पहला लाभ
अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई
अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई (1872.1952) उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशक में रूसी क्रान्तिकारी आन्दोलन में शामिल हुई। 1917 में उन्होंने अक्टूबर क्रान्ति की लड़ाइयों में सक्रियता से भाग लिया। वे लेनिन की घनिष्ठ मित्र थीं। अक्टूबर क्रान्ति के बाद वे सामाजिक सुरक्षा की जन–कमिसार, कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के अन्तर्राष्ट्रीय महिला सचिवालय की सचिव और कालान्तर में नार्वे, मेक्सिको और स्वीडेन में सोवियत राजदूत रहीं। 1917 की क्रान्ति से सम्बन्धित उनके संस्मरणों में से एक यहां दिया जा रहा है।
1917 का अक्टूबर तूफानी था, आकाश धुंधला और मेघों से ढंका था। स्मोल्नी के उद्यान में वृक्षों की चोटियां तेज हवा के झोंकों में झूम रही थीं। अपने अंतहीन गलियारों की भूलभुलैयों, बहुत रोशन और अपर्याप्त ढंग से सज्जित हालों के साथ स्मोल्नी के भवन में काम इतने जोरों से चल रहा था जैसे कि दुनिया में पहले कभी नहीं।
दो दिन पहले ही सत्ता सोवियतों के हाथों में हस्तान्तरित हुई थी। शीत प्रासाद मजदूरों और सैनिकों के कब्जे में था। केरेन्स्की सरकार का अब बिल्कुल अस्तित्व नहीं रह गया था। लेकिन हम सभी यह महसूस कर रहे थे कि यह तो मात्र उस कठिन सीढ़ी का पहला सोपान ही है, जिससे होकर मेहनतकश लोगों की मुक्ति होगी तथा एक नये और अभूतपूर्व मजदूरों के जनतंत्र की स्थापना होगी।
बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने भवन में बगल के एक कमरे में आश्रय ले लिया था। कमरे के मध्य में एक सादी मेज थी, खिड़कियों और फर्श पर अखबार रखे हुए थे और कुछेक कुर्सियां थीं। मुझे याद नहीं कि मैं किस काम से वहां आयी थी, लेकिन यह तो याद ही है कि व्लादीमिर इल्यीच ने मुझे इस विषय में सवाल पूछने का कोई मौका ही नहीं दिया। उन्होंने मुझे देखते ही फौरन तय कर दिया कि मुझे उससे कुछ अधिक उपयोगी काम करना चाहिए, जो मैंने करने का इरादा बनाया था।
‘‘तुरन्त चली जाइये और सामाजिक सुरक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभाल लीजिए।’’
व्लादीमिर इल्यीच बिल्कुल शांत, लगभग प्रसन्नचित्त थे। उन्होंने किसी चीज के बारे में मजाक किया और इसके बाद सीधे कुछ दूसरे लोगों से बातचीत करने लगे।
मुझे याद नहीं कि मैं वहां अकेली क्यों गयी थी, लेकिन मुझे अक्टूबर का वह आर्द्र दिन बहुत अच्छी तरह याद है, जब मैं काजान्स्काया मार्ग में सामाजिक सुरक्षा मंत्रालय के दरवाजे तक गयी थी। एक ऊंचे कद के, श्वेतकेशी दाढ़ी वाले रोबीले चौकीदार ने, जो सुनहरी पट्टियों वाली वर्दी पहने हुए था, दरवाजा खोला और मुझे ऊपर से नीचे तक देखा।
‘‘यहां का संचालक कौन है?’’ मैंने उससे पूछा।
‘‘आवेदनकर्ताओं के लिए मिलने का समय खत्म हो गया है,’’ सुनहरी पट्टियों वाली वर्दी में उस रोबीले चौकीदार ने कहा।
‘‘मैं यहां अनुदान के लिए कोई आवेदन करने नहीं आयी हूं। क्या यहां बड़े बाबुओं में से कोई है?’’
‘‘मैंने आपको सरल शब्दों में बता दिया न कि आवेदनकर्ताओं के लिए मिलने का समय एक से तीन बजे तक है और अब तो चार बज चुके हैं।’’
मैं अपनी बात पर अड़ी रही और वह अपनी बात पर। कोई चारा नहीं था। मिलने का समय समाप्त हो गया था। उसे किसी को अन्दर न आने देने को कहा गया था।
इस निषेध के बावजूद मैंने जीने से चढ़कर ऊपर जाने की कोशिश की, लेकिन वह बूढ़ा चौकीदार मेरे सामने दीवार बनकर खड़ा हो गया और एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने दिया।
इस तरह मुझे खाली हाथ लौटना पड़ा। मुझे एक बैठक में जल्दी पहुंचना था। और उन दिनों बैठकें सबसे महत्वपूर्ण, सबसे बड़ा काम थी। वहां शहरी और गरीबों और सैनिकों के बीच ‘‘हो या न हो’’ का सवाल तय किया जा रहा था, यह तय किया जा रहा था कि क्या सैनिक वर्दियों में मजदूर और किसान सोवियत सत्ता को बनाये रखने में समर्थ होंगे या बुर्जुआ वर्ग हावी हो जायेगा?
अगले दिन तड़के सुबह ही जिस फ्लैट में मैं केरेन्स्की के कारागृह से रिहा होने के बाद रह रही थी, उसके दरवाजे की घंटी बज उठी। घंटी आग्रहपूर्वक बजती रही। मैंने दरवाजा खोला। सामने एक ठेठ किसान खड़ा था : वह भेड़ की खाल का कोट और पेड़ की छाल के जूते पहने हुए था तथा दाढ़ी रखी थी।
‘‘क्या लोगों की कमिसार कोल्लोन्ताई यहीं पर रहती हैं? मुझे उससे मिलना है। मैं उन्हें उनके सबसे बड़े बोल्शेविक लेनिन की एक चिट्ठी देना चाहता हूं।’’
मैंने चिट्ठी पर नजर डाली और पाया कि वह वास्तव में लेनिन के हाथ से लिखी हुई थी।
‘‘उसके घोड़े की कीमत का भुगतान सामाजिक सुरक्षा कोष से कर दीजिए।’’
बूढ़े ने जल्दबाजी न बरतते हुए अपनी पूरी राम–कहानी मुझे सुना दी। जार के समय में फरवरी क्रान्ति के ठीक पहले उसके घोड़े को युद्ध के कामों के लिए जबर्दस्ती ले लिया गया था। उसे अपने घोड़े की ‘‘अच्छी कीमत’’ देने का वादा किया गया था। लेकिन समय बीतता गया और भुगतान का कोई लक्षण ही नहीं दिखायी दे रहा था। तब वह पेत्रोग्राद आया और दो महीने से अस्थायी सरकार की संस्थाओं का चक्कर लगा रहा था। पर फिर भी वही ढाक के तीन पात। उस बूढ़े आदमी को यहां–वहां, इस दफ्तर से उस दफ्तर दौड़ाया गया। और अब उसके पास न कोई धैर्य, न पैसा रह गया था। तभी उसने अचानक सुना कि बोल्शेविकों के रूप में विदित ऐसे लोग भी हैं जो मजदूरों और किसानों को वह सब कुछ लौटा रहे हैं, जिसे जार और जमींदारों ने उनसे जबर्दस्ती ले लिया था, जिसे युद्ध के दौरान लोगों से छीन लिया गया था। इसके लिए बस उसे सबसे बड़े बोल्शेविक लेनिन से एक चिट्ठी की जरूरत है। फिर क्या था, यह बूढ़ा किसान स्मोल्नी में व्लादीमिर इल्यीच के यहां पहुंच गया और उन्हें भोर होने से पहले ही जगा दिया तथा उनसे चिट्ठी लेने में सफल हो गया। और यही तो वह चिट्ठी थी, जो उसने मुझे दिखायी थी, पर देना बिल्कुल नहीं चाहता था।
‘‘पैसा मिल जाने पर ही मैं आपको यह चिट्ठी दूंगा। तब तक मैं इसे अपने पास ही रखूंगा।’’
अब मेरे सामने समस्या थी कि उस किसान और उसके घोड़े के विषय में क्या करूं? मंत्रालय अब भी अस्थायी सरकार के नौकरशाहों के हाथों में था। वह अजीबोगरीब समय था-सत्ता सोवियतों के हाथों में थी, जन–कमिसार परिषद एक बोल्शेविक निकाय थी, लेकिन सरकारी संस्थाएं अस्थायी सरकार की राजनीतिक लाइन पर ऐसे चल रही थीं जैसे कि रेलगाड़ी के डिब्बे पटरी से उतरकर लुढ़क रहे हों।
हम मंत्रालय पर कैसे कब्जा करें? क्या बल–प्रयोग से? तब तो वे भाग जायेंगे और मैं बिना किसी कर्मचारी के रह जाउंगी।
हमने एक और ही निर्णय किया। हमने मैकेनिक इवान येगोरोव की अध्यक्षता में अवर (तकनीकी) कर्मचारियों की ट्रेड यूनियन के प्रतिनिधियों की एक बैठक बुलायी। यह कुछ खास तरह की ट्रेड यूनियन थी। यह मंत्रालय में विशुद्धतया तकनीकी कामों में लगे विभिन्न पेशों के लोगों-संदेशवाहकों, नर्सों, भट्ठी में कोयला झोंकनेवालों, मुनीमों, प्रतिलिपिकों, मैकेनिकों, मुद्रकों, डाक्टरी सहायकों-से गठित हुई थी।
हम लोगों ने इस समस्या पर कामकाजी ढंग से विचार–विमर्श किया; एक परिषद चुनी और अगली सुबह मंत्रालय पर कब्जा करने गये।
हम अन्दर गये। सुनहरी पट्टियों वाले उस चौकीदार ने हमसे कोई सहानुभूति नहीं रखी, न ही वह हमारी बैठक में आया। भला–बुरा कहते हुए उसने हमें अंदर जाने दिया। जब हम जीने से चढ़ने लगे, तो हमने देखा कि बाबुओं, टाइपिस्टों, लेखाकारों और विभागाध्यक्षों की भीड़ नीचे चली आ रही है…वे सिर पर पैर रखकर भाग रहे थे। उन्होंने हमें जरा नजर उठाकर देखा तक नहीं। हम अन्दर आये कि ये कर्मचारी बाहर चले गये। नौकरशाहों की तोड़फोड़ शुरू हो गयी थी। इने–गिने कर्मचारी ही अंदर रह गये थे। उन्होंने कहा कि हम बोल्शेविकों के साथ काम करने के लिए तैयार हैं। हम मंत्रालय के कार्यालयों में घुसे। एक भी आदमी नहीं था। टाइपराइटर बेफिक्री से छोड़ दिये गये थे और चारों ओर कागज बिखरे पड़े थे। बहीखाते गायब कर दिये गये थे। ताले बंद थे और कोई कुंजियां नहीं थीं। न ही तिजोरियों की कुंजियां थीं।
तब वे किसके पास थीं? पैसे के बिना हम कैसे काम कर सकेंगे? सामाजिक सुरक्षा जैसी महत्वपूर्ण संस्था का कार्य स्थगित नहीं किया जा सकता था; इसमें अनाथालय, अशक्त सैनिक, कृत्रिम अंगों की फैक्टरियां, अस्पताल, सैनेटोरियम, कुष्ठ बस्तियां, सुधार–गृह, नारी–संस्थान और नेत्रहीनों के लिए गृह सम्मिलित थे। कार्य का कितना विशाल क्षेत्र था! यहां चारों ओर से मांगें और शिकायतें आती ही रहती हैं…और कुंजियां नदारद हैं! और सबसे आग्रही तो वह लेनिन की चिट्ठी वाला किसान था, जो सुबह होते ही दरवाजे पर पहुंच जाया करता था।
‘‘मेरे घोड़े की कीमत के भुगतान के बारे में क्या हो रहा है? ओह, कितना सुन्दर घोड़ा था वह! यदि वह इतना मजबूत और मेहनती न होता, तो मैं पैसा वसूलने की इतनी बड़ी झंझट न मोल लेता।’’
दो दिन बाद ही तिजोरियों की कुंजियां आ गयीं। सामाजिक सुरक्षा की जन–कमिसारियत द्वारा सामाजिक सुरक्षा कोष से पहला भुगतान उस घोड़े के लिए किया गया जिसे जारशाही सरकार ने एक किसान से जबर्दस्ती और धोखाधड़ी से छीन लिया था और जिसके लिए उस आग्रही किसान को लेनिन की चिट्ठी के अनुसार पूरा–पूरा भुगतान मिला।
बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2004
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