आज़ादी के फलों से कोसों दूर भारत की मेहनतकश जनता
लखविन्दर
अंग्रेज़ों से आज़ादी हासिल हुए छह दशक गुज़र चुके हैं लेकिन जनता को इस आजादी से क्या हासिल हुआ है? गृह मन्त्रालय द्वारा जारी किये गये 2010 की जनगणना के नतीजों से हमें इस प्रश्न का सटीक जवाब मिलता है।
इन आँकड़ों के अनुसार आज भी भारत के 15 प्रतिशत परिवार घास, बाँस, लकड़ी या मिट्टी आदि के बने कच्चे घरों में रहने के लिए मजबूर हैं। भारत के 31 प्रतिशत घरों, यानी 33 करोड़ में से 10 करोड़ घरों में आज भी बिजली से रोशनी नहीं होती बल्कि इसके लिए मिट्टी के तेल का इस्तेमाल किया जाता है। भारतीय गाँवों में ऐसे 43 प्रतिशत घर हैं और शहरी भारत में सात प्रतिशत। 2001 की जनगणना में गाँवों के ऐसे घरों की संख्या 41 प्रतिशत थी यानी कि ताज़ा जनगणना के मुताबिक़ इनकी संख्या कम होने के बजाय 2 प्रतिशत बढ़ चुकी है। इन घरों तक या तो बिजली पहुँची ही नहीं या फिर लोग बिजली का ख़र्च उठाने में ही अक्षम हैं। यहीं पर इस तथ्य को याद कर लेना ज़रूरी है कि 1917 में हुई सोवियत क्रान्ति के बाद चार वर्ष के भीतर सोवियत संघ के विशाल भूभाग के गाँव-गाँव तक बिजली पहुँचा दी गयी थी।
अन्तरिक्ष में नियमित उपग्रह भेजने की क्षमता रखने वाले भारत की एक बहुत बड़ी आबादी को आज भी पीने का पानी तक ठीक ढंग से नहीं मिल पाता। देश के 53 प्रतिशत घर ऐसे हैं जहाँ नल, कुएँ आदि पानी का स्रोत नहीं है यानि उन्हें पानी घर के बाहर से लाना पड़ता है। 18 प्रतिशत घरों को पेयजल गाँवों में 500 मीटर और शहरों में 100 मीटर से अधिक दूरी से लाना पड़ता है। शहरों में 70 प्रतिशत और गाँवों के सिर्फ़ 30 प्रतिशत घरों तक नल का पानी पहुँच पाता है। देश के 68 प्रतिशत घरों तक फ़िल्ट्रेशन प्लाण्ट द्वारा साफ़ किया गया पीने का पानी नहीं पहुँचता।
शहरों में बड़े-बड़े होटल और रेस्त्रां खुल रहे हैं जिन्हें देखकर देश की तेज़ी से बढ़ रही समृद्धि का भ्रम पैदा होता है। लेकिन भारत के सिर्फ़ 61 प्रतिशत घरों में भोजन पकाने के लिए रसोई है यानि 39 प्रतिशत घरों में भोजन या तो खुले में ही पकाया जाता है या फिर सोने वाले कमरे में। शहरों में 21 प्रतिशत घर ऐसे हैं जहाँ रसोई नहीं है। गाँवों में ऐसे घरों की संख्या 47 प्रतिशत है। और देखिये। देश के 67 प्रतिशत घरों में खाना पकाने के लिए ईंधन के रूप में लकड़ी, गोबर, कोयले आदि का इस्तेमाल होता है। देश के सिर्फ़ 29 प्रतिशत घरों में ही भोजन पकाने के लिए एल.पी.जी. गैस, बिजली, या गोबर गैस आदि का इस्तेमाल होता है। शहरों में भी ईंधन के तौर पर 20.1 प्रतिशत घरों में लकड़ी और 7.5 प्रतिशत घरों में मिट्टी के तेल का इस्तेमाल होता है जबकि यहाँ 65 प्रतिशत घरों में ही एल.पी.जी. गैस का इस्तेमाल होता है।
ये आँकड़े भारत की आम जनता की दुर्दशा की सिर्फ़ एक झलक पेश करते हैं। यह तस्वीर कितनी भयावह है इसका अन्दाज़ा तब लगता है जब आप तस्वीर के दूसरे पहलू पर भी नज़र डालें, यानी देश में बढ़ती अमीरी और विलासिता के आँकड़ों को भी देखें। इन आँकड़ों ने इस सच्चाई को एक बार फिर साबित किया है कि 1947 की आधी-अधूरी आज़ादी के बाद पूँजीवादी विकास का जो रास्ता अपनाया गया उसने व्यापक मेहनतकश जनता के दुखों और आँसुओं के समन्दर में विलासिता के टापू और ऐयाशी की मीनारें खड़ी की हैं।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2012
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