2010 : घपलों-घोटालों का घटाटोप
भारतीय पूँजीवादी जनतन्त्र का भ्रष्ट-पतित-गन्दा-नंगा चेहरा
नेता, अफसर, जज, मीडियाकर्मी – लूटपाट, कमीशनख़ोरी में कोई पीछे नहीं
सम्पादक
2010 के पूरे वर्ष में कश्मीर में युवा, बच्चे और स्त्रियाँ तक सड़कों पर सेना के विरुध्द मोर्चा लेते रहे। महँगाई ने नये कीर्तिमान स्थापित किये। उबरने की लाख कोशिशों के बावजूद वैश्विक मन्दी से त्रस्त साम्राज्यवादी देश भारत की प्राकृतिक सम्पदा और श्रम सम्पदा को और अधिक निचोड़ने के मकसद से पूँजी लगाने और माल बेचने के लिए सौदेबाज़ी और होड़ करते रहे। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा लाव-लश्कर सहित आये और भारत को ”उभर चुकी ताकत” बता गये। फ्रांसीसी राष्ट्रपति सरकोज़ी आये और छह ऐसे नये प्रकार के नाभिकीय रिएक्टर बेचने का सौदा कर गये जो अभी कहीं इस्तेमाल ही नहीं हुए हैं। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने यूरोप की यात्रा की। यूरोपीय संघ के साथ व्यापार समझौते किये और जर्मन चांसलर से वार्ता की। भारतीय बाज़ार विदेशी लूट के लिए और अधिक मुक्त हो गया और साम्राज्यवादी लुटेरों की होड़ का लाभ उठाकर लूट में अपना हिस्सा बढ़ाने के लिए देशी लुटेरों ने भी हर सम्भव कोशिश की।
लेकिन सबसे अधिक जो चीज़ें चर्चा में रहीं और अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनीं, वे थीं – घपले-घोटाले और भ्रष्टाचार के नये-नये कीर्तिमान। रोज़-रोज़ हड्डियाँ गलाकर भी अपनी बुनियादी ज़रूरतें न पूरी कर पाने वाली आम मेहनतकश आबादी को घोटालों के रहस्योद्धाटनों से ज्यादा आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि इस व्यवस्था से उसे वास्तव में कोई उम्मीद नहीं है और इसे किसी सुधार के ज़रिये आदर्श बना देने को लेकर भी वह बहुत आशावादी नहीं है। अपने अनुभव से आम मेहनतकश जानते हैं कि पूँजीवाद यदि भ्रष्टाचार-मुक्त भी हो तो मज़दूरों को शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिल सकती। घपलों-घोटालों की सुर्ख़ियों पर सबसे अधिक चर्चा वह पढ़ा-लिखा, खाता-पीता मध्यवर्ग करता है, जो मीडिया के प्रचार से सम्मोहन की हद तक प्रभावित होकर सोचता है कि उदारीकरण की प्रगति से भारत बहुत तेज़ी से महाशक्ति बनता जा रहा है और यदि भ्रष्टाचार और काला धन समाप्त हो जाये तो देश की ख़ुशहाली सुनिश्चित है। मज़े की बात यह है कि मध्यवर्ग के यही लोग ख़ुद यदि भ्रष्टाचार का कोई अवसर मिले तो उसे कतई नहीं छोड़ेंगे, पर उनकी चाहत होती है कि नेता, मन्त्री, अफसर आदि भ्रष्टाचार न करें। मध्यवर्गीय अभिजन समाज भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद चाहता है। मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न से या श्रम-कानूनों के लागू नहीं होने से उसे ज्यादा मतलब नहीं होता। महँगाई और बेरोज़गारी की मार मध्यवर्ग के निचले हिस्सों का जब-जब जीना दूभर करते लगती है, तभी उन लोगों (यानी मध्यवर्ग के निचले हिस्से) का पूँजीवाद से मोहभंग शुरू होता है।
बाबा रामदेव जैसे लोग और ‘नॉक आउट’ जैसी फिल्में जब विदेशों में जमा काला धन वापस लाने और राजनीति को भ्रष्टाचार-मुक्त करने की बात करती हैं तो खाते-पीते सफेदपोशों को ऐसी लोकलुभावन बातें बहुत अपील करती हैं। लेकिन,जैसा कि आगे हम तफसील से चर्चा करेंगे, इससे अधिक भ्रामक कोई और बात हो ही नहीं सकती। पूँजीवाद भ्रष्टाचार-मुक्त हो ही नहीं सकता। प्रश्न भ्रष्टाचार से मुक्ति का नहीं, बल्कि उत्पादन और राज-समाज के पूँजीवादी तौर-तरीकों और ढाँचे से मुक्ति का है। भ्रष्टाचार रोग नहीं, बल्कि अन्दर से इस व्यवस्था को एकसाथ जर्जर और नग्न-निरंकुश जनद्रोही बना रहे रोग का एक लक्षण है। यह अन्दर तक व्याप्त सड़ान्ध को दर्शाता है। जिस व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग के सेवक (नेताशाही-नौकरशाही) अपनी बेशुमार सुख-सुविधाओं विलासिताओं और वैध कमाई के अतिरिक्त इतनी अधिक अवैध कमाई कर रहे हैं,उसमें पूँजीपति वर्ग मेहनतकशों को किस कदर निचोड़ रहा होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
ख़ुशहाल मध्यवर्ग की दृष्टि : ‘भ्रष्टाचार कम हो, देश की तरक्की हो, शोषण-उत्पीड़न की कोई बात नहीं’
कभी बोफोर्स घोटाला, कभी चारा घोटाला, कभी पनडुब्बी घोटाला, कभी हवाला तो कभी शेयर-घोटाला – घपले-घोटाले पहले भी अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनते रहे हैं, लेकिन 2010 में, एक वर्ष के भीतर जितने घोटालों का घटाटोप रहा, उतना शायद ही पहले कभी हुआ हो।
कॉमनवेल्थ गेम्स उदारीकरण के दौर के भारत का चेहरा चमकाने और विदेशी पूँजी को लुभाने की एक कोशिश थी, पर अधूरी तैयारियों से भद्द पिटने के कारण जब जाँच शुरू हुई तो घोटालों और कमीशनख़ोरी की परत-दर-परत उघड़ने का सिलसिला शुरू हो गया जो अबतक जारी है। लगभग 1 लाख करोड़ रुपये तैयारियों पर ख़र्च हुए थे, जिसमें से कम से कम40 प्रतिशत भ्रष्टाचार और कमीशनख़ोरी में खप गया था। भारतीय शासक वर्ग और उसके दूरद्रष्टा राजनीतिक प्रतिनिधि राष्ट्रमण्डल खेलों से सम्भावना-सम्पन्न भारतीय बाज़ार के छवि-निर्माण का वह काम करना चाहते थे जो बीजिंग ओलम्पिक से चीन के शासक वर्ग और विश्वकप फुटबॉल के आयोजन से दक्षिण अफ्रीका के शासक वर्ग ने किया था। ऐसा नहीं हो सका। कमीशनख़ोरी और भ्रष्टाचार तय सीमा से बाहर चला गया और अनियन्त्रित हो गया। यह व्यवस्था की मशीनरी की अन्दरूनी मजबूरी थी। और तब चीज़ों को काबू में करने के लिए कुछ कदम उठाये ही जाने थे। खुले बाज़ार की संस्कृति से चुँधियाया जो भारतीय खाया-पीया-अघाया मध्यवर्ग है, वह ”राष्ट्रीय गौरव स्थापित करने वाले महापर्व” के फ्लॉप शो साबित होने से ज्यादा दुखी था, और इसलिए भ्रष्टाचारियों को भला-बुरा कह रहा था। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं था कि जिस देश में हर रोज़ 40 करोड़ से अधिक लोग भूखे पेट सोते हैं, जहाँ 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, जहाँ शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है, जहाँ की 77 फीसदी आबादी 20 रुपये रोज़ से भी कम पर गुज़ारा करती है, वहाँ राष्ट्रमण्डल खेलों के नाम पर एक लाख करोड़ रुपये ख़र्च करना एक अमानवीय, बेशर्म हरकत से कम कुछ भी नहीं है। जनता से उगाहे गये करों से दस दिनों के खेलों की तैयारी और दिल्ली की रौनक पर एक लाख-करोड़ ख़र्च करने वाली सरकार के बजट में कुपोषण समाप्त करने के लिए देश स्तर पर चलाई जा रही समेकित बाल विकास योजना पर ख़र्च के लिए मात्र आठ हज़ार सात सौ करोड़ रुपये ही हैं। नये-नये, भव्य शॉपिंग मॉलों-मल्टीप्लेक्सों-नयी-नयी कारों-मेट्रो और नित नयी उपभोक्ता वस्तुओं के अवतरण से पुलकित-चकित मध्यवर्गीय उपभोक्ता समुदाय को इस बात से कुछ भी लेना-देना नहीं है कि खेलों की तैयारियों में लगी एजेंसियों ने सभी श्रम कानूनों को ताक पर रखकर मज़दूरों से काम कराया। खेलों के कार्यस्थलों पर आपराधिक लापरवाहियों के कारण 65 श्रमिकों की मौत हो गयी, जिनकी न्यायिक जाँच से दिल्ली सरकार ने इनकार कर दिया। यही नहीं, खेलों की तैयारियों के दौरान हुई मज़दूरों की मौत के बारे में पी.यू.डी.आर. के सूचना माँगने पर दिल्ली सरकार का सीधा जवाब था कि उसके पास ऐसी कोई सूचना नहीं है। राजधानी में केन्द्रित ”राष्ट्रीय” मीडिया ने सच्चाई के इस पहलू की एकदम अनदेखी की। वह ”राष्ट्रीय गौरव” के भूलुण्ठन पर मध्यवर्गीय चीख़-पुकार का भोंपू बना रहा, लेकिन यह तथ्य कहीं कोने-अन्तरे में दबकर रह गया कि अतिथि ”महामहिमों” के सामने दिल्ली की भव्य तस्वीर प्रस्तुत करने के लिए कम से कम ढाई लाख ग़रीब लोगों को सरकार ने शहर-बदर कर दिया था। यह तथ्य भी ख़ुशहाल मध्यवर्ग के लिए कोई महत्त्व नहीं रखता कि खेलों की तैयारी में लगी सरकार ने कुल 40 हज़ार झुग्गी-झोपड़ियों को तोड़कर दो लाख से अधिक लोगों को बेघर कर दिया। दिल्ली की कुल आबादी इस समय 1 करोड़ 30 लाख है। 30 वर्षों तक श्रीलंका में चले गृहयुध्द में कुल 2 करोड़ आबादी में से तीन लाख लोगों का आन्तरिक विस्थापन हुआ था। इस तरह कहा जा सकता है कि कॉमनवेल्थ गोम्स का आयोजन राजधानी के ग़रीबों के विरुध्द सरकार द्वारा छेड़े गये गृहयुध्द जैसा ही था। अभिजन समाज को इस ”गृहयुध्द” की बर्बरता की चिन्ता नहीं थी। उसका रोना यह था कि भ्रष्टाचार की अति ने ”राष्ट्रीय गौरव” की चमक फीकी कर दी। अभिजन समाज भ्रष्टाचार-मुक्त या नियन्त्रित भ्रष्टाचार वाले पूँजीवादी विकास की रौनक का अभिलाषी है,पूँजीवादी अन्याय-उत्पीड़न से उसे कोई शिकायत नहीं। या तो वह इसे उचित ठहराता है, या इसकी अनदेखी करता है या फिर यह कहता है कि ‘इसका और कोई विकल्प सम्भव नहीं।’
कॉरपोरेट युध्द और व्यवस्था के गहराते संकट से घोटालों के भण्डाफोड़ का रिश्ता
2010 का अन्त हो रहा है 2-जी स्पेक्ट्रम के घोटाले के शोर-शराबे से। टेलीकॉम सेक्टर में कार्यरत कुछ कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुँचाने के लिए तरह-तरह से पक्षपात किया गया और उन्हें ‘दोहरी तकनोलॉजी’ लाइसेंस और स्पेक्ट्रम बेहद सस्ती दरों पर अलॉट कर दिये गये। सी.ए.जी. रिपोर्ट के अनुसार, इससे सरकार को कुल 1 लाख 76 हज़ार करोड़ रुपये की चपत लगी।
इस बात पर कोई मूर्ख ही यकीन करेगा कि इस सारे घोटाले को सिर्फ इस्तीफा दे चुके संचार मन्त्री ए. राजा, चन्द नौकरशाहों और कम्पनी दलालों (जिन्हें ‘कॉरपोरेट लॉबिइस्ट’ कहा जाता है) ने मिलकर अंजाम दिया है। ‘कॉरपोरेट लॉबिइस्ट’ नीरा राडिया और रतन टाटा की बातचीत के टेप लीक होने के बाद रहस्य-रोमांच कथा की तरह घोटाले की परतें खुलती जा रही हैं। कई पूर्व और वर्तमान नौकरशाह कठघरे में हैं। न्यायपालिका भी अछूती नहीं बची है। चेन्नई हाई कोर्ट के न्यायाधीश रघुपति के इस बयान का सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश बालकृष्णन ने खण्डन किया कि ए. राजा ने जज रघुपति पर किसी मामले में दबाव डाला था और इसकी जानकारी बालकृष्णन को पत्र द्वारा दे दी गयी थी। अब चेन्नई हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश गोखले ने रघुपति के वक्तव्य को सही बताते हुए बालकृष्णन के खण्डन का खण्डन कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने 2001 से टेलीकॉम क्षेत्र में लाइसेंस आवण्टन की जाँच की बात की है। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि टेलीकॉम सेक्टर को निजी कम्पनियों के लिए 1994 में खोले जाने के बाद पहला घोटाला 1995 में कांग्रेसी संचार मन्त्री सुखराम के कार्यकाल के दौरान हुआ था जो 85,000 करोड़ रुपये का था। दूसरे और तीसरे घोटाले राजग गठबन्धन सरकार के दौरान 1999 और 2001 में हुए थे।
नीरा राडिया-रतन टाटा टेप लीक होने के बाद टाटा ने इसे निजता के अधिकार का उल्लंघन बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाख़िल की। मीडिया के एक बड़े हिस्से ने सुर में सुर मिलाया और मनमोहन सिंह ने भी कहा कि टेप लीक नहीं होने चाहिए थे। लेकिन सवाल यह है कि जिस बातचीत में एक पूँजीपति और एक कम्पनी दलाल मन्त्री को प्रभावित करने, पत्रकारों का इस्तेमाल करने और कॉरपोरेट-प्रतिस्पर्धा के बारे में खिचड़ी पका रहे थे, उसे निजी बातचीत कैसे कहा जा सकता है? पर बुनियादी सवालों का दायरा इससे भी कहीं अधिक व्यापक है।
टाटा की याचिका के बाद यू.पी.ए. के घटक दलों की एक बैठक में शरद पवार ने चेतावनी दी कि सरकार यदि बिना”विशेष कारण” के कॉरपोरेट समूहों को निशाना बनायेगी और उनके ख़िलाफ जाँच एजेंसियों का इस्तेमाल करेगी तो सरकार की स्थिरता ख़तरे में पड़ सकती है। प्रकारान्तर से शरद पवार पूँजीवादी जनवाद की इस सच्चाई को स्वीकार कर रहे हैं कि कॉरपोरेट समूहों को नाराज़ करके कोई सरकार स्थिर नहीं रह सकती।
सच्चाई यह है कि हर पूँजीवादी सरकार पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती है। जबतक पूँजीपतियों के बीच व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा सामान्य रूप में चलती रहती है और आम हितों के मसलों पर उनकी सहमति का पहलू प्रधान रहता है, तबतक सरकार सहजता से चलती रहती है, मनमुआफिक नीतियाँ बनती रहती हैं और नेताशाही-नौकरशाही का ”नियन्त्रित भ्रष्टाचार”मुद्दा बनकर उछलता नहीं है। लेकिन पूँजीपति घरानों के बीच टकराव जब उग्र हो जाता है, तब नौकरशाही-नेताशाही-मीडिया मठाधीशों आदि को ख़रीदने-पटाने का खेल भी घनघोर हो जाता है तथा नेता-अफसर-पत्रकार भी इसका भरपूर लाभ उठाने लगते हैं। ऐसे ही समय में कम्पनियों की आपसी तकरार के कारण घोटालों के भाण्डे फूटने लगते हैं, गुप्त वार्ताओं के टेप बाहर आने लगते हैं, बुर्जुआ मीडिया का एक हिस्सा दूसरे हिस्से की कलई खोलते हुए पूरे मीडिया तन्त्र को ही नंगा करने लगता है, जाँच एजेंसियाँ सक्रिय हो जाती हैं, कभी-कभी चपेट में आकर न्यायपालिका भी अपनी कथित निष्पक्षता की साख खोने लगती है, संसद ठप्प हो जाती है और सरकार का काम करना मुश्किल हो जाता है। यह ऐसा ही समय है जब पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के कारण उसके अन्दरूनी अन्तरविरोध उग्र हो उठे हैं और पूँजीवादी जनवाद की वर्गीय अन्तर्वस्तु उजागर होने लगी है। घुटे-घुटाये बुर्जुआ रानीतिज्ञ शरद पवार को वे दिन याद होंगे जब दो बड़े कॉरपोरेट समूहों के बीच छिड़े युध्द में फँसकर राजीव गाँधी की सरकार पंगु हो गयी थी। और यह तो उन्हें पता होगा ही कि हथियार बेचने वाले राष्ट्रपारीय निगमों के बीच की लड़ाई भी बोफोर्स घोटाले और पनडुब्बी घोटाले के उजागर होने का एक कारण थी। कॉरपोरेट-युध्द में शरद पवार स्वयं कुछ कम्पनियों से निकटता के लिए जाने जाते हैं। लवासा बसाने वाली कम्पनी के साथ वे खुलकर खड़े हैं। हाल ही में कुछ रीयल इस्टेट कम्पनियों को बैंकों और वित्तीय संस्थाओं द्वारा अनुचित तरीके से दिये गये कर्जों की जाँच और कार्रवाई से भी वे ख़ासे ख़फा हैं।
हर पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार समूचे पूँजीपति वर्ग की ‘मैनेजिंग कमेटी’ तो होती ही है, अलग-अलग राजनेताओं और नौकरशाहों को अपनी हितपूर्ति के लिए पटाने का काम अलग-अलग पूँजीपति घराने भी ख़ूब करते हैं। यह प्रक्रिया खुली बाज़ार-अर्थव्यवस्था में और अधिक तेज़ हो गयी है। नियम कानून की परवाह किये बिना चुनिन्दा कम्पनियाँ नेताओं-नौकरशाहों को पटाकर सार्वजनिक और राष्ट्रीय संसाधनों को लूट रही हैं, परियोजनाओं और खनन के लिए ज़मीनों के पट्टे और लाइसेंस देते समय नियमों-कानूनों को ताक पर धर दिया जा रहा है और राजकीय आतंकवाद जनता को बलपूर्वक उसकी जगह-ज़मीन से उजाड़ दे रहा है। पूँजीवादी जनवादी गणराज्य नंगा होकर ‘बनाना रिपब्लिक’ जैसा बनता जा रहा है और पूँजीवादी ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ (चहेतों का पूँजीवाद) बनता जा रहा है। इस होड़ में जो पीछे छूट रहा है, वह सरेराह घपलों-घोटालों का भाण्डा फोड़कर पूरी व्यवस्था को ही नंगा करने का काम कर रहा है।
दो-तीन दशक पहले, मध्यवर्गीय बुध्दिजीवी ‘पब्लिक सेक्टर’ में नेताशाही-नौकरशाही के निर्द्वन्द्व-निरंकुश ताकत की निन्दा करते हुए ‘प्राइवेटाइज़ेशन’ की ज़रूरत पर बल देते थे। पर निजीकरण-उदारीकरण के दो दशकों के दौरान कॉरपोरेट घरानों ने राष्ट्रीय संसाधनों की लूट और कानूनों को ताक पर रखकर श्रम सम्पदा के दोहन के लिए नेताओं-अफसरों को और अधिक ख़रीदने का काम किया है तथा बिचौलियों-ठेकेदारों-माफियाओं के गिरोह और व्यापक पैमाने पर, और अधिक ताकतवर होकर उभरे हैं। ‘ग्लोबल फाइनेंशियल इण्टीग्रिटी रिपोर्ट’ के मुताबिक सिर्फ 2000-2008 के बीच 125 अरब डॉलर की रकम काले धन के रूप में देश से बाहर चली गयी। स्विस बैंकिंग एसोसिएशन की 2006 की रपट के अनुसार स्विस बैंकों में भारतीयों का जमा काला धन 1,456 अरब डॉलर है। ज्ञातव्य है कि स्विट्ज़रलैण्ड के अतिरिक्त पूरी दुनिया में कम से कम40 और ऐसे सुरक्षित ठिकाने हैं जहाँ भारतीय धनिकों ने काला धन छिपा रखा है। देश के भीतर जो काला धन और’अनएकाउण्टेड मनी’ मौजूद है, वह बाहर गयी धनराशि से कम नहीं है। नेताओं-अफसरों की खरबों की काली कमाई का सालाना निवेश ज़मीन-जायदाद, खनन के पट्टों, शेयर बाज़ार, मीडिया और मनोरंजन जगत, अपंजीकृत और अवैध उद्योगों-व्यापारों, भवन निर्माण, ग़ैरकानूनी साहूकारी, स्कूलों-कॉलेजों के धन्धे और सोने-जवाहरात की ख़रीद में होता है। देश की सारी चमक-दमक और बाज़ारों की सारी रौनक ख़ुशहाल मध्यवर्ग की जिस 20 करोड़ आबादी के लिए है, उसकी ऊपरी परत में डॉक्टरों-इंजीनियरों-वरिष्ठ मीडियाकर्मियों के अतिरक्त सबसे बड़ी तादाद में नेता और अफसर शामिल हैं। आश्चर्य नहीं कि जिस देश की 77 प्रतिशत आबादी 20 रुपये रोज़ से कम पर गुज़ारा करती हो वहाँ के 60 फीसदी संसद सदस्य करोड़पति हैं। इसी हिसाब से पूँजीवादी संसदीय जनवाद का खेल भी महँगा हुआ है। एक अनुमान के अनुसार, चुनाव में भागीदारी का प्रति उम्मीदवार औसत ख़र्च आठ करोड़ रुपये बैठता है। बड़ी पार्टियों के सन्दर्भ में प्रति उम्मीदवार यह औसत ख़र्च 30करोड़ रुपये होता है (अमित भादुड़ी का लेख, ईपीडब्ल्यू, 20-26 नवम्बर, 2010, पृष्ठ 10-14)।
जनतन्त्र का यह भद्दा-नंगा ड्रामा तब वीभत्सता की हदों को पार कर जाता है, जब नवउदारवाद के पैरोकार अकादमिक जगत के लोग और ”जनमत-निर्माता” अख़बारी कलम-घसीट और टीवी चैनलों के बकबकिये 10 या 20 वर्षों में भारत के’ग्लोबल पॉवर’ बन जाने की घोषणा करते हैं, विश्वस्तरीय सुविधाओं वाले पाँच सितारा अस्पतालों-स्कूलों-होटलों और महँगी गाड़ियों-ए.सी.-फ्रिज-टीवी-कम्प्यूटर-इण्टरनेट-मोबाइल आदि के तेज़ी से बढ़ते बाज़ार के हवाले देते हैं और इस महागाथा के हाशिये पर भी यह चर्चा नहीं होती कि इस उभरती वैश्विक ताकत के पास इस सदी के मध्य तक कुपोषित, विकलांग और अशिक्षित बच्चों की सबसे बड़ी संख्या होगी। हमारे देश का मध्यवर्गीय अभिजन समाज इसी नये मीडिया की ख़ुराक पर पलने वाला जीव है और मीडिया से परावर्तित हो रही अपनी ही ग्लैमरस छवि से चुँधियाया हुआ है। आसपास के ऍंधेरे के पर्दे में छुपी सच्चाई उसे नज़र नहीं आती और देश की तरक्की क़े नाम पर कश्मीर और मणिपुर की जनता के बर्बर सैनिक दमन से लेकर माओवाद से निपटने के नाम पर अपनी ही जनता के विरुध्द राज्यसत्त द्वारा छेड़े गये युध्द तक – शासक वर्ग के हर ”राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट” को समर्थन देने के लिए वह तत्पर खड़ा रहता है।
मीडिया, न्यायपालिका और सेना : शुचिता का मिथक धवस्त और हम्माम में सभी नंगे
वर्ष 2010 में पूँजीवादी व्यवस्था के गहराते अन्तरविरोधों का कुछ ऐसा अनियन्त्रित विस्फोट हुआ कि बुर्जुआ मीडिया की वस्तुपरक तटस्थता और सामाजिक सरोकार के सारे दावे-दिखावे हवा में बिखर गये। राडिया-टाटा टेप लीक से यह सच्चाई जगज़ाहिर हो चुकी है कि प्रिण्ट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जो दिग्गज राष्ट्रीय और सामाजिक सरोकारों का दम भरते हैं तथा किसी भी तरह के दबाव-प्रभाव से ऊपर होने का दावा करते हैं, वे पर्दे के पीछे किस तरह कॉरपोरेट लॉबिइस्टों-दलालों के स्टेनोग्राफरों की तरह व्यवहार करते हैं और अलग-अलग पूँजीपति घरानों के हितों की पालतू कुत्तों की तरह चौकीदारी करते हैं। राडिया-टाटा टेप काण्ड से पहले भी इस वर्ष में मध्य तक ‘पेड न्यूज़’ की चर्चा गर्म रही। इस सच्चाई पर विभ्रमग्रस्त बुध्दिजीवी समुदाय काफी क्षुब्ध रहा कि किस तरह न केवल छुटभैये पत्रकार बल्कि कई मीडिया-घराने भी भारी रकम लेकर अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की प्रचार-सामग्री को समाचार के रूप में प्रकाशित किया करते हैं। निन्दा-भर्त्सना हुई, जाँच और संगोष्ठियाँ हुईं, प्रेस कौंसिल, एडिटर्स गिल्ड और पत्रकार यूनियनों ने प्रस्ताव पारित करके नुकसान के यथासम्भव नियन्त्रण और भरपाई की कोशिश की, पत्रकारिता के मूल्यों की हिफाज़त और बहाली की दुहाई दी गयी और फिर सब शान्त हो गया। तय है कि चुनावों के समय आगे भी ‘पेड न्यूज़’ छपेंगे, पर थोड़ी सावधानी और पर्देदारी के साथ।
सच्चाई यह है कि पूँजी की ताकत से संचालित मीडिया का काम ही है – व्यवस्था के पक्ष में जनमत तैयार करना, बुर्जुआ सत्त का राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करना (यानी बुर्जुआ शासन के लिए जनता की ”सहमति” हासिल करना), प्रकाशित किये जाने वाले तथ्यों का शासकवर्गीय नज़रिये से चुनाव करना और शासकवर्गीय नज़रिये से प्रस्तुत विश्लेषण को जनमानस में स्थापित करना। साथ ही सुधारमूलक दायरे के भीतर मीडिया व्यवस्था की बुराइयों-कमज़ोरियों की आलोचना का मंच बनकर शासक वर्ग की उपयोगी मदद करता है और जनता के बीच तटस्थता-वस्तुपरकता का भ्रम भी बनाये रखता है। इसे ”लोकतन्त्र का चौथा खम्बा” यूँ ही नहीं कहा जाता है। वास्तव में बुर्जुआ राज्यसत्त के अंगों-उपांगों से अलग होते हुए भी यह उससे निकट से जुड़ा होता है और बुर्जुआ वर्ग के वर्चस्व के उपकरण के रूप में व्यवस्था का स्तम्भ होता है।
मीडिया बुर्जुआ वर्ग के वैचारिक-राजनीतिक वर्चस्व का साधन होने के साथ ही अपनेआप में एक व्यवसाय है, एक उद्योग है जिसमें पूँजी लगाकर कॉरपोरेट घराने प्रबन्धकों व शीर्ष बुध्दिजीवियों को अच्छी सुविधाएँ (निचोड़े गये अधिशेष में से हिस्सा) देकर उनकी मदद से नीचे के कर्मचारियों-मज़दूरों के मानसिक-शारीरिक श्रम के दोहन का काम करते हैं। इसके अतिरिक्त मीडिया की तीसरी भूमिका है कम्पनियों और उनके उत्पादित मालों का विज्ञापन छापकर प्रचार करने की। इसके बिना पूँजीवादी बाज़ार चल ही नहीं सकता। नवउदारवाद के दौर में यह तीसरी भूमिका अत्यधिक अहम हो गयी है, लेकिन हर समय में बुर्जुआ मीडिया तीनों काम करता है; पहला, बुर्जुआ शासन और सामाजिक ढाँचे के पक्ष में जनमानस तैयार करना, दूसरा, एक उद्योग के रूप में मुनाफा कमाना, और तीसरा, बाज़ार तन्त्र की मशीनरी में उत्पादों का प्रचार करके बिक्री बढ़ाने के नाते अहम भूमिका निभाना। जिस मीडिया जगत में मालिकों के कुल राजस्व का 80 से लेकर 100 प्रतिशत तक विज्ञापनों से आता है और जहाँ सभी बड़े खिलाड़ी कॉरपोरेट घराने हैं, वहाँ पत्रकारों की स्वतन्त्रता की बात सोचना ही बेमानी है। आलोचना की पूँजीवादी जनवादी स्वतन्त्रता वहीं तक है जहाँ तक व्यवस्था की वैधता पर सवाल न उठ खड़े हों और बुराइयों-कमज़ोरियों को सुधारने में मदद मिलती रहे। लेकिन संकट के दौरों में जब कॉरपोरेट युध्द तेज़ हो जाता है तो अलग-अलग घराने एक-दूसरे पर चोट करते हुए विरोधी की सेवा में सन्नद्ध भाड़े के कलमघसीटों का और अख़बारों-चैनलों का भी असली चेहरा नंगा करने लगते हैं और इस प्रक्रिया में पूरा बुर्जुआ मीडिया ही नंगा हो जाता है जैसा कि अभी हुआ है। व्यवस्था के अन्तरविरोधों की उग्रता के चलते, जब भी ऐसा होता है तो बुर्जुआ वर्ग के घुटे-घुटाये सिध्दान्तकार आगे आते हैं और ‘डैमेज कण्ट्रोल’ और साख-बहाली के काम में लग जाते हैं जैसा कि अभी हो रहा है।
मार्क्स ने बहुत पहले ही कहा था कि पत्र-पत्रिकाओं के व्यवसाय की स्वतन्त्रता एक विभ्रम है और उनकी एकमात्र स्वतन्त्रता व्यवसाय न होने की स्वतन्त्रता ही हो सकती है। लेनिन ने स्पष्ट कहा था कि पूँजीपतियों के पैसे से चलने वाले अख़बार पूँजी की ही सेवा कर सकते हैं। पूँजीवाद में मज़दूर वर्ग का अख़बार, केवल व्यापक मेहनतकश आबादी से जुटाये गये सहयोग के बूते ही निकल सकता है। अब यह एक अलग सवाल है कि संकटकाल में जनवाद की रामनामी चादर उतार फेंकने के बाद शासक वर्ग ऐसे किसी अख़बार को कानूनी तौर पर कब तक प्रकाशित होने देगा! बहरहाल, व्यापक जनसमुदाय के अगुवा दस्ते यदि सजग होते हैं तो वैकल्पिक जन मीडिया संगठित करने के अनेकश: रूप वे हर हाल में विकसित कर लेते हैं।
बर्टोल्ट ब्रेष्ट ने गोर्की के प्रसिध्द उपन्यास ‘माँ’ पर आधारित जो नाटक लिखा था, उसमें एक गीत में कहा गया है कि नेता,अफसर, जेलर, पुलिस, बुध्दिजीवी और अख़बार ही नहीं बल्कि जज और कानून भी पूँजी और पूँजीवादी ढाँचे की सेवा में सन्नद्ध होते हैं। पूँजीवादी प्रचारतन्त्र न्यायपालिका की तटस्थता का सर्वाधिक महिमामण्डन करता है और उसे प्रश्नेतर बनाकर प्रस्तुत करता है। सच्चाई यह है कि न्यायपालिका उसी बुर्जुआ संविधान और कानून व्यवस्था से बँधकर न्याय-निर्णय देती है जो पूँजी की सेवा में सन्नद्ध हैं। न्यायपालिका सर्वोपरि तौर पर सम्पत्ति के अधिकार की हिफाज़त की ही गारण्टी करती है। पूँजीवादी शोषण-अन्याय ही सभी सामाजिक अपराधों के ड्डोत हैं और इसके विरुध्द फैसला कोई अदालत नहीं देती। अदालतों से आम नागरिक को किस हद तक न्याय मिल पाता है और किस हद तक उसके अधिकारों की हिफाज़त होती है, यह सच्चाई आज जग ज़ाहिर हो चुकी है।
2010 में व्यवस्था के संकट के बढ़ने और शासक वर्गों के आपसी अन्तरविरोधों के गहराने के साथ ही न्यायपालिका की शुचिता और भ्रष्टाचार-मुक्त होने का मिथक भी रेत की भीत के समान भरभराकर गिर गया। ए. राजा के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश की भूमिका के भी सवालों के घेरे में आने की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। अभी पिछले ही महीने सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों मार्कण्डेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में व्याप्त भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के विरुध्द तीखी टिप्पणी की और इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से याचिका दाख़िल करने के बावजूद अपनी टिप्पणी वापस लेने से मना कर दिया। इसके पहले प्रख्यात विधिवेत्त प्रशान्त भूषण ने एक साक्षात्कार में सुप्रीम कोर्ट के 6मुख्य न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। उनके ऊपर न्यायालय की अवमानना का मामला लम्बित है, पर वे अपने आरोप पर अडिग हैं और प्रमाण देने को तैयार हैं। अवमानना मामले में ख़ुद को भी पक्षकार बनाने का आवेदन देते हुए उनके पिता वरिष्ठ अधिवक्ता शान्तिभूषण ने आठ भ्रष्ट मुख्य न्यायाधीशों के नाम एक सीलबन्द लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं। इसके पहले उच्चतम और उच्च न्यायालयों के कई जजों के नाम भ्रष्टाचार में उछल चुके हैं और इस समय एक जज पर महाभियोग की प्रक्रिया भी चल रही है। जहाँ तक निचली अदालतों का सवाल है, यह एक ‘ओपेन सीक्रेट’ है कि वहाँ तहसीलदार और थानेदार के दफ्तरों जितना ही भ्रष्टाचार व्याप्त है।
सेना की भ्रष्टाचार-मुक्त छवि शासक वर्ग के ”राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट” की सफलता के लिए अपरिहार्य है (कॉरपोरेट हितों की हिफाज़त और राष्ट्रीय संसाधनों की लूट के लिए अपनी जनता के ख़िलाफ छेड़े गये युध्द के अतिरिक्त क्षेत्रीय विस्तारवादी मंसूबों के लिए सामरिक तैयारी – यही है शासक वर्ग का ”राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट”)। सेना राज्यसत्त का बुनियादी अंग है। राज्यसत्त की ”वर्गोपरि तटस्थता” की छवि बनाये रखने के लिए भी सेना की शुचिता के मिथक को बनाये रखना ज़रूरी है।2010 में भ्रष्टाचार के भाण्डे जब फूटने लगे तो सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार भी बेनकाब हो गया। आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले में नेताओं-नौकरशाहों के साथ पूर्व सेनाध्यक्ष सहित कई शीर्ष सेनाधिकारियों के भी नाम आये हैं। सुकना ज़मीन घोटाले में भी कई सेनाधिकारी शामिल हैं। सेना की हज़ारों हेक्टेयर ज़मीन पर देशभर में जो अवैध कब्ज़े हैं, वे कैण्टोनमेण्ट के ज़िम्मेदार अधिकारियों की मिलीभगत के बग़ैर नहीं हो सकते – यह आज आम चर्चा का विषय है। 2010 में ही कुछ चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन में वर्दी, राशन व अन्य सामानों की सप्लाई में कमीशनख़ोरी के मामले उजागर हुए। मातहत महिला अधिकारियों और कर्मचारियों के यौन उत्पीड़न के कई मामले पिछले दो वर्षों के दौरान चर्चा में आ चुके हैं।
साल के अन्त में एक और घोटाला सुर्ख़ियों में आया। उत्तर प्रदेश में 2004 में बीपीएल, मिड डे मील आदि कई कल्याणकारी योजनाओं के तहत बाँटे जाने के लिए प्राप्त अनाज 42,0249 वैगनों के ज़रिये राज्य से बाहर कालाबाज़ारियों को बेच दिया गया और देश से बाहर नेपाल और बांग्लादेश भेज दिया गया। यह घोटाला 90,000 करोड़ रुपये का था। मुलायम सरकार काल के इस घोटाले को मायावती सरकार के अफसर भी जिस मुस्तैदी से दबा रहे हैं, उससे यह सन्देह ही पुख्ता हो रहा है कि ग़रीबों के हिस्से के अनाज की यह कालाबाज़ारी और तस्करी आज भी जारी है। भ्रष्टाचार के ऐसे ही आरोपों से कर्नाटक के मुख्यमन्त्री येदियुरप्पा भी घिरे हैं और उनके प्रतिस्पर्द्धी राजनीतिज्ञ और खनन माफिया रेड्डी बन्धु भी।
भ्रष्टाचार के इस पिरामिड में जो ऊपर और मध्यवर्ती संस्तरों के नेता-अफसर-मीडियाकर्मी हैं, वे राष्ट्रीय संसाधनों की लूट की छूट देने की एवज में कॉरपोरेट घरानों से कमीशन पाते हैं और सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पदा की स्वयं लूट-खसोट करते हैं। इस लूट का सारा बोझ मेहनतकश जनता ही उठाती है। पूँजीपति घूस और कमीशन को मज़दूर से निचोड़े जाने वाले अधिशेष से जोड़ लेते हैं और राष्ट्रीय संसाधनों को लूटने के लिए सालाना करोड़ों लोगों को उनकी जगह-ज़मीन से उजाड़ देते हैं। जो सार्वजनिक क्षेत्र की लूट है वह भी जनता को ही निचोड़ती है, क्योंकि समूचा सार्वजनिक क्षेत्र जनता की गाढ़ी कमाई से ही खड़ा किया गया है। लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती। भ्रष्टाचार के पिरामिड में जो नीचे के पायदान पर खड़े छुटभैये अफसर और दफ्तरों के रिश्वतख़ोर बाबू हैं, वे हर छोटे-मोटे काम और बुनियादी सेवाओं के लिए आम लोगों से रिश्वत लेते हैं। ट्रांसपैरेंसी इण्टरनेशनल के ऑंकड़ों के अनुसार, भारत के ग़रीब आम लोग बुनियादी सेवाओं के लिए हर साल900 करोड़ रुपये रिश्वत के रूप में देते हैं।
भ्रष्टाचार की महागाथा के निचोड़ के तौर पर कुछ बातें…
भ्रष्टाचार की इस महागाथा के समाहार के तौर पर यही कहा जा सकता है कि पूरी तरह से भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद मध्यवर्गीय मुँगेरीलाल के हसीन सपने से अधिक कुछ भी नहीं है। जहाँ वैध लूट होगी, वहाँ अवैध लूट भी होगी। काला धन सफेद धन की ही जारज सन्तान होता है। जैसा कि उपन्यासकार बाल्ज़ाक ने कहा था, हर सम्पत्ति-साम्राज्य अपराध की ही बुनियाद पर खड़ा होता है। सामान्यत: यह अपराध सफेदपोश और ”कानून-सम्मत” होता है लेकिन इसके एक हिस्से से सफेदपोशी और वैधता का आवरण उतर भी जाता है।
पूँजीवादी जनवाद की नौटंकी का सारांश यह होता है कि सरकारें पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होती हैं, संसद बहसबाज़ी का अड्डा होता है, नौकरशाही शासन और शोषण की नीतियाँ बनाती है और लागू करती है, जज न्याय की नौटंकी करते हुए सम्पत्ति के अधिकार की सुरक्षा करते हैं और सेना-पुलिस हर विद्रोह को कुचलने के लिए चाक-चौबन्द रहती है। इन सभी कामों में लगे हुए लोग पूँजीपतियों के वफादार सेवक होते हैं और सेवा के बदले उन्हें ऊँचे वेतन-भत्तों और विशेषाधिकारों का मेवा मिलता है। जो भी इस जमात में शामिल होता है, उसे यह समझते देर नहीं लगती कि वह लुटेरों का सेवक है। लुटेरों के सेवकों से नैतिकता और सदाचार की उम्मीद कतई नहीं की जा सकती। शोषित-उत्पीड़ित जनों को भरमाते-ठगते-दबाते और कुचलते हुए जहाँ भी उन्हें मौका मिलता है वे अपनी भी जेब गर्म करने से बाज़ नहीं आते। वे पूरे बुर्जुआ वर्ग के सेवक होते हैं, पर पूँजीपति घरानों की आपसी होड़ का लाभ उठाकर इस या उस घराने से दलाली और कमीशन की मोटी रकम ऐंठने से भी बाज़ नहीं आते। कॉरपोरेट घरानों की यही होड़ उग्र हो जाती है तो एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाने और नंगा करने की कोशिश में ये ऐसी कुत्तघसीटी मचाते हैं कि पूरी व्यवस्था नंगी हो जाती है। उग्र होते अन्तरविरोध जब शासक वर्ग और उसके प्रतिनिधियों की इच्छा और नियन्त्रण से स्वतन्त्र होकर पूरी व्यवस्था की असलियत उजागर करने लगते हैं तो फिर ‘डैमेज कण्ट्रोल’ की प्रक्रिया शुरू की जाती है। जाँच एजेंसियाँ छापे मारने लगती हैं, कुछ को बलि का बकरा बनाया जाता है। मीडिया कुछ आदर्शवादी अफसरों और चुनावी राजनीति के बाहर सक्रिय सुधारवादी (प्राय: एनजीओ-पन्थी) सामाजिक कार्यकर्ताओं को नायक बनाकर प्रस्तुत करता है। कभी शेषन, कभी खैरनार,कभी अन्ना हजारे, वी. पी. सिंह तो कभी रामदेव भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम का मसीहा बनकर सामने आते हैं, कुछ ‘व्हिसल ब्लोअर्स’ व्यवस्था के दामन पर लगी गन्दगी को धोने में लग जाते हैं। ये पूँजीवादी शोषण से मुक्ति की बात नहीं करते बल्कि भ्रष्टाचार को हर बुराई की जड़ बताते हैं। ऐसे श्रीमान सुथरा जी लोग भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद के ही पैरोकार होते हैं और इस व्यवस्था की ही एक सुरक्षा-पंक्ति होते हैं।
भ्रष्टाचार पूँजीवादी समाज की एक सार्विक परिघटना है। जहाँ लोभ-लाभ की संस्कृति होगी वहाँ मुनाफा निचोड़ने की हवस वैधिक दायरों को लाँघकर, जैसे भी हो, दोनों हाथों से लूटने की तार्किक परिणति तक पहुँच ही जायेगी। भ्रष्टाचार पश्चिम के समृद्ध देशों में भी है लेकिन उनके मुकाबले भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में इसका चरित्र ज्यादा नंगा, फूहड़ और जनद्रोही है। कारण कि इन देशों में जनता की जनवादी चेतना के पिछड़ेपन के कारण सामाजिक चौकसी की कमी है जिसके चलते नेता-अफसर-दलाल अपना काम बेशर्मी व ढिठाई के साथ अंजाम देते हैं। देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों के लिए रिश्वत देना भी यहाँ अधिक सुगम होता है। नेताशाही-अफसरशाही में शामिल मध्यवर्ग में और बुध्दिजीवियों में जनवादी मूल्य बहुत कम हैं और उत्तरऔपनिवेशिक दौर के गुज़रते दशकों के दौरान वे ज्यादा से ज्यादा जनविमुख होते चले गये हैं। मध्यवर्ग का जो हिस्सा राजनीति या प्रशासनिक सेवाओं में आता है, वह या तो स्वयं नेताओं-नौकरशाहों की औलाद होता है या पुराने सामन्ती कुलीनों की नयी पीढ़ी का सदस्य होता है। वह जनता की हड्डियाँ निचोड़कर रुग्ण-विलासी जीवन जीना चाहता है और पीढ़ियों तक के लिए सुख-सुविधा की गारण्टी कर लेना चाहता है। आम घरों के जो थोड़े से लोग इन कतारों में शामिल होते हैं, वे भी अपना पक्ष बदलकर धन-सम्पत्ति जुटाने में लग जाते हैं और कभी-कभी तो इस दौड़ में पुराने कुलीनों के वारिसों को भी पीछे छोड़ देते हैं।
मौजूदा नवउदारवादी दौर में तमाम बुर्जुआ जनवादी मूल्यों-आदर्शों के छिलके पूँजीवाद के शरीर से स्वत: उतर गये हैं। सरकार खुले तौर पर पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के रूप में कार्यरत दीख रही है। कमीशनख़ोरी, दलाली, लेनदेन – सबकुछ पूँजी के ‘खुला खेल फर्रुख़ाबादी’ का हिस्सा मान जाने लगा है। 2010 में घपलों-घोटालों का जो घटाटोप सामने आया है, वह पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत आर्थिक संकट और उसके गर्भ से उपजे राजनीतिक-सांस्कृतिक-नैतिक संकट की एक अभिव्यक्ति है, परिणाम है और लक्षण है।
यह पूरा विवरण एक स्वयंसिध्द प्रमेय है जो बताता है कि यह पूरी व्यवस्था सिर से पाँव तक सड़ चुकी है और मेहनतकश जनसमुदाय के सामने एकमात्र विकल्प यही है कि वह पूँजीवादी संसदीय जनवाद की इस अंधेरगर्दी और लूटतन्त्र को सिरे से ख़ारिज कर दे। भ्रष्टाचार के विरुध्द लड़ाई अपनेआप में कोई स्वतन्त्र लड़ाई नहीं है। यह पूँजीवादी-व्यवस्था विरोधी संघर्ष का एक हिस्सा के रूप में ही लड़ी जानी चाहिए। यह जनता की जनवादी चेतना को उन्नत करने और उसके जनवादी अधिकार की लड़ाई का ही एक अहम मुद्दा है। हमारा काम इस व्यवस्था के दामन पर लगे दाग़ों को धोना नहीं हो सकता। ”भ्रष्टाचार-मुक्त शोषण” हमारा लक्ष्य नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार के विरुध्द संघर्ष को राज्यसत्ता के चरित्र को उद्धाटित करने और उसके विरुध्द व्यापक संघर्ष की एक कड़ी बनाया जाना चाहिए।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2010
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