जन्मदिवस (26 दिसम्बर) के अवसर पर
माओ त्से-तुङ : हमारे समय के एक महानतम क्रान्तिकारी
राजकुमार
1893 में चीन में जन्में माओ त्से-तुङ ने जनवादी क्रान्ति और फिर समाजवादी क्रान्ति के अभूतपूर्व, महाकाव्यात्मक विश्व-ऐतिहासिक प्रयोगों के दौरान लगभग आधी सदी तक चीन के सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश आवाम का नेतृत्व करते हुए और लगभग चौथाई सदी तक अन्तर्राष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग तथा दुनिया भर के सच्चे कम्युनिस्टों के मार्गदर्शक, शिक्षक और नेता की भूमिका निभाते हुए सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान को एक सर्वथा नये, गुणात्मक रूप से उन्नत स्तर तक पहुँचा दिया। वे एक सम्पूर्ण क्रान्तिकारी, आदर्श कम्युनिस्ट, जनता के सच्चे सपूत और सच्चे नायक, एक निर्भीक वैज्ञानिक और समस्त मानव जाति के इतिहास पुरुषों की शृंखला की अग्रतम कड़ी थे। वे हमारे समय के महानतम क्रान्तिकारी थे और मार्क्स तथा लेनिन के बाद सर्वहारा क्रान्ति के अबतक के तीसरे महान सिद्धान्तकार थे।
माओ त्से-तुङ ने केवल चीनी जनता को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के उपनिवेशों की जनता को मुक्ति का नया रास्ता दिखाया। माओ के क्रान्तिकारी प्रयोगों के दौरान मेहनतकश जनता की पहलकदमी और सर्जनात्मकता जितने बड़े पैमाने पर जागृत हुई और दुनिया को उलट-पुलट देने की जितनी अधिक शक्ति उसके हाथों में आ गई, वैसा पहले कभी भी नहीं हुआ था। नयी जनवादी क्रान्ति के दौरान चीनी जनता का नेतृत्व करते हुए, आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी संघर्ष की रहनुमाई करते हुए और सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत क्रान्ति को जारी रखने के सिद्धान्त, रास्ते और रूप की खोज करते हुए माओ ने दर्शन, राजनीति और वैज्ञानिक समाजवाद की वैज्ञानिक समझ को सर्वतोमुखी समृद्धि प्रदान की।
चीन सही अर्थों में एक पिछड़ा हुआ पूरब का देश था जो सामन्ती और निवेशिक उत्पीड़न से तबाह-बर्बाद, दबे-कुचले लोगों का बहुसंख्यक किसान आबादी का देश। ऐसे देश में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति को सम्पन्न करके माओ ने लेनिन के सिद्धान्तों का सही सत्यापन करते हुए कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल और स्तालिन के राष्ट्रीय क्रान्ति विषयक सूत्रीकरणों की कमियों-कमजोरियों को भी दूर करते हुए उन्हें समृद्ध किया और उन सभी उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों की मुक्तिकामी जनता एवं सर्वहारा वर्ग को नयी राह दिखाई जो साम्राज्यवाद और सामन्तवाद के शोषण-उत्पीड़न के शिकार थे।
1921 से 1949 तक माओ ने व्यवहार-सिद्धान्त-व्यवहार की प्रक्रिया मे जनता की जनवादी क्रान्ति (नयी जनवादी क्रान्ति) का सिद्धान्त प्रतिपादित करके और रणनीति एवं रणकौशल विकसित करके क्रान्ति के रास्ते पर चीनी जनता का नेतृत्व किया और एक पिछड़े किसानी समाज की सर्वहारा वर्ग को यह अहसास दिलाया कि उसकी अपार संगठित ताकत के सामने कोई भी निरंकुश सामाजिक व्यवस्था टिक नहीं सकती। 1921 से 1949 तक चीन में साम्राज्यवाद और सामन्तवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष में कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व करते हुए माओ ने मार्क्सवाद को कई मायने में आगे विकसित किया। चीन की विशिष्ट परिस्थितियों और औपनिवेशिक देशों की आम परिस्थितयों में उन्होंने सर्वहारा वर्ग की अगुवाई और उसकी पार्टी के नेतृत्व में जनवादी क्रान्ति सम्पन्न करके समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ने की राह बतायी, तत्सम्बन्धी रणनीति एवं सामरिक रणनीति तथा अन्य सिद्धान्त प्रतिपादित किये, और इसके साथ ही मार्क्सवादी दर्शन की समझ को नयी व्यापकता और गहराई प्रदान करने का काम भी जारी रखा।
लगभग बीस वर्षों तक युद्ध सरदारों के विरुद्ध, च्याङ काई शेक की प्रतिक्रियावादी हुकूमत के विरुद्ध, जापानी हमले के विरुद्ध और फिर च्याङ काई शेक और उसके अमेरिकी साम्राज्यवादी आकाओं के विरुद्ध क्रान्तिकारी युद्ध में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी, जनता और लाल सेना का नेतृत्व किरते हुए माओ त्से-तुङ ने न केवल दीर्घकालिक लोकयुद्ध के राजनीतिक-सामरिक सिद्धान्तों एवं सामरिक रणनीति का प्रतिपादन किया और साम्राज्यवाद द्वारा उत्पीड़ित, पिछड़े देशों में क्रान्ति का रास्ता दिखाया बल्कि वास्तव में, पहली बार उन्होंने समग्र रूप मे एक मार्क्सवादी सामरिक लाइन और सामरिक मामलों के बारे में एक सम्पूर्ण मार्क्सवादी चिन्तन प्रणाली प्रस्तुत की।
अपने क्लासिकीय प्रतिपादनों – ‘अन्तर्विरोध के बारे में’ और ‘व्यवहार के बारे में’ में द्वन्दवाद की समझ को गहरा करते हुए माओ ने बताया कि दिक्-काल विशेष में, तमाम बुनियादी अन्तर्विरोधों में से एक अन्तर्विरोध प्रधान होता है, जिसका समाधान अन्य अन्तर्विरोधों के समाधान की भी केन्द्रीभूत कड़ी होता है जो इतिहास को आगे गति देता है। उन्होंने बताया कि इसके समाधान के लिए इस अन्तरविरोध के प्रधान पहलू को भी समझना अनिवार्य होता है। द्वन्द्ववाद की इस नयी, उन्नत समझदारी को सिद्धान्त एवं व्यवहार के अन्तर्सम्बन्धों पर भी लागू करके माओ त्से-तुङ ने ज्ञान के मार्क्सवादी सिद्धान्त को भी उन्नत किया।
1949 की चीनी क्रान्ति की विजय के बाद चीन में समाजवादी निर्माण एवं क्रान्ति का नेतृत्व करते हुए और स्तालिन की मृत्यु और रूस में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष चलाते हुए माओ ने पूरे समाजवादी संक्रमण की दीर्घकालिक अवधि में सर्वहारा वर्ग के लिए आम दिशा प्रस्तुत करने का काम शुरू किया, जो सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के सिद्धान्त और प्रयोग में सामने आया। इस पूरे प्रयोग का निचोड़ था – समाजवाद के अन्तर्गत बुर्जुआ वर्ग की मौजूदगी को पहचानना, उसके ऊपर सर्वतोमुखी अधिनायकत्व लागू करना तथा इस अधिनायकत्व के अन्तर्गत क्रान्ति को जारी रखना। माओ ने इस नयी सर्वहारा क्रान्ति के स्वरूप, रणनीति और रणकौशल का निरूपण करते हुए समाजवादी संक्रमण की पूरी ऐतिहासिक अवधि में जारी वर्ग संघर्ष की आम दिशा के बारे में सर्वहारा वर्ग को शिक्षित किया और इस तरह दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्त्र और वैज्ञानिक समाजवाद – इन तीनों क्षेत्रों में मार्क्सवादी विज्ञान को एक नयी गुणात्मक समृद्धि प्रदान की। इस मायने में महान सर्वहारा क्रान्ति पेरिस कम्यून और अक्टूबर क्रान्ति के बाद तीसरी महानतम सर्वहारा क्रान्ति थी।
माओ ने ख्रुश्चेवी संशोधनवादियो और आधुनिक संशोधनवादियों के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष करते हुए पूरी दुनिया के सच्चे कम्युनिस्टों का नेतृत्व किया और उन्हें संशोधनवादी पार्टियों से अलग होकर मार्क्सवाद-लेनिनवाद की बुनियाद पर नयी, क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टियों के गठन की राह दिखाई। ख्रुश्चेव गिरोह के विरुद्ध ‘महान बहस’ का नेतृत्व करते हुए माओ ने स्पष्ट किया कि समाजवाद का शान्तिपूर्ण संक्रमण का ख्रुश्चेवी सिद्धान्त एक बुर्जुआ सिद्धान्त है और उन्होंने यह सिद्ध किया कि शान्तिपूर्ण संक्रमण, शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता के ख्रुश्चेवी सिद्धान्त पूरी दुनिया के मज़दूर आन्दोलन के साथ गद्दारी हैं। माओ ने आर्थिक उत्पादन सम्बन्धों के विश्लेषण से सिद्ध किया कि किस प्रकार ख्रुश्चेवी संशोधनवादियो द्वारा सत्ता अधिग्रहण के बाद सोवियत संघ सर्वहारा अधिनायकत्व से बुर्जुआ अधिनायकत्व में रूपान्तरित हो गया है। इसके साथ उन्होंने स्तालिन के महान अवदानों की हिफाजत की और उनकी गलतियों का एक वस्तुपरक समाहार प्रस्तुत किया। परन्तु यह मार्क्सवाद के विकास का अन्त नहीं है। माओ त्से-तुङ के ही शब्दों में, “कोई भी दर्शन अपने समकालीन कार्यभारों को पूरा करने में जुटा रहता है” (सोवियत अर्थशास्त्र की आलोचना, राहुल फाउण्डेशन, 2004)।
माओ ने पहली बार यह स्पष्ट किया कि समाजवादी समाज में क्रान्तिपूर्ण समाज के अवशेष के रूप में बूर्जुआ विचार, परम्पराएं, मूल्य एवं आदतें एक लम्बे समय तक मौजूद रहती हैं और पर्याप्त अवधि तक छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन तथा लोगों के बीच असमानताओं एवं बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी के कारण पैदा हुई तरह-तरह की बुर्जुआ प्रवृत्तियाँ भी कम्युनिस्ट समाज की ओर गति की प्रतिकूल भौतिक शक्ति के रूप में काम करती रहती हैं। पार्टी के भीतर राज्य के संगठन में बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि मौजूद रहते हैं। जिसके कारण समाजवादी समाज में अन्तर्विरोध मौजूद रहते हैं जो समाजवादी संक्रमण की प्रक्रिया को बाधित करते रहते हैं। इस अन्तर्विरोध को हल करने के लिये माओ ने समाज के राजनीतिक-सांस्कृतिक (अधिरचना) दायरे में समाजवादी क्रान्ति को अन्त तक चलाने को अनिवार्य बताया।
इसी क्रम में 1966 से 1976 के दौरान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के महान सामाजिक प्रयोग का नेतृत्व कर रहे माओ ने मेहनतकश जनता की अपार शक्ति को निर्बन्ध करने का आह्वान करते हुए वर्ग समाज में चलने वाले सतत वर्ग संघर्ष को नयी ऊँचाइयों पर पहुँचाया। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान मानव इतिहास में पहली बार पूरी दुनिया ने व्यापक जनता को व्यवहारिक रूप से राजनीतिक निर्णयों में शामिल होते हुए और समाज में मौजूद हर चीज को मनुष्य की आवश्यकता के अनुरूप ढालते हुए देखा।
जनता पर अटूट और निरपवाद भरोसा रखने की क्रान्तिकारी जनदिशा को माओ ने 1921 से 1976 तक निरन्तर लागू किया और सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान उसे नयी ऊंचाइयों तक पहुँचा दिया, उनका कहना था कि “जनता और केवल जनता ही दुनिया के इतिहास का निर्माण करने वाली प्रेरक शक्ति होती है।” उन्होंने बताया कि, “…पार्टी के समूचे अमली काम में सही नेतृत्व के लिए “जन समुदाय से लेकर जनसमुदाय को ही लौटा देने” का तरीका अपनाना जरूरी है। इसका मतलब यह है कि जनसमुदाय के विचारों को (बिखरे हुए अव्यवस्थित विचारों को) एकत्र करो और उनका निचोड़ निकालो (अध्ययन के जरिये उन्हें केन्द्रित और सुव्यवस्थित विचारों में बदल डालो), इसके बाद जनसमुदाय के बीच जाओ, इन विचारों का प्रचार करो और जनसमुदाय को समझाओ जिससे उन्हें वह अपने विचारों के रूप में अपना ले, उन पर दृढ़ता से कायम रहे, और उन्हें कार्यरूप में परिणत करे, तथा इस प्रकार की कार्यवाई के दौरान इन विचारों के अचूकपन की परख कर ले।”
माओ ने क्रान्तिकारी नेतृत्व की आवश्यकता और नीचे से क्रान्तिकारी जनसमुदाय को जागृत करने तथा उसपर भरोसा करने की आवश्यकता – इन दोनों के द्वन्द्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों की समझदारी एवं अहसास को उन्नत किया। माओ ने दुनिया को बदलने में जनता की सचेत और गतिशील भूमिका को एक सर्वथा नये अहसास के साथ रेखांकित किया और बताया कि परिवर्तन की इस प्रक्रिया में भागीदारी के माध्यम से लोग खुद को भी बदल लेते हैं। उन्होंने सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति को सर्वोपरि तौर पर मनुष्य को बदलने का दहनपात्र बताया। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं, रेड गार्डों और जनता को ‘स्व’ के विरुद्ध संघर्ष करने, एक नये मानव का सृजन करने और एक नये समाज का निर्माण करने के लिये प्रेरित किया।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2013
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