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पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (सातवीं किश्त)
आज भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के मज़दूर पूँजी की लुटेरी ताक़त के तेज़ होते हमलों का सामना कर रहे हैं, और मज़दूर आन्दोलन बिखराब, ठहराव और हताशा का शिकार है। ऐसे में इतिहास के पन्ने पलटकर मज़दूर वर्ग के गौरवशाली संघर्षों से सीखने और उनसे प्रेरणा लेने की अहमियत बहुत बढ़ जाती है। आज से 141 वर्ष पहले, 18 मार्च 1871 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में पहली बार मज़दूरों ने अपनी हुक़ूमत क़ायम की। इसे पेरिस कम्यून कहा गया। उन्होंने शोषकों की फैलायी इस सोच को ध्वस्त कर दिया कि मज़दूर राज-काज नहीं चला सकते। पेरिस के जाँबाज़ मज़दूरों ने न सिर्फ़ पूँजीवादी हुक़ूमत की चलती चक्की को उलटकर तोड़ डाला, बल्कि 72 दिनों के शासन के दौरान आने वाले दिनों का एक छोटा-सा मॉडल भी दुनिया के सामने पेश कर दिया कि समाजवादी समाज में भेदभाव, ग़ैर-बराबरी और शोषण को किस तरह ख़त्म किया जायेगा। आगे चलकर 1917 की रूसी मज़दूर क्रान्ति ने इसी कड़ी को आगे बढ़ाया।
मज़दूर वर्ग के इस साहसिक कारनामे से फ्रांस ही नहीं, सारी दुनिया के पूँजीपतियों के कलेजे काँप उठे। उन्होंने मज़दूरों के इस पहले राज्य का गला घोंट देने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया और आख़िरकार मज़दूरों के कम्यून को उन्होंने ख़ून की नदियों में डुबो दिया। लेकिन कम्यून के सिद्धान्त अमर हो गये। पेरिस कम्यून की हार से भी दुनिया के मज़दूर वर्ग ने बेशक़ीमती सबक़ सीखे। पेरिस के मज़दूरों की कुर्बानी मज़दूर वर्ग को याद दिलाती रहती है कि पूँजीवाद को मटियामेट किये बिना उसकी मुक्ति नहीं हो सकती।
‘मज़दूर बिगुल’ के मार्च 2012 अंक से हमने दुनिया के पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा की शुरुआत की है, जो अगले कई अंकों में जारी रहेगी।
इस शृंखला की शुरुआती कुछ किश्तों में हमने पेरिस कम्यून की पृष्ठभूमि के तौर पर जाना कि पूँजी की सत्ता के ख़िलाफ़ मज़दूरों ने किस तरह लड़ना शुरू किया और किस तरह चार्टिस्ट आन्दोलन और 1848 की क्रान्तियों से गुज़रते हुए मज़दूर वर्ग की चेतना और संगठनबद्धता आगे बढ़ती गयी। हमने मज़दूरों की मुक्ति की वैज्ञानिक विचारधारा के विकास और पहले अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संगठन के बारे में जाना। पिछले अंकों में हमने जाना कि कम्यून की स्थापना कैसे हुई और उसकी रक्षा के लिए मेहनतकश जनता किस प्रकार बहादुरी के साथ लड़ी। हमने यह भी देखा कि कम्यून ने सच्चे जनवाद के उसूलों को इतिहास में पहली बार अमल में कैसे लागू किया और यह दिखाया कि “जनता की सत्ता” वास्तव में क्या होती है। – सम्पादक
वीर कम्यूनार्डों के रक्त से लिखा इतिहास का कड़वा सबक़
1. कम्यून ने जो ऐतिहासिक कदम उठाये, उन्हें लेकर वह बहुत दूर तक आगे नहीं चल सका। अपने जन्म से ही वह दुश्मनों से घिरा हुआ था, जो उसे नेस्तनाबूद करने पर तुले हुए थे। ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ के शब्दों के अनुसार बूढे़ यूरोप को “कम्युनिज़्म का जो हौवा” 1848 में ही सता रहा था, उसे साक्षात पेरिस में खड़ा देखकर यूरोप के सभी देशों के पूँजीपतियों के कलेजे दहल उठे थे। कम्यून को कुचलने के लिए सभी प्रतिक्रियावादी ताक़तें एकजुट हो गयी थीं। प्रशा (जर्मनी) के सैनिकों द्वारा कब्ज़ा करवाकर पेरिस को कुचल देने की पूँजीपतियों की पहली कोशिश नाकाम रही क्योंकि जर्मनी का शासक बिस्मार्क इसके लिए तैयार नहीं था। 18 मार्च को उन्होंने दूसरी कोशिश की जिसमें उनकी सेना की हार हुई और पूरी सरकार पेरिस छोड़कर वर्साय भाग चली। थियेर ने पेरिस के साथ सन्धि की बातचीत का दिखावा करके उसके विरुद्ध युद्ध की तैयारियाँ करने का मौक़ा हासिल किया। लेकिन उसकी बची-खुची सेना इस हाल में नहीं थी कि कम्यून का मुक़ाबला कर सके। कम्यूनार्डों की वीरता को देखकर थियेर को यह समझ में आ गया था कि पेरिस के प्रतिरोध को चूर कर पाना उसकी सामरिक प्रतिभा और सैन्य बल के बूते की बात नहीं है। इसलिए वह बिस्मार्क के भरोसे था।
2. कार्ल मार्क्स यह स्पष्ट समझ रहे थे कि पेरिस कम्यून को कुचलने के लिये बिस्मार्क की जो प्रशियाई फौजें पेरिस के शहरपनाह के पास ही खड़ी थीं, वे या तो थियेर को मदद करतीं या फिर खुद ही पेरिस की ओर कूच कर देतीं। इसलिए वे लगातार राय दे रहे थे कि पेरिस कम्यून की जीत को पुख़्ता करने के लिए ज़रूरी है कि पेरिस की कामगारों की सेना पेरिस में प्रतिक्रान्ति की हर कोशिश को कुचलकर बिना रुके वर्साय की ओर कूच कर जाये जो थियेर सरकार के साथ ही पेरिस के सभी रईसों का पनाहगाह बना हुआ था। उनका कहना था कि इससे कम्यून की जीत और पुख़्ता हो जाती और सर्वहारा क्रान्ति पूरे देश में फैलायी जा सकती थी। बाद में यह सामने आया कि थियेर के पास उस समय कुल जमा 27 हजार पस्तहिम्मत फ़ौजी थे, जिन्हें पेरिस के एक लाख ‘नेशनल गार्डस’ चुटकी बजाते धूल चटा सकते थे।
3. लेकिन पेरिस कम्यून के बहादुर कम्यूनार्ड यहीं पर चूक गये। उन्होंने पेरिस में तो मज़दूर वर्ग की फ़ौलादी सत्ता क़ायम की और बुर्जुआ वर्ग के साथ कोई रू-रियायत नहीं बरती, लेकिन वे भूल गये कि पेरिस के बाहर थियेर के पीछे सिर्फ़ फ्रांस के ही नहीं, बल्कि पूरे यूरोप के प्रतिक्रियावादी एकजुट हो रहे हैं। मार्क्स ने कम्यून के प्रमुख नेताओं-फ्रांकेल और वाल्यां को आगाह किया कि पेरिस को घेरने के लिए थियेर और प्रशियाइयों के बीच सौदेबाज़ी हो सकती है, इसलिए प्रशियाई लश्करों को पीछे धकेलने के लिए मोंतमार्त्र पहाड़ी की उत्तरी पाख की किलेबन्दी कर लेनी चाहिये। मार्क्स इस बात को लेकर बहुत चिन्तित थे कि कम्यून वाले अपने को केवल बचाव तक सीमित रखकर बेशक़ीमती समय गँवा रहे हैं और वर्साय वालों को अपनी सेना मज़बूत कर लेने का मौक़ा दे रहे हैं। उन्होंने कम्यूनार्डों को लिखा कि प्रतिक्रियावाद की माँद को ध्वस्त कर डालिये, फ्रांसीसी राष्ट्रीय बैंक के ख़ज़ाने ज़ब्त कर लीजिये और क्रान्तिकारी पेरिस के लिए प्रान्तों का समर्थन हासिल कीजिये।
4. लेकिन कम्यून ने वर्साय की ओर से उपस्थित ख़तरे को कम करके आँकने की भूल की। उसने न सिर्फ़ उस पर हमला करने की कोशिश नहीं की, बल्कि अपनी प्रतिरक्षा करने के लिए भी गम्भीरता से तैयारी नहीं की। 27 मार्च 1871 से ही वर्साय की सेना के अग्रिम मोर्चों और पेरिस के चारों ओर के परकोटों के बीच रह-रहकर गोलीबारी होने लगी थी। 2 अप्रैल को कम्यून की सेना की एक टुकड़ी जब कूर्बेवाई की ओर जा रही थी तो उस पर हमला किया गया। थियेर की सेना ने जिन सैनिकों को बन्दी बनाया उन्हें तुरन्त गोली मार दी गयी। अगले दिन, नेशनल गार्ड के दबाव में, कम्यून ने आख़िरकार वर्साय के विरुद्ध तीन ओर से हमला बोला। लेकिन कम्यून की बटालियनों के ज़बर्दस्त उत्साह के बावजूद, गम्भीर राजनीतिक और सैन्य तैयारी के अभाव के कारण देर से हुए इस हमले को हार का सामना करना पड़ा। इस हार से कम्यून को बहुत से हताहतों के रूप में भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। उसके दो सक्षम कमाण्डर “लोरेंस और दूवाल को वर्साय की सेना ने बन्दी बनाने के बाद मौत के घाट उतार दिया।
5. वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्तों पर गठित एक पार्टी का अभाव उन ऐतिहासिक घड़ियों में कम्यून की गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित कर रहा था। इण्टरनेशनल की फ्रांस शाखा सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक हरावल बनने से चूक गयी थी। उसके अन्दर मार्क्सवादी विचारधारा के लोगों की संख्या भी बहुत कम थी। फ्रांसीसी मज़दूरों में सैद्धान्तिक पहलू बहुत कमज़ोर था। उस समय तक ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’,‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष’, ‘पूँजी’ आदि मार्क्स की प्रमुख रचनाएँ अभी फ्रांसीसी भाषा में प्रकाशित भी नहीं हुई थीं। कम्यून के नेतृत्व में बहुतेरे ब्लांकीवादी और प्रूधोंवादी शामिल थे, जो मार्क्सवादी सिद्धान्तों से या तो परिचित ही नहीं थे, या फिर उसके विरोधी थे। आम सर्वहाराओं द्वारा आगे ठेल दिये जाने पर उन्होंने सत्ता हाथ में लेने के बाद बहुतेरी चीज़ों को सही ढंग से अंजाम दिया और आने वाली सर्वहारा क्रान्तियों के लिए बहुमूल्य शिक्षाएँ दीं, पर अपनी राजनीतिक चेतना की कमी के कारण उन्होंने बहुतेरी ग़लतियाँ भी कीं। कम्यूनार्डों की एक बड़ी ग़लती यह थी कि वे दुश्मन की शान्तिवार्ताओं की धोखाधड़ी के शिकार हो गये और दुश्मन ने इस बीच युद्ध की तैयारियाँ मुकम्मिल कर लीं। जैसा कि मार्क्स ने लिखा हैः “जब वर्साय अपने छुरे तेज़ कर रहा था, तो पेरिस मतदान में लगा हुआ था; जब वर्साय युद्ध की तैयारी कर रहा था तो पेरिस वार्ताएं कर रहा था।” दुश्मन का पूरी तरह सफाया न करना, वर्साय पर हमला न करना, और क्रान्ति को पूरे देश में न फैलाना कम्यून वालों की सबसे बड़ी भूल थी और सच यह है कि नेतृत्व में मार्क्सवादी विचारधारा के अभाव के चलते यह गलती होनी ही थी।
6. बेहद कठिन हालात के बावजूद और मेहनतकशों के नये राज्य के सामने उपस्थित अनगिनत कामों में लगे रहने के साथ ही कम्यूनार्डों ने दुश्मन का मुक़ाबला करने की तैयारियाँ भी शुरू कर दीं। दास-स्वामियों के विरुद्ध दासों के इस युद्ध में पेरिस की मेहनतकश जनता जी-जान से लड़ने को तैयार थी। 1871 की मई आते-आते थियेर के सैनिकों ने पेरिस पर हमला बोल दिया। वर्साय के लुटेरों की भाड़े की सेना का कम्युनार्डों ने जमकर मुकाबला किया और एकबारगी तो उसे पीछे भी धकेल दिया, पर वर्साय की सेना पेरिस की घेरेबन्दी करके गोलाबारी करती रही। इसी दौरान प्रशा ने फ्रांस के बन्दी बनाये गये दसियों हज़ार सैनिकों को रिहा कर थियेर की भारी मदद की थी। थियेर की सेना दक्षिणी मोर्चे के दो किलों को जीतकर पेरिस की दहलीज़ पर पहुँच गयी। प्रशा की सेना ने भी आगे बढ़ने में उनकी परोक्ष मदद की। जो बुर्जुआ पेरिस में रह गये थे, उन्होंने वर्साय तक यह सूचना पहुँचा दी कि शहर में किन जगहों पर प्रतिरक्षा कमज़ोर है, और अरक्षित दरवाज़ों से फ़ौजें भीतर घुस आयीं। 21 मई 1871 को वर्साय का दस्युदल अपने कसाइयों के छुरों के साथ पेरिस में घुस पड़ा। शहर की सड़कों-चौराहों पर और विशेषकर मज़दूर बस्तियों में घमासान युद्ध हुआ। आख़िरकार, 8 दिनों के बेमिसाल बहादुराना संघर्ष के बाद पेरिस के बहादुर सर्वहारा योद्धा पराजित हो गये।
7. पागलपन से भरी वर्साय सेना की हर टुकड़ी जल्लादों का गिरोह थी, जो कम्यून से सहानुभूति रखने का सन्देह होते ही हर व्यक्ति को फ़ौरन मौत के घात उतार देती थी। इस ख़ूनी सप्ताह में 30,000 कामगार कम्यून की रक्षा करते हुए शहीद हो गये। विजयी प्रतिक्रियावादियों ने सड़कों पर दमन का जो ताण्डव किया, उसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती। नागरिकों को कतारों में खड़ा किया जाता था और हाथों के घट्ठों को देखकर कामगारों को अलग करके गोली मार दी जाती थी। गिरफ़्तार लोगों के अतिरिक्त चर्च में शरण लिये हुए लोगों और अस्पतालों में घायल पड़े सैनिकों को भी गोली मार दी गयी। उन्होंने बुजुर्ग मज़दूरों को यह कहते हुए गोली मार दी कि ‘इन्होंने बार-बार बग़ावतें की हैं और ये खाँटी अपराधी हैं।’ औरत-मज़दूरों को यह कहकर गोली मार दी गयी कि ये “स्त्री अग्नि बम” हैं और यह कि ये “सिर्फ़ मरने के बाद ही” औरतों जैसी लगती हैं। मज़दूरों के बच्चों को यह कहकर गोली मार दी गयी कि “ये बड़े होकर बाग़ी बनेंगे।” मज़दूरों के क़त्लेआम का सिलसिला पूरे जून भर चलता रहा जिसमें कम से कम 20,000 लोग और मारे गये। पेरिस लाशों से पट गया। सैन नदी ख़ून की नदी बन गयी। कम्यून ख़ून के समन्दर में डुबो दिया गया। कम्यूनार्डों के रक्त से इतिहास ने मज़दूरों के लिए यह कड़वी शिक्षा लिखी कि सर्वहारा वर्ग को क्रान्ति को अन्त तक चलाना होगा। सत्ता न तो शान्तिपूर्वक मिलेगी, न ही शान्तिपूर्वक उसकी हिफ़ाज़त की जा सकेगी।
…अगले अंक में जारी
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2012
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