बिल गेट्स और वॉरेन बुफे की ‘गिविंग प्लेज’
लूटो-भकोसो और झूठन आम जनता के ”हित” में दान कर दो
अरबपतियों को याद आयी जनता! या पूँजीवाद की डगमगाती नैया?
शिशिर
हाल ही में विश्व के दो सबसे अमीर व्यक्तियों – बिल गेट्स और वॉरेन बुफे ने अपनी-अपनी निजी सम्पत्ति का बड़ा हिस्सा धार्मार्थ कार्यों के लिए दान करने की घोषणा की और उसके बाद से वे दुनियाभर के अरबपतियों को अपनी-अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति का आधा-आधा हिस्सा देने के लिए मना रहे हैं। उन्होंने अपने अभियान का नाम रखा है ‘गिविंग प्लेज’ यानी ‘दान करने की सौगन्ध’! नवीनतम सूचना के अनुसार वे 40 अरबपतियों को मनाने में कामयाब हो चुके हैं और इससे 6,000लाख डॉलर की राशि ग़रीब देशों में एन.जी.ओ. और सुधारवादी संस्थाओं को मिलने की उम्मीद है। दुनियाभर का पूँजीवादी मीडिया इन धनकुबेरों के इस धर्मार्थ पर फिदा हो गया है। और हो भी क्यों नहीं? पूँजीवाद को दीर्घजीवी बनाने के ऐसे सभी षड्यन्त्रों को पूँजीवादी मीडिया तो प्रचारित करेगा ही। लेकिन पूँजीवादी मीडिया के इस प्रचार के कारण दुनियाभर के आम मध्यवर्ग की जनता और पढ़े-लिखे मज़दूरों के एक हिस्से में भी एक भ्रम पैदा हो रहा है। मध्यवर्ग तो इन धनपशुओं की पूजा-आराधना में ही लग गया है। वह बिल गेट्स और वॉरेन बुफे की चैरिटी पर अभिभूत और चमत्कृत है। उसे यह प्रतीत हो रहा है कि इन अरबपतियों ने इतना बड़ा त्याग किया है जो एक मिसाल बन गया है। लेकिन उन्हें पता नहीं है कि ऐसी चैरिटी करना पूँजीपति वर्ग के लिए कोई नयी बात नहीं है। 1890 में कार्नेगी और हेनरी फ्रिक ने भी कुछ ऐसा ही किया था। लेकिन ये ही वे पूँजीपति थे जिन्हें मज़दूरों के न्यायपूर्ण संघर्ष के बर्बर दमन के लिए भी जाना जाता है। आज तक मज़दूरों की जायज़ माँगों के लिए किये गये आन्दोलनों का वैसा दमन कम ही लोगों ने किया है जैसा कि कार्नेगी और फ्रिक ने किया था।
कार्ल मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में लिखा है कि पूँजीवादी समाज में बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा हमेशा धर्मार्थ और सुधार के कामों में संलग्न होता है। इससे जनता का पूँजीवाद के प्रति भ्रम बरकरार रहता है और पूँजीवाद की उम्र बढ़ती है। इससे पूँजीवादी समाज में ग़रीबी और बदहाली का उन्मूलन नहीं होता, समानता और न्याय की स्थापना नहीं होती। बल्कि शोषक और अन्यायी व्यवस्था के कायम रहने की ज़मीन तैयार होती है।
बिल गेट्स और वॉरेन बुफे का इतिहास भी कार्नेगी और फ्रिक जैसे ज़ालिमों से कुछ ख़ास अलग नहीं है। बस शोषण और दमन के तरीकों में परिवर्तन आ गया है। लेकिन अभी हम उस इतिहास में नहीं जायेंगे। अभी हमारा मकसद दो सवालों का जवाब देना है। पहला सवाल यह कि बिल गेट्स और वॉरेन बुफे समेत दुनिया के 40 अरबपतियों की इस चैरिटी से दुनिया में क्या परिवर्तन आने वाला है? और दूसरा सवाल, क्या वाकई यह आधी सम्पत्तियों का दान और परमार्थ की मिसाल है?
पहले सवाल का जवाब है नहीं! पूँजीवाद ने अपने लगभग 200 वर्ष के इतिहास में दुनिया को जो बना दिया है, उसकी मरम्मत के लिए किसी बड़ी धर्मार्थ राशि की ज़रूरत नहीं है। जब तक पूँजीवाद रहेगा, आम आदमी बरबाद रहेगा। अभी पूरे विश्व की बात छोड़ दें, सिर्फ भारत में ऐसी चैरिटी के ख़र्च होने के प्रभाव की बात करते हैं। अर्जुन सेनगुप्ता समिति के अनुसार भारत में 84 करोड़ लोग 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम की आय पर जीते हैं। अगर इन सभी बेहद ग़रीब लोगों में गेट्स और बुफे द्वारा जुटाये गये 6,000 लाख डॉलर को बराबर-बराबर बाँट दिया जाये, तो सभी को करीब 7.14 डॉलर मिलेंगे। इसका अर्थ हुआ लगभग 300 रुपये। यानी, उनकी प्रतिदिन की 20 रुपये की आय में साल भर के हिसाब से 1रुपये की भी वृध्दि नहीं होगी! सिर्फ भारत के ही ग़रीबों को लें तो भी इस धर्मार्थ दान से उनकी ज़िन्दगी पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। अभी हम इसमें सभी विकासशील या कम विकसित देशों की ग़रीब आबादी को नहीं जोड़ रहे हैं। अगर इन सभी को जोड़ दिया जाये तो ये 6,000 लाख डॉलर कैसे ग़ायब हो जायेंगे पता भी नहीं चलेगा। इससे दुनिया के सभी दरिद्रों के शरीर पर एक सूत का धागा भी नहीं डाला जा सकता है! पूँजीवाद ने पिछले 200 वर्षों में दुनिया के सभी देशों में मेहनतकशों का लहू निचोड़-निचोड़कर जितना मुनाफा कमाया है, उसकी तुलना में ये 6,000 लाख डॉलर वैसे ही हैं जैसे कि प्रशान्त महासागर की तुलना में पानी की एक बूँद। इस चैरिटी से दुनिया के ग़रीबों का कोई भला नहीं होने वाला है! हाँ, एक काम ज़रूर होने वाला है – दुनियाभर के मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग की भारी आबादी और साथ ही सचेत मज़दूर आबादी में भी, पूँजीवादी व्यवस्था के मानवतावादी होने और उसके उत्तरजीवी होने को लेकर ज़बरदस्त भ्रम पैदा होगा। ख़ासतौर पर, पढ़े-लिखे युवाओं के बीच बिल गेट्स और वॉरेन बुफे जैसे लुटेरे सन्त और आदर्श बनकर उभरेंगे। छात्रों-नौजवानों के दिमाग़ में व्यवस्था द्वारा पैठाया गया यह तर्क और मज़बूत होगा कि ‘पहले ख़ुद कुछ बन जायें, तभी तो समाज के लिए कुछ करेंगे!’ और वे इस समझदारी से और दूर होते जायेंगे कि ये ‘कुछ’ वास्तव में कुछ भी नहीं है और इससे दुनिया में कुछ भी नहीं बदलने वाला। यह जनता के मन में पूँजीपतियों और धनपतियों के प्रति पलने वाले रोष के लिए एक ‘सेफ्टी वॉल्व’ का काम करेगा, जो जनता के ग़ुस्से को थोड़ा-थोड़ा करके निकाल देगा। लोग व्यवस्था के विकल्प के बारे में सोचने की बजाय व्यवस्था के भीतर ऐसे तथाकथित मसीहाओं के अवतरित होने के बारे में सोचते और उम्मीद करते रहेंगे। कुल मिलाकर, इस चैरिटी से होना-जाना कुछ भी नहीं है। बस, समाज में पूँजीवाद के प्रति भ्रम की उम्र कुछ और बढ़ जायेगी। और पूँजीपति वर्ग कुछ-कुछ अन्तरालों पर ऐसे कुछ कदम उठाता रहता है, इसमें कुछ भी नया नहीं है। लेकिन ऐसे सभी प्रयास अन्तत: असफल हो जाते हैं; पहले भी होते रहे हैं और बाद में भी होते रहेंगे। पहली बार ऐसी चैरिटी आस जगाती है; कोई वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ता; दूसरी बार ऐसी चैरिटी से जगने वाली आस कम होती है; फिर कोई परिवर्तन नहीं आता; तीसरी बार ऐसी चैरिटी एक ख़बर भी नहीं रह जाती है; चौथी बार यह उबाती है; पाँचवीं बार ग़ुस्सा दिलाती है; छठी बार नफरत पैदा करती है और अन्तत: यह कोई भ्रम पैदा करने की बजाय जनता को और बग़ावती बनाती है और जनता उठकर बोलती है कि हमें तुम्हारी ख़ैरात नहीं चाहिए, अपना हक चाहिए – यानी, पूरी दुनिया!
अब दूसरे सवाल का जवाब। क्या इस चैरिटी से बिल गेट्स या वॉरेन बुफे (जिन्होंने वास्तव में अपनी निजी सम्पत्ति का99 प्रतिशत देने का वायदा किया है!) जैसे दैत्यों की सेहत पर कोई ख़ास असर पड़ता है? क्या इससे उनकी दानवीरता और परमार्थता झाँकती है? इसका भी जवाब है नहीं! आइये देखें किस तरह। वॉरेन बुफे की सम्पत्ति का 99 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति से नहीं आता है। यह आता है वॉल मार्ट और गोल्डमान साक्स जैसे वित्तीय दैत्य कारपोरेशनों के शेयर से। वॉल मार्ट अमेरिका में सबसे कम मज़दूरी देने के लिए जाना जाता है और इसकी दुकानों में अमेरिकी मज़दूर लगभग न्यूनतम मज़दूरी पर काम करते हैं। वॉल मार्ट अपनी कई कपड़ा फैक्टरियों को चीन ले जा चुका है या ले जा रहा है जहाँ वह चीनी मज़दूरों से 147 डॉलर प्रति माह पर काम करवा रहा है। गोल्डमान साक्स वही वित्तीय संस्था है जिसके प्रमुख ने अभी कुछ महीने पहले स्वीकार किया था कि उसकी संस्था ने लापरवाही से सबप्राइम ऋण दिये जिनके कारण विश्व वित्तीय व्यवस्था चरमरायी, संकट आया और दुनियाभर के मज़दूरों और नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा आज सड़कों पर बेरोज़गार है या ग़ुलामी जैसी स्थितियों में काम कर रहा है। इन कम्पनियों का मुनाफा खरबों डॉलरों में है,जिसके लाभांश प्राप्तकर्ताओं में वॉरेन बुफे का स्थान शीर्ष पर है। ये तो सिर्फ दो उदाहरण हैं। ऐसे बीसियों साम्राज्यवादी कारपोरेशनों की विश्वव्यापी लूट का एक विचारणीय हिस्सा वॉरेन बुफे के पास जाता है। उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति उनके इस मुनाफे के सामने बेहद मामूली है।
बिल गेट्स की कहानी भी इससे कोई अलग नहीं है। बिल गेट्स कानूनी तौर पर स्वयं अपनी कम्पनी के एक कर्मचारी हैं और इसके लिए उन्हें तनख्वाह मिलती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मुकेश अम्बानी अपनी ही कम्पनी के कर्मचारी हैं। मन्दी के वक्त दुनिया के बेरोज़गारों और ग़रीबों की बद्दुआएँ और नफरत इनके महलों के लिए ख़तरा न बनें, इसके लिए ऐसे तमाम सी.ई.ओ. (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) ने अपने-अपने वेतन में कटौती करके दिखलाया कि मन्दी की मार का असर झेलने को वे स्वयं को प्रस्तुत कर रहे हैं। इससे उनकी कम्पनियों से छँटनी करके निकाले गये लोगों का ग़ुस्सा दिशाहीन हो जाता है। आख़िर मालिक ने भी तो कुछ कीमत चुकायी! लेकिन क्या बेवकूफी है! क्या इस पर विश्वास किया जा सकता है? बिल गेट्स की कम्पनी पिछले एक दशक से हर वर्ष अधिक से अधिक मुनाफे की दर का रिकॉर्ड बना रही है। इस मुनाफे के आधे से अधिक के हकदार स्वयं बिल गेट्स ही तो हैं क्योंकि कम्पनी के आधे से अधिक शेयर उन्हीं के पास हैं। माइक्रोसॉफ्ट पूरी दुनिया के सॉफ्टवेयर बाज़ार में एक एकाधिकारी कम्पनी है। इस कम्पनी में अपने शेयर के अलावा अन्य कई कारपोरेशनों और वित्तीय संस्थाओं में गेट्स के शेयर हैं। अगर इन सभी शेयरों को जोड़ दिया जाये तो यह किसी विकासशील देश के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर हो जायेंगे। पूरी दुनिया में अपनी लूट के बूते यह सारी सम्पदा बटोरी जाती है। गेट्स की व्यक्तिगत सम्पत्ति का कानूनी तौर पर आकलन तो माइक्रोसॉफ्ट द्वारा उनको मिलने वाले ”वेतन”के आधार पर होता है और इससे गेट्स की वास्तविक सम्पत्ति की कोई तस्वीर नहीं मिलती।
इन अरबपतियों की व्यक्तिगत सम्पत्ति का इनके लिए कोई विशेष महत्त्व नहीं होता है। क्योंकि वास्तविक सम्पत्ति वित्तीय एकाधिकारी पूँजीवाद के इस दौर में शेयरों और हिस्सेदारियों में निहित होती है। इसलिए वे अपनी पूरी व्यक्तिगत सम्पत्ति भी दान कर दें तो इससे उनका परमार्थ नहीं झलकता है। यह रहस्य छिपा रहे इसीलिए 2009 में जिस बैठक में गेट्स और बुफे ने इस चैरिटी का प्रस्ताव रखा, उसे पूरी तरह से गुप्त रखा गया। साफ है, ये वे अरबपति हैं जो विश्व पूँजीवाद के शीर्ष पर बैठे कारपोरेशनों के मालिक हैं और दुनिया की दुर्गति के लिए वे ही ज़िम्मेदार हैं। यह दुर्गति उन्होंने अनजाने में नहीं की है कि ईसा मसीह की तरह बोला जा सके, ‘हे पिता! इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।’ ये लुटेरे अच्छी तरह से जानते हैं कि इस दुनिया के मेहनतकश अवाम के साथ वे क्या करते रहे हैं और अब अगर उनके दिल में चैरिटी माता प्रकट हो गयी हैं तो भी समझा जा सकता है कि ऐसा क्यों है। मार्क्स के उपरोक्त कथन में ही सारी सच्चाई निहित है। पूँजीवाद को ऐसे अमीर फिलैंथ्रोपिस्ट (मानवसेवियों) की हमेशा से ही ज़रूरत रही है; उसने हमेशा उन्हें पैदा किया है और आगे भी करता रहेगा। इससे पूँजीवादी शोषण की इस दुनिया की आन्तरिक संरचना में कोई फर्क नहीं आने वाला है। उल्टे इस पूरे अन्यायपूर्ण ढाँचे के बारे में आम मेहनतकश जनता के बीच भ्रम पैदा होता है और इसकी उम्र बढ़ती है। हमें ऐसी नौटंकियों की असलियत को समझने की ज़रूरत है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2010
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