नोएडा की झुग्गी बस्ती की एक तस्वीर
रामकिसन, नोएडा
मैं नोएडा, सेक्टर–8 की झुग्गी बस्ती में रहता हूं। बस्ती के दक्षिण–पश्चिमी कोने में मेरी झुग्गी है। इस बस्ती में रहना धरती पर ही नर्क भोगने जैसा है। यहां इतनी ज्यादा समस्याएं हैं कि अगर किसी को एक सबसे महत्वपूर्ण और बुनियादी समस्या बताने को कहा जाये तो वह असमंजस में पड़ जायेगा। सुबह से शाम तक हर आदमी इस बस्ती में समस्याओं से ही दो–चार होते हुए जीता है।
पानी की समस्या यहां की सबसे गंभीर समस्याओं में एक है। बस्ती की दक्षिणी सड़क पर गिनती में चार हैंडपंप हैं, जिनमें दो तो हमेशा ही खराब रहते हैं। बाकी बचे दो हैंडपंपों पर बस्ती के 1,000 से भी ज्यादा लोग पानी की अपनी जरूरतों के लिये आश्रित हैं। इन हैंडपंपों से पानी भी इतना धीरे–धीरे गिरता है कि पूछिये ही मत।
दक्षिण–पश्चिमी कोने के हैंडपंप, जिसपर मैं भी पानी भरता हूं, पर पांच सौ से भी ज्यादा लोग पानी भरते हैं। लिहाजा यह सुबह 4.30 से रात 10.30 तक व्यस्त रहता है। भीड़ इतनी रहती है कि शायद ही कभी आपको बगैर आधा घंटा लाइन लगाये पानी मिले। ऐसी स्थिति में, जरा उस आदमी की कल्पना करिये जो एक बार आधा घंटा लाइन लगाकर नहाने के लिये एक बाल्टी पानी ले लेता है और उस एक बाल्टी पानी में पूरा न नहा पाने पर दूसरी बाल्टी के लिये फिर उसे नंगे–भीगे बदन ठिठुरती सर्दी में आधा घंटा लाइन लगाना पड़ता है। बहुत सारे लोग तो इसी वजह से नहाते भी नहीं है। इतनी भीड़ के बाद कोढ़ में खाज यह कि यह चलने में भारी भी हद से ज्यादा है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक दिन एक हट्टा–कट्टा नौजवान, जिसकी बांहों की मछलियां अंधेरे में भी साफ दिखाई पड़ती थीं, जल्दी पानी भरने के चक्कर में अपनी पूरी ताकत से हैंडपंप चला रहा था और वह 25–30 लीटर की बाल्टी भरने में ही हांफ गया। बूढ़े और बच्चे तो इसे हाथों से चला ही नहीं सकते, वे कमर या पेट से जोर लगाकर ही पानी भर पाते हैं।
पानी की किल्लत की वजह से लोगों में पानी के लिये हमेशा अफरातफरी मची रहती है। ऐसा लगता है कि लोग किसी ऐसे उजाड़ टापू पर पहुंच गये हैं, जहां उन्हें एक दिन के लिये पानी मिला है, और पानी उन्हें चाहे जहां से, जैसे भी मिले अधिक से अधिक भर लेना चाहते हैं। पानी के लिये लोगों की लोलुपता का अंदाजा इस एक दृश्य से लगाया जा सकता है। सेक्टर–8 के दक्षिण वाली मुख्य सड़क पर दो फीट चैड़ा और एक फीट गहरा गड्ढा हो गया था जिससे पानी लगातार निकल रहा था। और लोग बर्तन मांजने, कपड़ा धोने–नहाने के लिये यहां भी पहुंच गये थे। उस गड्ढे को चारो तरफ से लोगों ने मधुमक्खी के छत्ते की तरह घेर लिया था।
सामान्य तौर पर यहां 11 बजे दिन से शाम 4 बजे तक ज्यादातर हैंडपंप लॉक्ड (तालाबंद) रहते हैं। उनमें ताला इसलिये लगा दिया जाता है कि बच्चे ज्यादा घिचिर–पिचिर करेंगे तो जल्दी ही टूटेगा और बनवाने के लिये फिर से चंदा इकट्ठा करना पड़ेगा।
पानी इतना ज्यादा खारा है कि हमेशा पीलापन लिये रहता है। कभी–कभी तो घंटे भर में ही मटमैला रंग हो जाता है। पानी की गड़बड़ी के बारे में तो कुछ कहना ही बेकार है। दावा किया जा सकता है कि इस बस्ती में शायद ही कोई ऐसा मिले जो पेट का रोगी न हो। कपड़े, पानी रखने के बर्तन सब पीले पड़ जाते हैं।
यहां के लोगों की दिनचर्या बहुत कुछ पानी भरने के समय से तय होती है। रोज सुबह चार बजे, चाहे जाड़ा हो या गर्मी, किसी झुग्गी के दरवाजे के चरचराकर खुलने की आवाज सवेरे की निस्तब्धता को भंग करती है और एक आदमी दबे पांव, चोरों की तरह बाल्टी लेकर हैंडपंप की ओर बढ़ जाता है। लोग ज्यादा पानी भरने और भीड़–भाड़ से बचने के लिये सवेरे–सवेरे ऐसे चुपचाप जाते हैं पर चाहे कितना भी सवेरे जायें, पता चलता है कि आपकी सारी कवायद बेकार गयी और हैंडपंप पर बीस–पच्चीस बाल्टियां पहले से ही रखी आपको मुंह चिढ़ा रही हैं। पौ फटने के बाद तो पूरी रेलमपेल मच जाती है, जगह–जगह से अश्लील भोजपुरिया गीत पटाखों की तरह बजने लगते हैं। इसके अलावा, एक तरफ शेरा वाली मां तो दूसरी तरफ अल्लाहो अकबर। कुल मिलाकर मेले जैसी स्थिति हो जाती है और पानी भरना देवी दर्शन जैसा कठिन।
मांग और पूर्ति के बीच एकरूपता न होने से पानी के लिये रोज नये प्रयास, पानी भरने के नये तरीके, रोज–रोज नयी–नयी घटनाओं को जन्म देते हैं। इस हफ्ते की कुछ घटनायें बयान कर रहा हूं।
रविवार के दिन हैंडपंप पर अतिरिक्त भीड़ रहती है। रोज नहाने वाले, हफ्ते–पंद्रह दिन में नहाने वाले, बर्त्तन–कपड़ा साफ करने वाले लोगों का जमावड़ा हो जाता है। इसमें बच्चे, बूढ़े, औरतें, नौजवान सभी रहते हैं। इस रविवार को कई दिनों के बाद खिली–खिली धूप भी निकली थी और वैसे भी रविवार होने की वजह से लोग फुर्सत में हफ्तों की मैल उसी दिन छुड़ा लेना चाहते थे। अचानक रोज–रोज अपने आप लगने वाली कतार का सब्र टूट गया और स्थिति मार–पीट में बदल गयी। झगड़े की मुख्य वजह यह थी कि एक नौजवान ने कुल्ला करने और बाल्टी खंगालने में कुछ ज्यादा ही समय लगा दिया। हालांकि, झगड़ा पड़ने की युवक की झल्लाहट के पीछे लैट्रिन जाने के लिये डिब्बी भरने वालों की बड़ी संख्या भी एक कारण था।
उस दिन मैं सुबह 11 बजे के आस–पास पानी भरने गया। यह देखकर मुझे कुछ राहत मिली कि केवल चार–पांच बाल्टियां ही लाइन में लगी हैं। एक तो चबूतरे के आधे हिस्से पर कचरा निकालकर ऐसे ही छोड़ दिया गया था, दूसरे सुबह से ही लगातार हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। पूरी सड़क कचरे से पट गयी थी। हैंडपंप के एक ओर एक नौजवान दो पतीलियां मांज रहा था तो दूसरी ओर एक औरत कपड़े खंगालने में लगी थी। एक औरत पानी भर रही थी और तीन लाइन में खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही थीं। मैं भी बाल्टी लाइन में लगाकर इंतजार करने लगा। तभी एक दुबली–पतली, गोरी–चिट्टी सी, अधेड़ उम्र की औरत तेज–तेज चलती हुई आयी। वह बड़ी जल्दी में लग रही थी। आते ही उसने पहले से पानी भर रही औरत को लगभग डांटकर पीछे हटने को कहा। वह थोड़ा पीछे हट गयी, फिर भी हत्थे के करीब ही थी। इस पर उस लोटे वाली औरत ने अपनी त्यौरियां चढ़ा ली और हिकारत से देखते हुए और भी ज्यादा रुखाई से ‘‘और पीछे’’ हटने को कहा। ऊपर से तुर्रा यह कि लगे हाथों ये भी पूछ लिया कि –‘‘तू छूआछूत वाली जात की तो नहीं है?’’ फिर उसने तमाम कर्मकांड करके ही पानी भरा। पहले तो उसने लोटे को धोया, हैण्डल (हत्थे) को धोया और फिर हैंडपंप के मुंह को धोकर ही पानी भरा। जाते हुए वह बड़बड़ा रही थी कि मुझे तो भगवान को चढ़ाने के लिये जल चाहिये और ये नीच पानी पीने के लिये मरे जा रहे हैं। इस पर एक औरत सलाह देने के अंदाज में बोली, ‘‘यह काम तो आपको सबेरे करना चाहिये, दिन भर पता नहीं, कैसे–कैसे जात–कुजात हैंडपंप छूते रहते हैं।’’
एक दिन सुबह सात बजे सड़क पर सांड़ों की घुड़दौड़ मची थी। कई नौजवान लड़ाई में सांड़ों को हांक–हांककर उत्तेजित करने में लगे थे। पूरा मेला लग गया था, लोग छतों पर, सड़क के किनारे, गलियों में अटे थे। और बड़ी दिलचस्पी से लड़ाई देख रहे थे। सांड़ों की लड़ाई भयानक थी, वे जिधर ही घूमते, उधर मैदान साफ हो जाता। लोग सड़क से भागकर गलियों में घुस जाते। इतनी अफरातफरी के बाद भी, पानी के लिये लाइन में खड़े लोग, अभी तक वहीं जमे थे। एक औरत पानी भरकर ले जा रही थी तभी भागते हुए एक लड़के से टकराकर उसके हाथ से बाल्टी छूट कर नीचे गिर गयी। इस पर उस औरत ने जोर–जोर से चिल्लाकर–चिल्लाकर आसमान सिर पर ऐसे उठा लिया जैसे एक बाल्टी पानी नहीं दूध बिखर गया हो।
ये नित्य नयी घटनायें झुग्गी–वासियों की रोजमर्रा की जिंदगी का एक हिस्सा हो गयी हैं और उन्हें जीने के लिये इस तरह की जद्दोजहद तो रोज सुबह से शाम तक करनी ही पड़ती है।
बिगुल, फरवरी 2004