कोरोना के बहाने मज़दूरों को ठगने और लूटने में जुटी हैं कम्पनियाँ

– गौतम कश्यप (फ़ेसबुक से)

मेरे एक परिचित लगभग 20 सालों से एक मैन्युफ़ैक्चरिंग कम्पनी में काम कर रहे थे। उनकी तनख़्वाह 15,000 के क़रीब थी। ओवरटाइम और छुट्टियों में काम करने पर दुगने पैसे मिलते थे तो 12 घण्टे काम करके महीने भर के 30,000 रुपये बन जाते थे। जीवन ठीक-ठाक चल रहा था। मोदी जी के अन्धभक्त थे तो कभी-कभी हम जैसे लोगों को बड़ी आसानी से गालियाँ सुना दिया करते थे। कल दुखड़ा सुनाने के लिए उन्होंने फ़ोन किया। बताया कि कम्पनी ने कोरोना में घाटा दिखाकर पहले तो सभी कर्मियों को नौकरी से निकाल दिया। सबको PF भी दे दिया। फिर सभी कर्मचारियों को लगभग 50% कम सैलरी पर एक बार पुनः नियुक्ति दे दी। अब उनकी नयी तनख़्वाह हो गयी है “8000 रुपये महीना।” इस बार उनके काम के घण्टे 9 से बढ़ाकर 12 घण्टे कर दिये गये हैं। (सरकार पूरा ज़ोर लगा रही है कि कम्पनियों में मज़दूरों के 12 घण्टे काम के नियम क़ानून में शामिल हों।) इस तरह अब उन्हें ओवरटाइम तो करना ही होगा लेकिन उसके कोई एक्स्ट्रा पैसे नहीं बनेंगे। ऐसा करके कम्पनी ने काफ़ी पैसे बचा लिये तो 300 और नये लोगों को नियुक्ति दे दी। अब रोज़गार की संख्या में ज़बर्दस्त इज़ाफ़ा तो हुआ लेकिन 12 घण्टे काम कर 30,000 कमाने वाले अब 8000 पर आ गये। अब 50 साल का आदमी भला इस उम्र में क्या नया सीखे और नया काम ढूँढ़े। इस उम्र में जब पैसे की ज़्यादा ज़रूरत होती है तब आमदनी घट गयी और काम के घण्टे बढ़ गये हैं। नया लेबर-लॉ अभी ड्राफ़्ट ही हुआ है कि उससे पहले रुझान आने शुरू हो गये हैं। मैंने तो उनसे बस यही कहा कि देशभक्ति साबित करने के लिए यदि भगतसिंह फाँसी पर चढ़ सकते हैं तो देशभक्त जनता 8000 रुपये महीने पर काम क्यों नहीं कर सकती!?

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020


 

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