पूँजीवादी गणतन्त्र में कौन बच्चा और कौन पिता!
आजाद-पाण्डेय के एनकाण्टर पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
शिशिर
14 जनवरी को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार और आन्ध्र प्रदेश सरकार से भाकपा (माओवादी) के नेता चेरीकुरी राजकुमार ‘आजाद’ और पत्रकार हेमचन्द्र पाण्डेय के फर्जी एनकाउण्टर पर जवाब माँगा और कहा कि केन्द्र सरकार और आन्ध्र प्रदेश सरकार को बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों का जवाब देना होगा। सर्वोच्च न्यायालय हेमचन्द्र पाण्डेय की पत्नी बबीता और स्वामी अग्निवेश द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रहा था। यह एक तरह से न्यायपालिका द्वारा इस बात का स्वीकार है कि आजाद और पाण्डेय की आन्ध्र पुलिस द्वारा की गयी हत्या ग़ैर-कानूनी थी और यह मुठभेड़ फर्जी थी।
याचिकाकर्ताओं ने एक मानवाधिकार संस्था कोऑर्डिनेशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स ऑर्गनाइजेशंस द्वारा की गयी जाँच-पड़ताल रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा था कि इस फर्जी मुठभेड़ में की गयी हत्या के जरिये आजाद और पाण्डेय को संविधान की धारा 14 और 21 के तहत मिलने वाले बुनियादी अधिकारों से वंचित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने पूरे मामले का संज्ञान लेते हुए सरकार को फटकार लगायी है। पूरे देश में ”माओवाद” के दमन के नाम पर जनता का दमन कर रही पूँजीवादी सत्ता के लिए यह झिड़की थोड़ी शर्मनाक स्थिति पैदा करने वाली थी। पूँजीवादी न्यायपालिका पूँजीवादी व्यवस्था में दमन, शोषण, भ्रष्टाचार के अनियन्त्रित तरीके से आगे बढ़ने पर उसे नियन्त्रित करने का काम हमेशा ही करती है। इस बार भी न्यायपालिका ने अपनी यह भूमिका निभायी है। बुर्जुआ लोकतन्त्र से जनता का भरोसा न उठे इसके लिए जरूरी है कि जब पूँजीवादी व्यवस्था के एक हाथ से लोगों पर संगीनें बरसायी जा रही हों तो दूसरे हाथ की तर्जनी लोकतन्त्र के प्रवचन के लिए उठी हो। पुलिस, फौज समेत सभी सशस्त्र बल और ख़ुफिया एजेंसियाँ पहले हाथ का काम करती हैं और न्यायपालिका दूसरे हाथ का। लेकिन फिर भी इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के इस हस्तक्षेप से सरकार की काफी किरकिरी हुई है।
लेकिन अपनी टिप्पणी में सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने जिस शब्दावली का इस्तेमाल किया है, वह ग़ौर करने लायक है। सर्वोच्च न्यायालय की इस बेंच ने,जिसमें न्यायाधीश आफताब आलम और न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा थे, कहा है, ”हम गणतन्त्र को अपने ही बच्चों की हत्या की अनुमति नहीं दे सकते हैं।” इस पर केन्द्र और आन्ध्र प्रदेश राज्य सरकार से जवाब माँगते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ”हमें उम्मीद है कि कोई जवाब दिया जायेगा। और वह एक अच्छा और सहमत करने वाला जवाब होगा।” इस टिप्पणी में सर्वोच्च न्यायालय में भारत की जनता को भारतीय गणतन्त्र का ”बच्चा” कहा है। जाहिर है कि इस समीकरण से यह पूँजीवादी गणतन्त्र पिता हो गया। अब यहाँ दो सवाल उठते हैं।
पहला सवाल तो यह है इस पिता ने (अगर उसे वाकई ”पिता” माना जा सकता है) अपने ”बच्चों” के साथ आज तक कैसा व्यवहार किया है? आइये देखते हैं। आजादी के तुरन्त बाद जब भारतीय गणतन्त्र अस्तित्व में आया तो इसने अपने बच्चों के साथ पहली बड़ी कार्रवाई क्या की? तेलंगाना के किसानों पर मानवतावादी प्रधानमन्त्री नेहरू ने गोलियाँ बरसायीं और जायज हकों के लिए किये जा रहे उस पूरे संघर्ष को ख़ून की दलदल में डुबो दिया। अपने ही देश की जनता पर सेना के इस्तेमाल का एक उदाहरण भारतीय सरकार द्वारा तेलंगाना के किसानों का दमन भी था। इसके बाद, नक्सलबाड़ी के किसानों की बग़ावत को कुचलने में भी इस पितातुल्य गणतन्त्र ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। और आपातकाल के 19 महीनों को कौन भूल सकता है? कौन भूल सकता है कलकत्ता की सड़कों पर बर्बरता से मारे गये उन हजारों नौजवानों को, जो अपनी पीढ़ी की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएँ थे? क्या बेलछा, बेलाडिला, और पन्तनगर जैसे जघन्य हत्याकाण्डों को भूला जा सकता है? भारतीय गणतन्त्र द्वारा अपने ”बच्चों” के साथ यह बर्ताव कोई नया नहीं है। ऐसा तो इस गणतन्त्र के अस्तित्व में आने के समय से ही चला आ रहा है। आज भी ऑपरेशन ग्रीन हण्ट के अतिरिक्त भी हर दिन देश के किसी न किसी हिस्से में अपने जायज हकों के लिए लड़ रहे मजदूर, किसान, छात्र पुलिस की गोलियों और लाठियों का शिकार बनते हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय को आश्चर्य किस बात पर है?
दूसरा सवाल यह है कि लोकतान्त्रिक गणतन्त्र का अर्थ होता है ‘जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए’। अब इसमें बाप-बेटे का रिश्ता कहाँ से आ गया? वास्तव में, यह भारत जैसे विकलांग और बौने पूँजीवादी विकास वाले देश में पूँजीवादी न्यायपालिका की प्रकृति के बारे में काफी-कुछ बताता है। ऐसे देश में पूँजीवादी न्यायपालिका (जिसे पूरी पूँजीवादी व्यवस्था में बेदाग़ बुर्जुआ जनवाद के उसूलों का अवशेष माना जा सकता है) भी लोकतान्त्रिक भावना से परिपूर्ण नहीं होती। वह अधिक से अधिक उदार प्रबुध्द निरंकुश हो सकती है। लेकिन हमें बर्बर पूँजीवादी निरंकुशता की जगह उदार पूँजीवादी प्रबुध्द निरंकुशता नहीं चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था में सत्ता के ग़ैर-जनवादी और बर्बर हो जाने पर एक प्रबुध्द और उदार निरंकुश शासन (अक्सर एक शासक व्यक्ति के रूप में) की माँग पराजयबोध से ग्रस्त निम्न पूँजीपति वर्ग की माँग होती है। जैसे कि जब टुटपुँजिया वर्ग का कोई व्यक्ति नौकरशाही की घूसखोरी और मनमानेपन से परेशान हो जाता है तो वह कहता है कि ‘इस देश में हिटलर की जरूरत है’ या ‘साहब! इन्दिरा गाँधी की इमरजेंसी के टाइम में मजाल थी कि ट्रेन एक मिनट लेट हो जाये।’यही निम्न पूँजीवादी स्पिरिट अगर प्रबुध्द तरीके से अभिव्यक्त की जाये तो उसे उन शब्दों में भी रखा जा सकता है जिन शब्दों में सर्वोच्च न्यायालय ने आजाद और पाण्डेय के फर्जी एनकाउण्टर पर सरकार को फटकारा और उपदेश दिया है। सन्देश साफ है। पूँजी के आज के दौर की जरूरतें पूरी पूँजीवादी व्यवस्था में जनवादी स्पेस को ख़त्म कर रही हैं। अब जनता के बुनियादी जनवादी अधिकारों के हनन के बिना पूँजी भारत जैसे देशों में अपने मुनाफे की दर को बनाये नहीं रख सकती है। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था का बुर्जुआ जनवाद भी जितने अधिकार आम जनता को देता था, वे क्षरित हो रहे हैं और बुर्जुआ तानाशाही का पहलू अधिक से अधिक उजागर होता जा रहा है। इसलिए पूँजीवादी सत्ता अब निरंकुश ही हो सकती है। न्यायपालिका ज्यादा से ज्यादा यही कह सकती है कि बर्बर निरंकुश नहीं प्रबुध्द उदार निरंकुश बनो। यह भी नहीं बनोगे तो अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारोगे!
लेकिन हमें किसी किस्म की निरंकुशता नहीं चाहिए। न बर्बर किस्म की और न ही प्रबुध्द किस्म की। हमें हमारे हक चाहिए; हमें सच्चा जनवाद चाहिए। और यह सच्चा जनवाद पूँजीवादी लोकतन्त्र में नहीं मिल सकता है। यह सच्चा जनवाद एक समतामूलक व्यवस्था में ही मिल सकता है। सर्वहारा जनवाद ही सच्चा जनवाद है क्योंकि यह बहुसंख्यक आम मेहनतकश आबादी के लिए जनवाद है और अल्पसंख्य शोषकों के लिए अधिनायकत्व। आज का पूँजीवादी जनवाद ऐसा ही हो सकता है। उसकी परिणति पूँजीवादी व्यवस्था के संकट बढ़ने के साथ ही निरंकुशता में होती है। क्योंकि यह अल्पसंख्यक शोषकों के लिए जनवाद है और बहुसंख्यक आम मेहनतकश जनता के लिए तानाशाही। जब तक पूँजीवाद रहेगा तब तक किसी किस्म के निष्कलंक और पूर्ण जनवाद की आकांक्षा करना बचकानापन है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011
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