पेरिस कम्यून: पहले  मज़दूर राज की सचित्र कथा (दसवीं किस्त)

आज भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के मज़दूर पूँजी की लुटेरी ताक़त के तेज़ होते हमलों का सामना कर रहे हैं, और मज़दूर आन्दोलन बिखराब, ठहराव और हताशा का शिकार है। ऐसे में इतिहास के पन्ने पलटकर मज़दूर वर्ग के गौरवशाली संघर्षों से सीखने और उनसे प्रेरणा लेने की अहमियत बहुत बढ़ जाती है। आज से 141 वर्ष पहले, 18 मार्च 1871 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में पहली बार मज़दूरों ने अपनी हुक़ूमत क़ायम की। इसे पेरिस कम्यून कहा गया। उन्होंने शोषकों की फैलायी इस सोच को ध्वस्त कर दिया कि मज़दूर राज-काज नहीं चला सकते। पेरिस के जाँबाज़ मज़दूरों ने न सिर्फ़ पूँजीवादी हुक़ूमत की चलती चक्की को उलटकर तोड़ डाला, बल्कि 72 दिनों के शासन के दौरान आने वाले दिनों का एक छोटा-सा मॉडल भी दुनिया के सामने पेश कर दिया कि समाजवादी समाज में भेदभाव, ग़ैर-बराबरी और शोषण को किस तरह ख़त्म किया जायेगा। आगे चलकर 1917 की रूसी मज़दूर क्रान्ति ने इसी कड़ी को आगे बढ़ाया।

मज़दूर वर्ग के इस साहसिक कारनामे से फ्रांस ही नहीं, सारी दुनिया के पूँजीपतियों के कलेजे काँप उठे। उन्होंने मज़दूरों के इस पहले राज्य का गला घोंट देने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया और आख़िरकार मज़दूरों के कम्यून को उन्होंने ख़ून की नदियों में डुबो दिया। लेकिन कम्यून के सिद्धान्त अमर हो गये। पेरिस कम्यून की हार से भी दुनिया के मज़दूर वर्ग ने बेशक़ीमती सबक़ सीखे। पेरिस के मज़दूरों की कुर्बानी मज़दूर वर्ग को याद दिलाती रहती है कि पूँजीवाद को मटियामेट किये बिना उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। ‘मज़दूर बिगुल’ के मार्च 2012 अंक से दुनिया के पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा की शुरुआत की गयी थी, जिसकी अब तक नौ किस्तें प्रकाशित हुई हैं। पिछले कुछ अंकों से इसका प्रकाशन नहीं हो पा रहा था लेकिन पिछले अंक से हमने इसे फिर शुरू किया है।

इस  श्रृंखला की शुरुआती कुछ किश्तों में हमने पेरिस कम्यून की पृष्ठभूमि के तौर पर जाना कि पूँजी की सत्ता के ख़िलाफ़ मज़दूरों का संघर्ष किस तरह क़दम-ब-क़दम विकसित हुआ। हमने जाना कि कम्यून की स्थापना कैसे हुई और उसकी रक्षा के लिए मेहनतकश जनता किस प्रकार बहादुरी के साथ लड़ी। हमने यह भी देखा कि कम्यून ने सच्चे जनवाद के उसूलों को इतिहास में पहली बार अमल में कैसे लागू किया और यह दिखाया कि “जनता की सत्ता” वास्तव में क्या होती है। पिछली कड़ी से हम उन ग़लतियों पर नज़र डाल रहे हैं जिनकी वजह से कम्यून की पराजय हुई। इन ग़लतियों को ठीक से समझना और पूँजीवाद के ख़िलाफ़ निर्णायक जंग में जीत के लिए उनसे सबक़ निकालना मज़दूर वर्ग के लिए बहुत ज़रूरी है।

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कम्यून की हिफ़ाज़त में अन्तिम दम तक लड़े मज़दूर

1. कम्यून के सदस्य बहुमत (यानी ब्लांकीवादी, जिनकी राष्ट्रीय गार्ड की केन्द्रीय समिति में प्रधानता थी) और अल्पमत (यानी अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर-संघ, पहले इण्टरनेशनल के सदस्य, जिनमें मुख्यतः प्रूदों के समाजवादी मत के अनुयायी थे) में बँटे हुए थे। ब्लांकीवादियों का प्रबल बहुमत केवल क्रान्तिकारी सर्वहारा की सहज-प्रवृत्ति के कारण समाजवादी था; उनमें से केवल कुछ ही के पास अपेक्षाकृत अधिक सैद्धान्तिक समझ थी। इसलिए यह बात समझ में आती है कि आर्थिक क्षेत्र में बहुत से ऐसे काम नहीं किये गये जिन्हें कम्यून को करना चाहिये था। मार्क्स ने इस बात पर हैरानी ज़ाहिर की कि बैंक-ऑफ-फ्रांस के फाटक के सामने वे क्यों इस तरह अदब के साथ खड़े रहे, जैसे कि बैंक कोई देवस्थान हो? यह एक संगीन राजनीतिक भूल थी। कम्यून के हाथों में बैंक का होना दस हज़ार बन्धकों से अधिक मूल्यवान वस्तु होती। ऐसा होने पर पूरा फ्रांसीसी पूँजीपति वर्ग वर्साय-सरकार पर कम्यून के साथ सुलह कर लेने के लिए दबाव डालता। लेकिन इस ग़लती के बावजूद, ब्लांकीवादियों और प्रूदोंवादियों द्वारा गठित कम्यून ने जो कुछ किया वह ज़्यादातर सही था। कम्यून के प्रूदोंवादी सदस्य उसके आर्थिक आदेशों के लिए, उनके प्रशंसनीय और अप्रशंसनीय दोनों पहलुओं के लिए, मुख्यतः जिम्मेदार थे; और उसकी राजनीतिक कार्रवाइयों या ग़लतियों के लिए मुख्यतः ब्लांकीवादी सदस्य ज़िम्‍मेदार थे और दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों ने उस समय की परिस्थितियों में अपनी-अपनी विचारधारा से ठीक उल्टा कार्य किया।

कम्यून के लाल झण्डे तले पूँजीपतियों की फ़ौज के साथ आर-पार के मुक़ाबले में जुटे नेशनल गार्ड के सैनिक और पेरिस के जांबाज़ मज़दूर।

कम्यून के लाल झण्डे तले पूँजीपतियों की फ़ौज के साथ आर-पार के मुक़ाबले में जुटे नेशनल गार्ड के सैनिक और पेरिस के जांबाज़ मज़दूर।

2. छोटे किसानों और दस्तकार उस्तादों का समर्थक प्रूदों संघबद्धता से सख़्त नफ़रत करता था। उसका कहना था कि संघबद्धता में अच्छाई से अधिक बुराई है, क्योंकि वह मज़दूर की स्वतंत्रता के लिए बन्धन है। केवल बड़े पैमाने के उद्योगों और संस्थापनों, उदाहरणार्थ रेलवे में, जिन्हें प्रूदों ने अपवाद कहा, मज़दूरों का संघ उपयुक्त था। लेकिन 1871 में कलात्मक दस्तकारी के केन्द्र पेरिस तक में बड़े पैमाने का उद्योग अपवाद नहीं रह गया था। कम्यून की अपेक्षाकृत सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण आज्ञप्ति द्वारा बडे़ पैमाने के उद्योग का, मैनुफेक्चर तक का संगठन खड़ा किया गया जिसे प्रत्येक फ़ैक्टरी के मज़दूरों के संघ पर ही आधारित नहीं होना था, बल्कि इन सब संघों को एक बड़ी यूनियन में संयुक्त भी करना था यानी एक ऐसा संगठन जो अनिवार्यतः अन्त में कम्युनिज़्म, यानी प्रूदों के मत से ठीक उल्टी चीज़ का मार्ग प्रशस्त करता।

कम्यून की रक्षा की लड़ाई में सड़कों पर खड़े किये गये बैरिकेडों की बहुत बड़ी भूमिका थी। इस चित्र में जनता द्वारा बनाया गया एक यंत्र दिख रहा है जिसका इस्तेमाल बैरिकेड बनाने में किया जाता था।

कम्यून की रक्षा की लड़ाई में सड़कों पर खड़े किये गये बैरिकेडों की बहुत बड़ी भूमिका थी। इस चित्र में जनता द्वारा बनाया गया एक यंत्र दिख रहा है जिसका इस्तेमाल बैरिकेड बनाने में किया जाता था।

एक बैरिकेड पर तैनात नेशनल गार्ड के योद्धा लाल झण्डे के साथ।

एक बैरिकेड पर तैनात नेशनल गार्ड के योद्धा लाल झण्डे के साथ।

3. ब्लांकीवादियों के लिए क्रान्ति का मतलब था षड्यंत्र। उनका मूल दृष्टिकोण यह था कि अपेक्षाकृत थोडे़-से दृढ़संकल्प और सुसंगठित लोग, अनुकूल अवसर पर, न केवल राज्य की बागडोर अपनी मुट्ठी में कर सकते हैं, बल्कि ज़बरदस्त और निष्ठुर शक्ति का प्रदर्शन करते हुए, तब तक सत्ता को अपने हाथ में रख सकते हैं, जब तक वे आम जनता को क्रान्ति में खींच लाने तथा उन्हें नेताओं के एक छोटे से दल के चारों ओर एकजुट कर देने में सफल नहीं होते। इसका अर्थ यह था कि नयी क्रान्तिकारी सरकार के हाथ में सम्पूर्ण सत्ता कठोरतमरूप में केन्द्रीकृत होनी चाहिये। पर वास्तव में कम्यून ने, जिसमें इन्हीं ब्लांकीवादियों का बहुमत था, क्या किया? प्रान्तों में बसने वाले फ्रांसीसियों के नाम अपनी सभी घोषणाओं में उसने अपील की कि वे पेरिस के साथ सभी फ्रांसीसी कम्यूनों का एक स्वतंत्र संघ बनायें, एक ऐसा राष्ट्रीय संगठन बनायें, जो पहली बार स्वयं राष्ट्र द्वारा निर्मित किया जाये।

बैरिकेडों पर संघर्ष की तैयारी में लगे हुए पेरिस के मेहनतकश लोग। पेरिस कम्यून के बहादुर रक्षकों ने शहर में तो मज़दूर वर्ग की फौलादी सत्ता कायम की और बुर्जुआ वर्ग के साथ कोई रियायत नहीं बरती, लेकिन वे भूल गये कि पेरिस के बाहर थियेर के पीछे सिर्फ फ्रांस के ही नहीं, बल्कि पूरे यूरोप के प्रतिक्रियावादी एकजुट हो रहे हैं। इस चूक की क़ीमत उन्हें अपने ख़ून से चुकानी पड़ी।

बैरिकेडों पर संघर्ष की तैयारी में लगे हुए पेरिस के मेहनतकश लोग। पेरिस कम्यून के बहादुर रक्षकों ने शहर में तो मज़दूर वर्ग की फौलादी सत्ता कायम की और बुर्जुआ वर्ग के साथ कोई रियायत नहीं बरती, लेकिन वे भूल गये कि पेरिस के बाहर थियेर के पीछे सिर्फ फ्रांस के ही नहीं, बल्कि पूरे यूरोप के प्रतिक्रियावादी एकजुट हो रहे हैं। इस चूक की क़ीमत उन्हें अपने ख़ून से चुकानी पड़ी।

4. कम्यून आरम्भ से ही यह महसूस करने को बाध्य हुआ था कि मज़दूर वर्ग एक बार सत्ता पा लेने पर पुरानी राज्य-मशीनरी से काम नहीं चला सकता। उसने यह समझ लिया कि अपनी प्रभुता को सुरक्षित रखने के लिए इस मज़दूर वर्ग को एक ओर तो पुराने दमनकारी राज्यतंत्र को, जो पहले उसके खि़लाफ़ इस्तेमाल किया जाता था, ख़त्म करना होगा और दूसरी ओर उसे अपने ही प्रतिनिधियों और अफ़सरों से अपनी हिफ़ाजत करने के लिए यह घोषित करना होगा कि उनमें से किसी को भी, बिना अपवाद के, किसी भी क्षण हटाया जा सकेगा। कम्यून के पदाधिकारियों से लेकर अफ़सर और मजिस्ट्रेट तक, सभी सीधे जनता द्वारा चुने जाते थे और उन्हें हटाया जा सकता था।

पेरिस की एक कब्रगाह में मज़दूरों ने आख़िरी मोर्चा लिया।

पेरिस की एक कब्रगाह में मज़दूरों ने आख़िरी मोर्चा लिया।

5. पेरिस कम्यून को फ्रांस के सभी बड़े औद्योगिक केन्द्रों के लिए उदाहरण बन जाना था। पेरिस तथा माध्यमिक केन्द्रों में सामुदायिक शासन-व्यवस्था की एक बार स्थापना हो जाने के बाद प्रान्तों में भी पुरानी केन्द्रीभूत सरकार को हटा कर वहाँ उत्पादकों का स्वशासन क़ायम किया जाता। राष्ट्रीय संगठन के एक प्राथमिक खाके में, जिसे विशद बनाने का कम्यून को समय नहीं मिल सका, कम्यून ने स्पष्ट रूप से कहा था कि छोटे से छोटे पुरवे का भी राजनीतिक ढाँचा कम्यून होगा और देहाती इलाकों में स्थायी सेना का स्थान राष्ट्रीय मिलीशिया लेगी जिसकी सेवा-अवधि अल्पकालिक होगी। प्रत्येक ज़िले के ग्रामीण कम्यून अपने केन्द्रीय नगर में, प्रतिनिधियों की एक सभा द्वारा, अपने सम्मिलित मामलों का प्रबन्ध करेंगे। ये ज़िला सभाएँ पेरिस-स्थित राष्ट्रीय प्रतिनिधि-सभा में अपने प्रतिनिधि भेजेंगी। प्रत्येक प्रतिनिधि किसी भी समय वापस बुलाया जा सकेगा और वह अपने निर्वाचकों की औपचारिक हिदायतों से बँधा होगा। कम्यून के शासन में राष्ट्र की एकता भंग नहीं होती, बल्कि इसके विपरीत, कम्यून के संविधान द्वारा वह संगठित की जाती और पूँजीवादी राज्य-सत्ता के विनाश द्वारा वास्तविक राष्ट्रीय एकता क़ायम होती। पुरानी शासन-सत्ता के वे अंग जो केवल दमनकारी थे काटकर अलग कर दिये जाते, पर उसके जायज़ काम समाज के प्रति जवाबदेह अभिकर्त्ताओं के हाथों में सौंप दिये जाते। लेकिन इन कामों को आगे बढ़ाने के लिए कम्यून को समय ही नहीं मिला।

1848 की क्रान्ति वह पहला मौक़ा था जब पूँजीपति वर्ग ने यह दिखाया कि जिस क्षण सर्वहारा अपने अलग हितों और अपनी अलग माँगों के साथ एक अलग वर्ग के रूप में खड़े होने का दुस्साहस करेगा, उस समय प्रतिशोध में पूँजीपति किस प्रकार पागलपन और क्रूरता का नंगा नाच दिखा सकते हैं। लेकिन 1871 में पूँजीपतियों ने जैसा वहशीपन दिखाया उसके आगे 1848 बच्चों का खेल था।

1848 की क्रान्ति वह पहला मौक़ा था जब पूँजीपति वर्ग ने यह दिखाया कि जिस क्षण सर्वहारा अपने अलग हितों और अपनी अलग माँगों के साथ एक अलग वर्ग के रूप में खड़े होने का दुस्साहस करेगा, उस समय प्रतिशोध में पूँजीपति किस प्रकार पागलपन और क्रूरता का नंगा नाच दिखा सकते हैं। लेकिन 1871 में पूँजीपतियों ने जैसा वहशीपन दिखाया उसके आगे 1848 बच्चों का खेल था।

6. कम्यून में चूँकि प्रायः केवल मज़दूर या मज़दूरों के जाने-माने प्रतिनिधि बैठते थे इसलिए उसके निर्णयों का, निश्चित रूप से, सर्वहारा स्वरूप था। कम्यून ने अनेक ऐसी आज्ञप्तियाँ जारी कीं जो सीधे-सीधे मज़दूर वर्ग के हित में थीं और जो कुछ हद तक पुरानी समाज-व्यवस्था पर गहरा आघात पहुँचाती थीं। पर ऐसे नगर में जो दुश्मन के घेरे में हो, अधिक से अधिक इन चीज़ों को पूरा करने की शुरुआत ही हो सकती थी। मई 1871 के शुरू से ही कम्यून की सारी शक्ति, वर्साय-सरकार की नित्य बढ़ती हुई सेना से युद्ध करने में लग गयी। पेरिस पर लगातार  गोलाबारी की जा रही थी-उन्हीं लोगों द्वारा, जिन्होंने प्रशा की फ़ौजों द्वारा इस नगर की गोलाबारी को धर्म-विरोधी आचरण कहा था। वे ही लोग अब प्रशा की सरकार से भिक्षा माँग रहे थे कि सेदान और मेत्ज में बन्दी बनाये गये फ्रांसीसी सैनिक जल्दी से लौटा दिये जायें, ताकि वे आकर उनके लिए पेरिस पर फिर कब्ज़ा कर लें।

स्त्री कम्युनार्डों की टुकड़ी मर्दों के कन्धे से कन्धा मिलाकर मोर्चे पर जाते हुए।

स्त्री कम्युनार्डों की टुकड़ी मर्दों के कन्धे से कन्धा मिलाकर मोर्चे पर जाते हुए।

लड़ाई में जीतने के साथ ही बुर्जुआ सेना ने मेहनतकशों का भयानक दमन शुरू किया। कम्यून की जुझारू स्त्रियों पर सेना और अफ़सरों ने सबसे अधिक ग़ुस्सा निकाला।

लड़ाई में जीतने के साथ ही बुर्जुआ सेना ने मेहनतकशों का भयानक दमन शुरू किया। कम्यून की जुझारू स्त्रियों पर सेना और अफ़सरों ने सबसे अधिक ग़ुस्सा निकाला।

7. मई के आरम्भ से इन सैनिकों के धीरे-धीरे वापस लौटने के कारण वर्साय की सैन्य-शक्ति निश्चित रूप से अधिक प्रबल हो गयी। वर्साय की फ़ौजों ने दक्षिणी मोर्चे पर मूलैं-साके के गढ़ पर 3 मई को कब्ज़ा कर लिया, 9 तारीख़ को फोर्ट-इस्सी पर उनका अधिकार हो गया जो गोलाबारी से बिलकुल खण्डहर हो चुका था, और 14 मई को फोर्ट-वांव उनके हाथ में आ गया। पश्चिमी मोर्चे पर वे नगर की दीवारों तक फैले अनेक गाँवों और इमारतों पर कब्ज़ा करते हुए धीरे-धीरे बढ़ कर मुख्य रक्षादुर्गों तक जा पहुँचीं।

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चूंकि तोड़ेदार बन्दूकों द्वारा लोगों को जल्दी से मौत के घाट नहीं उतारा जा सकता था, इसलिए सैकड़ों की संख्या में हारे हुए लोगों को एक साथ मित्रैयोज (एक प्रकार की मशीनगन) की गोलियों से भून दिया जाता था। पेयर-लाशेज के क़ब्रिस्तान में “फेडरलों की दीवार”, जहाँ आखि़री क़त्लेआम हुआ था, आज भी इस बात के मूक किन्तु व्यंजनापूर्ण प्रमाण के रूप में खड़ी है कि मज़दूर वर्ग जब अपने अधिकारों के लिए लड़ने का साहस करता है तो शासक वर्ग के ऊपर खू़न सवार हो जाता है।

चूंकि तोड़ेदार बन्दूकों द्वारा लोगों को जल्दी से मौत के घाट नहीं उतारा जा सकता था, इसलिए सैकड़ों की संख्या में हारे हुए लोगों को एक साथ मित्रैयोज (एक प्रकार की मशीनगन) की गोलियों से भून दिया जाता था। पेयर-लाशेज के क़ब्रिस्तान में “फेडरलों की दीवार”, जहाँ आखि़री क़त्लेआम हुआ था, आज भी इस बात के मूक किन्तु व्यंजनापूर्ण प्रमाण के रूप में खड़ी है कि मज़दूर वर्ग जब अपने अधिकारों के लिए लड़ने का साहस करता है तो शासक वर्ग के ऊपर खू़न सवार हो जाता है।

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8. 21 मई को ग़द्दारी तथा उस जगह पर तैनात राष्ट्रीय गार्ड की लापरवाही के कारण वर्साय की सेनाएँ नगर में प्रवेश करने में सफल हुईं। इस भूमि की रक्षा का प्रबन्ध पेरिसवासियों ने, उसे युद्धविराम की शर्तों के अधीनस्थ समझ कर स्वभावतया ढीला छोड़ दिया था। इसके फलस्वरूप, पेरिस के पश्चिमी हिस्से में, यानी अमीरों के ख़ास इलाके में प्रतिरोध कमज़ोर रहा; पर ज्यों-ज्यों अन्दर दाखि़ल होने वाली फ़ौजें नगर के पूर्वी आधे हिस्से, यानी ख़ास मज़दूर इलाके के निकट आती गयीं, त्यों-त्यों उनका ख़ूब डटकर मुक़ाबला किया जाने लगा। पूरे आठ दिनों के युद्ध के बाद कहीं जाकर कम्यून के अन्तिम रक्षक बेलवील और मेनीलमांतां की चढ़ाइयों पर परास्त हुए। और तब निहत्थे मर्दों, औरतों और बच्चों का हत्याकाण्ड, जो बढ़ते हुए पैमाने पर पूरे हफ़्ते भर से चल रहा था, चरम बिन्दु पर पहुँच गया।

कम्यून के रक्षकों का आख़िरी मोर्चा। पहले मज़दूर राज की हिफ़ाज़त के लिए वे अन्तिम दम तक लड़ते रहे, लेकिन वे चारों ओर से घिर चुके थे और दुश्मन उनसे बहुत अधिक तादाद में था।

कम्यून के रक्षकों का आख़िरी मोर्चा। पहले मज़दूर राज की हिफ़ाज़त के लिए वे अन्तिम दम तक लड़ते रहे, लेकिन वे चारों ओर से घिर चुके थे और दुश्मन उनसे बहुत अधिक तादाद में था।

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9. जब सभी को क़त्ल कर देना असम्भव साबित हुआ, तो आम गिरफ़्तारियों की बारी आयी, और बन्दियों में से मनमाने तौर पर कुछ को चुनकर गोलियों से उड़ाया जाने लगा और बाक़ी लोग बड़े-बड़े शिविरों में पहुँचाये गये, जहाँ उन्हें कोर्ट-मार्शल का इन्तज़ार करना था। पेरिस के उत्तर-पूर्वी हिस्से पर घेरा डाले हुए प्रशा के सैनिकों को यह आज्ञा थी कि वे किसी को उधर से भागने न दें; लेकिन जब सिपाही, आलाकमान के आदेश की बजाय मानवीय भावनाओं के आदेश का अधिक सम्मान करते थे, तो अफ़सर भी जानबूझ कर अनदेखी कर जाते थे। इस सम्बन्ध में सैक्सन फ़ौजी दस्ता विशेष रूप से इन्सानियत से पेश आया और उसने ऐसे बहुत से लोगों को निकल जाने दिया जो साफ़-साफ़ कम्यून के सिपाही थे।

 
 

मज़दूर बिगुलसितम्‍बर  2013

 


 

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