टीआरपी घोटाला: पूँजीवादी मीडिया का नंगा रूप

– अंजलि

वैसे तो मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाता है लेकिन जो लोकतंत्र आम मेहनतकश जनसमुदाय के ख़ून-पसीने की कमाई को हड़प कर ही अस्तित्वमान रह सकता हो और अपने ख़िलाफ़ उठने वाले हर जनवादी आवाज़ को पुलिस-प्रशासन के दम पर कुचलने पर आमादा हो, ऐसे लोकतंत्र का हर खम्भा जनता के सीने में बेरहमी से धँसा होता है। इससे मीडिया भी अछूता नहीं है। मीडिया का पूरा खेल पूँजी के इर्द-गिर्द चलता है। कोई भी शोषणकारी व्यवस्था अपने अस्तित्व को लम्बे समय तक बरक़रार रखने के लिए, विभिन्न माध्यमों से अपने विचारों, एजेण्डों, दृष्टिकोणों और अपनी नीतियों की स्वीकार्यता स्थापित करती है। पूँजीवादी मीडिया इस कर्तव्य को बखूबी निभा रही है। विज्ञापन जगत और मीडिया संस्थान एक दूसरे से जैविक रूप से जुड़ा हुआ है। सभी बड़े बुर्जुआ अख़बार, टीवी चैनलों और मीडिया संस्थान कॉरपोरेट मॉडल पर संचालित होते हैं और इनका मुनाफ़ा विज्ञापनों के ज़रिये आता है। मुनाफ़ा कमाने की होड़ में आये दिन घपले-घोटाले होते रहते है। अभी सबसे ताज़ा मसला जो सामने आया है वो है टीआरपी घोटला!
टीआरपी घोटाला समझने के लिए सबसे पहले हमें यह जानना पड़ेगा की टीआरपी क्या है? इसे मापते कैसे हैं? टीआरपी ज़्यादा होने से कैसे टीवी चैनल को फ़ायदा होता है? टीआरपी का पूरा नाम टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट हैं। टीआरपी रेटिंग्स यह बताता है कि कौन-सा चैनल कितना देखा जाता है। जिस चैनल की रेटिंग ज़्यादा होती है, माना जाता है कि वो चैनल ज़्यादा देखा जा रहा है, लोगों के बीच मे ज़्यादा लोकप्रिय है। टीआरपी को मापने का काम बीएआरसी (ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल) नाम की संस्था करती है। टीआरपी मापने के लिए देश के अलग-अलग इलाक़ों में सेटटॉप बॉक्स के साथ बैरोमीटर या पीपल मीटर नाम की डिवाइस लगाई जाती है। पीपल मीटर कहाँ लगा है इसकी जानकारी केवल बीएआरसी और पीपल मीटर लगाने वाली कम्पनी (हंसा) को होती है। अभी देश में क़रीब 44,000 पीपल मीटर लगे हुये हैं। पीपल मीटर अपने आस-पास के सेटटॉप बॉक्स की जानकारी (मसलन कौन-सा चैनल, कौन-सा शो और कितनी देर तक चला आदि) मॉनिटरिंग टीम को भेज देता है और इसी आधार पर हर हफ़्ते बीएआरके टीआरपी जारी करता है। वैसे तो यह संख्या देश में टीवी इस्तेमाल करने वाले परिवारों की तुलना मे बहुत कम है इसलिए इसकी सम्भावना बेहद कम है कि इससे निकले गये आँकड़े सच्चाई से मेल खाते होंगे। दूसरे, पीपल मीटर के जरिये इकठ्ठा किए गये इन आँकड़ो को कोई सत्ता या कम्पनी अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल कर सकती है। मतलब साफ़ है कि टीआरपी के लिए डेटा इकठ्ठा करने कि प्रक्रिया ही जनता के निजता के अधिकार के ख़िलाफ़ है।
टीवी चैनलों के कमाई का मुख्य ज़रिया ही विज्ञापन है, लेकिन हर चैनल के लिए विज्ञापन की दर एक नहीं होती है। यह दर टीआरपी रेटिंग के आधार पर तय की जाती है। जिसकी रेटिंग जितनी अच्छी उसके लिए विज्ञापन कि दर उतनी ऊँची। इसीलिए तमाम टीवी चैनल अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए जनता के असली मुद्दों शिक्षा, चिकित्सा, बेरोज़गारी, महँगाई आदि से मुँह मोड़कर मेहनतकश आवाम की वर्गीय एकजुटता को कमज़ोर करने के लिए धार्मिक, क्षेत्रीय, भाषायी भावनाओं को उभारकर लोगों को आपस मे लड़वाकर एक तीर से दो निशाने साध रहे हैं। एक तरफ़ लोगों के गुस्से से पूँजीवादी व्यवस्था की रक्षा कर रहे हैं, दूसरी तरफ़ अपने मुनाफ़े का इंतज़ाम भी।
हाल ही में टीआरपी घोटाले में रिपब्लिक भारत, न्यूज़ नेशन, महामूवी चैनल और इसके अलावा दो मराठी चैनल फ़क्त मराठी व बॉक्स ऑफिस का नाम सामने आया है। ये चैनल टीआरपी बढ़ाने के लिए उन लोगों को पैसा दे रहे थे जिनके घरों मे पीपल मीटर लगा हुआ है, ताकि लोग इनका चैनल खोले रहें, चाहे वह देखें या ना देखें। वैसे टीआरपी का खेल कोई नया नहीं है बल्कि इण्डस्ट्री में यह कम से कम 30 साल से चल रहा है। इस खेल में लगभग सभी चैनल शामिल हैं। इस घोटाले ने पूँजीपति-नौकरशाही के साँठ-गाँठ को पूरी तरह से नंगा कर दिया है, क्योकि बिना प्रशासनिक साँठ-गाँठ के यह सम्भव ही नहीं है कि न्यूज़ चैनल उन घरों का पता लगा सके जिन घरों मे पीपल मीटर लगा हुआ है। अब यह मसला सामने आने के बाद बीएआरसी अपनी साख़ बचाने और अपने को पाक-साफ़ दिखने के लिए टीआरपी रेटिंग्स को तीन महीने तक न निकालने का प्रपंच रच रही है। यह कुछ और नहीं बल्कि जनता को दिया जाने वाला एक और लॉलीपाप है ताकि लोग तीन महीने मे इस मसले को भूल जाएँ और फिर इनका खेल बदस्तूर चलता रहे।
दरअसल टीआरपी का पूरा सिस्टम ही एक घोटाला है और सभी चैनल इस घोटाले से फ़ायदा उठाते रहे हैं। रेटिंग का फ़्राड सिर्फ़ एक तरीक़े से नहीं किया जाता है। यह काम सिर्फ़ अकेले चैनल नहीं करता है बल्कि इस खेल में सत्ता भी मदद करती है। मुम्बई पुलिस की कार्रवाई से उन लोगों को कुछ नयी जानकारी नहीं मिली जो मीडिया के कारोबार को जानते हैं। ये सारी बातें अन्दर के लोग जानते हैं। अर्णब गोस्वामी का नाम आते ही बाक़ी गोदी मीडिया के कुत्ते अपने-अपने मालिकों के बचाव में ऐसे भौंकने लगे जैसे वे इससे अलग हों। अर्णब के चैनल पर एफआईआर से उछलने वाले चैनल भी गोदी मीडिया की गन्द में कम भागीदार नहीं हैं। आज ज़्यादातर चैनल ‘रिपब्लिक’ जैसे हो चुके हैं और दूसरे भी वैसा ही बनना चाहते हैं। उन चैनलों पर भी तो वही सब दिखाया जाता रहा है।
अर्णब गोस्वामी अपने भाजपाई मालिकों के लिए कितना उपयोगी है, इसका पता तो उसकी गिरफ़्तारी के बाद भाजपा के मंत्रियों की चीख़-पुकार से ही लग गया। अनेक बुद्धिजीवी, बुज़ुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार फ़र्ज़ी आरोपों में जेलों में बन्द हैं, लेकिन भाजपा की ओर से सबसे ज़ोर से भौंकने वाले कुत्ते को छुड़ाने के लिए पूरी सरकार और देश की सबसे बड़ी अदालत एक टाँग पर खड़ी हो गयी।
वास्तव में अपने आक़ाओं की सेवा करने और असली मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए ये तमाम चैनल झूठी ख़बरें, अश्लील फ़िल्में, फूहड़ विज्ञापन, साम्प्रदायिक-अन्धराष्ट्रवादी उन्माद की ख़ुराक लोगों के बीच में बाँटती रहते हैं। मौजूदा सत्ताधारी भाजपा सरकार के समय में मीडिया का यह चरित्र और ज़्यादा उजागर हुआ है। सच्चाई यह है कि पूँजी की सेवा और मुनाफ़ा कमाने की अन्धी होड़ में लगी पूँजीवादी मीडिया से आज देश की मेहनतकश जनता कोई उम्मीद नहीं पाल सकती है। पूँजीवादी मीडिया के वर्चस्व के बरक्स आज एक वैकल्पिक क्रान्तिकारी मीडिया खड़ा करना होगा। उनके पास पूँजी और सत्ता की ताक़त है, हमारे पास सच्चाई और जनता की ताक़त है। काम लम्‍बा और मेहनत का है, पर असम्‍भव नहीं।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2020


 

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