बोलते आँकड़े चीख़ती सच्चाइयाँ
– प्रस्तुति : पराग वर्मा
बेरोज़गारी
- भारत में अर्थव्यवस्था के आँकड़ों पर नज़र रखने वाली प्रमुख संस्था, सेण्टर फ़ॉर मॉनीटरिंग इण्डियन इकोनॉमी के अनुसार इस साल केवल मई महीने में ही डेढ़ करोड़ से ज़्यादा लोगों ने रोज़गार गँवा दिया है। इस साल के शुरुआती पाँच महीनों में ही ढाई करोड़ से ज़्यादा लोग रोज़गार गँवा चुके हैं।
- कोरोना की पहली लहर के आगमन के पहले ही फ़रवरी 2020 में बेरोज़गारी दर 6.2 फ़ीसदी तक गिर चुकी थी। उसके बाद के लॉकडाउन में करोड़ों लोगों ने रोज़गार गँवाया और अप्रैल 2020 में बेरोज़गारी दर 24 फ़ीसदी तक पहुँच गयी। पिछले पूरे साल भर भी औसत बेरोज़गारी दर 6-7 प्रतिशत बनी रही। अब मई 2021 में देशव्यापी बेरोज़गारी दर 11.9 फ़ीसदी तक पहुँच गयी है।
- मई 2021 में शहरी क्षेत्र में बेरोज़गारी दर 14.73 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्र में 10.63 प्रतिशत है। युवाओं और महिलाओं को कहीं बड़े स्तर पर बेरोज़गारी का सामना करना पड़ रहा है। 20 वर्ष की आयु से 24 वर्ष की आयु के अंतर्गत आने वाले शहरी युवाओं में 37.9 प्रतिशत युवा बेरोज़गार हैं।
- देश में काम करने वाले लोगों का वह प्रतिशत हिस्सा जो काम की तलाश कर रहा है, उसे ‘श्रम बल भागीदारी दर’ कहते हैं और इसमें से जितने प्रतिशत हिस्से को रोज़गार नहीं मिलता उससे बेरोज़गारी दर निकाली जाती है। कोरोना काल के बीते डेढ़ साल में लगातार श्रम बल भागीदारी में कमी आयी है। श्रम बल भागीदारी में कमी का मतलब है कि बहुत से लोग मौजूदा परिस्थितियों से हताश होकर रोज़गार की तलाश करना ही छोड़ दे रहे हैं। रोज़गार में बढ़ती कठिनाइयों के कारण बहुत सी महिलाओं ने रोज़गार की तलाश छोड़कर घर पर ही रुकना चुन लिया है और बहुत से पढ़े लिखे युवा व्यापक बेरोज़गारी के कारण कुछ समय के लिए कोई कोर्स इत्यादि करने लगे हैं। श्रम बल भागीदारी में लगातार आती कमी यह दर्शाती है कि रोज़गार मिलना और करना कितना कठिन हो चुका है।
- सेण्टर फ़ॉर मॉनीटरिंग इण्डियन इकोनॉमी द्वारा सभी वर्गों के 1.75 लाख परिवारों के सर्वे से यह भीपता चला है कि पिछले एक साल में 55 फ़ीसदी परिवारों की आमदनी घट गयी है। 42 फ़ीसदी परिवारों की आमदनी में कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं आया और केवल 3 फ़ीसदी परिवारों की आय बढ़ी है। अगर महँगाई दर को ध्यान में रखा जाये तो यह स्पष्ट है कि कोरोना काल में 97 प्रतिशत परिवारों की आमदनी कम हुई है।
महँगाई
- देश में ईंधन के दामों में पिछले पाँच महीनों में 43 बार बढ़ोत्तरी हुई है और 4 बार कटौती। देश के 135 ज़िलों में पेट्रोल 100 के पार पहुँच चुका है। केवल इसी साल पेट्रोल की क़ीमतों में 12.5 प्रतिशत और डीज़ल की कीमतों में 15.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पेट्रोल की क़ीमत लगभग 10.7 रुपये और डीज़ल की क़ीमत 11.5 रुपये तक बढ़ चुकी है। अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में वर्ष 2013-14 की तुलना में कच्चा तेल सस्ता होता रहा, फिर भी पेट्रोल-डीज़ल इतने महँगे क्यों होते गये? क्योंकि इस दौरान पेट्रोलियम पदार्थों पर केन्द्रीय उत्पाद शुल्क में दोगुने से भी ज्यादा का इज़ाफ़ा हुआ है। पेट्रोल की क़ीमत का 58 फ़ीसदी और डीज़ल की क़ीमत का 52 फ़ीसदी, उत्पाद शुल्क, अधिभार और अन्य टैक्स हैं जो सरकार की तिजोरी में जाते हैं।
- पिछले पाँच माह में सरसों के तेल की क़ीमत दोगुनी हो गयी है। दिसम्बर 2020 में 120 रुपये प्रतिकिलो बिकने वाले सरसों के तेल की क़ीमत मार्च में 160 रुपये प्रतिकिलो और मई 2021 में 180 से 210 रुपये प्रति किलो के बीच पहुँच गयी है। कई ब्रांड के तेल तो 230 तक में बिक रहे हैं। सरसों की नई फसल आने के बाद भी कीमतें बढ़ती रही हैं। इसी तरह रिफ़ाइन तेल की क़ीमत में भी पिछले साल की तुलना में लगभग 68 रुपये का इज़ाफ़ा हुआ है। खाद्य तेलों की कीमतों में आयी यह बढ़ोत्तरी पिछले 11 साल में सबसे ज़्यादा है। दाल भी डेढ़ गुना महँगी हुई है और आलू, प्याज़, लहसुन सहित खाने-पीने की सभी चीज़ें महँगी हुई हैं। पिछले एक साल में रसोई की ज़रूरी खाद्य सामग्री में 40 से लेकर 100 फ़ीसदी तक उछाल आया है। इसके अलावा रसोई गैस की क़ीमत भी बढ़कर 900 रुपये प्रति सिलेंडर पहुँच चुकी है।
- अप्रैल 2021 के दौरान थोक महँगाई (WPI) दर बढ़कर 10.49 फ़ीसदी पर पहुँच गयी है जो अब तक का सर्वोच्च स्तर है। मैनुफैक्चर्ड उत्पादों की थोक महँगाई दर 9.01 फ़ीसदी बढ़ी है और प्राथमिक उत्पादों की थोक महँगाई दर भी 10.16 फ़ीसदी तक बढ़ी है। वित्त वर्ष 2021-22 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फ़ीति 5.1 फ़ीसदी पर रहने का अनुमान है। खुदरा बाज़ार की क़ीमतों में हुई असली बढ़ोत्तरी में थोक मूल्य आधारित महँगाई दर और उपभोक्ता मूल्य आधारित महँगाई दर को जोड़कर कम से कम 15 प्रतिशत का उछाल दिखाई दे रहा है। 1974 में जब महँगाई अपने चरम पर पहुँच गयी थी तब महँगाई दर 28.66 फ़ीसदी थी और 1973 में 16.94 फ़ीसदी थी।
स्वास्थ्य
- प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका ‘लैंसेट’ के एक अध्ययन के मुताबिक़, स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और लोगों तक उनकी पहुँच के मामले में भारत विश्व के 195 देशों में 145वें पायदान पर है।
- पिछले दस वर्षों में स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का औसतन 1.1% से 1.5% तक खर्च किया। दूसरे देशों से तुलना करें तो क्यूबा में 11.74%, जर्मनी में 11.25%, फ्रांस में 11.31%, जापान में 9.2%, अमरीका में 8.5%, इंग्लैंड में 7.86%, आस्ट्रेलिया में 6.4%, ब्राज़ील में 3.96%, रूस में 3.16%, दक्षिण अफ्रीका में 4.46%, चीन में 3.02% जीडीपी का हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च किया जाता है। भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ख़र्च होने वाला जीडीपी का प्रतिशत पिछले 10 वर्ष से ज़्यादा समय से 1% के आसपास ही बना हुआ है।
- स्वास्थ्य पर किये गये कुल ख़र्च का 27% हिस्सा ही सरकार द्वारा ख़र्च किया जाता है और लगभग 73% हिस्सा जनता को अपनी जेब से देना पड़ता है। जबकि डेनमार्क और स्वीडन जैसे देशों में निजी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं पर किया जाने वाला ख़र्च मात्र 15-16% है।
- इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि यदि स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च जीडीपी के 1-1.5% से बढ़ाकर 3-3.5% तक कर दिया जाये तो लोगों द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं पर किया जाने वाला निजी ख़र्च 65-72% से घटकर 30-35% रह जायेगा।
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार सन् 2019 में 17% आत्महत्याओं का कारण बीमारी और उसका उपचार ना करवा पाने की लाचारी थी। 2001 से 2015 के बीच हुई आत्महत्याओं में 21% स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण हुई।
- पिछले दस सालों में लगातार 7% लोग इलाज के लिए कर्ज़ लेकर ना चुकाने की स्थिति में ग़रीबी रेखा के नीचे पहुँच जाते हैं। 2002 से 2012 के बीच ही स्वास्थ्य के कारण लिये गये कर्ज़ दोगुने हो गये थे। भारत में कुल बीमार लोगों में 23% बीमार लोग इलाज का खर्च उठा ही नहीं सकते हैं।
- भारत में 1456 लोगों पर 1 डॉक्टर है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1000 लोगों पर 1 डॉक्टर होना चाहिए। भारत में नर्स और आबादी का अनुपात 1:670 है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह अनुपात 1:300 होना चाहिए। इनमें से भी ज़्यादातर डॉक्टर, नर्स आदि शहरों में हैं, गाँवों, छोटे क़स्बों आदि में इनकी भारी कमी है।
- भारत में हर 10 हज़ार की आबादी पर अस्पतालों के बेड की संख्या मात्र 5 है। इस मायने में बंगलादेश की हालत भी भारत से बेहतर है जहाँ प्रति 10 हज़ार की आबादी पर अस्पताल के 8 बेड हैं। केवल युगाण्डा, बुरकीना फ़ासो, ग्वाटेमाला और नेपाल जैसे देशों की हालत भारत से बदतर है।
- 70 फ़ीसदी स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढाँचा देश के 20 बड़े शहरों तक ही सीमित है। देशभर में 30 फ़ीसदी लोग प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक से वंचित हैं।
अमीर-ग़रीब के बीच बढ़ती खाई
- ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के अनुसार कोरोना काल के लॉकडाउन में भी भारत के चन्द अरबपतियों की सम्पत्ति में 35% तक वृद्धि हुई है। सन् 2009 से अब तक इन अरबपतियों की सम्पत्ति में 90% बढ़ोत्तरी हो चुकी है, यानी पिछले 12 साल में इनकी दौलत लगभग दोगुनी हो गयी है। सम्पत्ति बढ़ने में भारत के अरबपति अमरीका, चीन, फ्रांस, जर्मनी और रूस के बाद छठे स्थान पर हैं।
- महामारी के दौर में भारत के सबसे अमीर ग्यारह लोगों की सम्पत्ति में जितनी बढ़ोत्तरी हुई है, उससे मनरेगा द्वारा संचालित रोज़गार योजना और स्वास्थ्य मंत्रालय की सभी स्वास्थ्य सेवा योजनाओं को दस साल तक चलाया जा सकता है।
- देश के सबसे बड़े 100 पूँजीपतियों ने कोरोना काल के शुरुआती नौ महीनों में अपनी दौलत में 12.97 लाख करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी की। इस दौलत से भारत के सबसे ग़रीब तबक़े के हर व्यक्ति के हिस्से में 94 हज़ार रुपये जमा हो सकते हैं।
- दुनिया भर के अरबपतियों ने वैश्विक महामारी के दौरान अपनी सम्पत्ति में 3.9 लाख करोड़ डॉलर (यानी लगभग 280 लाख करोड़ रुपये) जोड़ लिए। विश्व भर के अरबपतियों की कुल सम्पत्ति 11 लाख करोड़ डॉलर है जो कि जी-20 देशों द्वारा महामारी में किये गये कुल ख़र्च के बराबर है।
- कोरोना वायरस महामारी के बीच वर्ष 2020 में भारत के 40 लोग अरबपतियों की सूची में शामिल हो गये। भारत में अब कुल अरबपतियों की संख्या बढ़कर 177 हो गयी है। मुकेश अम्बानी अभी भी 83 अरब डॉलर (यानी लगभग 5800 अरब रुपये) की सम्पत्ति के साथ सबसे अमीर भारतीय बने हुए हैं। 2020 के दौरान रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ के मालिक की सम्पत्ति 24 प्रतिशत बढ़ी है और वह दुनिया के आठवें सबसे अमीर आदमी बन गये हैं। गुजरात के गौतम अडानी की सम्पत्ति 2020 में दोगुनी होकर 32 अरब डॉलर हो गयी है और वह दुनिया के 48वें सबसे अमीर और दूसरे सबसे अमीर भारतीय बन गये हैं। उनके भाई विनोद अडानी की सम्पत्ति भी 128 प्रतिशत बढ़कर 9.8 अरब डॉलर हो गयी है।
- मुकेश अम्बानी ने कोरोना के शुरुआती आठ महीनों में हर दिन 1,667 करोड़ रुपये कमाया। यानी हर घण्टे 70 करोड़ रुपये। दूसरी तरफ असंगठित क्षेत्र के जिन मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी 178 रुपये है, उन्हें इतना रुपया कमाने में 10,000 साल से ज़्यादा लगेंगे।
- ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के अनुसार कोरोनावायरस आने के बाद दुनिया के 10 सबसे बड़े अरबपतियों ने जितनी सम्पत्ति बनायी है, वह दुनिया में हर किसी को ग़रीबी से बचाने और सबको कोविड-19 वैक्सीन फ़्री में देने के लिए काफ़ी है।
- भारतीय स्टेट बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में इस साल लोगों ने 66,000 करोड़ रुपये अस्पतालों पर अतिरिक्त ख़र्च किये हैं। बेरोज़गारी, आय में कमी और स्वास्थ्य पर बढ़ते ख़र्च ने करोड़ों नये लोगों को ग़रीबी की ओर धकेल दिया है।
- भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार बैंक धोखाधड़ी में पिछले चार सालों में तीन गुना बढ़ोत्तरी हुई है। 2017-18 में 41,167 करोड़ रुपये के बैंक घोटाले दर्ज हुए जो 2020-21 में बढ़कर 1.38 लाख करोड़ हो गए। पिछले चार सालों में बैंक घोटालों में 4.37 लाख करोड़ रुपये डूब गये जिसकी भरपाई आम जनता ने की।
- कोरोना वायरस महामारी के दौरान वैश्विक गरीबी में जो बढ़ोत्तरी हुई, उसमें आधे से अधिक योगदान भारत का रहा।
- पिछले 4 साल में मोदी सरकार ने लगभग 7 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ ‘राइट ऑफ़’ कर दिये यानी बट्टे खाते में डाल दिये। 2017-18 में 1.44 लाख करोड़, 2018-19 में 2.54 लाख करोड़, 2019-20 में 1.45 लाख करोड़ और 2020-21 में 1.53 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ राइट ऑफ़ किये गये। बताने की ज़रूरत नहीं कि इसकी वसूली भी आम जनता को निचोड़कर ही की जा रही है।
मज़दूर बिगुल, जून 2021
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन