पनामा पेपर्स मामला : पूँजीवादी पतन का एक प्रतिनिधि उदाहरण
मानव
अप्रैल के शुरुआती हफ्ते में ‘पनामा पेपर्स’ के नाम से जारी हुए दस्तावेज़ों ने इस समय पूरी वैश्विक राजनीति में एक तरह का भूकंप सा ला खड़ा किया है । फ़र्ज़ी कंपनियाँ बनाकर पूरे विश्व के धन-कुबेर किस तरीके से अपनी कमाई को टैक्सों से बचाते हैं, यही इज़हार हुआ है पनामा की एक कंपनी ‘मोसाक फोंसेका’ के बारे में हुए खुलासे से। ये खुलासे इतिहास के इस तरह के सबसे बड़े खुलासे बताए जा रहे हैं क्योंकि कुल दस्तावेज़ों की गिनती 1।15 करोड़ से भी ज़्यादा है । इन खुलासों से इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की सड़न नज़र आती है क्योंकि इन खुलासों में कोई एक-आध दर्जन व्यक्तियों मात्र के नाम नहीं है बल्कि पूरे विश्व में फैले इस फ़र्ज़ी कारोबार की कड़ियाँ पूँजीपतियों, राजनेतायों, फ़िल्मी कलाकारों, खिलाड़ियों आदि से जुड़ी हैं ।
इंग्लैण्ड, आइसलैंड, ब्राज़ील, रूस, चीन, भारत, पाकिस्तान, मध्य-पूर्व आदि सभ देशों के धनिकों के नाम इस सूची में दर्ज हैं । अमिताभ बच्चन से ले कर डेविड कैमरून तक, फुटबाल खिलाड़ी लिओनेल मैसी से लेकर अदाकार जैकी चैन, रूसी राष्ट्रपति पुतिन से लेकर चीनी पार्टी के मेंबरों के नाम, सबके सब इन खुलासों के ज़रिए नंगे हुए हैं । इन खुलासों के सामने आने के बाद कई देशों में लोग इन राजनेताओं के खिलाफ सड़कों पर आ गये हैं । आइसलैंड के प्रधानमंत्री सिगमंडर गन्लाउगसन को तो जन-दबाव के चलते अस्तीफा देना पड़ा । इसी तरह इंग्लैण्ड में भी डेविड कैमरून को कटघरे में खड़ा करने के लिए लोगों का दबाव बढ़ता जा रहा है।
चूँकि इस सूची में अमेरिका के किसी भी प्रतिनिधि का नाम नहीं आया और जिस तरह मीडिया रूस और चीन को ख़ास तौर से निशाना बना रहा है, उस से इन खुलासों के पीछे के राजनीतिक हितों के बारे में भी सवाल उठने शुरू हो गये हैं । बहरहाल, हित चाहे जो भी हों, इस सूची ने पूँजीवादी ढाँचे की एक और घिनौनी सच्चाई को व्यापक करने में सहायता की है ।
इस समय पूरे विश्व में 90 से अधिक ऐसे देश हैं जिनके अन्दर विश्व के परजीवी पूँजीपति अपना पैसा निवेश करते हैं और यह खुलासे केवल एक छोटे से देश पनामा के हैं । ऐसे देशों को ‘टैक्स हैवन’ कहा जाता है, मतलब कि इन देशों के अन्दर टैक्स-दरें बेहद कम हैं, इसीलिए विश्व के सब बड़े पूँजीपति, फ़िल्मी हस्तियाँ, खिलाड़ी, तस्कर आदि, अपनी कमाई को इन देशों में गुप्त रूप से जमा करते रहते रहते हैं । इस कारोबार को सुचारू रूप से चलाने के लिए कई फर्जी, कागज़ी कम्पनियाँ बनाई जाती हैं जिनमें यह पैसा ‘निवेश’ होता है । ‘मोसाक फोंसेका’ एक ऐसी ही कंपनी है जिसका काम अन्य कम्पनियों की पैदावार करना है! मतलब, पूँजीपतियों के पैसे को फर्जी कंपनियों के माधियम से ‘निवेश’ करवाने के तरीके ईजाद करना है। इस सारी प्रक्रिया को पूँजीवादी न्याय व्यवस्था बिलकुल जायज मानती है (उदाहरण के लिए, पाकिस्तान के प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ का नाम आने के बाद उसका बचाव करते हुए पाकिस्तान के सूचना मंत्री ने कहा कि, “सब को अधिकार है कि वह अपनी संपत्ति के साथ जो मर्ज़ी करे… यह पाकिस्तानी कानून के अनुसार व अन्तराष्ट्रीय कानून के अनुसार कोई अपराध नहीं है”) । इस मंत्री ने पूँजीवादी व्यवस्था की क्रूर सच्चाई को बड़े सीधे-स्पष्ट तरीके से बयान कर दिया ।
इस पूरे मामले से दो बुनियादी सवाल उभर कर सामने आते हैं । पहला यह कि आर्थिक संकट के इस दौर में विकसित देशों की सरकारें खर्च घटाने की नीतियों को लागू कर रही हैं, स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्चा लगातार कम किया जा रहा है, बच्चों के लिए प्राइमरी स्कूल खोलने से सरकारें इनकार कर रही हैं, पेंशनों पर हमले किये जा रहे हैं, लाइब्रेरियाँ बंद की जा रही हैं और सरकारी इमारतों/संग्रहालयों को भी नीलाम किया जा रहा है, और यह सब पैसे की कमी के बहाने किया जा रहा है । टैक्सों का बोझ आम जनता के ऊपर लादा जा रहा है । वैसे तो पहले ही आमदनी के ऊपर लगने वाले टैक्स से सरकार की आय बहुत कम होती है, ऊपर से यह धनी पूँजीपति इसी टैक्स को बचाने के लिए अपनी पूँजी इन ‘टैक्स हैवन’ में ‘निवेश’ करते हैं । एक तो पहले ही सरकार उनको तमाम तरह की रियायतें देने के लिए आम जनता के टैक्स में से बड़ा हिस्सा खर्च करती है और जब इन सहूलतों का इस्तेमाल करके यह पूँजीपति बड़े मुनाफे कमाते हैं तो उसमें से टैक्स देना भी गवारा नहीं समझते!
‘टैक्स जस्टिस नेटवर्क’ के एक अध्यन के मुताबिक इस समय विश्व-भर की कुल संपति का 8.13% हिस्सा इन टैक्स हैवन्स में लगा हुआ है जो तकरीबन 30 खरब डालर बनता है और इस आँकड़े में भी लगातार इजाफा होता जा रहा है । यदि इस आँकड़े को सन्दर्भों में रखकर देखें तो बेहतर समझ आयेगा –
* यदि पूरे विश्व में से गरीबी को ख़त्म करना हो तो 20 साल तक के लिए सालाना तकरीबन 175 अरब डालर की ज़रूरत पड़ेगी। इस तरह कुल खर्चा (लगभग 3,500 अरब डालर) टैक्स हेवन्स में पड़ी संपति का तकरीबन नौवां हिस्सा ( 1 खरब = 1,000 अरब) ही बनता है ।
* यदि विश्व में से भुखमरी को ख़त्म करना है तो हर साल तकरीबन 30 अरब डालर की ज़रूरत है, मतलब इन हेवन्स में लगी रकम का 1,000 वां हिस्सा ।
* विश्व की 40% आबादी के पास पीने वाले साफ़ पानी की भी सुविधा नहीं है । विश्व के सभी लोगों को साफ़ पानी मुहैया करवाने का खर्चा 10 अरब डालर सालाना है, मतलब टैक्स हैवन्स में लगी रकम का 3,000वां हिस्सा ।
लेकिन ये सभी सिर्फ आँकड़े हैं जिनके साकार होने की गुंजाइश इस पूँजीवादी ढाँचे के भीतर नहीं है क्योंकि स्वास्थ्य सुविधाओं को मुनाफे पर बेचकर, लोगों को बीमार रखकर ही तो यह मुनाफे पर टिका प्रबंध चल रहा है । इस लिए शासक वर्ग खुद कभी यह सारे खर्चे करेगा, इसकी कोई संभावना नहीं क्योंकि ऐसा होने से पूरे पूँजीवादी ढाँचे की बुनियाद हिल जायेगी ।
दूसरा सवाल जो इस पूरे मामले में से उभरा है वह है इस समस्या के समाधान का । कई लोगों का मानना है कि अमीरों के ऊपर टैक्स दरों को बढ़ाकर और सख्ती के साथ वसूलने का नियम बनाकर इस समस्या को सुलझाया जा सकता है । लेकिन आज के वैश्वीकरण के इस संकटग्रस्त दौर के अन्दर ऐसी कल्पना करना भी बेकार है। अमली तौर पर ऐसी किसी योजना की अव्यवाहिरिकता हमारे सामने फ्रांस की मिसाल के रूप में मौजूद है । फ़्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलान्दे ने 2012 के अपने चुनाव प्रचार के दौरान यह वायदा किया था कि वह चुने जाने पर उन पूँजीपतियों के ऊपर 75% टैक्स लागू करवायेगा जिनकी आमदनी 10 लाख यूरो सालाना से अधिक है । पूँजीपतियों की ओर से यह कहकर दबाव बनाया गया कि ऐसा होने की सूरत में वह फ्रांस में अपने व्यापार को बंद करके अपनी पूँजी दूसरे देशों में ले जायेंगे । इस दबाव के चलते पहले तो ओलान्दे इस दर को 50% पर ले आया और अंतत: इस पूरी योजना को ही ठन्डे बसते में डाल दिया ।
इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि अमीरों के ऊपर अधिक टैक्सों की माँग नहीं उठायी जानी चाहिए । ऐसी माँग बिलकुल उठानी चाहिए लेकिन साथ ही साथ पूँजीवादी ढाँचे के भीतर इसकी सीमा को भी समझना चाहिए । इसी तरीके से ही यह ढाँचा लोगों के बीच से अपनी सार्थकता खो देगा । चूँकि मौजूदा समय में बड़े स्तर पर कोई सच्ची क्रन्तिकारी पार्टी मौजूद नहीं है जो इस मुद्दे की अगवाई कर सके, इसीलिए इन खुलासों के बाद कुछ ख़ास नहीं बदलेगा। जिनके नाम इस सूची में आये हैं, उनमें से एक-दो को छोड़कर (और शायद वह भी नहीं!) किसी का बाल भी बाँका ना होगा और टैक्स से बचने का यह कारोबार पहले की तरह चलता रहेगा, ना केवल पनामा में ही बल्कि सभी जगहों पर । लेकिन इतना तय है कि आज के समय में यह पूँजीवादी ढाँचा जितना संकटग्रस्त है, यह लगातार ऐसे मौके देता जा रहा है जिनका इस्तेमाल इस को इसके अंजाम तक पहुँचाने के लिए किया जा सकता है । आज ज़रूरत है ऐसी क्रान्तिकारी ताकतों की जो ऐसे मौकों को समय रहते सँभाल सकें और लोगों के बीच इस गले-सड़े ढाँचे को और नंगा कर सकें ।
मज़दूर बिगुल, मई 2016
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