मारिकाना में बर्बर पुलिस फायरिंग में 34 खदान मज़दूरों की मौत

 

मुकेश

पिछले 16 अगस्त को दक्षिण अफ्रीका के मारिकाना में खदान मज़दूरों पर हुई बर्बर पुलिस फायरिंग ने रंगभेदी शासन के दिनों में होने वाले ज़ुल्मों की याद ताज़ा कर दी। इस घटना ने साफ़ तौर पर यह दिखा दिया कि 1994 में गोरे शासकों से आज़ादी के बाद सत्ता में आये काले शासक लूट-खसोट और दमन-उत्पीड़न की उसी परम्परा को जारी रखे हुए हैं। सत्तारूढ़ अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (ए.एन.सी.) की ‘काले लोगों के सशक्तीकरण की योजना’ का कुल मतलब काले लोगों की आबादी में से एक छोटे-से हिस्से को अमीर बनाकर पूँजीपतियों और अभिजातों की क़तार में शामिल करना है। बहुसंख्यक काली आबादी आज भी घनघोर ग़रीबी, बेरोज़गारी, अपमान और उत्पीड़न में ही घिरी हुई है।

Marikana firing

मारिकाना में मारे गये मज़दूर अपने हज़ारों साथियों के साथ पिछले कई दिनों से हड़ताल पर थे। वे प्लेटिनम की खदानों में काम करते थे जिसकी मालिक ब्रिटिश कम्पनी लोनमिन है। यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी प्लेटिनम खनन कम्पनी है। बेहद ख़राब स्थितियों में और बहुत ही कम मज़दूरी पर काम करने वाले इन मज़दूरों की हालत में आज़ादी के बाद के पिछले दो दशकों में कोई भी बदलाव नहीं आया है। लगातार बढ़ती महँगाई की वजह से वे काफी समय से मज़दूरी बढ़ाने की माँग कर रहे थे। मगर सरकार और पुलिस की भरपूर मदद से कम्पनी उनके हर विरोध को अनसुना करती आ रही थी जिससे मज़दूरों का गुस्सा लगातार बढ़ रहा था। 16 अगस्त को मज़दूरों के एक उग्र प्रदर्शन पर पुलिस ने अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलायीं जिसमें कम से कम 34 मज़दूर मारे गये और क़रीब 80 बुरी तरह घायल हो गये। पुलिस और सरकार का कहना है कि अलग-अलग यूनियनों से जुड़े मज़दूरों के बीच झड़पों को रोकने के लिए उसे गोली चलानी पड़ी। लेकिन यह तर्क किसी के गले नहीं उतर रहा। कम्पनी के भाड़े के गुण्डों की तरह काम कर रही पुलिस के स्थानीय प्रमुख ने दो दिन पहले ही मज़दूरों को धमकी देते हुए कहा था कि वह दिन (प्रदर्शन का दिन) उनके लिए ”कयामत का दिन” साबित होगा और उन्हें हमेशा के लिए कुचल दिया जायेगा।

पुलिस ही नहीं, सत्तारूढ़ पार्टी ए.एन.सी. का भी कम्पनी को पूरा समर्थन था। ए.एन.सी. से जुड़ी नेशनल यूनियन ऑफ माइन वर्कर्स (एन.यू.एम.) हड़ताल तोड़ने के लिए मैनेजमेण्ट के साथ मिलकर काम कर रही थी। सत्ता में आने के बाद से ही एन.यू.एम. अपना जुझारू चरित्र खोकर पूरी तरह समझौतापरस्त और दलाल क़िस्‍म की यूनियन बन चुकी है जिसका एक ही मक़सद है, मज़दूरों को बरगला-फुसलाकर पूँजीपतियों की ग़ुलामी करते रहने के लिए तैयार रखना और उनके असन्तोष पर पानी के छींटे मारते रहना। इस समझौतापरस्ती से बिदककर मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा हाल के वर्षों में एन.यू.एम. से अलग हो चुका है और ए.यू.एन.एम. नाम की नयी यूनियन की खदान मज़दूरों में लोकप्रियता तेज़ी से बढ़ रही है। इसी वजह से अक्सर दोनों यूनियनों के बीच टकराव भी होते रहे हैं। मगर कुछ जुझारू अर्थवादी लड़ाइयों के अलावा इस दूसरी यूनियन के पास भी पूँजीवादी लूट और शोषण के ख़िलाफ कोई दूरगामी वैकल्पिक कार्यक्रम नहीं है और ट्रेड यूनियन नौकरशाही का इसमें भी बोलबाला है। इस वजह से मज़दूरों की एक भारी आबादी का इन दोनों ही यूनियनों से मोहभंग हो रहा है और जगह-जगह मज़दूरों के उग्र आन्दोलन उभर रहे हैं। मारिकाना की घटना के बाद भी दक्षिण अफ्रीका में मज़दूरों पर गोलीबारी की दो घटनाएँ हो चुकी हैं और एक बड़ी सोना खदान में हज़ारों मज़दूरों की हड़ताल जारी है।

खनन उद्योग दक्षिण अफ्रीका की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार है। यहाँ सोना, हीरा, प्लेटिनम, क्रोमियम, पैलेडियम और कई अन्य बहुमूल्य खनिजों के विशाल भण्डार मौजूद हैं। दुनिया के प्लेटिनम का 80 प्रतिशत भण्डार इक्षिण अफ्रीका में है और वह सोने का चौथा सबसे बड़ा निर्यातक है। रंगभेदी शासन के दौरान पूरे खनन उद्योग पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का क़ब्ज़ा था जो आज़ादी के बाद भी बना रहा। गोरों की ग़ुलामी से लम्बी लड़ाई लड़ने वाली जनता को उम्मीद थी कि आज़ादी के बाद देश की सम्पदा के इन बहुमूल्य संसाधनों का राष्ट्रीकरण किया जायेगा लेकिन सत्ता में आने वाले नये काले शासकों ने पुरानी पूँजीवादी नीतियों को ही क़ायम रखा और देश की खनिज सम्पदा तथा मज़दूरों की मेहनत की लूट की खुली छूट चलती रही। इसके एवज में काले लोगों की एक छोटी-सी जमात को लुटेरे पूँजीपतियों की क़तार में शामिल होने का मौका मिल गया। ए.एन.सी. और उससे जुड़ी यूनियनों के नेता भी इसमें पीछे नहीं थे। एन.यू.एम. के संस्थापकों में से एक सिरिल रामफोसा आज दक्षिण अफ्रीका के सबसे अमीर लोगों में से एक हैं और कई खनन कम्पनियों में उनके शेयर हैं।

दक्षिण अफ्रीका की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक पश्चिमी देशों पर निर्भर है और वहाँ के आर्थिक संकट का सीधा असर यहाँ भी पड़ रहा है। एक तरफ दक्षिण अफ्रीका तीसरी दुनिया की सबसे विकसित अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, दूसरी तरफ यह दुनिया का सर्वाधिक ग़ैरबराबरी वाला समाज बन चुका है। देश की कुल आमदनी का 60 प्रतिशत से भी अधिक केवल 10 प्रतिशत लोगों के हाथों में है और नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के हिस्से में देश की आमदनी का केवल 8 प्रतिशत आता है। एक प्रमुख दक्षिणी अफ्रीकी पत्रिका के अनुसार तो देश की कुल सम्पदा का 62 प्रतिशत केवल 100 व्यक्तियों के क़ब्जे में है। आधी से अधिक आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है और 25 प्रतिशत लोग बेरोज़गार हैं, हालाँकि कुछ विशेषज्ञों के अनुसार बेरोज़गारी 40 प्रतिशत है। देश की 5 करोड़ की आबादी में से आधी से अधिक झुग्गी-झोपड़ियों या देहात की बेहद खस्ताहाल बस्तियों में रहती है।

दरअसल दक्षिण अफ्रीका की कहानी भारत जैसे उन देशों की कहानी से अलग नहीं है जो जनता के संघर्षों और अकूत क़ुर्बानियों के दम पर उपनिवेशवाद की ग़ुलामी से तो आज़ाद हुए लेकिन पूँजी की ग़ुलामी से आज़ाद नहीं हुए। दक्षिण अफ्रीका में भी जनता की मुक्ति का एक ही रास्ता है जो पूँजीवाद को मिटाकर समाजवाद की ओर जाता है। मारिकाना जैसे गोलीकाण्डों में बहा मज़दूरों का लहू दक्षिण अफ्रीका के नये शासकों को बहुत भारी पड़ेगा।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2012

 


 

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