पंजाब राज्य बिजली बोर्ड तोड़ने की तैयारी

बिगुल संवाददाता 

आखिर पंजाब सरकार ने पंजाब राज्य बिजली बोर्ड का निगमीकरण करने को हरी झण्डी दे दी है। इससे बिजली की पैदावार, सप्लाई और वितरण के काम के निजीकरण का रास्ता साफ हो गया है। वैसे बहुत लम्बे समय से पंजाब सरकार ऐसा करने की कोशिशें कर रही है, लेकिन बिजली बोर्ड के कर्मचारियों तथा किसान संगठनों के जबरदस्त विरोध के कारण वह ऐसा करने से हाथ पीछे खींचती रही। अब तक एक दर्जन से भी अधिक बार पंजाब सरकार बिजली बोर्ड को भंग करने की तारीखें आगे खिसका चुकी है, लेकिन लगता है कि इस बार उसने हर तरह के विरोध को बर्बरतापूर्वक कुचलकर इस काम को अंजाम देने की ठान ली है।

वैसे पंजाब सरकार इस निगमीकरण से पहले ही बिजली बोर्ड में निजीकरण को व्यवहार में लागू करती आ रही है। उदाहरण के तौर पर सरकारी पक्की भर्ती पहले ही लगभग पूरी तरह बन्द कर दी गयी थी। 12-13 वर्षों में लगभग 30,000 कर्मचारी रिटायर हो चुके हैं, लेकिन उनकी जगह पर सरकारी भर्ती नहीं की गयी। सारे काम ठेके पर करवाने की नीति अपनायी जा रही है। पंजाब सरकार बिजली की पैदावार बढ़ाने के लिए जरूरत के मुताबिक बिजली प्लाण्ट लगाने को तैयार नहीं, क्योंकि यह काम वह निजी कम्पनियों से करवाना चाहती है।

इस नीति के चलते स्थिति यह है कि पंजाब लम्बे समय से भयंकर बिजली संकट से गुजर रहा है। पंजाब सरकार के पास पंजाब को बिजली संकट से निकालने के लिए हवाई दावों के सिवा कुछ नहीं है। बिजली बोर्ड के निगमीकरण और उसके बाद इसके सम्पूर्ण निजीकरण के बाद बिजली बार्ड के कर्मचारियों का भविष्य तो अन्‍धकार में डूब ही जायेगा, पंजाब की समूची जनता को बिजली के और व्यापक संकट का भी सामना करना पड़ेगा।

पंजाब राज्य बिजली बोर्ड के निगमीकरण के तहत इसे दो कम्पनियों में बाँट दिया जायेगा। एक कम्पनी बिजली पैदावार और वितरण का काम करेगी और दूसरी सप्लाई का काम करेगी। असल में देश के हुक्मरान लम्बे समय से विभिन्न प्रान्तों के बिजली बोर्डों को भंग करके बिजली की पैदावार, सप्लाई और वितरण के काम को देशी-विदेशी निजी कम्पनियों को सौंपने की कोशिशों में जुटे हैं।

बिजली बोर्डों के निजीकरण के रास्ते से कानूनी अड़चनें हटाने के लिए वाजपेयी सरकार ने बिजली एक्ट 2003 बनाया। इस कानून के तहत अलग-अलग राज्यों के बिजली बोर्डों को भंग करके पहले इनकी सारी सम्पत्ति, बुनियादी ढाँचा और कर्मचारी – सब राज्य सरकारों के अधीन आ जायेंगे। फिर राज्य सरकार एक समझौते के तहत इसे ”कम्पनी या कम्पनियों” को सौंप देगी। राज्य सरकार एक वर्ष के लिए इसे ”स्टेट ट्रांसमिशन यूटिलिटी सर्विसेज” के नाम पर किसी सरकारी कम्पनी के तहत चला सकती है और इस अर्से को केन्द्रीय सरकार की सहमति से बढ़ा भी सकती है। लेकिन यह अस्थायी ही होगा। आखिर इन कम्पनियों को कम्पनी एक्ट 1950 के अधीन आना ही है जिससे इन कम्पनियों में निजी हिस्सेदारी का रास्ता खुल जायेगा और इस तरह इन कम्पनियों के निजी कम्पनियों में तब्दील होने का रास्ता साफ हो जायेगा।

अब तक बिजली बोर्ड ”अर्द्धव्यापारिक” उद्यमों के तौर पर चल रहे थे। लेकिन यह कानून लागू होने के बाद ये विशुद्ध व्यापारिक उद्यमों/कम्पनियों में बदल जायेंगे। सरकारें बिजली की पैदावार, सप्लाई, और वितरण की जिम्मेदारी से मुक्त हो जायेंगी और जन-कल्याण का लबादा उतारकर पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के अपने असली रूप में सामने आ जायेंगी।

जनता की खून-पसीने की कमाई से निचोड़े गये टैक्सों, लाखों बिजली मजदूरों की मेहनत, काम करते हुए जानें गँवा देने वाले मजदूरों के दम पर खड़े हुए बिजली बोर्डों की कीमतें अब राज्य सरकारों द्वारा तय की जायेंगी। कौड़ियों के मोल बोर्डों की सारी सम्पत्ति निजी कम्पनियों को बेच दी जायेगी। बिजली कानून 2003 के तहत बिजली बोर्डों की सारी सम्पत्ति तो निजी कम्पनियों के हवाले कर दी जायेगी, लेकिन मजदूरों और अफसरों को लेना कम्पनियों की मजबूरी नहीं होगा। बिजली बोर्डों का निजीकरण हो जाने के बाद बिजली कर्मचारियों के वेतन-भत्तों, तथा अन्य सहूलियतों में कटौतियाँ होंगी। नौकरी की सुरक्षा की कोई गारण्टी नहीं रहेगी। इस प्रकार पंजाब के बिजली बोर्ड के निजीकरण से लगभग 60 हजार कर्मचारी प्रभावित होंगे।

बिजली बोर्ड के निजीकरण के हिमायतियों का कहना है कि कम्पनियों के परस्पर मुकाबले में बिजली की कीमतें कम होती जायेंगी। लेकिन यह एक बहुत बड़ा भ्रम है। निजीकरण से लोगों को बिजली की ऊँची कीमतें चुकानी होंगी। इजारेदार कम्पनियाँ सुपर मुनाफे कमाने के लिए हर हथकण्डा इस्तेमाल करेंगी। यह भी तय है कि निजी कम्पनियाँ शहरों के मुकाबले गाँवों पर कम ध्‍यान देंगी। ग्रामीण इलाकों की अनदेखी हालाँकि पहले भी गम्भीर थी लेकिन अब यह अभूतपूर्व रूप से बढ़ जायेगी।उड़ीसा, हरियाणा, कर्नाटक, आन्‍ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, राजस्थान, दिल्ली, मध्‍य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और महाराष्ट्र के बिजली बोर्डों को बिजली एक्ट 2003 के तहत पहले ही भंग कर दिया गया है और इस तरह वहाँ बिजली क्षेत्र के निजीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ चुकी है। जहाँ-जहाँ निजी कम्पनियों को यह काम सौंपा गया है, इसके भयंकर नतीजे सामने आये हैं। सप्लाई बुरी तरह प्रभावित हुई और कीमतें अभूतपूर्व ढंग से बढ़ गयीं।

खास बात यह कि सरकारें बिजली क्षेत्र की जिम्मेदारी निजी कम्पनियों को सौंपते समय उनके कम से कम मुनाफे की रकम तय करती हैं। तय कीमत से कम मुनाफा होने पर सरकारें जनता से निचोड़े गये सरकारी खजाने में से उनके घाटे पूरे करने का वायदा करती हैं। यानी मुनाफे का निजीकरण और घाटे का समाजीकरण!! यही है सरकार की उदारीकरण और निजीकरण की नीति का मूल मन्त्र।

सरकारों के लिए एक ही झटके में बिजली बोर्डों का निजीकरण कर पाना सम्भव नहीं है। उन्हें निजीकरण के खिलाफ जबरदस्त जनसंघर्षों का सामना करना पड़ रहा है। हालाँकि सभी पूँजीवादी राजनीतिक पार्टियाँ निजीकरण के मसले पर एकमत हैं, लेकिन जिन पार्टियों की सरकारें इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाती हैं, उनका वोट बैंक कमजोर होता है और विपक्ष में बैठी पार्टियाँ फायदा उठा जाती हैं। इसलिए चुनावी राजनीति का खेल खेलते समय सरकारें एकदम से हमला करने की स्थिति में नहीं होतीं। यह चीज भी निजीकरण की प्रक्रिया में अड़चन पैदा करती है। लेकिन इस सब कुछ के बावजूद यह प्रक्रिया आगे बढ़ती रही है।

पंजाब के बिजली बोर्ड के निजीकरण के खिलाफ पंजाब की जनता का संघर्ष काफी प्रेरणादायी रहा है। पंजाब सरकार के मौजूदा हमले का भी उसे और भी कड़े संघर्ष के रूप में जवाब देना होगा।

 

बिगुल, मार्च-अप्रैल 2010


 

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