मध्यम किसान और लागत-मूल्य का सवाल बहस का सम्पादकीय समाहार

चूँकि इस पूरी बहस की शुरुआत लागत मूल्य घटाने की माँग के, सर्वहारा दृष्टिकोण से औचित्य-अनौचित्य को लेकर हुई थी, इसलिए हम यहीं से अपनी बात शुरू करना उचित समझते हैं।

इस पूरी बहस में सम्पादक-मण्डल पूरी तरह से साथी सुखदेव और साथी नीरज की अवस्थिति के साथ है। मध्यम किसानों को साथ लेने के लिए खेती का लागत मूल्य घटाने की माँग का समर्थन करना या स्वयं इस माँग पर उन्हें संगठित करना, या उन्हें ऐसा सुझाव देना, एक सर्वहारा अवस्थिति न होकर ठीक इसके उलट है।

इस पक्ष में हमारा पहला तर्क वही है जो हम ‘बिगुल’ जनवरी 2003 के अंक में दे चुके हैं। मान लें कि यदि उद्योगपति किसी किसान आन्दोलन की माँग मानकर कृषि उपकरणों-उर्वरकों-कीटनाशकों आदि की क़ीमत कम भी कर दें और मान लें कि यह घटोत्तरी किसी तरह की तीन-तिकड़म करके कृषि-उत्पादों के मूल्य में संक्रमित न होने दी जाये, तो भी पूँजीपति का मुनाफ़ा कम नहीं होगा बल्कि इसकी क़ीमत उसके कारख़ाने में काम करने वाले मज़दूर को चुकानी पड़ेगी। यानी मध्यम किसान की यह माँग मज़दूर वर्ग की क़ीमत पर ही पूरी हो सकती है। दूसरी बात यह कि यदि कृषि उपकरण, उर्वरक, बिजली, बीज आदि की क़ीमत घट भी जाये तो यह घटोत्तरी सीधे कृषि-उत्पादों के मूल्य में संक्रमित हो जायेगी। चूँकि मध्यम किसान अपने उत्पादों का उपभोग करने के साथ ही, और कुछ अन्य अनाज (जो वह पैदा नहीं करता) ख़रीदने के साथ ही, अपनी विभिन्न ज़रूरतों के लिए कुछ कारख़ाना-उत्पाद भी ख़रीदता है और इसके लिए उसे अपने कृषि-उत्पाद का एक हिस्सा बाज़ार में बेचना भी पड़ता है, अतः लागत मूल्य घटाने की माँग वस्तुतः उसे कोई ख़ास लाभ भी नहीं पहुँचा सकती। हाँ, यह उसे मज़दूर वर्ग के विरुद्ध अवश्य खड़ा कर देगी।

हम ‘बिगुल’ जनवरी 2003 में यह भी उल्लेख कर चुके हैं कि लागत मूल्य घटाने का तर्क सिर्फ़ यहीं तक जा सकता है कि मध्यम किसान चल पूँजी को, यानी श्रम-शक्ति पर होने वाले ख़र्च को घटाये, यानी अपने खेतों में काम करने वाले उजरती मज़दूरों को और अधिक निचोड़े। इस बारे में साथी एस. प्रताप का जवाबी तर्क था कि मध्यम किसान अपने खेतों में ख़ुद परिवार सहित श्रम करता है, उजरती मज़दूरों से काम ही नहीं लेता (बाद में कुछ सुधारकर उन्होंने अपनी अवस्थिति यूँ रखी कि उच्च-मध्यम किसान उजरती मज़दूरों से थोड़ा बहुत काम लेता है)। इस प्रश्न पर हम आगे विचार करेंगे।

लागत मूल्य घटाने की माँग का विरोध करने के पीछे हमारा जो बुनियादी तर्क है, वह यह है कि लागत मूल्य घटाने की माँग छोटे/मँझोले मालिकाने की किसानी अर्थव्यवस्था के प्रति मध्यम किसान के मोहभ्रम को बढ़ाने का काम करती है और उसे सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी से दूर बड़े मालिक किसानों के निकटतर ले जाने का काम करती है। एकदम शुरू से ही कम्युनिस्ट आन्दोलन का बुनियादी काम यह होता है कि वह छोटे-मँझोले किसान का यह वहम दूर करे कि पूँजीवादी व्यवस्था में वह धनी हो सकता है, या यहाँ तक कि, उसकी अर्थव्यवस्था अपना अस्तित्व बनाये रख सकती है। यह वहम, जब तक और जिस हद तक, बना रहेगा, तब तक और उस हद तक, मँझोले किसान पूँजीवादी फ़ार्मरों-कुलकों-धनी किसानों के ही पिछलग्गू बने रहेंगे। मार्क्स ने काफ़ी पहले, लूई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर’ में ही यह महत्त्वपूर्ण स्थापना दे दी थी कि किसान जैसे ही छोटी खेती में अपना विश्वास त्याग देंगे, वैसे ही इस छोटी खेती पर खड़ी समूचे राज्य की अट्टालिका धराशायी हो जायेगी।”

लेनिन ने किसानी के सवाल पर विचार करते हुए इस मसले पर बार-बार और बहुत अधिक ज़ोर दिया है कि कम्युनिस्ट छोटे मालिकाने की खेती की पूँजीवाद के अन्तर्गत अपरिहार्य तबाही के बारे में छोटे-मँझोले किसानों को लगातार बताते हैं और उन्हें इस सच्चाई से अवगत कराते हैं कि सर्वहारा वर्ग के साथ खड़ा होकर पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध संघर्ष ही उनके सामने एकमात्र व्यावहारिक विकल्प है। कम्युनिस्ट किसी भी परिस्थिति में ऐसे किसी नारे या माँग का समर्थन नहीं कर सकते जो छोटे-मँझोले मालिकों को थोड़ी देर के लिए भी सीधे सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध बड़े मालिकों के पक्ष में खड़ा कर देती हो। सर्वहारा वर्ग सर्वहारा क्रान्ति के संश्रयकारी वर्ग के हितों का इस रूप में पक्षधर कदापि नहीं हो सकता कि उसे अपने शत्रु वर्ग के पाले में धकेल दे। एस. प्रताप स्वयं स्वीकार करते हैं कि “लागत मूल्य घटाने का भी कुल मिलाकर सबसे अधिक फ़ायदा धनी किसानों को ही होगा” लेकिन फि़र भी एक “तात्कालिक माँग” के रूप में वे इस माँग के पक्षधर हैं। क्योंकि यह उन्हें सर्वहारा वर्ग के क़रीब खड़ा कर सकती है(?), क्योंकि यह महँगाई पर रोक लगाने की व्यापक जनता की माँग से जुड़ती है।” यहाँ फि़र साथी एस. प्रताप एक लचर तर्क प्रस्तुत करते हुए नज़र आते हैं। लागत मूल्य घटाने की माँग का बुनियादी चरित्र यह है कि यह भी मुख्यतः धनी किसान की ही माँग है, यह मध्यम व छोटे किसानों को एक विभ्रम का शिकार बनाकर गाँव के पैमाने के मुख्य शत्रु पूँजीवादी फ़ार्मरों-कुलकों के साथ नत्थी कर देती है और मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ ले जा खड़ा करती है।

साथी एस. प्रताप सवाल उठाते हैं कि “क्या सम्पादक-मण्डल महँगाई के ख़िलाफ़ व्यापक जनता के आन्दोलन के विरोध में खड़ा होगा? क्योंकि यह माँग भी अन्य औद्योगिक उत्पादों के दाम घटने या उनका दाम बढ़ने से रोकने की वकालत करती है। ऐसे में उन उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों को ही इसकी क़ीमत चुकानी होगी।” हमारा सीधा-सा उत्तर होगा – नहीं। महँगाई के ख़िलाफ़ व्यापक जनता का आन्दोलन बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी और निम्न मध्य वर्ग का साझा आन्दोलन होता है जो बाज़ार में राशन, कपड़ा, दवा व उपभोग की अन्य वस्तुओं की बढ़ती कीमतों से परेशान होता है। ग़ौरतलब है कि महँगाई-विरोधी जन-आन्दोलन उसी बहुसंख्यक आबादी के सभी वर्गों का संयुक्त आन्दोलन होता है जो खेतों-कारख़ानों में उन सभी वस्तुओं का उत्पादन करती है। यह संयुक्त आन्दोलन जनता के किसी एक वर्ग को दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं खड़ा करता, बल्कि उन सभी उत्पादक वर्गों द्वारा उपभोग की वस्तुओं की महँगाई के विरुद्ध संगठित होता है, जो इसके साथ-साथ अपनी पगार बढ़ाने के लिए भी लड़ते हैं। इस तरह पूँजीपतियों और पूँजीवादी फ़ार्मरों पर सभी मेहनतकश वर्गों का दबाव दोनों ओर से साथ-साथ पड़ता है। उपभोक्ता वस्तुओं की क़ीमतें घटाने के लिए बहुसंख्यक आबादी के संयुक्त आन्दोलन की तुलना कृषि का लागत मूल्य घटाने के लिए मालिक किसानों के आन्दोलन से करना सरासर मूर्खता होगी, क्योंकि यह आन्दोलन उत्पादक मेहनतकश वर्गों का साझा आन्दोलन नहीं है, बल्कि यह छोटे-मँझोले मालिक किसानों को लुटेरे बड़े मालिकों के साथ एकजुट करता है तथा सर्वहारा वर्ग के ख़िलाफ़ खड़ा करता है।

यहीं पर अपनी एक महत्त्वपूर्ण ग़लती की चर्चा, विश्लेषण और आत्मालोचना भी हम ज़रूरी समझते हैं। छोटे और मँझोले किसानों को मज़दूर वर्ग के साथ ऐक्यबद्ध करने वाली माँगों की चर्चा करते हुए ‘बिगुल’ के फरवरी, 2003 के अंक में हमने लिखा था: “ग़रीब और मँझोले किसानों की माँग यह होनी चाहिए कि ज़मीन सहित उत्पादन के साधनों के स्वामित्व की एक सुनिश्चित मात्र को पैमाना बनाकर, धनी किसानों और अन्य ग्रामीण पूँजीपतियों से बिजली और पानी की क़ीमत वसूली जानी चाहिए, जबकि उन सभी किसानों को जो मुनाफ़े के लिए पैदा नहीं करते सापेक्षतः रियायती दर पर बिजली-पानी आदि मिलना चाहिए।” हमारी इस माँग की साथी एस. प्रताप ने सही ही आलोचना की है। यह माँग उक्त लेख में दी गयी अन्य माँगों से मेल नहीं खाती, बल्कि एकदम विपरीत चरित्र रखती है। ज़ाहिरा तौर पर उक्त “रियायती दरों” की भरपाई पूँजीपतियों या धनी किसानों से नहीं बल्कि मज़दूरों को निचोड़कर ही की जायेगी, इसलिए मज़दूर वर्ग की पार्टी, तात्कालिक तौर पर भी, इस माँग का समर्थन नहीं कर सकती। यह माँग भी, धनी किसानों से वर्ग-विभेद करने की शर्त जोड़ने के बावजूद, मध्यम और छोटे किसानों को मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ खड़ा करती है और छोटे पैमाने के मालिकाने की उम्र लम्बी करने या कम से कम ऐसा भ्रम बनाये रखने का ही काम करती है। इस माँग को शामिल करने के पीछे, (एस. प्रताप की ही तरह) हमारे दिमाग़ में भी यह भ्रामक तर्क काम कर रहा था कि समाजवादी क्रान्ति के बाद भी तो मध्यम और छोटे मालिकों को ऐसी बहुतेरी रियायतें देनी पड़ती हैं। साथी सुखदेव (दिसम्बर, 2004) ने सही इंगित किया है कि क्रान्ति के बाद न तो ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख्त की और न ही भाड़े के मज़दूरों से काम कराने की इजाज़त होगी और इस तरह मँझोला किसान न तो श्रम-शक्ति का शोषक रह जायेगा और न ही मुनाफ़ा निचोड़कर धनी किसान बन पायेगा। वह सिर्फ़ इन अर्थों में मँझोला किसान रह जायेगा कि बाज़ार में अभी भी जारी माल-मुद्रा व्यवस्था के अन्तर्गत अनाज बेचेगा और शेष समाज की क़ीमत पर मुनाफ़ा बटोरेगा। लेकिन उस समय राज्यसत्ता पर सर्वहारा का क़ब्ज़ा होगा, उसके पीछे समूची सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी का समर्थन होगा, उसके पास विपुल संसाधन होंगे। साथ ही, सामूहिक और राजकीय फ़ार्मों के सैकड़ों ऐसे उदाहरण होंगे, जिनके ज़रिये मँझोले किसानों को सामूहिकीकरण के लिए राजी किया जा सकेगा। इन हालात में जनता की सम्पत्ति (सार्वजनिक कोष) पर बोझ डालकर मँझोले किसानों को सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्वयं ही रियायतें देती है ताकि उन्हें समाजवाद के पक्ष में लाया जा सके। अक्टूबर क्रान्ति के बाद ऐसा ही किया गया। लेकिन इस नीति को पूँजीवाद के अन्तर्गत लागू करने का मतलब होगा मँझोले किसानों को सर्वहारा वर्ग की क़ीमत पर बेहतरी देकर पूँजीवादी भूस्वामियों-फ़ार्मरों के पाले में धकेलना। समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में छोटे और मँझोले किसानों के लिए आन्दोलन के मुद्दों की जो एक कामकाजू सूची हमने फरवरी, 2003 के अंक में प्रस्तुत की थी, उसमें “बिजली-पानी की रियायती दरों” की माँग को क़त्तई शामिल नहीं किया जा सकता। हाँ, आम उपभोग के लिए समूची जनता को बिजली-पानी भी (शिक्षा और चिकित्सा-सुविधा की ही तरह) निःशुल्क उपलब्ध कराना अवश्य एक ऐसी माँग है, जिसे उस सूची में स्थान दिया जा सकता है।

साथी एस. प्रताप ने (जनवरी, 2005) साथी सुखदेव के उद्धरणों-तर्कों (दिसम्बर 2004) की अनदेखी करते हुए उन पर प्रवचन एवं अहम्मन्यतापूर्ण कटूक्तियों का आरोप लगाया है, जबकि स्वयं अपनी टिप्पणी की शुरुआत वे काफ़ी तिलमिलाहट भरी अनर्गल कटूक्तियों से करते हैं और फि़र कुछ मान्य मार्क्सवादी प्रस्थापनाओं का पिष्टपेषण करते हुए दायें-बायें खिसककर अपनी ग़लती कुछ हद तक “मानते हुए भी” अपनी इस बात पर कुछ अगर-मगर लगाकर डटे रहते हैं कि “एक तात्कालिक माँग” के तौर पर लागत मूल्य घटाने की माँग का समर्थन सर्वथा उचित है। गन्ना किसानों से सम्बन्धित टिप्पणी में “विशेष सन्दर्भ में” “वाजिब मूल्य के लिए दबाव बनाने की रणनीति” का औचित्य-प्रतिपादन करते हुए वे बिना किसी तर्क के इसे लाभकारी मूल्य के मुद्दे से अलग बताते हैं, लेकिन प्रकारान्तर से लाभकारी मूल्य का भी औचित्य-प्रतिपादन कर बैठते हैं (नवम्बर 2004)। यदि वे गन्ना किसानों पर अपनी टिप्पणी से लेकर अपने अन्तिम आलेख (जनवरी 2005) तक पर सरसरी निगाह डालें तो अपना दायें-बायें खिसकना और लीपापोती करना उन्हें स्वयं नज़र आ जायेगा।

नवम्बर 2004 की अपनी टिप्पणी में वे कहते हैं कि एंगेल्स जिसे छोटा किसान कहते हैं, उसे ही लेनिन मँझोला किसान कहते हैं। एंगेल्स को न केवल उन्होंने सर्वथा ग़लत समझा है, बल्कि अधूरा उद्धृत किया है। एंगेल्स मँझोले किसान को छोटा किसान नहीं कहते, बल्कि जर्मनी और फ़्रांस की परिस्थितियों में उनका यह प्रवर्गीकरण ग़रीब किसानों और निम्न-मध्यम किसानों को ही अपने दायरे में समेटता है। फ़्रांस और जर्मनी में किसानों का सवाल’ शीर्षक अपनी रचना में छोटे किसानों की स्थिति और उनके प्रति मज़दूर वर्ग की पार्टी के रुख़ की चर्चा के बाद उन्होंने अलग से बड़े भूमिधर किसानों और मँझोले किसानों की चर्चा की है। मँझोले किसानों के बारे में वे लिखते हैं: “मँझोला किसान जहाँ छोटी जोत वाले किसानों के बीच रहता है, वहाँ उसके हित और विचार उनके हित और विचारों से बहुत अधिक भिन्न नहीं होते। वह अपने तज़रबे से जानता है कि उसके जैसे कितने ही लोग छोटे किसानों की हालत में पहुँच चुके हैं। पर जहाँ मँझोले और बड़े किसानों का प्राधान्य होता है और कृषि के संचालन के लिए आमतौर पर नौकरों और नौकरानियों की आवश्यकता होती है, वहाँ बात बिलकुल दूसरी ही है। कहने की ज़रूरत नहीं कि मज़दूरों की पार्टी को प्रथमतः उजरती मज़दूरों की ओर से, यानी इन नौकरों-नौकरानियों और दिहाड़ीदार मज़दूरों की ओर से ही लड़ना है। किसानों से ऐसा कोई वायदा करना निर्विवाद रूप से निषिद्ध है, जिसमें मज़दूरों की उजरती गुलामी को जारी रखना सम्मिलित हो। परन्तु जब तक बड़े और मँझोले किसानों का अस्तित्व है, वे उजरती मज़दूरों के बिना काम नहीं चला सकते। इसलिए छोटी जोत वाले किसानों को हमारा यह आश्वासन देना कि वे इस रूप में सदा बने रह सकते हैं, जहाँ मूर्खता की पराकाष्ठा होगी, वहाँ बड़े और मँझोले किसानों को यह आश्वासन देना ग़द्दारी की सीमा तक पहुँच जाना होगा” (‘फ़्रांस और जर्मनी में किसानों का सवाल’, फ्रे. एंगेल्स )। एंगेल्स की इस रचना को यदि साथी एस. प्रताप ने ठीक से पढ़ा होता तो वे ऐसा क़तई नहीं कहते कि एंगेल्स मँझोले किसान को ही छोटा किसान कहते हैं। साथ ही, उन्हें काफ़ी हद तक किसानी के सवाल पर कम्युनिस्ट नज़रिये को भी जानने में मदद मिलती और वे यह समझ जाते कि मज़दूर वर्ग की पार्टी किसी भी रूप में छोटी जोत को बरक़रार रखने या ऐसा भ्रम देने की कोशिश नहीं करती और लागत मूल्य घटाने की माँग ऐसी ही एक कोशिश है।

इसी तरह वे लेनिन को आधा-अधूरा उद्धृत करते हुए यह सवाल उठाते हैं कि “जहाँ तक मँझोले किसानों का सवाल है, वे मज़दूर लगाकर खेती नहीं करते, तो भला मज़दूरी कम करने की माँग क्यों उठायेंगे?”(नवम्बर, 2004)। साथी सुखदेव ने जब उनके द्वारा उद्धृत अंश के अधूरेपन को इंगित किया है और इस बारे में लेनिन के कुछ और उद्धरण दिये हैं (दिसम्बर, 2004) तो अपनी मूल बात से थोड़ा दायें-बायें खिसककर साथी एस. प्रताप मध्यम किसान वर्ग का सर्वमान्य विभेदीकरण (उच्च-मध्यम, मध्य-मध्यम और निम्न-मध्यम किसान) प्रस्तुत करते हुए यह कहने लगते हैं कि यह उच्च-मध्यम किसान है जो कभी-कभी” (ज़ोर हमारा) मज़दूर लगाता है, लेकिन फि़र भी वे इस बात पर डटे रहते हैं कि जिसे साथी सुखदेव और सम्पादक-मण्डल ने मँझोला किसान कहा है, “वह सर्वहारा का संश्रयकारी मँझोला किसान नहीं, छोटा-मोटा कुलक है, धनी किसान है”(जनवरी, 2005)।

साथी सुखदेव ने आज की भारतीय पूँजीवादी खेती की उन विशिष्टताओं की चर्चा की है, जिसमें उच्च और मध्य मँझोले किसानों द्वारा मज़दूर लगाना तो आम चलन-सा हो ही गया है, निम्न-मध्यम और ग़रीब किसानों को भी विशेष स्थितियों में ऐसा करना पड़ता है। इस मसले पर पूर्व स्थिति से हटने और फि़र भी अपने को सही सिद्ध करने के लिए सचमुच साथी एस. प्रताप को काफ़ी मेहनत करनी पड़ी है।

लेनिन ने मध्यम किसान का बार-बार ग्रामीण समाज के एक ऐसे मध्यवर्ती संस्तर के रूप में उल्लेख किया है जिसकी क़तारों से ग्रामीण बुर्जुआ वर्ग और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग – दोनों की भर्ती होती है और पूँजीवादी विकास की परिस्थितियों में जिसकी अवस्थिति नितान्त अस्थिर होती है। उन्होंने इसे एक मरणशील संस्तर”(‘डाइंग स्ट्रैटम’) की संज्ञा दी है, जिसका एक छोटा-सा ख़ुशक़िस्मत हिस्सा ही सामाजिक क्रम-विकास की प्रक्रिया में ऊपर जा पाता है और बड़ा हिस्सा नीचे, सर्वहारा संस्तरों की ओर धकेल दिया जाता है (एस.पी. ट्रापेजि़्नकोव: ‘लेनिनिज़्म एण्ड द एग्रेरियन एण्ड पीज़ेण्ट क्वेश्चन’, खण्ड-1, पृ. 47) ।

पूँजीवादी विकास के साथ बढ़ता वर्ग-ध्रुवीकरण मध्यम किसानों के पूरे संस्तर को ही सिकोड़ता चला जाता है। इस वर्ग का स्वयं तीन हिस्सों में विभेदीकरण तीव्र हो जाता है। उच्च-मध्यम किसानों का छोटा हिस्सा कुलकों की जमात में और निम्न-मध्यम किसानों का बहुसंख्यक हिस्सा सर्वहारा-अर्द्धसर्वहाराओं की क़तारों में जा मिलता है। बचा हुआ मध्य हिस्सा तब फि़र मध्यम किसानों का समूचा वर्ग बन जाता है जो फि़र क्रमशः तीन संस्तरों में विभाजित होकर ऊपर और नीचे की ओर गतिमान होता है। इस तरह गाँवों में भी क्रमशः पूँजी और श्रम के बीच ध्रुवीकरण स्पष्ट और तीखा होता जाता है। कृषि-आधारित और सम्बद्ध क्षेत्र का विकास इस प्रक्रिया को और तेज़ कर देता है। पूँजीवादी विकास के साथ ही कृषि से विनियोजित अधिशेष को उद्योगों व वित्तीय क्षेत्र में लगाने से जहाँ एक स्तर पर गाँव और शहर का अन्तर बढ़ता जाता है, वहीं, दूसरे स्तर पर, जैसा कि लेनिन ने लिखा है, “वाणिज्य के विकास के आगे बढ़ने के साथ ही, गाँव शहर के क़रीब आता जाता है”(ट्रापेजि़्नकोव: पूर्वोद्धृत, पृ.48)। धीरे-धीरे गाँवों में भी पूँजीवाद के अन्तरविरोध उतने ही स्पष्ट होते जाते हैं जैसे कि शहर में। हालाँकि, यह अलग से विस्तृत चर्चा का विषय है, पर यहाँ इतना उल्लेख ज़रूरी है कि पूँजीवादी उत्पादन की विशिष्ट प्रकृति के कारण और पूँजीवादी विकास के साथ-साथ सेवा क्षेत्र के विस्तार के चलते जहाँ शहरी मध्य वर्ग की उपस्थिति तो आगे भी न केवल बनी रहेगी बल्कि उसकी संख्या भी बढ़ेगी, वहीं छोटे और मँझोले पूँजीपतियों की भी अपेक्षा तेज़ गति से, मध्यम किसान वर्ग सिकुड़ता चला जायेगा। अब जो नयी समाजवादी क्रान्ति भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों के एजेण्डे पर है, उसमें मध्यम किसान की (पहले से ही ढुलमुल दोस्त की) भूमिका अक्टूबर क्रान्ति के मुक़ाबले भी काफ़ी कम होगी। हम (1) भूमण्डलीकरण के इस नये दौर में गाँवों में वित्तीय पूँजी की बढ़ती पैठ, (2) किसान आबादी के विभेदीकरण और मध्यम किसान आबादी के कंगालीकरण की तीव्र से तीव्रतर होती गति तथा (3) शहरीकरण की तीव्र गति के बारे में विभिन्न एजेंसियों द्वारा प्रस्तुत तथ्यों एवं प्रक्षेपणों (प्रोजेक्शंस) पर निगाह डालें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि लगभग आधी सदी की मन्थर गति के बाद अब भारत में, और ऐसे तमाम पिछड़े पूँजीवादी देशों में, पूँजी का घोड़ा तमाम प्राक्-पूँजीवादी संरचनाओं को निर्णायक रूप से रौंद देने के लिए तैयार है। यह एक अलग से विस्तृत चर्चा का विषय है, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया की इस तार्किक परिणति का यहाँ उल्लेख ज़रूरी है कि मध्यम किसान के सवाल की बहुतेरी जटिलताओं को इतिहास स्वयं हल करने की दिशा में उन्मुख है। छोटी और मँझोली जोत की तबाही का भविष्य स्वयं छोटे-मँझोले किसानों के सामने पहले हमेशा की अपेक्षा अधिक स्पष्ट होता जा रहा है। ऐसे में, तात्कालिक तौर पर भी मज़दूर वर्ग के हरावल दस्ते द्वारा कोई ऐसी माँग प्रस्तुत करना, जो मँझोले मालिक किसानों को धनी मालिक किसानों के पक्ष में खड़ा करे, अव्वल दर्जे की आत्मघाती मूर्खता होगी, सरासर पागलपन होगा।

यहाँ इस बात पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है कि लेनिन समाजवादी क्रान्ति के कार्यभारों के सन्दर्भ में जहाँ कहीं भी वर्ग-संश्रय की प्रकृति की चर्चा करते हैं, वहाँ वे सर्वहारा वर्ग के साथ ग़रीब किसानों की सुदृढ़ मैत्री पर, या दूसरे ढंग से, औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के साथ ग्रामीण सर्वहारा एवं अर्द्धसर्वहारा आबादी की सुदृढ़ मैत्री पर बल देते हैं। अधिकांशतः वे मध्यम किसानों के ढुलमुलपन की, उनके विरोध को पंगु या निष्प्रभावी बनाने की, उन्हें धनी किसानों के पक्ष में न जाने देने की या तटस्थ कर देने की ही चर्चा करते हैं, कहीं-कहीं ही वे उसके निचले संस्तरों को सक्रिय रूप से साथ लेने की चर्चा करते हैं। स्तालिन ने भी लेनिनवाद के मूल सिद्धान्त’ में रूसी क्रान्ति की दूसरी अवस्था (मार्च 1917 से अक्टूबर 1917 तक) का समाहार करते हुए, क्रान्ति की मुख्य सेना के रूप में सर्वहारा वर्ग तथा उसके मुख्य सहायक या कोतल सेना के रूप में ग़रीब किसान तक की ही चर्चा की है, मध्यम किसान का उल्लेख तक नहीं किया है। समाजवादी क्रान्ति के वर्ग-संश्रय के प्रति लेनिन और स्तालिन की यह पहुँच आज, उनके समय से भी कई गुना अधिक ज़ोर के साथ लागू करने की ज़रूरत है। मध्यम किसान के साथ हमारा ज़ोर इस बात पर होना चाहिए कि वह धनी किसानों के साथ, और सभी शासक वर्गों के पक्ष में, यथासम्भव न खड़ा हो, गाँव व शहर की सर्वहारा- अर्द्धसर्वहारा आबादी के विरोध पक्ष में यथासम्भव न जाये, भरसक पूँजीवादी सत्ता-विरोधी माँगों पर वह सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी के साथ खड़ा हो और धनी किसानों के हाथों अपनी तबाही (क्योंकि वही उसकी ज़मीनें ख़रीदता है) को ज़्यादा से ज़्यादा प्रखर रूप में महसूस करे। उसकी हर ऐसी तात्कालिक माँग, जो उसे थोड़ी देर के लिए भी मालिक किसानों के साथ खड़ा करे, गाँवों में वर्ग-संघर्ष को तीखा करने के बजाय वर्ग-अन्तरविरोधों को धूमिल करने का ही काम करेगी और इसलिए वह पूर्णतः सर्वहारा-विरोधी होगी।

मध्यम किसान जिस हद तक उजरती ग़ुलामी का पक्षधर है, उस हद तक उत्पादन से जुड़ी उसकी किसी माँग को सर्वहारा वर्ग की पार्टी नहीं उठा सकती। स्वयं एक हद तक उजरती ग़ुलामी करने वाले के रूप में और उजरती मज़दूरों को निचोड़ने वाले बड़े किसानों के हाथों तबाह किये जाने के चलते, जिस हद तक वह बड़े किसानों का विरोधी है और देहाती सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा के निकट खड़ा है, उसी हद तक, उत्पादन से जुड़ी उसकी ऐसी ही माँगों पर, सर्वहारा वर्ग की पार्टी मध्यम किसानों का पक्ष ले सकती है। और अधिक सूक्ष्म विभेदीकरण करते हुए कहा जा सकता है कि सर्वहारा वर्ग की पार्टी ग़रीब किसानों के निकट खड़े मध्यम किसानों के निचले संस्तर को अपने पक्ष में करने, बीच के संस्तर को तटस्थ करने और ऊपर के संस्तर को अलग-थलग करने की दृष्टि से ही अपनी नीति तय करती है। प्रश्न केवल औद्योगिक पूँजीपतियों और पूँजीवादी राज्यसत्ता के विरुद्ध मध्यम किसानों को साथ लेने का नहीं है, इससे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न गाँव के पैमाने पर वर्ग-संघर्ष संगठित करने का है (जो निश्चित तौर पर पूँजीवादी भूस्वामियों-फ़ार्मरों-कुलकों और ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी के बीच होगा), अतः इस संघर्ष के मद्देनज़र सर्वहारा वर्ग की पार्टी मध्यम किसानों की ऐसी किसी तात्कालिक वर्गीय माँग का किसी भी स्थिति में समर्थन नहीं कर सकती जो मध्यम किसानों को पूँजीवादी मुनाफ़ाख़ोर बड़े किसानों के साथ अल्पकालिक तौर पर भी ला खड़ा करती हो।

साथी एस. प्रताप यदि 1903 से लेकर 1917 के बीच बोल्शेविकों द्वारा प्रस्तुत तीनों भूमि-सम्बन्ध विषयक कार्यक्रमों (एग्रेरियन प्रोग्राम्स) का, इनके निर्माण के दौरान प्लेख़ानोव, अन्य मेंशेविक नेताओं एवं दूसरों के साथ लेनिन की बहसों और मतभेदों का तथा पूँजीवादी विकास एवं अन्य राजनीतिक परिवर्तनों के साथ भूमि-सम्बन्ध-विषयक कार्यक्रम में क्रमशः होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन कर लेते तो उन्हें इस प्रश्न पर उलझावों से मुक्त होने में काफ़ी मदद मिलती।

लेनिन एकाधिक स्थानों पर यह स्पष्ट करते हैं कि जब तक भूस्वामी वर्ग और भूदासता के विरुद्ध संघर्ष लक्ष्य होता है, केवल तभी तक पूरी किसान आबादी कमोबेश एक एकीकृत वर्ग जैसा व्यवहार करती है। इसके आगे, केवल ग़रीब किसान ही जाते हैं जो मज़दूर वर्ग के साथ ऐक्यबद्ध होते हैं और समाजवाद के लक्ष्य के लिए लड़ते हैं। इसके साथ-साथ छोटे-मँझोले मिल्की वर्गों के इस निम्नपूँजीवादी विभ्रम के विरुद्ध संघर्ष लगातार जारी रहता है कि पूँजीवाद के अन्तर्गत वे समृद्ध हो सकते हैं या बराबरी हासिल कर सकते हैं (दि वर्कर्स पार्टी ऐण्ड दि पीजे़ण्ट्री, लेनिन: कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड-4 और एस.पी- ट्रापेजि़्नकोव: पूर्वोद्धृत, पृ.91-92)। इस प्रक्रिया में मँझोले किसानों का एक निचला हिस्सा साथ आ सकता है, जबकि उनके मध्यवर्ती संस्तर को तटस्थ किया जा सकता है और ऊपरी संस्तर के प्रतिरोध को पंगु बनाया जा सकता है।

रूसी पार्टी के पहले भूमि-सम्बन्ध विषयक कार्यक्रम के बारे में लिखते समय छोटे भूस्वामित्व के प्रश्न पर विचार करते हुए लेनिन ने ज़ोर देकर यह बात कही थी कि हम छोटे मालिकाने का समर्थन भूदासता के विरुद्ध संघर्ष में करते हैं, न कि पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में। उनके अनुसार यह समर्थन भूदास अर्थव्यवस्था और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की सीमारेखा पर खड़े रूसी छोटे किसानों की अन्तरविरोधी स्थिति को देखते हुए उचित है, हालाँकि यह एक अपवाद है और मात्र अस्थायी समर्थन है (एग्रेरियन प्रोग्राम ऑफ़ रशियन सोशल डेमोक्रेसी’, लेनिन: कलेक्टेड वर्क्स, वॉल्यूम-6, पृ.134-135)। लेकिन ग़ौरतलब बात यह है कि उस समय भी रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी का मुख्य ज़ोर गाँव के ग़रीबों पर था। जैसे-जैसे पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ी, निजी मालिकाने को अस्थायी समर्थन की उपरोक्त अवस्थिति से पार्टी हट गयी और आगे बढ़ गयी। नतीजा भूमि-सम्बन्ध विषयक कार्यक्रम में बदलाव के रूप में आगे के दोनों कार्यक्रमों में दीखता है।

इसी पहुँच के आधार पर हमने मोटे तौर पर उन माँगों को सूत्रबद्ध किया था, जो छोटे-मँझोले किसानों और गाँव के सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी की, तथा कई मामलों में शहर की सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा व आम मध्यवर्गीय आबादी की भी, साझा माँगें हो सकती थीं। ये साझा माँगें विशुद्ध वर्गीय प्रकृति की हैं तथा अधिकांशतः पूँजीवादी उत्पादन व विनिमय से सीधे जुड़ी हुई हैं। यह पूँजीवाद की उन्नत अवस्था की एक विशिष्ट अभिलाक्षणिकता है कि विभिन्न मेहनतकश वर्गों की माँगें साझा हो जाती हैं, विभिन्न मध्यवर्गीय जमातों की माँगें साझा हो जाती हैं तथा कई एक मामलों में जनता के सभी वर्गों की माँगें साझा हो जाती हैं। संयुक्त मोर्चे का सवाल सबसे पहले इन्हीं साझा माँगों की पहचान का सवाल है। सर्वहारा क्रान्ति के संश्रयकारी वर्ग को छूट देने का प्रश्न राज्यसत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथ में आने के बाद आता है। आज मध्यम किसान यदि लागत मूल्य के प्रश्न पर लड़ता है तो बेशक लड़े, सर्वहारा वर्ग उसकी इस लड़ाई को समर्थन कदापि नहीं दे सकता। किसी भी स्थिति में नहीं, क्योंकि यह पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ते हुए छोटे मालिकाने का समर्थन करने के समान होगा। बेशक एंगेल्स का यह कहना सही था कि पूँजी के हाथों छोटे किसानों की अपरिहार्य तबाही की प्रतीक्षा करने के बजाय उसके किसान रहते हुए क्रान्ति के पक्ष में खड़ा किया जाना चाहिए, लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि सर्वहारा के हरावल छोटी किसानी को बचाने के भ्रम या चेष्टाओं के हिस्सेदार बनें। इसका मतलब मात्र यह हुआ कि बड़े मालिक किसानों के साथ साझेदारी वाले मुद्दों को छाँटकर छोटे मालिक किसानों को उन माँगों पर संगठित किया जाये जिन पर उनकी साझेदारी ग्रामीण सर्वहारा और ग़रीब किसानों के साथ बनती है।

और अन्त में एक और बात। जैसा कि प्लेख़ानोव ने कहा था, ज़िन्दा लोग ज़िन्दा सवालों पर सोचते हैं। लागत मूल्य घटाने के सवाल का तो हम किसी भी सूरत में समर्थन नहीं कर सकते, मध्यम किसान की किसी वाजिब तात्कालिक माँग का भी आज की तारीख़ में समर्थन का कोई व्यावहारिक मतलब नहीं है। यह एक खानापूर्ति या ज़ुबानी जमाख़र्च मात्र ही होगा। लेनिन ने अपने एक शुरुआती लेख “जनता के मित्रक्या हैं और वे सामाजिक जनवादियों से कैसे लड़ते हैं”  में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि कम्युनिस्ट सबसे पहले अपना सारा ध्यान और अपनी सारी गतिविधियाँ मज़दूर वर्ग पर केन्द्रित करते हैं। जब मज़दूरों के उन्नत प्रतिनिधि वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों में पारंगत हो जाते हैं और मज़दूर वर्ग की ऐतिहासिक भूमिका को भली-भाँति समझ लेते हैं, उसके बाद ही वे जनता के अन्य वर्गों को संगठित करने में सफ़ल हो सकते हैं। इस दृष्टि से, आज की अपनी कमज़ोर स्थिति में, हमें सर्वोपरि तौर पर अपना ध्यान मज़दूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी प्रचार एवं आन्दोलन के काम पर( उसे जागृत, गोलबन्द और संगठित करने पर केन्द्रित करना होगा। हमें भारत के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में व्याप्त उस नव-नरोदवादी भटकाव से बचना होगा जिसके शिकार विभिन्न ग्रुप मज़दूर वर्ग के बीच काम को किनारे छोड़कर, छोटे-मँझोले ही नहीं बल्कि बड़े किसानों सहित समूची किसानी के संकट की चिन्ता में दुबले हुए जा रहे हैं। इस बहस को जारी रखने के पीछे भी हमारा उद्देश्य यही था कि किसानी के सवाल पर कम्युनिस्ट क़तारों और उन्नत सर्वहारा तत्त्वों के नज़रिये को साफ़ किया जा सके। मध्यम किसानों को संगठित करने या उनके किसी संघर्ष को समर्थन देने का मुद्दा अभी भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के एजेण्डे में ऊपर नहीं है। जब तक ऐसी स्थिति आयेगी, वस्तुगत परिस्थितियों का विकास छोटे-मँझोले मालिकाने वाली किसानी के मुद्दे को ख़ुद ही काफ़ी हद तक स्पष्ट कर देगा।

बिगुल, फरवरी 2005


 

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