‘डिजिटल इण्डिया’ स्कीम : सोच को नियंत्रित करने और रिलायंस का मुनाफ़ा बढ़ाने की एक नयी साज़िश
सत्यनारायण
सितम्बर के अंतिम सप्ताह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमेरिका यात्रा करके आये। इस दौरान फेसबुक, गूगल आदि कम्पनियों के प्रमुखों से उन्होंने मुलाकात की और अपनी ‘डिजिटल इण्डिया’ की परियोजना के लिए उनसे सहायता के तौर पर कुछ वायदे भी लिये। अपने हर अभियान की तरह ‘डिजिटल इण्डिया’ भी मोदी सरकार ने लोगों को इतना बढ़ा चढ़ाकर और गिफ्ट पैक लगाकर पेश किया है कि इसके असली खतरनाक पहलुओं पर लोगों की नज़र बहुत कम जा रही है। इसके इन पहलुओं पर चर्चा करने से पहले हमें ये समझना होगा कि क्यों मोदी सरकार भारतीय जनता की बुनियादी समस्याओं व उनके समाधान की बात करने की बजाय ‘डिजिटल इण्डिया’ पर ज़ोर दे रही है।
नौजवानों की चर्चा का विषय: रोज़गार या मोबाइल का ऑपरेटिंग सिस्टम?
नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका में ‘डिजिटल इण्डिया’ डिनर के आयोजन में कहा कि ‘डिजिटल इण्डिया’ भारत में ऐसे स्तर का बदलाव लाने का उद्यम है जो मानव इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। देश में आज 80 करोड़ युवा बदलाव का इन्तज़ार कर रहे हैं और ये ‘डिजिटल इण्डिया’ से ही सम्भव है। भारत के नौजवानों में आज सबसे बुनियादी मुद्दा एण्ड्राइड, विण्डोज़ और आईओएस (मोबाइल में प्रचलित तीन ऑपरेटिंग सिस्टम) के बीच विकल्प का है।
आइये, अब देखते हैं कि भारत के युवाओं को सच में क्या वही चाहिये जो मोदीजी बता रहे हैं। उत्तरप्रदेश में अभी हाल ही में चपरासी के 368 पदों के लिए आवेदन मंगवाये गये। क्या आप आवेदनों की संख्या का अन्दाज़ा लगा सकते हैं? 23 लाख, जी हां, इतने आवेदन जिसमें से 255 तो पीएचडी किए हुए नौजवान थे, 2.22 लाख इंजीनियर व अन्य संकायों से ग्रेजुएट थे। उसके बाद विभाग ने वो भर्ती ही रद्द कर दी क्योंकि इतने लोगों के इण्टरव्यू लेने में पूरे 4 साल लग जाते। ये हालात सिर्फ उत्तरप्रदेश की नहीं है। भारत के किसी भी कोने में चले जाइये, पुलिस, फौज, रेलवे, अध्यापक सभी भर्तियों में एक-एक पोस्ट के लिए दसियों हज़ार उम्मीदवार आते हैं। पुलिस, फौज आदि की भर्तियों में भगदड़ तक मच जाती है और कई नौजवान मारे तक जाते हैं। मुंबई में 2014 की पुलिस भर्ती के दौरान कई नौजवानों की बदइंतजामी की वजह से मौत हो गयी थी। ऐसे हालात में कोई हक़ीकत से निहायत अनजान या फिर निहायत बदमाश ही ये कह सकता है कि भारत के नौजवानों की मुख्य समस्या मोबाइल का ब्राण्ड या ऑपरेटिंग सिस्टम है। नरेन्द्र मोदी नौजवानों के जिस वर्ग की बात करते हैं वो खाते पीते घरों का एक छोटा सा हिस्सा है। बहुसंख्यक नौजवानों के लिए आज मूल मुद्दा बेहतर और निःशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य और स्थायी रोज़गार का है। लेकिन मोदी सरकार उस दिशा में तो उल्टा काम कर रही है। पिछले साल के बजट में स्वास्थ्य के खर्च में कटौती कर दी गयी ताकि लोग प्राइवेट अस्पतालों में जाने को मज़बूर हों। सरकारी स्कूलों को बन्द किया जा रहा है ताकि प्राइवेट दुकाननुमा स्कूलों की बिक्री बढ़े। श्रम कानून बदले जा रहे हैं और कम्पनियों को ये छूट दी जा रही है कि वो अपने यहां काम करने वालों को कभी भी लात मारकर बाहर निकाल सके। ऐसे हालात में मोदी सरकार ‘डिजिटल इण्डिया’ का नारा किसके लिए दे रही है? क्या देश के सभी नौजवानों के लिए, सभी नागरिकों के लिए? नहीं, ये नारा भारत के खाते-पीते मध्यमवर्ग के एक बहुत छोटे से हिस्से के लिए है, जो मज़दूरों के शोषण का एक हिस्सा पाता है व साथ ही उच्च मध्यमवर्ग की ज़िन्दगी जीना चाहता है। उसे इस तरह के हवा-हवाई नारे बहुत अपील करते हैं। उसे लगता है कि ‘डिजिटल इण्डिया’ स्कीम से ही उसकी सारी समस्याओं का निवारण हो जायेगा। पर उस मध्यम वर्ग के बड़े हिस्से को भी इस पूरी स्कीम के ख़तरनाक पहलुओं के बारे में पता नहीं है। ऐसे में इस योजना के पर्दे के पीछे छुपे सच को जानना देश के नौजवानों व मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए बेहद ज़रूरी है।
यहां एक महत्वपूर्ण गौर करने लायक बात ये है कि ‘डिजिटल इण्डिया’ का नारा बुलन्द करने के लिए नरेन्द्र मोदी ने सरकारी कम्पनियों बीएसएनएल या एमटीएनएल का कायाकल्प करने व उनके नेटवर्क को सुधारने की कोशिश नहीं की है बल्कि प्राइवेट कम्पनियों से सहायता माँगी है। इसमें से गूगल 500 स्टेशनों पर मुफ्त वाईफाई की सुविधा देगी। सवाल तो ये भी उठता है कि भारत के स्टेशनों पर पीने के पानी की भयंकर कमी है और ऐसे में अगर नरेन्द्र मोदी कुछ सहायता लेने गये तो उन्होंने कॉर्पोरेट जगत से पीने के पानी की सुविधा के लिए वाटर कूलर और वाटर प्यूरीफायर क्यों नहीं मांगे? लेकिन उद्योग जगत के प्रिय प्रधानमंत्री से ऐसी आशा करना ही गलत है। फ्री या सस्ता पानी जनता को देने से उद्योग जगत का मुनाफ़ा मारा जायेगा और हमारे प्रधानमंत्री को ये कत्तई बर्दाश्त नहीं होगा।
‘डिजिटल इण्डिया’ के माध्यम से आपके विचारों पर नियंत्रण कैसे?
मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था के शासक वर्ग के लिए राज करने की बुनियादी शर्त ये है कि वो जनता के विचारों को नियंत्रित करें और उनसे अनुमति लेकर उन पर राज करे। इसके लिए जनता तक उन विचारों को ज़्यादा पहुँचाया जाता है जो उन्हें अपनी ज़िन्दगी की बुनियादी समस्याओं व उनके समाधान के विचारों से दूर भटकाने का काम करें। लेकिन समाज में क्रान्तिकारी ताक़तें उन विचारों को जनता तक पहुँचाने की कोशिश करती है जिससे जनता समस्या की असली जड़ तक जाये और इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बदलने में लग जाये। इसलिए शासक वर्ग के लिए ये जरूरी हो जाता है कि वो किसी भी तरीके से जनता तक पहुँचने वाली इन आवाज़ों को चुप करवाये। इसके लिए वो दमन का सहारा भी लेते हैं पर दमन की अति भी उनके लिए एक ख़तरा होती है। ऐसे में वो दूसरे तरीके से इन विचारों को पहुँचने से रोकते है। मसलन आपको आजकल ज़्यादातर बड़े अख़बार सालाना स्कीम पर मिल जाते हैं और उनकी रद्दी की कीमत भी आपके द्वारा चुकाये गये पैसे से ज़्यादा होती है। यानी कि आपको फ्री में अख़बार मिल जाता है। निश्चित सी बात है कि ऐसे में तमाम प्रगतिशील अख़बार, पत्रिकाएं जो बिना विज्ञापन या कॉर्पोरेट सहायता के निकलते हैं, उनको खरीदने में लोगों की दिलचस्पी कम हो जाती है क्योंकि उनकी कीमतें ज़्यादा होती हैं। इण्टरनेट की दुनिया में भी ‘डिजिटल इण्डिया’ के माध्यम से ऐसा ही करने की तैयारी है। डिजिटल इण्डिया प्रोजेक्ट का एक महत्वपूर्ण अंग फेसबुक के सीईओ जुकरबर्ग द्वारा चलाई जा रही इण्टरनेट डॉट ऑर्ग नामक महत्वाकांक्षी परियोजना है। इसके लिए फेसबुक ने दुनियाभर की कुछ मोबाइल सेवा प्रदाता कम्पनियों के साथ गठबंधन किया है। अगर आपके पास उस कम्पनी का सिम है तो आपको कुछ वेबसाइटस फ्री में ब्राउज़ करने को मिलेंगी। लेकिन यही इस पूरी परियोजना का सबसे ख़तरनाक कदम है। इसमें वही वेबसाइट होंगी जो ‘मास्टर कम्पनी’ फेसबुक के पास रजिस्टर्ड होंगी। ये स्कीम फ्री होने के कारण ज़्यादातर आबादी प्रयोग करेगी पर उसे खबरों, विचारों के नाम पर वही मिलेगा जो फेसबुक चाहेगी। ऐसी वेबसाइट जिन्हें देखने के लिए आपको अलग से मोबाइल डाटा प्लान लेना पड़ेगा, वो अपने आप ही इस दौड़ में बहुत पीछे रह जायेंगी। ऐसे में अभी अगर वो इण्टरनेट के माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुँचा पा रहे हैं तो आने वाले समय में उससे वंचित हो जायेंगे। वैसे तो आज भी फेसबुक से लेकर इण्टरनेट के अन्य औजारों का इस्तेमाल शासक वर्ग ही अपने पक्ष में कर रहा है पर कहीं ना कहीं प्रगतिशील ताक़तों के लिए भी थोड़ी जगह बचती है कि वो जनता तक अपने विचारों को इन माध्यमों से पहुँचा पाये। डिजिटल इण्डिया स्कीम के सफल होने पर ये सम्भावना बेहद कम हो जायेगी।
रिलायंस का मुनाफ़ा बढ़ाने की कोशिश!
इण्टरनेट डॉट ऑर्ग नामक फ्री स्कीम के लिए फेसबुक ने दुनियाभर की चुनिन्दा कम्पनियों के साथ क़रार किया है जिसमें भारत में सक्रिय मोबाइल कम्पनियों में से मात्र रिलायंस है। यानी कि इण्टरनेट डॉट ऑर्ग इस्तेमाल करने के लिए आपके मोबाइल में रिलायंस का सिम जरूरी होगा। इसके लिए आपको या तो अपना पुराना नम्बर रिलायंस में पोर्ट करवाना होगा या फिर रिलायंस की नई सिम लेनी पड़ेगी। कोई भी व्यक्ति मोबाइल को मुख्यतया कॉल करने के लिए प्रयोग करता है और ऐसे में लोग फ्री इण्टरनेट के चक्कर में रिलायंस का जबर्दस्त मुनाफ़ा करवाने का साधन बन जायेंगे। इस स्कीम और ऐसी ही तमाम अन्य जुगतों के बल पर चुनाव से पहले मोदी सरकार के प्रचार में लगाये धन की उगाही अंबानी, अडानी जैसे उद्योगपति सूद समेत कर रहे हैं और जनता की बुनियादी जरूरतों की क़ीमत पर मोदी सरकार निरन्तर उनको फायदा पहुँचाने की नीतियाँ बना रही है। मोदी सरकार इन योजनाओं को अख़बारों, पत्रिकाओं, टीवी, सोशल मीडिया आदि के दम पर जनता के बीच गिफ्ट पैकिंग लगाकर पेश कर रही है पर मज़दूरों-मेहनतकशों को इसके पीछे छुपी असलियत को पहचानना होगा।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर-नवम्बर 2015
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