सबसे ज्यादा जुझारू तेवर के साथ अन्त तक डटी रहीं स्त्री मज़दूर

गोरखपुर के मज़दूर आन्दोलन ने इतिहास के इस सबक को एक बार फिर साबित कर दिया कि आधी आबादी को साथ लिये बिना मज़दूर वर्ग की मुक्ति असम्भव है। इस आन्दोलन में स्त्री मज़दूरों ने बहादुराना संघर्ष किया और उनके जुझारू तेवर और एकजुटता ने मालिक-प्रशासन के गँठजोड़ को छठी का दूध याद दिला दिया। पवन बथवाल एंड कम्पनी को लगता था कि हमेशा चुपचाप सहन कर जाने वाली स्त्री मज़दूरों को दबाना-धमकाना आसान होगा, लेकिन इस आन्दोलन में उनके होश ठिकाने आ गये। हालत यह हो गई थी कि बथवाल स्त्री मज़दूरों को काम पर वापस नहीं लेने पर अड़ गया। उसे समझ आ गया था कि स्त्री मज़दूरों के जुझारू तेवर को दबाना सम्भव नहीं है।

अपने साथी पुरुष मज़दूरों और मज़दूर नेताओं का ध्‍यान रखने में भी वे सबसे आगे रहीं। जब तक आन्दोलन चलता रहा तब तक अपने घरों से खाना बनाकर लाने के अलावा धरना स्थल पर लिट्टी-चोखा बनाने की ज़िम्मेदारी भी वे मुस्तैदी से निभाती रहीं। एक स्त्री मज़दूर के पति ने जब ढुलमुल रवैया अपनाते हुए मालिकों का पक्ष लिया और आन्दोलन से अलग हो गया, तो उन्होंने घर पर खाना बनाना ही बन्द कर दिया। उन्होने ऐलान कर दिया कि जब तक तुम इस आन्दोलन में अपने मज़दूर भाइयों का साथ नहीं दोगे, तब तक मैं खाना नहीं बनाऊंगी।

इस आन्दोलन में मॉडर्न के दोनों कारख़ानों की दो दर्जन स्त्री मज़दूर शामिल थीं। सैकड़ों पुरुष मज़दूरों के मुकाबले संख्या में कम होने के बावजूद अपने जुझारूपन के कारण उनकी मौजूदगी बहुत असरदार होती थी और कभी-कभार कमज़ोर पड़ जाने वाले पुरुषों को भी वे ललकारने का काम करती थीं। कुछेक पुरुष मज़दूर कभी-कभी धरना-प्रदर्शन में नहीं भी आते थे, लेकिन कोई स्त्री मज़दूर न पहुँचे ऐसा बिरले ही कभी होता था।

जिस दिन बातचीत के बहाने चार मज़दूर नेताओं को मारा-पीटा और गिरफ्तार किया गया, उस दिन स्त्री मज़दूरों ने आसानी से मज़दूर नेताओं को वहाँ से ले जाने नहीं दिया। उन्होंने एडीएम सिटी की गाड़ी को घेर लिया और उसके आगे लेट गयीं। बड़ी मशक्कत से पुलिसवालों ने उन्हें वहाँ से उठा-उठाकर फेंका तब वे गाड़ी लेकर निकल सके। इसके बाद पुलिस ने बल प्रयोग करके अधिकांश पुरुष मज़दूरों को तितर-बितर कर दिया लेकिन स्त्रियाँ वहीं डटी रहीं। उन्हें घसीट-घसीट कर वैन में बिठाया गया। थाने ले जाकर उन्हें जैसे ही छोड़ा गया, उन्होंने थाने का घेराव कर दिया और अपने साथियों की रिहाई की माँग करने लगीं। पुलिस वालों को उन्हें घसीटकर वैन में बिठाकर दूर ले जाकर छोड़ना पड़ा। गिरफ्तार नेताओं की रिहाई के लिए दो दिन बाद शुरू हुए अभियान में भी वे अन्य मज़दूरों के कन्‍धे से कन्धा मिलाकर लड़ीं और अन्त तक डटी रहीं। अपने नेताओं की गिरफ्तारी से स्त्री मज़दूर इतने गुस्से में थीं कि कलक्ट्रेट में कई बार उन्होंने डीएलसी सहित पुलिस-प्रशासन के तमाम अधिकारियों को कसकर लताड़ लगाई और वे चुपचाप सुनते रहे।

 

बिगुल, नवम्‍बर 2009


 

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