समस्या की सही पहचान करो, साझे दुश्मन के ख़िलाफ़ एकजुट हो!
राज
लुधियाना के टेक्सटाइल मज़दूर दो वर्ष से अपने अधिकारों के लिए एकजुट संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने मालिकों को कुछ माँगें मानने के लिए मजबूर भी किया है। मगर जो फैसले हुए उन्हें मालिकों ने आधा-अधूरा ही लागू किया। मालिक समझौता करते हैं और तोड़ते हैं। उनकी यही फ़ितरत है। लेकिन मज़दूरों के हौसले बुलन्द हैं और एकजुटता बनी हुई है वरना जो कुछ लागू हो रहा है वो भी न हो पाता। टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन का प्रसार विभिन्न इलाकों में हो रहा है और मज़दूरों की एकजुट ताकत बढ़ रही है।
इन संघर्षों से प्रेरणा लेकर पावरलूम मज़दूरों में से मशीन मास्टर (मशीनों की मरम्मत करने वाले मज़दूर) बाकी पावरलूम मज़दूरों से अलग अपनी यूनियन बनाने के लिए प्रत्यनशील हैं। यह बात स्वागतयोग्य है कि मज़दूर हक के लिए एकता की ज़रूरत को समझने लगे हैं। लेकिन कुछ और भी पहलू हैं जिनकी तरफ ध्यान देना ज़रूरी है।
मशीन मास्टर वे मज़दूर हैं जो लम्बे समय से पावरलूम का काम करते आये हैं और मशीनें चलाते-चलाते उन्हें ठीक करना सीख गये हैं। ये मज़दूर बाकी मज़दूरों से अधिक तजुर्बेकार समझे जाते हैं। इनके भीतर बाकी मज़दूरों से वरिष्ठ होने की भावना भी बैठी हुई है। इस वजह से मज़दूरों का यह समूह खुद को बाकी मज़दूरों से अलग करके देखता है। धागों को लपेटकर ताना बनाने वाले ताना मास्टर और उन्हें मशीनों पर चढ़ाने वाले मरोड़ी वाले मज़दूरों के भी ऐसे ही कुछ समूह हैं। अलग-अलग ढंग का काम, तजुर्बे और वेतन का फ़र्क आदि मज़दूरों की कम चेतना के कारण उनमें दूरी पैदा करते हैं। इसका मज़दूरों को बहुत नुकसान होता है वहीं मालिक मज़दूरों के इन आपसी अन्तरविरोधों का खूब फ़ायदा उठाते हैं।
लेकिन सच तो यह है कि मज़दूरों की समस्याओं में कोई फ़र्क नहीं है। सभी मज़दूरों की माँगें भी एक सी ही बनती हैं। ठेका और पीस रेट सिस्टम का खात्मा, पक्की भर्ती, आठ घण्टे के काम का उचित वेतन, पहचान पत्र, ईएसआई, पीएफ, साप्ताहिक छुट्टी सहित अन्य छुट्टियाँ, बोनस, कारख़ानों के भीतर हादसों से सुरक्षा के इन्तज़ाम, आदि बुनियादी माँगें सभी नये-फराने, कुशल-अकुशल, हर तरह के काम करने वाले मज़दूरों की माँगें हैं। इन माँगों के लिए एकजुटता बनाना मज़दूरों की ज़रूरत है। यह बात सिर्फ़ पावरलूम या टेक्सटाइल के मज़दूरों पर ही लागू नहीं होती बल्कि लुधियाना सहित देश के सभी मज़दूरों के लिए यही बात सच है। मज़दूरों में एकता का अभाव है इसीलिए सरकार पूँजीपतियों की सेवा का खुला खेल खेल रही है। कोई भी श्रम क़ानून आज कहीं लागू नहीं हो रहे हैं। कारख़ाना क्षेत्रों में मालिक मज़दूरों को लूटने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे। श्रम विभाग मालिकों की जेब में है। सरकारी नीति के तहत श्रम विभाग में अफ़सरों, कर्मचारियों के अधिकतर पद खाली पड़े हैं। जो हैं भी वे कारख़ानों का चक्कर सिर्फ़ घूस लेने के लिए लगाते हैं। इन सभी मुद्दों पर देश स्तर पर संघर्ष संगठित करना जरूरी है। याद रहे कि मालिक इस समय मज़दूरों के मुकाबले अधिक संगठित हैं। छोटे-छोटे समूहों में बँटकर, विशाल संगठन के अभाव में मज़दूर मालिकों की संगठित ताकत का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। इसलिए मज़दूरों को अपने छोटे-मोटे मतभेदों को दरकिनार करके हुए साझे दुश्मन के ख़िलाफ़ विशाल संगठित ताकत जुटानी होगी।
पावरलूम मज़दूरों के बीच कुछ दोस्ताना किस्म के अन्तरविरोध हैं। मशीन मास्टरों में दो तरह के मास्टर हैं – एक ही कारख़ाने में वेतन पर काम करने वाले और दूसरे हैं कई कारख़ानों में थोड़े-थोड़े वेतन पर काम करने वाले मशीन मास्टर। एक अन्तरविरोध तो इन्हीं के बीच है। दूसरा अन्तरविरोध सभी मशीन मास्टरों और बाकी सभी पावरलूम मज़दूरों के बीच का है। यह दोस्ताना अन्तरविरोध चेतना कम होने की वजह से कई बार काफी तीखे हो जाते हैं जबकि इन्हें हल किया जा सकता है। इन अन्तरविरोधों को सही ढंग से हल करने के लिए मज़दूर एकता को व्यापक बनाने का नज़रिया अपनाना चाहिए।
मशीन मास्टरों में बड़ा हिस्सा उन मास्टरों का है जो वेतन पर एक फैक्ट्री में काम करते हैं। जब कोई वेतन वाला मास्टर मालिक को वेतन बढ़ाने के लिए कहता है तो उसे काम से हटा दिया जाता है और मालिक उसकी जगह आ-जाकर कई कारख़ानों में मशीन मरम्मत करने वाले मास्टर को रख लेते हैं। मशीन मास्टर आपस में झगड पड़ते हैं। फ़ायदा मालिक उठाते हैं। आम तौर पर मालिक कारख़ाने में मशीनों की संख्या के हिसाब से वेतन तय करते हैं। छोटे कारख़ाने में मिलने वाले वेतन से मशीन मास्टर का गुज़ारा नहीं हो पाता। इसलिए वे साथ ही दूसरे कारख़ानों में भी काम पकड़ लेते हैं। असल समस्या तो यह है कि मज़दूर पर काम का बोझ बहुत अधिक है और वेतन कम। महँगाई बढ़ती है और वेतन या पीस रेट न बढ़ने के कारण मज़दूर को अपने काम के घण्टे बढ़ाने पड़ते हैं और अधिक मशीनों पर काम करना पड़ता है। यही हालत इन मशीन मास्टर मज़दूरों की है। किसी भी कारख़ाने में मशीन मास्टरों की तरह बाकी मज़दूरों की भी पक्की भरती नहीं है जिस कारण श्रम क़ानूनों के मुताबिक मिल सकने वाले फ़ायदों से वे भी वंचित रह जाते हैं। अगर श्रम क़ानून लागू हों और आठ घण्टे काम के बदले मज़दूरों को इतना वेतन मिले जिससे उनके परिवार का गुज़ारा आसानी से चल सके तो मज़दूर एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे कारख़ाने में क्यों भागेगा? अगर ऐसा हो तो क्यों कोई मज़दूर दूसरों से कम वेतन पर काम करने को तैयार होगा? अगर संयम से काम लिया जाये और इन बातों पर झगड़ों को तीखा न किया जाये तो एकजुटता बनाने की तरफ़ बढ़ा जा सकता है और एकजुट चेतना के दम पर इस रुझान को भी एक हद तक रोका जा सकता है। लेकिन इन बातों को न समझ पाने के कारण मज़दूरों में झगड़े तीखे होने लगते हैं।
जैसा कि उपर कहा जा चुका है कि दूसरा अन्तरविरोध मास्टरों और बाकी सभी पावरलूम मज़दूरों के बीच का है। यह अन्तरविरोध गम्भीर बनता जा रहा है। लुधियाना के एक मुहल्ले मायापुरी के एक कारख़ाने में इससे जुड़ी एक घटना तो अभी कुछ दिन पहले ही देखी गई। काम का बोझ अधिक होने की वजह से या बाकी मज़दूरों से ऊँचा रुतबा होने की सोच में ग्रस्त कुछ मास्टर मशीन ख़राब होने पर जल्दी मरम्मत नहीं करते। मशीन चलाने वाले मज़दूर का नुकसान होता है क्योंकि वह पीस रेट पर काम करता है। जितनी अधिक देर मशीन खड़ी रहेगी उतने कम पीस बनेंगे और पैसे कम मिलेंगे। कई बार तो मशीन आपरेटर और मास्टर आपस में झगड़ पड़ते हैं। आ-जाकर मशीन मरम्मत का काम करने वाले मास्टरों से तो आपरेटरों का अकसर झगड़ा होता ही रहता है। जिस समय मास्टर कारख़ाने में आता है ज़रूरी नहीं कि उसी समय मशीन ख़राब हो। उसे एक कारख़ाने से दूसरे कारख़ाने दौड़ना पड़ता है। अकसर मशीन ख़राब होने पर मशीन चलाने वाला मज़दूर खुद ही मरम्मत कर लेता है। ऐसे में कई बार मशीन मास्टर मशीन ख़राब होने की सूचना मिलने पर सोच लेता है कि मशीन आपरेटर अपनेआप ठीक कर ही लेगा। इस तरह की बातें कई बार गम्भीर झगड़ों का कारण बन जाती हैं। इन झगड़ों को घटाने का एक तरीका तो यह हो सकता है कि मास्टर मालिक से सहायक की माँग करें। एक दूसरे पर बोझ डालने की सोच से किसी का फ़ायदा नहीं होगा। जब पावरलूम मज़दूरों में दशकों पहले मज़बूत संगठन था तब मशीन आपरेटरों को सहायक मिलता था। मुम्बई जैसे शहरों में आज भी यह लागू है।
कुछ मशीन मास्टर मालिकों के ‘ख़ास बन्दे’ हैं। वे मज़दूरों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। यह एक ऐसी समस्या है जो अधिकतर कारख़ानों में देखने को मिलती है। मज़दूर एकता को तोड़ने के लिए अकसर मालिक तथाकथित स्टाफ़ और बाकी मज़दूरों में झगड़े पैदा करते हैं। मालिकों की चालबाज़ियों में फँसे मज़दूर अपने संघर्षशील साथियों का विरोध तक करने में चले जाते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। मालिकों की चालबाजियों से ख़बरदार रहते हुए एकता को अधिक से अधिक फैलाने और मज़बूत बनाने में ही सभी मज़दूरों का भला है।
सभी मज़दूरों का मुख्य विरोध मालिकों के साथ है जो मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़कर मुनाफ़ा कमाने में लगे हुए हैं। सरकारी तंत्र में सब जगह उनकी पहुँच है। अधिकार लेने के लिए उठी मज़दूरों की आवाज़ को ख़ामोश करने के लिए वे हमेशा मंसूबे बनाते रहते हैं। इसलिए आपसी झगड़ों को दोस्ताना ढंग से हल करना चाहिए और साझे दुश्मन के ख़िलाफ़ एकता बनानी चाहिए। इन बातों की समझ लेकर अगर कोई भी संगठन आगे बढ़ता है तो वह स्वागतयोग्य है। अगर साझे दुश्मन के ख़िलाफ़ संघर्ष को दरकिनार करते हुए कोई संगठन मज़दूरों को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटने का काम करता है तो वह पूँजीपतियों की ही सेवा कर रहा होगा।
मज़दूर बिगुल, मई 2012
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन