बजट 2010-11 : इजारेदार पूँजी के संकट और मुनाफे का बोझ आम गरीब मेहनतकश जनता के सिर पर
कारपोरेट घरानों, धनी किसानों, खुशहाल मध्‍यवर्ग पर तोहफों की बारिश!
मजदूरों, गरीब किसानों और निम्न मध्‍यवर्ग की जेब से आखिरी चवन्नी भी चोरी!  

सम्पादक मण्डल

pranab_puzzle1हाल ही में मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल का दूसरा बजट पेश किया। वित्त मन्त्री प्रणब मुखर्जी ने इस बजट को आम आदमी का बजट करार दिया। इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण (2009-2010) में मनमोहन सरकार ने जिस प्रकार की शब्दावली का इस्तेमाल किया वह कई मायनों में नयी थी और इससे इस सरकार के आर्थिक दर्शन के बारे में काफी कुछ पता चलता है। आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि राज्य को लोगों को सक्षम बनाने वाला होना चाहिए जिससे कि वे अपनी जरूरतें खुद पूरी कर सकें। उसका यह काम नहीं है कि वह खुद ही जनता की जरूरतों को पूरा करे। यह लोगों के जीवन में हस्तक्षेप जैसा होगा। शब्दों के इस मायाजाल के पीछे जो असलियत छिपी है, उसे समझना आसान है। राज्य के ”अहस्तक्षेपकारी” और ”सक्षम बनाने वाली भूमिका” का अर्थ है कि सरकार भोजन, शिक्षा, चिकित्सा आदि जैसी अपनी जिम्मेदारियों से और अधिक पीछे हटे। जब सरकार ”हस्तक्षेपकारी” होने की बात करती है तो उसका मतलब इन्हीं जिम्मेदारियों से होता है। खुली बाजार व्यवस्था में राज्य की ऐसी भूमिका का कोई स्थान नहीं है! खुली बाजार व्यवस्था का अर्थ है पूँजी की लूट के समक्ष खड़ी सभी बाधाओं को हटा देना और जनता को सभी प्रकार की बुनियादी सुविधाओं से वंचित करके उसे पूरी तरह बाजार की अन्धी शक्तियों के हवाले कर देना। एक ऐसी व्यवस्था में सरकार का काम जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना कैसे हो सकता है? यह बजट इसी बात को ”हस्तक्षेपकारी राज्य”, ”सक्षम बनाने वाला राज्य”, आदि जैसी लच्छेदार भाषा में कहता है। लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यही सरकार इस बजट में बड़े इजारेदार पूँजीपति घरानों, कारपोरेट घरानों, उच्च मध्‍यवर्ग, धनी किसानों और नेता-नौकरशाहों की सेवा में तोहफों की बारिश करती नजर आ रही है।

आइये देखें कि इस बजट में इस देश के पूँजीपतियों, धनी किसानों और उच्च मध्‍यवर्ग के लिए क्या है और इस देश के मजदूर वर्ग, गरीब किसानों और निम्न मध्‍यवर्ग के लिए क्या है। इस बार के बजट में जिस बात को लेकर संसद में बैठने वाले वामपन्थियों से लेकर भाजपा, सपा, राजद आदि सभी विपक्षी दलों में एकता हो गयी, वह थी पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृध्दि। जाहिर है कि संसदीय विपक्ष के विरोध का जनता के लिए कोई अर्थ नहीं है। इस विरोध का केवल चुनावी महत्व हो सकता था, लेकिन कांग्रेस ने यह काम बड़ी कुशलता से किया है क्योंकि न ही लोकसभा चुनाव करीब हैं और न ही कोई महत्वपूर्ण राज्य चुनाव नजदीक है। लिहाजा, प्रणब मुखर्जी के पास पूँजीपतियों की सेवा करने के लिए पूरा खुला हाथ था। कहने की जरूरत नहीं है किसी भी चुनाव के नजदीक आते ही एक लोकलुभावन बजट बनाया जायेगा। लेकिन अभी इसकी कोई जरूरत नहीं थी। इसीलिए पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़ाने पर होने वाले विरोध के बावजूद मनमोहन सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि इस कीमत बढ़ोत्तरी को वापस नहीं लिया जायेगा। पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढ़ने का असर सभी जरूरत के सामानों पर पड़ेगा और खास तौर पर इसका असर खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों पर पड़ेगा जो पहले से ही आसमान छू रही हैं। वैसे तो पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढ़ने पर सभी वर्गों को तकलीफ होती लेकिन सरकार ने उच्च और उच्च मध्‍यवर्ग की इस तकलीफ को प्रत्यक्ष कर में कटौती करके खत्म कर दिया है। लेकिन जो कर देश की 98 प्रतिशत जनता पर भारी पड़ता है, उन्हें बढ़ा दिया गया है (यानी कि अप्रत्यक्ष कर)। इसलिए आम मेहनतकश जनता के लिए पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में हुई बढ़ोत्तरी का सबसे अधिक प्रतिकूल असर पड़ रहा है। सरकार ने गाँवों में अपने सामाजिक आधारों को मजबूत करने के लिए कृषि ऋण के लिए बजट को पिछली बार के 3,25,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 3,75,000 करोड़ रुपये कर दिया है। इसका लाभ किसे मिलने वाला है, बताने की जरूरत नहीं है। इसके लिए बस पिछले कुछ वर्षों के ऋण-सम्बन्धी ऑंकड़ों पर नजर डाल लेना पर्याप्त होगा। पिछले वर्ष कुल कृषि ऋण की राशि का लगभग 90 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा जिस प्रकार के ऋणों पर खर्च हुआ, उनका आकार 10 से 15 करोड़ रुपयों के बीच था। जाहिर है कि ये ऋण किसी छोटे या यहाँ तक कि मँझोले किसान ने नहीं लिये होंगे। ये ऋण लिये बड़ी-बड़ी कारपोरेट खेती कम्पनियों और अति-धनी किसानों ने। इस बार भी जो ऋण राशि में बढ़ोत्तरी की गयी है वह इन्हीं धनी किसानों और कृषि व सम्बन्धित क्षेत्र की कम्पनियों को ध्‍यान में रखकर की गयी है।

महँगाई को कम करने की नौटंकी करने के नाम पर सरकार ने दालों और अनाज के परिवहन पर लगने वाले अतिरिक्त उत्पादन शुल्क को हटा दिया है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि आज दालों व अनाज की महँगाई का कारण लागत में बढ़ोत्तरी या कम उत्पादन नहीं है। अनाज व दालों की कीमतों को अपनी जगह पर रोके रखने के लिए फूड कारपोरेशन ऑफ इण्डिया के पास लगभग 52 लाख टन का बफर स्टॉक होना चाहिए, जो कि उसके पास है। इसके बावजूद अगर अनाज और दालों की कीमतों में वृध्दि हो रही है तो उसके दो प्रमुख कारण हैं। एक, बड़े व्यापारियों और खुदरा व्यापार में घुसी बड़ी कम्पनियों द्वारा की जाने वाली जमाखोरी और दूसरा, वायदा कारोबार। सरल शब्दों में कहें, तो अधिक मुनाफा पीटने के लिए पूँजीपतियों द्वारा अनाज और दालों की जमाखोरी और सट्टेबाजी। अगर यह न हो तो अनाज की कीमतें फौरन नीचे आ सकती हैं। वास्तव में, सरकार द्वारा अनाज और दालों के परिवहन पर लगने वाले अतिरिक्त उत्पादन शुल्क को घटाने से सिर्फ बड़े किसानों और एग्रो-कम्पनियों के मुनाफे का मार्जिन बढ़ जायेगा। धनी किसानों और फार्मरों के लिए तोहफों की लिस्ट अभी खत्म नहीं हुई है। सरकार ने इस बजट में कहा है कि ”हरित क्रान्ति” को बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल तक विस्तारित करने के लिए 400 करोड़ रुपये की रकम आवण्टित की जा रही है। सभी जानते हैं कि पंजाब और हरियाणा में ”हरित क्रान्ति” किसके लिए थी और उसका फायदा किसे मिला। यह बड़े पैमाने पर ऋण, आधुनिक बीज, खाद, आदि को धनी किसानों को आसान दरों और कम ब्याज दर पर मुहैया कराकर पूँजीवादी कृषि को और मजबूत करने और इन प्रदेशों के धनी किसानों और फार्मरों के पूँजीवादी आधुनिकीकरण की योजना है। इसका कोई भी फायदा गरीब या मँझोले किसान को नहीं मिलने वाला। उल्टे उसके सर्वहाराकरण की प्रक्रिया और तेज होगी। कृषि के क्षेत्र में पूँजी के कुछ हाथों में केन्द्रित होते जाने की प्रक्रिया और तेजी से आगे बढ़ेगी और बरबादी की कगार पर खड़े तमाम किसानों के बरबादी के गड्ढे में गिरने में देर नहीं लगेगी।

सरकार ने सभी अप्रत्यक्ष करों में वृध्दि कर दी है। अप्रत्यक्ष करों में हुई कुल वृद्धि है 46,500 करोड़ रुपये! इसका अर्थ यह हुआ कि खाने, ईंधन, परिवहन, रोजमर्रा की जरूरत की सभी वस्तुएँ, चिकित्सा, दवा, शिक्षा, कपड़े आदि सबकुछ और अधिक महँगे हो जायेंगे। भारत की 90 फीसदी जनता अपनी कुल आय का लगभग 60 फीसदी हिस्सा खाने पर खर्च कर देती है। ऐसे में जबकि खाने की वस्तुएँ और ज्यादा महँगी कर दी गयी हैं, तो अन्य सभी बुनियादी आवश्यकताओं का भी महँगा हो जाना आम जनता की जिन्दगी पर तबाही लाने वाला प्रभाव डालेगा। इसमें भी सबसे भयंकर मार इस देश के करीब 65 करोड़ खेतिहर और औद्योगिक मजदूरों पर पड़ेगी। इसके बाद करीब 25 करोड़ निम्न मध्‍यवर्गीय आबादी इसकी चपेट में आयेगी। कुल मिलाकर, इस देश के 90 करोड़ से भी अधिक लोगों के जीवन-स्तर में भारी गिरावट आयेगी। कोयले की भी कीमत में बढ़ोत्तरी कर दी गयी है और साथ ही सभी सार्वजनिक क्षेत्रों से विनिवेश करके 40,000 करोड़ रुपये जुटाने की योजना है। यानी की जनता की गाढ़ी कमाई को पूँजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हाथों औने-पौने दामों पर बेचकर यह रकम जुटायी जायेगी और इन्हें वापस जनता की सेवा में लगाने के बजाय बड़े उद्योगों के लिए जरूरी अवसंरचना बनाने पर खर्च कर दिया जायेगा। यानी कि एक्सप्रेस वे बनाने, आठ लेन की सड़कें बनाने, पूँजीपतियों को सरकारी बैंकों से बेहद कम ब्याज दरों पर कर्ज देने, कारपोरेट घरानों की कर्ज माफी के लिए रकम जुटाने में यह पूरी रकम खर्च की जायेगी, जो वास्तव में इस देश की गरीब जनता का पैसा है।

जहाँ एक ओर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी और अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी और साथ ही सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश करके करीब 1,00,000 रुपये आम जनता की जेब से वसूलने की योजना है, वहीं इस देश के 4 करोड़ आयकर दाताओं के लिए प्रत्यक्ष कर में 26,000 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गयी है। यानी कि पहले से ही खाये-अघाये, वाचाल, परजीवी, सुख-सुविधा के सामानों से लदे हुए उच्च मध्‍यवर्ग को और अधिक मलाई और रबड़ी! और क्यों न हो? यही तो वह वर्ग है जिसकी सेवा के लिए सरकार बैठी हुई है!

अब आइये यह भी देख लें कि इस देश के टाटाओं, बिड़लाओं, अम्बानियों, जिन्दलों और मित्तलों को क्या मिला है। 

कारपोरेट कर पर लगने वाले सरचार्ज को सरकार ने 10 प्रतिशत से घटाकर 7.5 प्रतिशत कर दिया है। कर्जों और करों से मुक्ति के रूप में कारपोरेट घरानों को सरकार ने इस बार 5,00,000 करोड़ रुपये का तोहफा दिया है। यही कारण था कि कारपोरेट घरानों के गिरोहों जैसे चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स, फिक्की आदि से सरकार को खूब शाबाशी मिली। कारपोरेट जगत की फेंकी गयी हड्डियों पर पलने वाले तमाम समाचार चैनलों ने प्रणब दा की शान में कसीदे पढ़ने शुरू कर दिये! आइये देखें, कि कारपोरेट घरानों को ये छूट किस प्रकार मिली है। सरकार ने उत्पादन शुल्क से मुक्ति के रूप में कारपोरेट घरानों को 1,70,765 करोड़ रुपयों की छूट दी, तो वहीं कस्टम डयूटी में इस बार मिली छूट से कारपोरेट घरानों को 2,49,021 करोड़ रुपयों का फायदा हो रहा है। इन दोनों के अतिरिक्त कारपोरेट करों में छूट के रूप में सरकार ने कारपोरेट घरानों को 80,000 रुपयों की छूट दी है। यानी कि कुल छूट 5,00,000 करोड़ रुपयों की!

कृषि क्षेत्र के विकास के लिए प्रणब मुखर्जी ने काफी शब्द खर्च किये। अब जरा कृषि क्षेत्र के विकास के लिए सरकार द्वारा बजट में किये गये प्रावधानों का लाभ किसे मिलने वाला है, यह भी देख लिया जाये। सरकार ने कहा है कि कृषि क्षेत्र के लिए अवसंरचना के विकास के रूप में वह बड़े निजी भण्डारण गृहों के निर्माण की छूट देगी। इसका फायदा साफ तौर पर बड़े किसानों और एग्रो-बिजनेस कम्पनियों को मिलेगा। बड़े भण्डारण गृहों का उपयोग पूरे देश में आज भी बड़े किसान, कुलक और फार्मर कर रहे हैं और आगे भी वही करेंगे। जैसाकि हम पहले भी जिक्र कर आये हैं, ऋण समर्थन के रूप में आवण्टित की गयी राशि में 50,000 करोड़ रुपये की वृध्दि का लाभ भी धनी किसानों और एग्रो कम्पनियों को ही मिलने वाला है। कृषि उत्पादों के रेफ्रिजरेशन और परिवहन सुविधा का शुल्क सरकार ने घटाया है, इसका लाभ भी कृषक पूँजीपतियों को मिलने वाला है। साथ ही, सरकार ने ग्रामीण पूँजीपति वर्ग के लिए एक बड़ी छूट और दी है। सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में निजी बैंकों को इजाजत दे दी है। सरकार का तर्क है कि इससे किसानों को ऋण और सहज रूप से उपलब्ध हो जायेगा। लेकिन यह एक बहुत बड़ा कुतर्क है। निजी बैंक हर हाल में बड़ी खेती में निवेश करने में ही दिलचस्पी रखेंगे। ऐसे में इसका लाभ भी धनी किसानों को ही मिलेगा। कृषि अवसंरचना का विकास तो आम गरीब जनता के पैसे और मेहनत के बल पर किया जायेगा, लेकिन उसके फायदे की मलाई पूरी तरह एग्रो-बिजनेस कम्पनियाँ और धनी किसान, फार्मर और कुलक साफ कर जायेंगे। सरकार का कहना है कि अगर कृषि उत्पादों की कीमत बढ़ेगी तो फायदा किसानों को मिलेगा। लेकिन कौन से किसानों को? भारत की कुल किसान आबादी में से 70 प्रतिशत मुख्यत: खाद्यान्न की खरीदार है। यानी कि भले ही कोई किसान कोई खाद्यान्न पैदा करता हो, उसकी कुल आय-व्यय में खाद्यान्न से होने वाली आय से खाद्यान्न पर होने वाला व्यय ज्यादा है। ऐसे में खाद्यान्न की कीमतें बढ़ने से 70 प्रतिशत कृषक आबादी को नुकसान होगा। दूसरी बात यह है कि गरीब किसानों को अपनी फसल का जो मोल मिलता है वह खुदरा कीमत तो दूर थोक कीमत से भी बहुत कम होता है। इसे फार्म गेट वैल्यू कहते हैं। अनाजों की फार्म गेट वैल्यू थोक भाव और खुदरा भाव दोनों से ही बेहद कम है। खुदरा और थोक रेट बढ़ने का कोई खास फर्क फार्म गेट मूल्य पर पड़ता भी नहीं है। बीच की बड़ी व्यापारिक कम्पनियाँ सारा मुनाफा खुद ही चट कर जाती हैं। बाजार की ताकतें कृषि उत्पादों के मूल्य कम होने पर भी खाद्यान्न की कीमत में कोई कमी नहीं होने देतीं और अपने मुनाफे को बढ़ाती जाती हैं।

सरकार को इस बजट में देश के धनाढय वर्गों को करों में छूट देने के कारण 80,000 करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है। कारपोरेट घरानों को 5,00,000 करोड़ की रियायत दी जा रही है। इससे भी सरकारी खजाने पर काफी भार पड़ने वाला है। लेकिन इसी बजट में सरकार ने अमीरों को दी गयी सहूलियतों का खर्च जनता की जेब से वसूलने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है। अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी और सार्वजनिक उद्यमों को बेचकर करीब 1,00,000 करोड़ रुपये की कमाई करने का प्रावधान सरकार ने कर दिया है। यानी, आम मेहनतकश आबादी महँगाई के रूप में इस देश के धनपतियों को एक छिपा हुआ कर देगी। अप्रत्यक्ष कर में बढ़ोत्तरी का अर्थ सीधे-सीधे यही है – आम मजदूर और मेहनतकश आबादी बरबाद और उसके बल पर पूँजीपति और परजीवी मध्‍यवर्ग आबाद!

अब आइये देखें कि सरकार ने जनता को कौन-कौन से लॉलीपॉप थमाये हैं? इस बार महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के लिए 1,000 करोड़ रुपये बढ़ा दिये गये। पहली बात तो यह है कि अगर इस बढ़ोत्तरी को मुद्रास्फीति से समायोजित किया जाये तो हम पायेंगे कि कुल आवण्टित राशि में कोई विशेष वृध्दि नहीं है। दूसरी बात यह कि जब करीब 40 हजार करोड़ रुपये के आस-पास राशि मनरेगा के तहत आवण्टित थी, तो भी उसका बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र में नौकरशाहों, ठेकेदारों, सरपंचों और तहसीलदारों की जेब में जा रहा था। जनता को सिर्फ जूठन-छाजन मिल रही थी। लेकिन धन्य हो पूँजीपतियों के जेबी मीडिया का जिसने इस योजना को ऐसा क्रान्तिकारी बना दिया कि आखिरी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार इसके बूते काफी वोट बटोर ले गयी! इस बार सरकार ने ग्रामीण अवसंरचना विकास के लिए करीब 4,000 करोड़ रुपये और कृषि विकास के लिए 900 करोड़ रुपये आवण्टित किये हैं। हम पहले ही बता आये हैं कि इस कृषि विकास और ग्रामीण अवसंरचना विकास का लाभ मूल और मुख्य रूप से ग्रामीण पूँजीपति वर्ग और ग्रामीण नौकरशाह पूँजीपति वर्ग को ही मिलना है। देश में सड़कों के निर्माण के लिए 19,894 करोड़ रुपये और रेल-मार्ग निर्माण के लिए 16,752 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। अगर नजदीकी निगाह डालें तो पता चलता है कि वास्तव में इस राशि से सड़कों और रेलमार्गों का इस हद तक निर्माण नहीं किया जा सकता कि देश के जिन हिस्सों तक अभी सड़कों और रेलमार्गों की उचित मात्रा में पहुँच नहीं है, वहाँ वे पहुँच जायें। वास्तव में, इस राशि से कुछ एक्सप्रेस-वे और औद्योगिक जगत के लिए जरूरी कुछ सड़क और रेल-मार्गों का निर्माण किया जायेगा। साथ ही, कुछ ऐसे रास्तों का निर्माण होगा जिससे कुछ नये इलाकों में निवेश आकर्षित किया जा सके।

शिक्षा का अधिकार कानून को लागू करने के लिए जितने पैसों की जरूरत थी, लगभग उससे आधी रकम का प्रावधान इस बार स्कूल शिक्षा के लिए किया गया है। हम जानते हैं कि संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन ने इस बार शिक्षा का अधिकार बिल पास करके काफी वाहवाही लूटी है। इसके अन्तर्गत 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के लिए पड़ोस के सरकारी स्कूल में नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है। इसे 1 अप्रैल से लागू होना है। लेकिन अगर सरकार वाकई इस योजना को लागू करना चाहती है तो उसे इसके लिए सिर्फ 31,036 करोड़ रुपये का ही प्रावधान नहीं करना चाहिए था, बल्कि इसके दोगुने का प्रावधान करना चाहिए था। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के लिए मात्र 22,300 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। लेकिन दूसरी तरफ प्रधानमन्त्री पर होने वाले सुरक्षा खर्च को 212 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 252 करोड़ रुपया कर दिया गया है। साफ है, देश की आम मेहनतकश जनता को शिक्षा और चिकित्सा मुहैया कराना सरकार का लक्ष्य है ही नहीं। वरना वह 5,00,000 करोड़ रुपये की छूट और तोहफे कारपोरेट घरानों, पूँजीपतियों और नेताओं-नौकरशाहों को नहीं देती, बल्कि इस देश की आम जनता को भोजन, मकान, चिकित्सा, शिक्षा आदि मुहैया कराने पर खर्च करती। लेकिन जब देश की जनता सरकार से यह माँग करती है तो सरकार कहती है कि यह उसका काम नहीं है। उसका काम है ”जनता को सक्षम बनाना”!! जनता की जरूरतों को पूरा करना उसका काम नहीं है!! उसका काम तो जनता को लूट कर पूँजीपतियों की थैलियाँ भरना है! स्वास्थ्य और परिवार कल्याण, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा और रोजगार सृजन पर मामूली रकमों का प्रावधान किया गया है। जबकि संयुक्त राष्ट्र की हालिया रपट के अनुसार भारत में 2008-09 के वित्तीय वर्ष में 3.4 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गये। गरीबी दूर करने की बजाय सरकार ने एक अनोखा रास्ता निकाला है: गरीबी रेखा की परिभाषा को ही बदल दो। पहले की परिभाषा के अनुसार शहरों में 2,200 कैलोरी प्रतिदिन और गाँवों में 2,400 कैलोरी प्रतिदिन को गरीबी रेखा माना जाता था। हालाँकि यह गरीबी रेखा भी अन्यायपूर्ण थी, क्योंकि इसमें सिर्फ खाने का खर्च जोड़ा गया था (ईंधन, शिक्षा, चिकित्सा, आवास, आदि का नहीं।) लेकिन अब सरकार इसे भी नीचे करके 1800 कैलोरी पर लाना चाहती है। यह परिभाषा बदलने से पहले ही सरकार ने ऑंकड़ों में हेराफेरी करके गरीबों की संख्या करीब 30 करोड़ बतायी थी, जबकि वास्तव में देश की आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है। सरकार अगर 1,800 कैलोरी को भी नया मानक बनाती है तो भी देश की करीब 27 करोड़ आबादी गरीबी रेखा के नीचे ही रहेगी। 1991 से 2001 के बीच 1 करोड़ किसान तबाह होकर भूमिहीन आबादी में शामिल हो गये। 1997 से 2008 के बीच करीब 2 लाख किसानों ने आत्महत्या की। इन सारी सच्चाइयों के बावजूद सरकार ने पूँजीपतियों और कारपोरेटों और धनी किसानों, फार्मरों और कुलकों पर खर्च को बढ़ाया है और इसके लिए पैसा 80 फीसदी आम मेहनतकश जनता पर बढ़े हुए कर थोप कर जुटाया है। सरकार अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी के पीछे जिस बजट घाटे को पूरा करने का जो बहाना दे रही है उस घाटे के कारण और स्रोत क्या हैं? 82,000 करोड़ रुपये कारपोरेटों को दिये जाने वाली छूट का खर्च; 19,000 करोड़ कस्टम डयूटी में छूट का खर्च; 30,000 करोड़ उत्पादन शुल्क में छूट का खर्च; 46,000 करोड़ रुपये के कर छूट का खर्च! ऐसे में बजट घाटा नहीं होगा तो और क्या होगा? और इस पूरे घाटे की कीमत आम जनता को अपना पेट काट-काटकर चुकानी होगी। यही है इस पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई। जब तक यह कायम रहेगी, हम अपना और अपने बच्चों का पेट काट-काट कर परजीवी धनाढय मकड़ों की तोदें भरते रहेंगे और उनके ऐशो-आराम के सामान खड़े करते रहेंगे।

बिगुल, मार्च-अप्रैल 2010


 

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