हर पाँच में चार लोग अपराध साबित हुए बिना ही भारतीय जेलों के नर्क के क़ैदी हैं
इनमें 90 प्रतिशत लोग ग़रीब और वंचित समुदायों से हैं
अमेन्द्र कुमार
आम तौर पर जेल और क़ैदी का नाम सुनते ही दिमाग़ में क्रूर खूँखार क़िस्म के व्यक्तियों की तस्वीर उभरती है। लेकिन बिना अपराध के जेलों में बन्द ग़रीब मज़दूर लोग हमारी नज़रों से ग़ायब हो जाते हैं। पूँजीवादी संस्कृति और पूँजीवादी मीडिया के चेतनाहरण अभियान के तहत चलाये जा रहे दुष्प्रचार के प्रभाव में ऐसा होना कोई आश्चर्य नहीं है। लेकिन ठीक उपरोक्त कारणों से, इस सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण साफ स्पष्ट रखने के लिए, जेलों में बन्द लोगों के आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि की, इससे भी महत्वपूर्ण उनकी वर्गीय स्थिति की और साथ में सम्पूर्ण व्यवस्था व उसके संविधान, क़ानून और न्याय व्यवस्था के वर्गीय चरित्र और व्यवहार की जाँच-पड़ताल करना ज़रूरी हो जाता है।
ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क नामक संस्था के मुताबिक भारत की जेलों में बन्द 80 प्रतिशत लोग बिना मुक़दमे का निर्णय हुए ही जेल-जीवन और उसकी प्रताड़नाओं को भोगने के लिए अभिशप्त हैं, इन्हें विचाराधीन क़ैदी कहा जाता है। यानी हर पाँच में चार लोग बिना अपराध साबित हुए ही जेलों में बन्द है। ये अपने घर-परिवार से दूर तन्हाई, अपमान, शारीरिक-मानसिक अत्याचार, बीमारी के बीच आशा और निराशा में गोते लगा रहे हैं। विचाराधीन क़ैदियों की संख्या मात्र कुछ सौ या कुछ हज़ार नहीं बल्कि लाखों में है। संसद में एक सवाल के जवाब में केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू द्वारा दिये गये सरकारी आँकड़े के मुताबिक साल 2012 के अन्त तक भारत विचाराधीन क़ैदियों यानी मुक़दमे के दौरान जेलों में बन्द क़ैदियों की संख्या 2,54,852 (दो लाख चौवन हजार आठ सौ सत्तावन) है। इनमें से 2028 विचाराधीन क़ैदी पाँच साल से ज़्यादा समय से जेल-जीवन की यातनाएँ भोग रहे हैं और कुल विचाराधीन क़ैदियों में से कितने 5-10 साल से और कितने 10-15 साल से जेलों में बन्द हैं इस सवाल का जवाब देना भी मंत्री महोदय ने उचित नहीं समझा।
अंग्रेजी दैनिक अखबार ‘द हिन्दू’ के अनुसार कुल दो लाख अस्सी हजार विचाराधीन क़ैदियों में तीन हज़ार से ऊपर पाँच साल से अधिक समय से जेलों में हैं।
इण्टरनेशनल सेण्टर फॉर प्रिज़न स्टडीज़, राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के हवाले से लिखता है कि भारत में कुल क़ैदियों की संख्या 4,11,992 (चार लाख ग्यारह हजार नौ सौ बानवे) है। इनमें से 67.6 फीसद विचाराधीन क़ैदी है। कुल क़ैदियों में महिलाएँ 4.4 फीसद है। प्रति एक लाख आबादी में 33 फीसद लोग जेल में बन्द है। कुल 4,11,992 (चार लाख ग्यारह हजार नौ सौ बानबे) के क़ैदियों के सापेक्ष जेलों की कुल धारण क्षमता 3,47,859 (तीन लाख सैंतालिस हजार आठ सौ उनसठ है)। यानी जितनी जगह में 100 क़ैदियों को होना चाहिए उतनी जगह में 118 क़ैदी ठूँसे गये हैं। यह बात ध्यान में रखने का है कि 100 क़ैदियों की जगह में 118 क़ैदियों का होना एक औसत आँकड़ा है। जबकि व्यवहार में आम तौर पर वीआईपी और दबंग क़ैदियों को अतिरिक्त जगह और सुविधाएँ दी जाती हैं, यहाँ तक कि वीआईपी और दबंग क़ैदी जेलों में दरबार तक जमाते हैं। ऐसे में आम क़ैदियों के लिए वास्तव में कितनी जगह बचती है यह आसानी से समझा जा सकता है।
यदि सरकारी आँकड़ों पर ही गौर किया जाये तो विचाराधीन क़ैदियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। भारतीय विधि आयोग की (78वें) रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल 1977 में कुल क़ैदियों की संख्या 1,84,169 थी जिसमें से 1,01,083 यानी 55 फीसद विचाराधीन क़ैदी थे। जबकि टाइम्स आफ इण्डिया के अनुसार वर्तमान में 75 फीसद क़ैदी विचाराधीन है।
भारतीय जेलों में बन्द कुल क़ैदियों और उनमें से विचाराधीन क़ैदियों के जातिगत सामाजिक और धार्मिक पृष्ठभूमि को देखें तो दलित, आदिवासी और मुस्लिम क़ैदियों का अनुपात कुल जनसंख्या में उनके अनुपात से कहीं ज़्यादा है।
प्रिज़न इण्डिया स्टैटिस्क के अनुसार 2013 के हवाले से कान्टर विमू डाट आर्ग पर उपलब्ध जानकारी से पता चलता है कि कुल जनसंख्या में हिन्दुओं का अनुपात 80 फीसद है जबकि जेलों में बन्द कुल अनुपात सज़ायाफ्ता हिन्दू क़ैदियों का अनुपात 72 फीसद और विचाराधीन हिन्दू क़ैदियों का अनुपात 69 फीसद है। मुस्लिमों का कुल जनसंख्या में अनुपात 14 फीसद है जबकि कुल सज़ायाफ्ता क़ैदियों में उनका अनुपात 17.1 फीसद तथा विचाराधीन क़ैदियों में 21 फीसद है। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए दलितों की कुल जनसंख्या के अनुपात 16.2 फीसद है। जबकि सजायाफ्ता क़ैदियों में 22.5 फीसद व विचाराधीन क़ैदियों में 21.3 फीसद उनका अनुपात है। यही हाल आदिवासियों का भी है। जिनका जनसंख्या में कुल अनुपात 8.6 फीसद है और सजायाफ्ता क़ैदियों में 11.7 फीसद व विचाराधीन क़ैदियों में उनका अनुपात 11.3 फीसद है।
सवाल उठता है कि दलितों, आदिवासियों और मुस्लिमों के जेलों में अधिक अनुपात में होने के तथ्य को किस रूप में देखा जाये? क्या वे सब स्वभाव से ही अधिक अपराधी है? या उन्हें मात्र जातिगत, सामाजिक एवं धार्मिक पहचान के आधार पर ही जानबूझकर निशाना बनाया जाता है? या इस रूप में देखा जाये कि इन तीनों समुदायों के लोगों का बहुसंख्यक भाग ग़रीब और मज़दूर है। ग़रीब-मज़दूर होने के कारण यह आबादी हर जगह बैठे खेतों-खलिहानों, खदानों, कारखानों सहित अन्य कार्य स्थलों पर शोषित वर्ग के रूप में तथा उपरोक्त स्थलों के मालिक पूँजीपति वर्ग शोषक के रूप में आमने-सामने हैं। पूँजीपति वर्ग चाहे जिस समुदाय का हो वह मुनाफ़े के रूप में गरीबों का आर्थिक शोषण करता है। यह आर्थिक शोषण संविधान और क़ानून से मान्यता प्राप्त तथा संस्थागत है। अर्थात संक्षेप में क़ानून के दायरे में है। अधिक मुनाफ़े के रूप में आर्थिक शोषण को अधिकतम करने के लिए पूँजीपति मज़दूरों के खिलाफ ग़ैर क़ानूनी तरीक़े भी अपनाता है। सामन्ती पूर्वाग्रहों और मूल्यों-मान्यताओं के अवशेष आदि औज़ारों का इस्तेमाल कर ग़ैर-आर्थिक उत्पीड़न भी करता है। इन सब कारणों से ग़रीब मज़दूर वर्ग और पूँजीपति वर्ग शहर और गाँव हर जगह टकराव की स्थिति में होते हैं। परिणामस्वरूप ये शोषित समुदाय के लोग ही अधिक संख्या में अभियुक्त और अपराधी ठहराये जाते हैं।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2015
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