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कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (छठी किस्त)
1947-50 का संक्रमणकाल: क्रमिक पूँजीवादी विकास की आम दिशा का निर्धारण और संविधान की मूल प्रकृति
आलोक रंजन
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1947-50 तक का काल एक ऐसा संक्रमण काल था, जब भारतीय पूँजीपति वर्ग ने आंशिक और सीमित अर्थों में विऔपनिवेशीकरण (डीकोलोनाइजेशन) के काम को अंजाम दिया, अर्ध्दसामन्ती भूमि सम्बन्धों के क्रमिक पूँजीवादी रूपान्तरण की रूपरेखा तैयार की तथा पूँजीवादी विकास की आम नीतियाँ तैयार कीं।
विऔपनिवेशीकरण की प्रक्रिया दो अर्थों में आंशिक, अधूरी और सीमित थी। पहला इन अर्थों में कि औपनिवेशिक राज्यसत्ता के ढाँचे में आमूलगामी परिवर्तन की जगह कई बुनियादी चीजों को बरकरार रखा गया। ब्रिटिश ढंग-ढर्रे के बुर्जुआ संसदीय जनवाद के ढाँचे को ऊपर से तो अपना लिया गया लेकिन उपनिवेशवादियों से विरासत में प्राप्त सुव्यवस्थित, सुसंगठित और अनुभव सम्पन्न नौकरशाही में कोई भी फेरबदल नहीं किया गया क्योंकि यह देशी बुर्जुआ शासकों के हितों की रक्षा के लिए भी पूरी तरह अनुकूल थी। सेना और पुलिस प्रशासन के ढाँचे में भी कोई बदलाव नहीं किया गया (हाँ, सत्ता प्राप्ति के कुछ दशकों बाद शासक वर्ग ने अपने अनुभवों और दुनिया के अन्य पूँजीवादी देशों से सीखते हुए नागरिक प्रशासन, पुलिस प्रशासन, और सेना को अधिक आधुनिक और कारगर बनाने का काम अवश्य किया)। कहने के लिए एक ”प्रभुसत्ता-सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य” का दुनिया का सबसे ”वृहदाकार संविधान” अंगीकार किया गया, पर औपनिवेशिक कानून व्यवस्था (आईपीसी, सीआरपीसी, सम्पत्तिा विषयक कानून, जेल मैनुअल, पुलिस मैनुअल आदि) ज्यों के त्यों रखे गये। इस मुद्दे पर आगे यथास्थान विस्तार से चर्चा की जायेगी। जहाँ तक संविधान की बात है, तो उसकी विस्तृत विवेचना तो आगे की ही जानी है। यहाँ सिर्फ इतना उल्लेख ही शायद काफी होगा कि औपनिवेशिक ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट, 1935’ की 395 धाराओं में से 250 धाराओं को इसमें या तो ज्यों का त्यों या थोड़े बहुत संशोधन के साथ शामिल कर लिया गया। तात्पर्य यह कि औपनिवेशिक अतीत से निर्णायक विच्छेद के बजाय उत्तर औपनिवेशिक भारत के राजनीतिक-प्रशासनिक ढाँचे में औपनिवेशिक अतीत की विरासत पर्याप्त मात्रा में मौजूद थी।
आंशिक अधूरे और सीमित विऔपनिवेशीकरण दूसरा पहलू यह था कि सत्तारूढ़ भारतीय बुर्जुआ वर्ग ने साम्राज्यवाद, या विश्व पूँजीवादी तन्त्र से, निर्णायक विच्छेद नहीं किया। औपनिवेशिक दौर की तुलना में फर्क यह पड़ गया कि अब किसी एक साम्राज्यवादी शक्ति के एकाधिकार के बजाय सभी साम्राज्यवादी शक्तियों की लूट और प्रतिस्पर्धा के लिए भारतीय बाजार के द्वार खुल गये थे। साथ ही, राज्यसत्ता पर नियन्त्रण के चलते, भारतीय पूँजीपति वर्ग अन्तर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का लाभ उठा सकने में और पूँजी एवं तकनोलॉजी लेने तथा अधिशेष की लूट में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने को लेकर साम्राज्यवादियों के साथ मोल-तोल- सौदेबाजी कर पाने में अधिक सक्षम हो गया था।
वैसे देखा जाये तो साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद बीसवीं शताब्दी में उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्षों का बुर्जुआ नेतृत्व दुनिया में कहीं भी नहीं कर पाया था। यह केवल वहीं सम्भव हो पाया, जहाँ राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का नेतृत्व सर्वहारा वर्ग और उसकी हिरावल पार्टी के हाथों में था। जिन देशों के रैडिकल बुर्जुआ वर्ग ने हथियारबन्द जनसंघर्ष के द्वारा राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति को अंजाम देने की कोशिश की, वहाँ भी इसे अधूरा छोड़ दिया गया। तीसरी दुनिया के रैडिकल से रैडिकल बुर्जुआ वर्ग ने सत्तारूढ़ होने के बाद एक सीमा तक ही साम्राज्यवाद विरोधी कदम उठाये और कुछ वर्षों बाद साम्राज्यवाद के प्रति नरमी और समझौते का रुख़ अपना लिया। कारण स्पष्ट था। साम्राज्यवाद के युग में किसी पिछड़े देश के बुर्जुआ वर्ग के लिए यह सम्भव ही नहीं हो सकता था कि वह विश्व पूँजीवादी तन्त्र से अलग रहकर स्वतन्त्र पूँजीवादी विकास कर सके या विश्व बाजार में साम्राज्यवादी चौधरियों का प्रतिस्पर्ध्दी बन सके। उनकी तार्किक परिणति यही हो सकती थी कि वे कालान्तर में साम्राज्यवादियों के कनिष्ठ साझीदार के रूप में विश्व पूँजीवादी तन्त्र में व्यवस्थित हो जायें।
भारत के पूँजीपति वर्ग का चरित्र रैडिकल या क्रान्तिकारी कतई नहीं था। किसी जनक्रान्ति का नेतृत्व करने की बजाय इसने जनान्दोलनों का इस्तेमाल अंग्रेजों पर दबाव बनाने के लिए किया तथा ‘समझौता-दबाव-समझौता’ का लम्बा, विश्वासघातपूर्ण और कुटिल मार्ग अपनाकर (और विश्व परिस्थितियों का लाभ उठाकर) सत्ता हासिल की।
1947 के तुरन्त बाद की स्थिति यदि देखें तो अर्थव्यवस्था की मुख्य शाखाओं में विदेशी पूँजी की, और उसमें भी मुख्यत: ब्रिटिश पूँजी की प्रभावी स्थिति बनी हुई थी। भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए आर्थिक क्षेत्र में स्वतन्त्र पहलकदमी और कार्यवाही का दायरा अत्यन्त संकीर्ण था। अभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था की औपनिवेशिक संरचना तथा विदेशी पूँजी (मुख्यत: ब्रिटिश पूँजी) का प्रभुत्व ही अन्तरराष्ट्रीय श्रम विभाजन की प्रणाली के भीतर भारत का स्थान निर्धारित करते थे। भारत में विदेशी निवेश के प्रथम सर्वेक्षण (जून, 1948) के अनुसार, प्रमुख उद्योगों पर विदेशी निवेश का प्रभुत्व कायम था और कुल विदेशी पूँजी निवेश का 72 प्रतिशत ब्रिटिश था। पहले की ही तरह, भारत अभी भी औद्योगिक पूँजीवादी देशों में, विशेषकर ब्रिटेन के लिए मुख्यत: कच्चे माल की पूर्ति करने वाला एक पुछल्ला देश बना हुआ था। लेकिन 1947-50 के दौरान ही इस स्थिति में क्रमिक बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय, भारत को ब्रिटेन से 1500 करोड़ रुपये (पौण्ड-पावने के रूप में, जो युद्धकाल के दौरान संचित हुई थी) पाने थे। जुलाई, 1948 में हुए आंग्ल भारतीय समझौते के तहत इसमें से 1000 करोड़ रुपये का उपयोग औद्योगिक क्षमता के आधुनिकीकरण और विस्तार में प्रयुत्त पूँजीगत उपस्कर प्राप्त करने के लिए किया गया। शेष 500 करोड़ रुपये सामरिक उपकरणों और पूर्व ब्रिटिश अधिकारियों की पेंशन के मद में डाल दिये गये। यह समझौता भारत के औद्योगिक विकास पर ब्रिटिश इजारेदारी के प्रभाव को बनाये रखने में सहायक तो सिद्ध हुआ, लेकिन यह न तो प्रतिस्पर्ध्दी अमेरीकी, जापानी और पश्चिमी जर्मनी पूँजी की भारतीय बाजार में घुसपैठ को रोक सका, न ही भारतीय पूँजीपति वर्ग द्वारा अपनी स्थिति के सुदृढ़ीकरण को बाधित कर सका। पूँजी की कमी और तकनोलॉजी के पिछड़ेपन के शिकार भारतीय पूँजीपति वर्ग ने 1947-50 के बीच विभिन्न साम्राज्वादी देशों की कम्पनियों के साथ मोटर कार व ट्रैक्टर-असेम्बलिंग, साइकिल और उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों में 88 मिश्रित कम्पनियाँ स्थापित कीं। औद्योगीकरण में अमेरिकी वित्तीय और तकनीकी सहायता के लिए विशेष कोशिश की गयी। इस उद्देश्य से नेहरू ने अक्टूबर-नवम्बर 1949 में अमेरिका की यात्रा भी की। इससे भारत में अमेरिकी पूँजी-प्रवाह को बल मिला और आने वाले वर्षों में दोनों देशों के बीच व्यापक आर्थिक सहकार का मार्ग प्रशस्त हुआ। लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर होते हुए भी विदेश नीति के मामले में भारतीय पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों ने पर्याप्त राजनीतिक चातुर्य का प्रदर्शन किया। गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाते हुए इसने अमेरिकी राजनीतिक-सामरिक गुट में शामिल होने से इंकार कर दिया तथा सभी साम्राज्यवादी देशों से रिश्ते बनाकर उनकी आपसी होड़ का लाभ उठाने की पूरी कोशिश की। उल्लेखनीय है कि सितम्बर, 1946 में ही कांग्रेस की अन्तरिम सरकार इस विदेश नीति की घोषणा कर चुकी थी। 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन ने उपनिवेशवाद विरोध, शान्ति, तटस्थता और गुटनिरपेक्षता की नीति का अनुमोदन किया। हालाँकि 1947-50 के बीच ही इस नीति का दुरंगापन जाहिर हो चुका था। जैसेकि, मुँहजुबानी हो ची मिन्ह सरकार का समर्थन करते हुए भी भारत सरकार ने व्यवहारत: ब्रिटेन की मलाया नीति का समर्थन किया। इण्डोनेशिया में जारी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के मामले में भी उसने ऐसा ही किया। भारतीय पूँजीपति वर्ग ने निर्गुट देशों के मंच का इस्तेमाल वस्तुत: साम्राज्यवादी देशों से सौदेबाजी के लिए नवस्वाधीन देशों के समान चरित्र वाले शासक वर्गों को साथ लेने के लिए किया। यही नहीं, साम्राज्यवादी देशों पर दबाव बनाने के लिए उसने समाजवादी शिविर के साथ भी सम्बन्धा बनाये। आगे चलकर इसी नीति को विस्तार देते हुए सोवियत संघ में ख्रुश्चेव काल में समाजवाद के पतन के बाद, सोवियत साम्राज्यवादी शिविर से नजदीकी बढ़ाकर नरम शर्तों पर आर्थिक-तकनीकी-सामरिक मदद हासिल करने के साथ ही भारतीय शासक वर्ग ने अमेरिकी दबाव का सफलतापूर्वक मुकाबला भी किया। कुल मिलाकर, अन्तर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का लाभ उठाकर भारतीय पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद का कनिष्ठ साझीदार होते हुए भी, किसी एक साम्राज्यवादी ताकत का दुमछल्ला होने से बचा रहा। उसने अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता का लाभ उठाकर अपने आर्थिक विकल्पों को लगातार बहुमुखी बनाये रखा तथा अपने आर्थिक आधारों का सुदृढ़ीकरण-विस्तारीकरण करता रहा।
सत्ता प्राप्ति के तत्काल बाद संरक्षणकारी सीमाशुल्क तथा निजी विदेशी पूँजी के क्रियाकलापों पर प्रतिबन्धा लगाकर नेहरू सरकार ने देशी पूँजी की महत्तवपूर्ण सहायता की। 1948 में औद्योगिक निर्माण के लिए वित्त उपलब्धा कराने के उद्देश्य से राजकीय औद्योगिक वित्त आयोग कायम किया गया। प्रारम्भिक पूँजी-संचय की समस्या को हल करने के लिए भारतीय पूँजीपति वर्ग ने विदेशों से पूँजी आयात को प्रमुखता देने के बजाय देश के प्रत्यक्ष उत्पादकों को निचोड़ने पर बल दिया। आम जनता को लूटकर वह पैसा चूँकि सीधो पूँजीपति वर्ग को नहीं दिया जा सकता था, इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र, संयुक्त क्षेत्र और निजी क्षेत्र वाली मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता अपनाया गया। ज्यादातर आधारभूत और अवरचनात्मक उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित करने का निर्णय लिया गया। इनमें बहुत कम मुनाफा था, पर इनके बल पर निजी क्षेत्र भारी मुनाफा कमाकर अपनी पूँजी का विस्तार कर सकता था। उस समय भारतीय पूँजीपति वर्ग आधारभूत और अवरचनागत उद्योग स्थापित कर पाने की क्षमता नहीं रखता था, अत: यह काम जनता की गाढ़ी कमाई से किया गया (और आगे चलकर जब उसकी क्षमता हो गयी तो औने-पौने दामों पर सार्वजनिक उपक्रमों को उसे बेचा जाने लगा)। बुनियादी और ढाँचागत उद्योग को विदेशी पूँजी के प्रभुत्व से बचाकर भारतीय पूँजीपति वर्ग अर्थव्यवस्था को साम्राज्यवाद की नवऔपनिवेशिक जकड़बन्दी से बचाये रखना चाहता था (जाहिर है साम्राज्यवादी लूट की छूट तो उसे देनी ही थी)। अप्रैल, 1948 में संविधान सभा में नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था वाली औद्योगिक नीति की घोषणा की। जुलाई, 1948 में भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण हुआ। 1949 में बैंकिंग कम्पनी अधिनियम के द्वारा निजी संयुक्त पूँजी बैंकों पर एक हद तक राजकीय नियन्त्रण स्थापित किया गया। स्वतन्त्रता के बाद के प्रारम्भिक वर्षों में, विभाजन से पैदा हुई अव्यवस्था के कारण खाद्य पदार्थों और आवश्यक वस्तुओं का भारी अभाव हो गया था। 1947-50 के बीच सरकार ने 1 करोड़ टन अनाज का आयात किया तथा 1948 से आवश्यक खाद्य पदार्थों की राशनिंग लागू की गयी। इस दौर में चोर बाजारी, जमाख़ोरी, वायदा-कारोबार और सट्टेबाजी के द्वारा कुछ लोगों ने विराट सम्पदाएँ बना लीं और पूँजी के प्रारम्भिक संचय की प्रक्रिया तेज हो गयी। 1949 तक आर्थिक स्थिरता का माहौल बनने लगा था और सम्पत्ति- शाली वर्गों ने अपना संचित धन उद्योगों में स्थानान्तरित करना शुरू कर दिया।
भारतीय पूँजीपति वर्ग इस बात को भली-भाँति समझता था कि अपने औद्योगिक उत्पादन के लगातार विस्तार के लिए उसे कच्चे माल के अधिकाधिक ड्डोत चाहिए होंगे और अपने उत्पादों के लिए एक व्यापक, विकासमान, राष्ट्रीय बाजार की दरकार होगी। जिस देश की 85 फीसदी आबादी गाँवों में रहती हो तथा अर्ध्दसामन्ती भूदासता के बन्धानों में जकड़ी हो, वहाँ भूमि-सम्बन्धों के पूँजीवादीकरण के बिना राष्ट्रीय बाजार का निर्माण सम्भव ही नहीं था। समस्या यह थी कि भारतीय पूँजीपति वर्ग भूमि क्रान्ति के काम को क्रान्तिकारी तरीके से अंजाम नहीं दे सकता था, क्योंकि उसे भय था कि तब जनवादी क्रान्ति के कामों को एक झटके से पूरा करते हुए जनता आगे बढ़ जायेगी और कमान उसके हाथ से छूट जायेगी। वह किसानों की पहलकदमी और ऊर्जा को निर्बन्धा नहीं करना चाहता था। वह यूरोप के क्लासिकी पूँजीपति वर्ग की तरह जनवादी क्रान्ति नहीं कर सकता था।
भारतीय पूँजीपति वर्ग ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन क्रान्ति’ के जरिये सत्तासीन नहीं हुआ था। यह ‘कृषि-दस्तकारी-उद्योग’ की प्रक्रिया से विकसित नहीं हुआ था। यह औपनिवेशिक सामाजिक आर्थिक-संरचना में पला-बढ़ा था और ‘समझौता-दबाव-समझौता’ के जरिये सत्ता तक पहुँचा था। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान भी यह जनता के साथ धोखा-विश्वासघात करता रहा था। दूसरी बात, इतिहास का रंगमंच भी बदल चुका था। बीसवीं शताब्दी क्लासिकी पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियों का समय नहीं था। यह साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियों का युग था, जब कोई रैडिकल बुर्जुआ वर्ग भी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति को झटके से, अंजाम तक पहुँचाने का काम नहीं कर सकता था। समझौते से राजनीतिक आजादी हासिल करके, ऊपर से सत्तासीन हो जाने वाले भारतीय पूँजीपति वर्ग ने, नीचे से, जनपहलकदमी पर आधारित रास्ते से नहीं, बल्कि ऊपर से, धीरे-धीरे कानून बनाकर, भूमि-सम्बन्धों के क्रमिक पूँजीवादीकरण की राह पकड़ी। यह ”प्रशियाई मार्ग” ”स्तालिपिन टाइप भूमि-सुधारों” का ही एक भारतीय संस्करण था। परिवर्तन के इस रास्ते को अपनाकर भारतीय पूँजीपति वर्ग ने सभी राजाओं-नवाबों-जागीदारों-जमींदारों को बाध्य किया और इसका पूरा मौका दिया कि वे पूँजीवादी उद्यमों-होटलों-व्यवसायों में पूँजी लगाकर शहरी-पूँजीपति बन जायें या पूँजीवादी भूस्वामी बन जायें (या एक साथ दोनों बन जायेंद्ध। पुराने शोषकों को आधुनिक बुर्जुआ शोषक बनने का पूरा अवसर दिये जाने की नीति अपनायी गयी। साथ ही, इस नीति के परिणामस्वरूप, कालान्तर में, ख़ुशहाल रैयतों-काश्तकारों के बीच से (मालिक किसान बनने के बाद) कुलकों-फॉर्मरों का एक नया वर्ग विकसित हुआ जो उजरती श्रम का शोषण करता था, मुनाफे के लिए पैदा करता था और गाँवों में पूँजीवादी व्यवस्था का प्रमुख सामाजिक अवलम्ब था। भारतीय पूँजीपति वर्ग ने गाँवों में प्राक् पूँजीवादी संरचना, मध्ययुगीन भूदासता के अवशेषों और सामन्ती मूल्यों-संस्थाओं को कायम रखते हुए उन्हें क्रमश: पूँजी के अधीन करते जाने और मन्थर गति से क्षरित-विघटित होने के लिए छोड़ देने की नीति अपनायी। इस प्रक्रिया में भारतीय सामाजिक जीवन में जो पूँजीवाद विकसित हुआ, उसमें जनवादी मूल्य अति सीमित-संकुचित थे। यह पूँजीवाद जन्मना रुग्ण, कुत्सित, विकलांग, बौना पूँजीवाद था। आजादी के बाद, देशी राजों-रजवाड़ों की समस्या एक प्रमुख समस्या थी, जिनका देश के एक-तिहाई भूभाग पर शासन था। भारतीय पूंजीपति वर्ग की राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने निर्णायक ढंग से इस समस्या को हल किया। 1947 से 1949 के बीच 601 में से 555 रियासतों का भारत में विलय हो गया और शेष पाकिस्तान का अंग बन गयीं। उल्लेखनीय है कि हैदराबाद, त्रवणकोर, जूनागढ़ आदि कई रियासतों के लिलय में जनसंघर्षों के दबाव की भी अहम भूमिका थी। दूसरे, ब्रिटिश साम्राज्यवादी भी यह भली-भांति समझते थे कि बदलती दुनिया में इन राज-रजवाड़ों का कोई स्वतन्त्र भविष्य नहीं है। अत: इन्हें संरक्षण देना छोड़कर उन्होंने भी भारतीय पूंजीपति वर्ग के साथ अपने रिश्तों को ही ज्यादा महत्व दिया। लेकिन इन पूर्व सामन्ती शासकों को भरपूर रियायतें दी गयीं। राजाओं-नवाबों ने पारिवारिक ट्रस्ट बनाकर अपने महलों और बेशुमार भूसम्पति को बचाये रखा। बाद में महलों में पांच सितारा होटल खुल गये और उद्योगों में सामन्ती शासकों ने शेयर खरीद लिये। यही नहीं, जनता की गाढ़ी कमाई से उन्हें पेंशन की मोटी रकमें दी गयीं (जो 1970 तक दी जाती रहीं)। कई भूतपूर्व राजा गवर्नर और राजदूत बना दिये गये। आगे चलकर, ज्यादातर राजघरानों के लोग अलग-अलग बुर्जुआ पार्टियों के नेता बन गये।
रियासतों के अतिरिक्त, जो ब्रिटिश भारत के जमींदार और जागीरदार थे, वे उपनिवेशवाद के मुख्य सामाजिक अवलम्ब और घोर प्रतिक्रियावादी थे। कांग्रेस ने अपने 1946 चुनाव घोषणापत्र में ही राज्य और जमीन जोतने वालों के बीच मौजूद ”बिचौलियों” के उन्मूलन की घोषणा की थी। 1947 से 1954 के बीच सभी राज्यों क विधानमण्डलों द्वारा भूमि-सुधर विधेयक (जमींदारा उन्मूलन कानून) पास किये गये। पर इन कानूनों ने देश के उस 57 प्रतिशत भूभाग के भूस्वामित्व को प्रभावित नहीं किया, जहां रेयतवारी प्रणाली थी। जमींदारी प्रथावाले क्षेत्रों में भी जमींदारों की जमीन का एक अंश ही काश्तकारों को हस्तान्तरित हो सका। सीर व खुदकाश्त जमीनें जमींदारों के ही पास रहीं। उनके गृहफार्मों, मवेशियों व किसानों के शोषण से अर्जित अन्य सम्पत्तियों को भी उन्हीं के पास रहने दिया गया। यही नहीं, जमींदारों को कुल 700 करोड़ रुपये का मुआवजा दिया गया, जो काश्तकारों द्वारा राजय को दिये जाने वाले लगान से अदा किया जाता था। 1947 के बाद छह वर्षों तक सामन्ती भूस्वामित्व के रूपान्तरण की यह प्रक्रिया चलती रही। जोत के अधिकतम आकार के प्रश्न पर 1953 के बाद ही विचार शुरू हुआ। आगे चलकर हदबन्दी, चकबन्दी आदि भूमिसुधर के कई कदम उठाये गये, लेकिन तब भी ज्यादातर भूस्वामियों ने तरह-तरह का कानूनी फर्जीवाड़ा करके ज्यादातर जमीनें अपने पास बनाये रखीं। 60′ के दशक के उत्तरार्ध से कृषि आधरित व सम्बद्ध सेक्टरों में बड़े पैमाने पर पूंजी-निवेश और नयी तकनोलॉजी-उन्नत बीज-रासायनिक उर्वरक आधरित खेती ने तेज गति पकड़ी। साथ ही, ध्रुवीकरण, किसान आबादी के विभेदीकरण और नीचे के किसानों के सर्वहाराकरण की प्रक्रिया भी तेज हो गयी। लेकिन यह आगे की कहानी है। इस प्रक्रिया की जमीन 1947-50 के संक्रमण काल के दौरान ही पूंजीवादी-विकास के नीति-निर्धारण और शुरुआती कार्रवाइयों के जरिये तैयार हुई थी। 1947 में परती जमीनों को कृषि-योग्य बनाने के लिए राजकीय ट्रैक्टर संगठन कायम किया गया। जूट और कपास की खेती के क्षेत्रों में 1947-50 के दौरान क्रमश: 70 और 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पूर्व देशी रियासतों में कृषि क्षेत्र की पैमाइश और बन्दोबस्त के साथ ही रैयतवारी जैसी भूराजस्व प्रणाली लागू की गयी।
1947-50 के संक्रमण काल के दौरान, जब नया संविधान तैयार किया जा रहा था, भारतीय पूँजीपति वर्ग राज्यतन्त्र के केन्द्रीकृत ढाँचे के पुनर्गठन और सुदृढ़ीकरण में लगा हुआ था तथा पूँजीवादी विकास की आम नीतियाँ तय की जा रही थीं; उस समय एक अहम सवाल था कि ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल (यह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, ब्रिटेन, उसके उपनिवेशों और पूर्वउपनिवेशों का समूह था) के साथ भारतीय डोमीनियन का रिश्ता क्या हो? ब्रिटिश मण्डी पर उस समय तक भारतीय उद्योगों की जो निर्भरता थी, उसके चलते भारतीय पूँजीपति वर्ग राष्ट्रमण्डल के भीतर रहना अपने लिए हितकारी मानता था। दूसरी ओर, उसके राजनीतिक प्रतिनिधि भारत को राष्ट्रमण्डल के भीतर ऐसी शर्तों पर रखने के किसी रास्ते की खोज में थे कि जो भारत की सम्प्रभुता के लिए हानिकर न हो। अक्टूबर, 1948 में लन्दन में राष्ट्रमण्डलीय प्रधानमन्त्री सम्मेलन में यह तय हुआ कि नये डोमीनियम – भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका – ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल का सदस्य बने रहने के साथ-साथ ब्रिटिश ताज से अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता बनाये रख सकते हैं। अप्रैल, 1949 के राष्ट्रमण्डल सम्मेलन में एक फार्मूला तैयार किया गया जिसके अनुसार, भारत ने सम्प्रभु गणतन्त्र बने रहने के साथ-साथ राष्ट्रमण्डल के प्रतीक के रूप में ब्रिटिश ताज को स्वीकार किया। ग़ौरतलब है कि भारतीय संविधान में राष्ट्रमण्डल के साथ भारत के सम्बन्धा का कोई उल्लेख नहीं है।
अब संक्रमण-काल विषयक इस चर्चा को समेटते हुए निचोड़ के तौर पर कुछ बातें कर ली जायें।
भारत के पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व करते हुए 1947 में जब राजनीतिक सत्ता हासिल की तो उसने साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद नहीं किया। जनाकांक्षाओं के साथ विश्वासघात करते हुए उसने ब्रिटिश पूँजी के हितों को चोट नहीं पहुँचायी और अन्य साम्राज्यवादी देशों को भी लूट के अवसर प्रदान किये। बेशक ऐसा करते हुए उसने अपने हितों को प्राथमिकता दी, साम्राज्यवादियों के अन्तरविरोधों का लाभ उठाया, उनसे भरपूर सौदेबाजी की और समय-समय पर उनके दबाव व चाहतों के विपरीत भी आचरण किया, पर कुल मिलाकर, विश्व पूँजीवादी तन्त्र में वह साम्राज्यवादियों का कनिष्ठ साझीदार ही बना रहा। देश की जनता देशी पूँजी की लूट के साथ साम्राज्यवादी लूट का भी शिकार बनी रही। भारत किसी साम्राज्यवादी देश का नवउपनिवेश तो नहीं बना, लेकिन साम्राज्यवादी शोषण कायम रहा। इस तरह साम्राज्यवाद विरोध का राष्ट्रीय कार्यभार आधो-अधूरे तरीके से ही पूरा हुआ। दूसरी ओर, सामन्ती भूमि सम्बन्धों के पूँजीवादीकरण के जनवादी कार्यभार को भी भारतीय पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता ने क्रान्तिकारी ढंग से नहीं बल्कि ग़ैर-क्रान्तिकारी, क्रमिक सुधारवादी तरीके से और कई किस्तों में पूरा किया (लगभग आधी सदी तक सामन्ती अवशेषों की प्रबल मौजूदगी बनी रही और क्षीण रूप में अभी भी बनी हुई है)।
जिस पूँजीपति वर्ग ने न तो साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद का राष्ट्रीय कार्यभार पूरा किया हो, न ही भूमि सुधार के जनवादी कार्यभार को क्रान्तिकारी ढंग से पूरा किया हो, उस पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता देश की जनता को लाजिमी तौर पर अतिसीमित जनवादी अधिकार ही दे सकती थी। यूँ तो विकसित से विकसित पूँजीवादी देश में भी पूँजीवादी जनवाद निरपेक्ष और सम्पूर्ण नहीं होता, सारत: वह पूँजीपति वर्ग का अधिनायकत्व ही होता है। संकट और वर्ग संघर्ष के तूफान के दिनों में उन्नत पूँजीवादी जनवादी देशों का शासक वर्ग भी जनता के बर्बर-निरंकुश दमन के लिए तैयार रहता है। लेकिन सामान्य तौर पर ऐसे देशों की जनता को दैनन्दिन सामाजिक-राजनीतिक जीवन में जो जनवादी अधिकार हासिल होते हैं, भारत की जनता को उतने भी हासिल नहीं हैं। समाज के मुखर तबके (पढ़े-लिखे मध्यवर्ग) को कानूनी व संवैधानिक तौर पर हासिल जनवादी अधिकारों का कुछ लाभ यदि मिल भी जाता है तो बहुसंख्यक मेहनतकश जनसमुदाय के लिए उसका कोई मतलब नहीं है। संविधान में मूलभूत अधिकारों की लफ्फाजी अधिक की गयी और उनके अमल की कोई गारण्टी नहीं दी गयी है। और संविधान प्रदत्त नागरिक एवं जनवादी अधिकारों को शासक वर्ग द्वारा संकट की घड़ी में हड़प लिये जाने के प्रावधान भी संविधान के भीतर ही मौजूद हैं। 1975 में आपातकाल संविधान के भीतर मौजूद प्रावधान के तहत ही लगा था और 42वाँ संविधान संशोधन संविधान-सम्मत ढंग से ही लागू किया गया था। ग़ौरतलब यह भी है कि संविधान से जो सीमित जनवादी अधिकार रिस-छनकर नीचे आते हैं, इन्हें वह कानून व्यवस्था रोक लेती है, जिसका मूल स्वरूप (थोड़े-बहुत बदलावों के बावजूद) वही है, जो औपनिवेशिक काल में था। संवैधानिक उपचार (रेमेडी) आम जनता तक नहीं पहुँचते, उसका वास्ता कानूनी उपचार से ही पड़ता है। कानूनी तौर पर जनता को यदि कहीं कुछ हासिल भी होना रहता है तो उसे यह भ्रष्ट-निरंकुश नौकरशाही ढांचा रोक लेता है, जो काफी हद तक (जरूरी आधुनिकीकरण के बावजूद) औपनिवेशिक काल की ही विरासत है।
भारतीय पूँजीवादी समाज ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन क्रान्ति’ की प्रक्रिया से विकसित नहीं हुआ है। यह औपनिवेशिक संरचना के गर्भ से पैदा हुआ है तथा साम्राज्यवाद के युग में पला-बढ़ा, विकसित हुआ है। इसलिए न तो हमारे सामाजिक ताने-बाने में जनवादी मूल्य मौजूद हैं, न ही हमारे पिछड़े समाज में जनवादी अधिकारों के प्रति पर्याप्त सजगता मौजूद है। तमाम मध्ययुगीन मूल्यों-मान्यताओं की मौजूदगी भी निरंकुश उपभोक्ता संस्कृति के साथ-साथ मौजूद है। इन कारणों से भी, संविधान की मोटी किताब में ”पवित्र” जनवाद के बारे में जो भी ऊँची-ऊँची बातें की गयी हैं, उनका अमल में कोई मतलब नहीं रह जाता। शासन-विधान और राज्यतन्त्र के घटकों के बीच कार्य-विभाजन के मामले में तो संविधान का महत्तव है, लेकिन उसमें वर्णित जनता के जनवादी अधिकार की बातें इस वजह से भी बेमानी हो जाती हैं कि वे वास्तविक सामाजिक स्थिति को प्रतिबिम्बित नहीं करतीं। उसमें लम्बी-चौड़ी जुमलेबाजी तो दुनिया के बहुतेरे पूँजीवादी देशों के संविधानों की नकल कर ली गयी है, जबकि उसका मूल ढाँचा ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट 1935’ के आधार पर खड़ा किया गया है।
संविधान की यह स्थिति भारत के पूँजीपति वर्ग की स्थिति के सर्वथा अनुरूप है और उसी को प्रतिबिम्बित करती है। 1947-50 के संक्रमण काल के दौरान जब भारतीय पूँजीपति वर्ग पूँजीवादी विकास की आम दिशा और नीतियाँ तय कर रहा था, और अपनी सत्ता का सुदृढ़ीकरण कर रहा था तथा संविधान का निर्माण कर रहा था, उसी समय यह तय हो चुका था कि भारतीय लोकतन्त्र कैसा होगा और भारतीय संविधान किनकी सेवा करेगा!
हर तरह का पूँजीवादी जनवाद, अन्तर्वस्तु की दृष्टि से पूँजीवादी अधिनायकत्व होता है। कोई पूँजीवादी जनवाद अपनी अन्तर्वस्तु पर जनवाद का ज्यादा मुलम्मा लगाता है तो कोई कम। भारतीय संविधान पर जनवाद का मुलम्मा बहुत कम है। यह भारतीय पूँजीपति वर्ग की स्थिति और शक्ति की ही अभिव्यक्ति और प्रतिबिम्बन है।
भारतीय संविधान एक पूँजीवादी संविधान है जो व्यक्तिगत सम्पत्ति की वर्तमान व्यवस्था की इंच-इंच हिफाजत करने की कसमें खाता है, जमीन और पूँजी को उत्पादन और शोषण के साधन के रूप में स्वीकार करता है, शोषकों को शोषण की पूरी गारण्टी देता है और उनकी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है, लेकिन दूसरी ओर मेहनतकशों को काम करने के हक की, रोटी तक की गारण्टी नहीं देता। भारतीय पूँजीपति वर्ग के सिध्दान्तकारों ने पूँजीवादी शोषण को न्यायसंगत व स्वाभाविक ठहराने के लिए तथा भारतीय समाज की समूची सम्पदा पर पूँजीपति वर्ग का नियन्त्रण बनाये रखने के लिए दार्शनिक- राजनीतिक-विधिशास्त्रीय आधार के रूप में, पूँजीवादी राज और समाज की आचार-संहिता के रूप में इस संविधान की रचना की है। यह संविधान भारतीय पूँजीपति वर्ग की आर्थिक और राजनीतिक क्षमता की, उस समय की राष्ट्रीय- अन्तरराष्ट्रीय परिस्थिति की तथा साम्राज्यवाद के युग की स्पष्ट और मुखर अभिव्यक्ति है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011
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