्रीय बैंक के खजाने जब्त कर लीजिए और क्रान्तिकारी पेरिस के लिए प्रान्तों का समर्थन हासिल कीजिए।
मार्क्स को यह भी स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्तों पर गठित एक पार्टी का अभाव उन ऐतिहासिक घड़ियों में कम्यून की गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित कर रहा था। इंटरनेशनल की फ्रांस शाखा सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक हरावल बनने से चूक गई थी। उसके अन्दर मार्क्सवादी विचारधारा के लोगों की संख्या भी बहुत कम थी। फ्रांसीसी मजदूरों में सैद्धान्तिक पहलू बहुत कमजोर था। उस समय तक ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’, ‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष’, ‘पूंजी’ आदि मार्क्स की प्रमुख रचनायें अभी फ्रांसीसी भाषा में प्रकाशित भी नहीं हुई थीं।
कम्यून के नेतृत्व में बहुतेरे ब्लांकीवादी और प्रूधोंवादी शामिल थे, जो मार्क्सवादी सिद्धान्तों से या तो परिचित ही नहीं थे, या फि़र उसके विरोधी थे। आम सर्वहाराओं द्वारा आगे ठेल दिये जाने पर उन्होंने सत्ता हाथ में लेने के बाद बहुतेरी चीजों को सही ढंग से अंजाम दिया और आने वाली सर्वहारा क्रान्तियों के लिए बहुमूल्य शिक्षायें दीं, पर अपनी राजनीतिक चेतना की कमी के कारण उन्होंने बहुतेरी गलतियां भी कीं।
कम्यूनार्डों की एक अहम गलती यह थी कि वे दुश्मन की शान्तिवार्ताओं की धोखाधड़ी के शिकार हो गये और दुश्मन ने इस बीच युद्ध की तैयारियां मुकम्मिल कर लीं। दुश्मन का पूरी तरह सफ़ाया न करना, वर्साय पर हमला न करना, और क्रान्ति को पूरे देश में न फ़ैलाना कम्यून वालों की सबसे बड़ी भूल थी और सच यह है कि नेतृत्व में मार्क्सवादी विचारधारा के अभाव के चलते यह गलती होनी ही थी।
“जब वर्साय अपने छुरे तेज कर रहा था, तो पेरिस मतदान में लगा हुआ था; जब वर्साय युद्ध की तैयारी कर रहा था तो पेरिस वार्ताएं कर रहा था।” फ़लतः 1871 की मई आते-आते थियेर के सैनिकों ने पेरिस पर हमला बोल दिया। वर्साय के लुटेरों की भाड़े की सेना का कम्युनार्डों ने जमकर मुकाबला किया और एकबारगी तो उसे पीछे भी धकेल दिया, पर वर्साय की सेना पेरिस की घेरेबन्दी करके गोलाबारी करती रही। इसी दौरान प्रशा ने फ्रांस के बन्दी बनाये गये दसियों हजार सैनिकों को रिहा कर थियेर की भारी मदद की थी। थियेर की सेना दक्षिणी मोर्चे के दो किलों को जीतकर पेरिस की दहलीज पर पहुंच गई। प्रशा की सेना ने भी आगे बढ़ने में उनकी परोक्ष मदद की। 21 मई 1871 को वर्साय का दस्युदल अपने कसाइयों के छुरों के साथ पेरिस में घुस पड़ा। शहर की सड़कों-चौराहों पर और विशेषकर मजदूर बस्तियों में घमासान युद्ध हुआ। आखिरकार, 8 दिनों के बेमिसाल बहादुराना संघर्ष के बाद पेरिस के बहादुर सर्वहारा योद्धा पराजित हो गये। इस खूनी सप्ताह में 26,000 कामगार कम्यून की रक्षा करते हुए शहीद हो गये। विजयी प्रतिक्रियावादियों ने सड़कों पर दमन का जो ताण्डव किया, वह बेमिसाल था। नागरिकों को कतारों मे खड़ाकर, हाथों के घट्ठों को देखकर कामगारों को अलग करके गोली मार दी जाती थी। गिरफ्तार लोगों के अतिरिक्त चर्च में शरण लिये लोगों और अस्पतालों में घायल पड़े सैनिकों को भी गोली मार दी गयी। उन्होंने बुजुर्ग मजदूरों को यह कहते हुए गोली मार दी कि ‘इन्होंने बार-बार बगावतें की हैं और ये खांटी अपराधी हैं।’ औरत-मजदूरों को यह कहकर गोली मार दी गई कि ये “स्त्री अग्नि बम” हैं और यह कि ये “सिर्फ़ मरने के बाद ही” औरतों जैसी लगती हैं। बाल मजदूरों को यह कहकर गोली मार दी गई कि “ये बड़े होकर बागी बनेंगे।” यह नरंसहार पूरे जून के महीने चलता रहा। पेरिस लाशों से पट गया। सैन नदी खून की नदी बन गयी। कम्यून खून के समन्दर में डुबो दिया गया। कम्यूनार्डों के रक्त से इतिहास ने मजदूरों के लिए यह कड़वी शिक्षा लिखी कि सर्वहारा वर्ग को क्रान्ति को अन्त तक चलाना होगा। सत्ता न तो शान्तिपूर्वक मिलेगी, न ही शान्तिपूर्वक उसकी हिफ़ाजत की जा सकेगी। कम्यून की यह शिक्षा थी कि भागते हुए डकैतों का अन्त तक पीछा किया जाना चाहिये, पानी में डूबते चूहों को तैरकर किनारे आने का मौका नहीं देना चाहिये, दुश्मन को फि़र से दम नहीं हासिल करने देना चाहिये और तब तक चैन की सांस नहीं लेनी चाहिये जब तक पूंजीवादी दुश्मन कहीं किसी भी कोने-अंतरे में जीवित हो। पेरिस कम्यून के बाद भी, विश्व इतिहास में मजदूर वर्ग जब-जब इन शिक्षाओं को भूला, तब-तब उसे शिकस्त मिली। काउत्स्की, अलब्राउडर, टीटो, ख्रुश्चेव और देङ सियाओ-पिङ विश्व सर्वहारा की क्रान्तिकारी सतर्कता को कमजोर करते हुए यह बताने की कोशिश करते रहे कि बुर्जुआ वर्ग को समझा-बुझाकर, चुनाव में हराकर, जनमत का दबाव बनाकर सर्वहारा वर्ग सत्ता ले सकता है। इसीलिए वे गद्दार थे, समाजवादी मुखौटे वाले पूंजीवादी थे, संशोधनवादी थे, पूंजीवादी राह के राही थी। भारत में भी भाकपा, माकपा, भाकपा (मा-ले) और तमाम ऐसे चुनावी वामपन्थी ऐसे ही रंगे सियार हैं।
पेरिस कम्यून के शहीदों ने अपने रक्त से एक अमिट इतिहास लिख डाला, सर्वहारा वर्ग की आगे की क्रान्तियों के मार्गदर्शन के लिए उन्होंने बहुमूल्य शिक्षाएं दीं और अपनी शहादतों से रोशनी की एक मीनार खड़ी कर दी।
कम्यून के जीवनकाल में ही कार्ल मार्क्स ने लिखा था: “यदि कम्यून को नष्ट भी कर दिया गया, तब भी संघर्ष सिर्फ़ स्थगित होगा। कम्यून के सिद्धान्त शाश्वत और अनश्वर हैं, जब तक मजदूर वर्ग मुक्त नहीं हो जाता, तब तक ये सिद्धान्त बार-बार प्रकट होते रहेंगे।” मजदूरों की पहली हथियारबन्द बगावत और पहली सर्वहारा सत्ता की अहमियत के नजरिये से ही मार्क्स ने कहा था, “18 मार्च का गौरवमय आन्दोलन मानव जाति को वर्ग-शासन से सदा के लिए मुक्त कराने वाला महान सामाजिक क्रान्ति का प्रभात है।”
दुनिया भर के मजदूरों के लिए इसीलिए पेरिस कम्यून की वर्षगांठ एक त्योहार है, जैसा कि एंगेल्स ने काफ़ी पहले, कम्यून की इक्कीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर ही, बताया था, “बुर्जुआ वर्ग को अपनी 14 जुलाई या 22 सितम्बर को उत्सव मनाने दो। सर्वहारा वर्ग का त्योहार तो सभी जगह हमेशा 18 मार्च ही होगा।”
मजदूर वर्ग आज भी पेरिस कम्यून को इसी रूप में याद करता है, इसकी जरूरी शिक्षाओं से सबक लेता है और आगे डग भरने के मंसूबे बांधता है।
आइये, निचोड़ के तौर पर पेरिस कम्यून की जरूरी शिक्षाओं की संक्षिप्त चर्चा एक बार फि़र कर ली जाये।
(1) पेरिस में कम्यून की पराजय के दो दिनों बाद, मार्क्स ने 30 मई, 1871 को पहले इण्टरनेशनल की सामान्य परिषद की बैठक में कम्यून का मूल्यांकन करते हुए एक रिपोर्ट पढ़ी। यही रिपोर्ट ‘फ्रांस में गृहयुद्ध’ शीर्षक प्रसिद्ध कृति है, जो आज भी हम सबके लिए एक बेहद जरूरी किताब है।
मार्क्स ने कम्यून की परिस्थितियों, कारणों और अनुभवों का निचोड़ निकालते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि “मजदूर वर्ग बनी-बनाई राज्य मशीनरी को ज्यों का त्यों हाथ में नहीं ले सकता और उसे अपना मकसद पूरा करने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता।” उन्होंने बताया कि सर्वहारा वर्ग को पुरानी राज्य मशीनरी को “तोड़ने” और “चकनाचूर करने के लिए” क्रान्तिकारी हिंसा का इस्तेमाल करना चाहिये तथा “सर्वहारा अधिनाकत्व को लागू करना चाहिए।”
इस तरह मार्क्स और एंगेल्स ने पेरिस कम्यून के अनुभवों के आधार पर क्रान्ति के विज्ञान में एक महत्वपूर्ण इजाफ़ा किया, जैसा कि लेनिन ने बताया था कि मार्क्सवादी वह नहीं है जो सिर्फ़ वर्ग-संघर्ष को मानता है, बल्कि वह है जो वर्ग-संघर्ष के साथ सर्वहारा अधिनायकत्व को भी मानता है।
मार्क्स ने बुर्जुआ और सर्वहारा राज्यसत्ता के प्रश्न पर जो मौलिक विचार रखा तथा लेनिन ने जिसे आगे बढ़ाया, उसका स्पष्ट प्रस्थान बिन्दु पेरिस कम्यून की शिक्षाओं से ही होता है। मार्क्स ने यह स्पष्ट किया कि “सर्वहारा अधिनायकत्व का पहला अवयव सर्वहारा वर्ग की सेना है। मजदूर वर्ग को अपनी मुक्ति का अधिकार युद्धभूमि में प्राप्त करना चाहिये।”
पेरिस कम्यून की असफ़लता का निचोड़ निकालते हुए मार्क्स और एंगेल्स ने यह और अधिक स्पष्ट किया कि सर्वहारा वर्ग की सत्ता शस्त्रबल से हासिल होती है और इसी के सहारे कायम रह सकती है। यह तभी कायम रह सकती है जबकि बुर्जुआ वर्ग की सत्ता को ध्वस्त करने के बाद भी उसे सम्भलने का मौका न दिया जाये और उसके समूल नाश के लिए जंग जारी रखी जाये।
आज भी यह सच है कि सर्वहारा वर्ग को आर्थिक मांगों और राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए पूंजीवादी व्यवस्था की असलियत तथा अपने ऐतिहासिक मिशन को समझने में चाहे जितना भी समय लगे, चाहे वह संघर्ष के तमाम रूपों के साथ ही प्रचार और भंडाफ़ोड़ के लिए कानूनी संघर्षों का इस्तेमाल तथा चुनावों का ‘टैक्टिकल’ इस्तेमाल भी क्यों न करे, अन्तिम फ़ैसला बल-प्रयोग से, सशस्त्र क्रान्ति से ही होगा और वह क्रान्ति तभी टिकी रहेगी, जब दुश्मनों पर सर्वतोमुखी अधिनायकत्व कायम हो। आगे चलकर लेनिन के नेतृत्व में रूस की समाजवादी क्रान्ति ने इसी शिक्षा को साकार किया। चीन में भी 1949 में यही हुआ और फि़र 1966 से 1976 के बीच महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान माओ ने पेरिस कम्यून और अक्टूबर क्रान्ति की सर्वहारा अधिनायकत्व सम्बन्धी शिक्षाओं को आगे बढ़ाते हुए यह निष्कर्ष दिया कि समाजवाद तभी टिका रह सकता है जबकि बुर्जुआ वर्ग पर चौतरफ़ा सर्वहारा अधिनायकत्व कायम रखते हुए क्रान्ति को लगातार जारी रखा जाये।
इसीलिए सर्वहारा क्रान्तिकारियों का मानना है कि विश्व सर्वहारा क्रान्ति की विजय यात्रा के तीन सबसे महत्वपूर्ण मील के पत्थर हैं-पेरिस कम्यून, अक्टूबर 1917 की रूसी क्रान्ति और चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति।
(2) सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक मार्क्स और एंगेल्स ने पेरिस कम्यून में जन समुदाय की क्रान्तिकारी पहलकदमी को विशेष महत्व दिया। कम्यून के अनुभव हमें बताते हैं कि सर्वहारा क्रान्ति और सर्वहारा अधिनायकत्व की विजय के लिए जरूरी है कि लाखों-करोड़ों जनसमुदाय की क्रान्तिकारी सक्रियता पर भरोसा रखा जाये और जनसमुदाय की इतिहास का निर्माण करने की महान शक्ति को पूर्ण रूप से उजागर किया जाये।
नकली वामपन्थी जनता से डरते हैं और चाहते हैं कि वह सोई रहे। अतिवामपन्थी दुस्साहसवादी लाइन को मानने वाले लोग जनता को मूढ़मति मानते हैं और खुद को उनका बुद्धिमान और बहादुर उद्धारक! क्रान्तिकारी जनदिशा बताती है कि व्यापक मेहनतकश जनता की शक्ति और बुद्धिमत्ता में भरोसा करके उसे जागृत, गोलबन्द और संगठित किया जाना चाहिये।
पेरिस कम्यून में शामिल मेहनतकशों ने राजकाज चलाकर, बेहद महत्वपूर्ण व मौलिक फ़ैसले लेकर अपार सर्जनात्मकता का परिचय दिया था। यदि उनका मार्गदर्शन करने वाली सही विचारधारा से लैस एक क्रान्तिकारी पार्टी होती तो यह प्रयोग आगे बढ़ सकता था। पर अपने छोटे से जीवन में भी कम्यून ने यह तो साबित ही कर दिखाया कि पुरानी दुनिया को खाक में मिलाने के बाद व्यापक मेहनतकश अवाम की सामूहिक शक्ति और सामूहिक मेधा एक नई दुनिया का भी ढांचा खड़ा कर सकती है, एक नये जीवन का भी ताना-बाना बुन सकती है।
(3) मार्क्स और एंगेल्स ने पेरिस कम्यून का सार-संकलन करते हुए यह नतीजा निकाला था कि, “सम्पत्तिवान वर्गों की संयुक्त सत्ता के खिलाफ़ अपने संघर्ष में मजदूर वर्ग अपने को, सम्पत्तिवान वर्गों द्वारा स्थापित तमाम पुरानी पार्टियों के विरुद्ध और उनसे भिन्न, एक राजनीतिक पार्टी में संगठित करके ही, एक वर्ग की हैसियत से कार्रवाई कर सकता है।”
जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है, पेरिस कम्यून की असफ़लता का बुनियादी कारण यह था कि उस समय की ऐतिहासिक परिस्थितियों में मार्क्सवाद मजदूर आन्दोलन की मार्गदर्शक विचारधारा के रूप में अभी स्थापित नहीं हो पाया था और ऐसी एक सर्वहारा क्रान्तिकारी पार्टी अभी स्थापित नहीं हो पायी थी जिसकी विचारधारा मार्क्सवाद हो। ऐसी स्थिति में पेरिस कम्यून की असफ़लता एक ऐतिहासिक नियति थी। एक क्रान्तिकारी पार्टी के अभाव और कम्यून में ब्लांकी और प्रूधों के गलत विचारों को मानने वालों के प्रमुख स्थान पर होने के कारण ही माओ ने एक बार कहा था कि कम्यून यदि जीवित भी रह जाता तो (विचारधारा और पार्टी के अभाव में) एक प्रतिक्रियावादी कम्यून बन जाता। बहरहाल, कम्यून की असफ़लता की ऐतिहासिक नियति ने ही आगे की सर्वहारा क्रान्तियों की सफ़लता की बुनियादी शर्त पैदा की।
मार्क्स और एंगेल्स की पार्टी-विषयक शिक्षाओं को आगे बढ़ाते हुए ही लेनिन एक सही क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी का सिद्धान्त विकसित कर सके और ऐसी पार्टी खड़ी करे बोल्शेविक क्रान्ति को सम्भव बना सके। चीन की क्रान्ति भी इसीलिए सम्भव हो सकी।
आज जब सर्वहारा वर्ग सर्वहारा क्रान्ति का नया चक्र शुरू करने की भूमिका तैयार कर रहा है तो यह बुनियादी शिक्षा उसे पूरी तरह आत्मसात कर लेनी होगी। भारत के सर्वहारा क्रान्तिकारियों और मजूदर वर्ग को भी यह शिक्षा गांठ बांध लेनी होगी कि क्रान्ति के लिए एक देशस्तर की नई, क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी खड़ी करना सर्वोपरि आवश्यकता है जो मार्क्सवाद-लेनिनवाद को अपना मार्गदर्शक बनाये, इसकी सर्वव्यापी सच्चाई को अपने देश की ठोस परिस्थितियों के साथ व क्रान्तिकारी कार्यों के ठोस व्यवहार के साथ मिलाकर एक सही कार्यदिशा तय करे व उसे अमल में लाये। यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि लम्बे प्रयासों के बाद एक बार जब सही लाइन पर मजबूत पकड़ हो जाती है और उसे लागू किया जाने लगता है तो कमजोर ताकत भी मजबूत और व्यापक हो जाती है तथा कुछ-कुछ खास मोड़ों पर तो ताकत में चमत्कारी बढ़ोत्तरी सभी गणनाओं-अनुमानों को पीछे छोड़ देती है। केवल तभी व्यापक मेहनतकश अवाम की ताकत के आधार पर, पार्टी के नेतृत्व में सशस्त्र शक्तियां कायम हो सकती हैं और राज्यसत्ता हासिल की जा सकती है।
(4) सत्ता हासिल करने के बाद सर्वहारा अधिनायकत्व को, राज्यतंत्र के अंगों-उपकरणों को पतित होने से कैसे रोका जाये, सर्वहारा सत्ता के केन्द्रों में नये बुर्जुआ तत्वों के पैदा होने को कैसे रोका जाये, सरकारी कामकाज के लिए प्राप्त सुविधाओं को विशेषाधिकार बनने से और नये नौकरशाह पैदा होने से कैसे रोका जाये?-इन प्रश्नों पर लेनिन ने काफ़ी विचार किया था आगे चलकर चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान जब राज्य और पार्टी के भीतर के पूंजीवादी पथगामियों के विरुद्ध संघर्ष हो रहा था तो माओ ने इस मसले पर विस्तृत सोच-विचार के बाद कुछ बहुमूल्य समाधान प्रस्तुत किये।
उस दौर में, यानी चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान अल्पजीवी पेरिस कम्यून द्वारा इस दिशा में उठाये गये विभिन्न मौलिक, अन्वेषणात्मक कदमों और विभिन्न अन्तरिम, आजमाइशी कार्रवाइयों के ऐतिहासिक महत्व पर बहुत बल दिया गया था और इससे काफ़ी कुछ सीखा गया था।
इससे काफ़ी पहले, फ़्रेडरिक एंगेल्स ने पिछली सदी में ही इस सम्बन्ध में लिखा था: “राज्य और राज्य के उपकरणों के समाज के सेवक से समाज के स्वामी बनने की स्थिति में इस रूपान्तरण के खिलाफ़… जो सभी पूर्ववर्ती राज्यों में अपरिहार्यतः घटित हुआ है…, कम्यून ने दो अचूक साधनों का इस्तेमाल किया। पहला यह कि इसने प्रशासकीय, न्यायिक और शैक्षिक-सभी पदों पर नियुक्तियां सार्विक मताधिकार के आधार पर चुनाव के द्वारा की और इस शर्त के साथ कि कभी भी उन्हीं निर्वाचकों द्वारा (चुने गये व्यक्ति को) वापस भी बुलाया जा सकता था। और दूसरा यह कि ऊंचे और निचले दर्जे के सभी पदाधिकारियों को वही वेतन मिलता था जो अन्य मजदूरेां को।… इस तरह प्रतिनिधि संस्थाओं के प्रतिनिधियों पर लगाये गये बाध्यताकारी अधिदेशों के अतिरिक्त (उपरोक्त दो निर्णयों द्वारा) पदलोलुपता और कैरियरवाद के रास्ते में एक प्रभावी अवरोधक लगाया गया।”
सत्ता हासिल करने के बाद राज्य के उपकरण समाज के सेवक से समाज के स्वामी के रूप में न बदल जायें, इसकी गारण्टी करने की कोशिश में पेरिस कम्यून ने यह स्पष्ट कर दिया कि बुर्जुआ जनवाद किस तरह एक ढकोसला होता है और किस तरह सर्वहारा जनवाद ही वास्तविक जनवाद होता है। पेरिस कम्यून का यह प्रयोग चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान एक बार फि़र जोर देकर रेखांकित किया गया और इसे व्यवहार में आगे भी बढ़ाया गया। वहां भी पूंजीवादी अधिकारों पर चोट करने के लिए तनख्वाहों के अन्तर के प्रति जागरूकता पैदा की गई, सत्ता में बैठे लोगों के विशेषाधिकार कम करने पर जोर दिया गया, जनता की क्रान्तिकारी चौकसी को उन्नत किया गया, और हर स्तर पर निर्णय की प्रक्रिया में उसकी भागीदारी बढ़ाने की कोशिश की गई।
मार्क्स और एंगेल्स ने पेरिस कम्यून की दसवीं जयन्ती के अवसर पर भरपूर क्रान्तिकारी जोश के साथ यूरोपीय मजदूर वर्ग से कहा था, “कम्यून, जो पुरानी दुनिया के शासकों के विचार में पूर्ण रूप से नष्ट हो चुका है, पहले के किसी भी समय के मुकाबले आज और ज्यादा जीवनी-शक्ति से ओतप्रोत है। इसलिए, हम आप लोगों के साथ मिलकर यह नारा बुलन्द कर सकते हैं: कम्यून जिन्दाबाद।”
आज नई विश्व-परिस्थितियों में, एक अलग सन्दर्भ में, एक अलग जमीन पर, दुनिया भर के मुक्तिकामी सर्वहारा को एक बार फि़र यह नारा बुलन्द करने की जरूरत है-कम्यून जिन्दाबाद!
विश्व पूंजीवाद के ताजा संकटों का नया चरण पूंजीपतियों-साम्राज्यवादियों के लिए सबसे अधिक गम्भीर है। पूंजीवादी-बुद्धिजीवी-विचारक भी यह मान रहे हैं कि तमाम नुस्खों और दवाओं से रोगी को सिर्फ़ थोड़ी देर की राहत ही मिल पा रही है। आने वाले दिनों में बड़े पैमाने पर बगावतों के भड़क उठने की आशंकायें भी प्रकट की जा रही हैं। और सच पूछा जाये तो लातिन अमेरिका और एशिया से लेकर रूस और पूर्वी यूरोप तक इसके संकेत अभी के जनान्दोलनों, उभारों, हड़तालों से ही मिलने लगे हैं कि भविष्य क्या होगा। इतना तय है कि पूंजीवाद की मंजिल इतिहास का अन्त नहीं है। पूंजीवाद अमर नहीं है।
भूमण्डलीकरण के नये दौर में, पूरी दुनिया में, ज्यादा मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए ‘उन्नत मशीनों पर कम से कम मजदूर’ का फ़ार्मूला लगाकर भारी आबादी को जिस तरह सड़कों पर ढकेला जा रहा है, मजदूरों के अधिकारों में जिस तरह कटौती की जा रही है, गरीब-मध्यम किसानों को जिस तरह खाली जेब वालों की पहुंच से दूर किया जा रहा है, धनी-गरीब का अन्तर जितना नंगा होता जा रहा है, उसे लोग चुपचाप झेलते ही नहीं रहेंगे। वे उठ खड़े होंगे। यह तय है। पूंजीवाद के पास जो एकमात्र रास्ता बचा है, उस पर वह चल रहा है। लोग भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ेंगे, जो उनका एकमात्र रास्ता है।
आने वाली दुनिया के तफ़ूानों को सर्वहारा क्रान्ति के नये संस्करणों में तब्दील करने के लिए सर्वहारा वर्ग को पेरिस कम्यून, अक्टूबर क्रान्ति और सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का झण्डा एक बार फि़र उठाना ही होगा। सर्वहारा क्रान्तिकारियों के लिए जरूरी है कि मेहनतकश अवाम की विद्रोही भावना की बारूद की ढेरी तक वे विचारधारा की चेतना की चिंगारी पहुंचायें। पेरिस कम्यून की शिक्षा हमें हर तरह के सुधारवादियों-संशोधनवादियों-अर्थवादियों के खिलाफ़ लड़कर वर्ग संघर्ष की धार तेज करने के लिए प्रेरित करती है। पेरिस कम्यून की मशाल एक नई क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी खड़ी करने के लिए हमें राह दिखा रही है।
पेरिस कम्यून की हार के बाद जो थोड़े से कम्यूनार्ड भागकर फ्रांस से बाहर निकल पाये, उनमें से एक यूजीन पोतिए भी थे। 1871 की गर्मियों में लन्दन पहुंचकर पनाह लेने वाले पोतिए फ़रारी में रची हुई कुछ कविताएं भी अपने साथ लाये थे जो कम्यून की उस ज्वाला में धधकती कविताएं थीं, जो पराजय के बावजूद विश्व-सर्वहारा का मार्ग आलोकित कर रही थी। इन्हीं में से एक कविता यूरोप और फि़र दुनिया की सभी भाषाओं में अनूदित हुई और इसकी कुछ पंक्तियां पूरी दुनिया के सर्वहारा वर्ग का संघर्षनाद बन गईं।
‘इण्टरनेशनल’ नाम से प्रसिद्ध यह आह्वान गीत हर देश के मजदूर गाते हैं, एक ही धुन पर! हम भी इसे गाते हैं:
उठ जाग ओ भूखे बन्दी
अब खींचो लाल तलवार
कब तक सहोगे भाई
जालिम का अत्याचार।
तेरे रक्त से रंजित क्रन्दन
अब दस दिशि लाया रंग
ये सौ बरस के बन्धन
मिल साथ करेंगे भंग।
ये अन्तिम जंग है जिसको
जीतेंगे हम एक साथ
गाओ इण्टरेनशनल
भव स्वतंत्रता का गान।
बिगुल, मार्च 1999 और अप्रैल ’99 में दो किस्तों में प्रकाशित
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन