हथौड़े की मार
राहुल सांकृत्यायन (‘सोवियत भूमि’ पुस्तक का अंश)
सोवियत सरकार ही मज़दूरों की है। सोवियत संघ की सुख-समृद्धि की हर वृद्धि मज़दूरों की सुख-समृद्धि में वृद्धि है। इस संघ के द्वारा संसार में वे एक ऐसे समाज की सृष्टि करना चाहते हैं, जिसके अन्दर साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स के शब्दों में, ‘सब योग्यता के अनुसार काम करें और आवश्यकता के अनुसार पावें।’ लेकिन पाँच हज़ार वर्षों के मनुष्य के इतिहास को चुटकी बजाते बदल देना असम्भव है। हाँ उस आदर्श तक पहुँचने के लिए वे सिर तोड़ परिश्रम कर रहे हैं। उनका हर क़दम उसी ओर बढ़ रहा है।
लेकिन इस परिश्रम, इस कशमकश के बीच भी जो सहूलियतें सोवियत संघ के मज़दूरों को हैं, उनका सपना भी पूँजीवादी देशों के मज़दूर नहीं देख सकते। सब मज़दूरों को पूरी मज़दूरी पर काम पाने की गारण्टी है। हर काम करने वाले को आराम की गारण्टी है। बेकारी का तो कहीं नामोनिशान नहीं है। काम के घण्टे सिर्फ़ सात हैं, मुश्किल कामों और ख़ानों में तो उनसे सिर्फ़ छः घण्टे काम लिया जा सकता है। मुशाहरे के साथ उन्हें लम्बी छुट्टियाँ मिलती हैं। बीमार होने पर अच्छे से अच्छे डाॅक्टर की चिकित्सा उन्हें मिलती है, सुन्दर से सुन्दर स्वास्थ्यकर स्थानों में उन्हें विश्राम के लिए भेजा जाता है। उनके साथ उनकी बीवियाँ भी बराबरी की मज़दूरी पर काम कर सकती हैं। उनके बच्चों के लिए शिशुगृह और स्कूलों के दरवाज़े़ खुले हैं। शिल्प विद्यालय और विश्वविद्यालय उनकी और उनके बच्चों की प्रतीक्षा में रहते हैं। बुढ़ापे में अच्छी-ख़ासी पेंशन लेकर वे हँसते-हँसते शेष जीवन बिता सकते हैं।
इन सबके अलावा और इन सबके ऊपर मज़दूरों को कारख़ाने के अन्दर पूरी स्वाधीनता प्राप्त है। कारख़ाने—जहाँ वे ज़िन्दगी का अधिकांश भाग बिताते हैं, जहाँ स्वाधीनता ही सबसे बड़ी क़ीमत है, जहाँ स्वाधीनता पाना मुश्किल है।
कारख़ाने का जनतन्त्र सोवियत स्वाधीनता का कि़ला है। इसके रूप और मूल्य पर उचित ध्यान नहीं दिया गया है। मध्यम वर्ग और मज़दूर वर्ग के निकट स्वाधीनता, जनतन्त्र आदि का मानी एक नहीं है। मध्यम वर्ग को कारख़ानों के अत्याचारों और व्यवधानों को सहने का मौक़ा कहाँ? इसलिए स्वाधीनता का मानी वह राजनीतिक अर्थ में लेता है – यानी वोट करने की स्वाधीनता। अगर आर्थिक रूप में वह स्वाधीनता को लेता है, तो उसका मानी वह खुलकर, बिना बन्धन-बाधा के, मज़दूरों से काम लेना समझता है।
आर्थिक आवश्यकताओं के चलते मज़दूरों को ऐसे अनुशासन के अन्दर रहने को बाध्य होना पड़ता है, जिसके बनाने में न उनका हाथ है, न रज़ामन्दी। यह अनुशासन उन्हें पतन के गड्ढे में ढकेलता और उनके मन में एक चिढ़ पैदा करता रहता है। उनकी ज़िन्दगी का विकास रुक जाता और उनके दृष्टिकोण का घेरा छोटा हो जाता है। ऊपर से लादा गया अनुशासन दिमाग़ पर बोझ का काम करता है; स्वतः प्रवृत्त होने की भावना का गला घोंट देता है। भीतर ही भीतर एक आँच धुँधुँआती रहती है, जो समय-समय पर सामाजिक उथल-पुथल और क्रान्ति के रूप में प्रकट होती है।
पूँजीवादी देशों के मज़दूर संघों का जन्म इन्हीं असंगतियों के चलते हुआ। जब तुम्हें चूसने, दबाने या बरबाद करने का हक़ है, तो हमें भी अपने को संगठित करने और ज़रूरत पड़ने पर हड़ताल करने का हक़ है। बड़े संघर्ष के बाद पूँजीपतियों को मज़दूरों की इस माँग के आगे सिर झुकाना पड़ा।
लेकिन सोवियत के कारख़ानों और अर्थनीति में इन असंगतियों के लिए जगह ही नहीं है। वहाँ कोई शासक वर्ग उन्हें चूसने वाला नहीं। चाहे मज़दूर हो, मिस्त्री हो, फ़ोरमैन हो, मैनेजर हो, डायरेक्टर हो – सब एक ही उद्देश्य से प्रेरित होकर काम करते हैं। वह उद्देश्य है – समाज की सार्वभौमिक भलाई, हर व्यक्ति को अधिक से अधिक सुखी और स्वाधीन जीवन बिताने का मौक़ा देना। मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण वहाँ कहाँ? वहाँ मज़दूर मैनेजर को अपना दुश्मन क्यों समझें? मैनेजर मज़दूरों पर रोब क्यों गालिब करे? कलह की जगह सहयोग ने ली है। डायरेक्टर, मैनेजर, फ़ोरमैन, कारीगर, मज़दूर सभी एक ही समाज के अंग हैं और सब एक उद्देश्य से काम करते हैं।
निस्सन्देह, योग्यता और कारीगरी के अनुसार वहाँ के मज़दूरों के वेतन में फ़र्क़ है। लेकिन यह वेतन का विभेद मज़दूरों में पस्ती नहीं लाता, बल्कि उन्हें आगे बढ़ने को प्रेरित करता है। हर मज़दूर को नैतिक और भौतिक सहायता योग्यता बढ़ाने के लिए दी जाती है। अपने शरीर और दिमाग़ को अधिक होशियारी से इस्तेमाल कर वे असीम उन्नति कर सकते हैं। आगे बढ़ने वालों को हमेशा ही प्रोत्साहित किया जाता है। मान लीजिए, किसी कारख़ाने में काम के आठ ग्रेड हैं। उसमें तीसरे ग्रेड में काम करने वाला मज़दूर मैनेजर के पास पहुँचता है और कहता है, मुझे चैाथे ग्रेड में भेजिए, मैंने उसके लायक़ योग्यता हासिल कर ली है, तो मैनेजर कहता है, अच्छा पन्द्रह दिन के लिए आपको मौक़ा मिलता है, जाइए, काम कीजिए। अगर इसके अन्दर वह योग्य साबित हुआ फिर तो वहाँ रख लिया गया, नहीं तो फिर ‘सी’ ग्रेड में आ गया। बात यों है कि समूचे संसार में सोवियत संघ ही ऐसा राज्य है, जो अपने देश के हर मर्द, औरत, लड़के, लड़की को अधिक-से-अधिक योग्य बनाकर मानवता के अन्दर के भेदभाव को मिटाने के लिए सचेष्ट है। शोषण प्रथा को ग़ैरक़ानूनी बनाकर अपने हर सदस्य को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए वह प्रतिज्ञाबद्ध है। वहाँ ज़िन्दगी के नये आदर्श हैं, नयी सम्भावनाएँ हैं। वर्गों में बँटे समाज में जो निश्चलता, निस्पन्दता, निर्जीवता होती है, उसका वहाँ हमेशा के लिए ख़ात्मा हो चुका है।
सोवियत संघ का मज़दूर संघ संसार की सबसे बड़ी संस्था है। इसके फ़ीस देने वाले सदस्यों की संख्या 1932 में एक करोड़ अस्सी लाख थी। संसार की सभी मज़दूर संस्थाओं की सदस्य संख्या भी इतनी बड़ी नहीं होगी। सोवियत संघ के हर छोटे-बड़े कारख़ाने में मज़दूर संघ क़ायम हैं और उनकी सदस्यता का दरवाज़ा मैनेजर से लेकर अपरेण्टिसों तक के लिए खुला हुआ है। इन संघों की कार्य-समितियों का चुनाव बड़े धूमधाम से होता है, जहाँ उम्मीदवारों की विजय पद-मर्यादा पर निर्भर नहीं होकर उनकी सेवा-भावना पर निर्भर करती है।
ये मज़दूर संघ सबसे पहले तो अपने कारख़ाने की पैदावार बढ़ाने पर ज़ोर देते हैं क्योंकि पैदावार की वृद्धि का मतलब है, उनके वेतन और दूसरी सुख-सुविधाओं में वृद्धि। इसके लिए मज़दूर संघ तेज़ काम करने वालों की टोलियाँ बनाते और साम्यवादी प्रतियोगिताएँ करते रहते हैं। वेतन वृद्धि के अलावा सोवियत मज़दूर संघ अपने सदस्यों की औद्योगिक दुर्घटनाओं से रक्षा करने और उनके काम करने की जगह को अधिक स्वास्थ्यपूर्ण और सुविधापूर्ण बनाने की चेष्टा में लगे रहते हैं। यही नहीं, कारख़ाना किस योजना पर चलाया जाये, इस पर भी संघ में बहस होती है और नये-नये तरीक़े निकाले जाते हैं। यदि किसी मज़दूर ने छोटी-मोटी ग़लती की तो संघ की ओर से नियुक्त ‘साथियों की पंचायत’ उस पर विचार करती और सही रास्ते पर लाने के लिए उससे प्रायश्चित और पश्चाताप कराती। कारख़ाने की सहयोग समितियों का संचालन भी मज़दूर संघ ही करते हैं, जहाँ से मज़दूर अन्न वस्त्र आदि का विनिमय करते हैं। जब से कारख़ानों के साथ उनके निजी खेत की व्यवस्था सोची गयी है, तब से उन खेतों का इन्तज़ाम भी संघ के ही हाथ में रहता है। मज़दूरों की बीमारी, बुढ़ापे, दुर्घटना आदि का बीमा और पेंशन का प्रबन्ध भी संघ द्वारा बनायी गयी कमेटी के ही जि़म्मे होता है। मज़दूर परिवारों के लिए और मज़दूरों के क्लब, पुस्तकालय आदि के लिए मकानों का प्रबन्ध भी संघ ही करता है। छुट्टियों में किस मज़दूर को किस पहाड़ी या सामुद्रिक स्वास्थ्यप्रद स्थान में भेजा जाये, इसके निर्णय के अलावा मज़दूरों के लिए भ्रमण की सुविधा, थियेटर और सिनेमाघरों की टिकटों का इन्तज़ाम वग़ैरह का सर्वाधिकार मज़दूर संघ को प्राप्त है। इन मज़दूर संघ के कारण सोवियत कारख़ाने बिल्कुल ही जनतन्त्री हैं।
ये मज़दूर संघ कितने अधिक जनतन्त्री होते हैं, इसके सबूत में इंग्लैण्ड के सुप्रसिद्ध विद्वान मि. सिडनी वेब का एक वर्णन देखिए –
‘‘हमने ख़ुद अपनी समुद्र यात्रा के सिलसिले में एक मज़दूर संघ की बैठक देखी है, जिसमें उस जहाज़ के कप्तान ने आय-व्यय का पूरा चिट्ठा जहाज़ के मज़दूरों के सामने रखा। बिजली का एक कारीगर सभापति के आसन पर था। जहाज़ के हर विभाग के लोग वहाँ एकत्रित थे, जिनमें कुछ स्त्रियाँ भी थीं। जो चिट्ठा रखा गया, उसमें घाटा दिखलाया गया था – आय से व्यय अधिक था। बस, तरह-तरह की आलोचनाएँ होने लगीं। एक माँझी ने पूछा, क्यों टेम्स में ऐसे किनारे पर जहाज़ लगाया गया, जहाँ के लिए ज़्यादा पैसे चुकाने पड़े। कप्तान ने बताया, क्योंकि वहाँ से मक्खन का बाज़ार नज़दीक था। कोयला झोंकने वाले एक मज़दूर ने पूछा, क्यों इस यात्रा में ऐसी तेज़ी से जहाज़ लाया गया? जवाब मिला, क्योंकि जल्दी पहुँचने से मालों की क़ीमत अधिक मिलने की सम्भावना थी। यों ही कितने सवाल और जवाब हुए। इस बहस के शिक्षात्मक मूल्य के बारे में तो कुछ कहना ही नहीं, इससे यह भी पता चलता है कि सभी पदों के लोगों के बीच किस प्रकार साथी-भाव है और एक ‘समान आदर्श’ किस प्रकार लोगों को प्रेरित करता है।’’
इस विवरण और उद्धरण से यह साफ़ पता चल जाता है कि वहाँ के मज़दूर का उद्योग में क्या हाथ है? वहाँ का मैनेजर या डायरेक्टर उनका ‘मालिक’ नहीं है, बल्कि एक ‘अनुभवी साथी’ है, जो उस जगह पर अपनी योग्यता के कारण पहुँचा है और हर मज़दूर उस जगह पहुँच सकता है, यदि वह अपने को योग्य बनाये। अनुभवी होने पर भी वह निरंकुश नहीं है, उसकी आलोचना खुलेआम की जा सकती है, उसे जवाब देने को मजबूर होना पड़ेगा। सोवियत संघ के कारख़ानों में आलोचना की जैसी गुंजाइश है, वैसी संसार में सपने में भी नहीं देखी जा सकती है।
मज़दूरों की पूरी स्वाधीनता कहीं दीख पड़ती है, तो सोवियत संघ में ही। वहाँ का कारख़ाना मज़दूरों का ‘कै़दखाना’ नहीं है, जहाँ कुछ मुट्ठी अन्न या कुछ पैसों की क़ीमत पर उन्हें आजन्म कै़द की सज़ा स्वेच्छा से स्वीकार करनी पड़ती है। सोवियत कारख़ाना मज़दूरों का वह ‘आज़ादी का महल’ है, जहाँ उनकी सभी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और जहाँ उनके व्यक्तित्व को अधिक से अधिक विकास का मौक़ा मिलता है।
मज़दूर बिगुल,अक्टूबर-दिसम्बर 2017
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