इलाज के नाम पर लोगों की जान से खेल रही हैं दवा कम्पनियाँ
मनन विज
अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भारत में दवा परीक्षणों के द्वारा होने वाले स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों और इनके कारण होने वाली मौतों के कारणों को लेकर दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान कहा था कि भारत में दवा कम्पनियाँ परीक्षण के नाम पर लोगों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ कर रही हैं तथा सरकार ने भी भारत में जारी इन अनैतिक दवा-परीक्षणों को रोकने के लिए अभी तक कोई ठोस कदम नही उठाये हैं। परन्तु खुद को जनता का प्रतिनिधि बताने वाले तमाम चुनावी पार्टियों के नेताओं के कान पर जूँ तक नही रेंगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि मरने वालो में किसी नेता, मंत्री के सगे-संबंधी न होकर ग़रीब मज़दूर-किसानों के बेटे-बेटी और सगे संबंधी थे। एक सरकारी संस्था द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार भारत में 2008 से लेकर अब तक 2000 से भी ज़्यादा लोग दवा परीक्षणों के कारण अपनी जान गँवा बैठे हैं। इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि इन सब मामलों मे केवल 22 लोगों को ही मुआवज़ा दिया गया है। इन सब तथ्यों ने लूट-खसोट पर टिकी इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के मानव-विरोधी चेहरे को एक बार फिर उजागर कर दिया है जहाँ ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की फ़िराक में रहने वाली दवा कम्पनियों को इन्सानों की जान के साथ खेलने की पूरी छूट मिली हुई है।
पूरे स्वास्थ्य क्षेत्र के बाज़ारीकरण के साथ अब दवाओं का परीक्षण भी करोड़ों-अरबों रुपयों का धन्धा बन चुका है। इस धन्धे में लगभग 1000 कम्पनियाँ हैं जिसमें से आधे से ज़्यादा के मुख्यालय अमेरिका में हैं। दवा कम्पनियों को अपनी दवाओं को बाजार में उतारने से पहले यह सिद्ध करना पड़ता है कि उनके द्वारा तैयार की गयी दवा मनुष्यों के उपयोग के लिये सही है या नहीं। इसके लिए कम्पनियों द्वारा तैयार दवाई का मनुष्यों के ऊपर पर परीक्षण किया जाता है, ताकि उसकी उपयोगिता और सुरक्षा को परखा जा सके।
दवा कम्पनियों के मुताबिक एक नयी दवा विकसित करने के लिए किये जाने वाले कुल खर्च में से लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा दवाओं के मनुष्यों पर होने वाले इस परीक्षण में खर्च होता है। कम से कम खर्च पर परीक्षण करने के लिये दवा कम्पनियाँ भारत जैसे ग़रीब और विकासशील देशों को चुनती हैं। इसका एक कारण है कि यहाँ परीक्षण पर होने वाला खर्च अमेरिका तथा यूरोपीय देशों के मुकाबले 10 गुना कम होता है, और दूसरा, भारत जैसे देशों में सरकारी उपेक्षा और यहाँ फैले भ्रष्टाचार का फ़ायदा उठाकर ये कम्पनियाँ डॉक्टरों, स्वास्थ्य अधिकारियों, एन.जी.ओ. आदि से साँठ-गाँठ कर यहाँ की ग़रीब जनता को पैसे और बेहतर इलाज का झाँसा देकर अपने परीक्षण के लिए इस्तेमाल करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के हेलसिंकी घोषणापत्र में दवा कम्पनियों के लिए कुछ आवश्यक दिशा-निर्देश निर्धारित हैं जिनका उन्हें अपनी दवाओं के परीक्षण करने से पूर्व का पालन करना होता है।
इसमें परीक्षण करने से पहले उस व्यक्ति की सहमति लेना आवश्यक होता है जिस पर यह परीक्षण किया जाना है। ऐसे ही कुछ दिशा-निर्देश भारतीय चिकित्सा अनुसन्धान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा भारत में भी जारी किये गये हैं। लेकिन भारत जैसे देश में ये दिशा-निर्देश सिर्फ़ कागज़ों पर मौजूद हैं। ऐसा कोई क़ानून अब तक अस्तित्व में नहीं आया जो दवा कम्पनियों को इन दिशा-निर्देशों को मानने के लिए बाध्य कर सके। चूँकि भारत जैसे देशों में ज़्यादातर मरीज़ ग़रीब तबके से आते हैं तथा पढ़े-लिखे न होने के कारण अपने अधिकारों के बारे में भी नही जानते, इस कारण बहुतेरे लोग कुछ पैसों तथा अच्छे इलाज के प्रलोभन में आकर अपने शरीर पर परीक्षण करवाने के लिए तैयार हो जाते है।
एक तरफ तो यह कम्पनियाँ भारत में ग़रीब जनता को धोखे में रख उनपर अपनी दवा का परीक्षण कर उनकी जान से खेल रही है वहीं दूसरी तरफ किसी ठोस क़ानून के अभाव में दवा परीक्षण के दौरान या उसके दुष्प्रभावों के कारण होने वाली मौतों से भी अपना पल्ला झाड़ लेती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार सन 2008 से लेकर 2011 तक भारत में 2031 लोग दवा परीक्षणों के दौरान मरे थे। परन्तु दवा कम्पनियों का दावा है कि इनमें से कुछ प्रतिशत लोग ही सीधे तौर पर दवाओं के दुष्प्रभावों के कारण मारे गये थे जबकि एक समाचार एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार 2010 में दवा परीक्षणों में जान गँवाने वाले 668 लोगों में से 158 की मौत सैनोफी एवेन्तीस नामक दवा कम्पनी के परीक्षण के दौरान हुई थी जिसका मुख्यालय फ्रांस में है, और 139 लोग बेयर नाम की जर्मन कम्पनी की दवाओं के परीक्षण के दौरान मरे थे। इसके अलावा 2010 में ही कैंसर रोकने वाली वैक्सीन का ट्रायल सुर्खियों में रहा था जिसके दौरान आन्ध्र प्रदेश और गुजरात में एचपीवी गर्भाशय कैंसर की रोकथाम के नाम पर वहाँ की गरीब लड़कियों पर इस टीके की जाँच की गयी थी। इस टीके के दुष्प्रभावों के कारण छह आदिवासी लड़कियों की मौत हो गयी थी। बाद में सरकार ने सिर्फ़ इतना कहकर इस पूरे मामले को दबा दिया कि लड़कियों की मौत वैक्सीन की वजह से नहीं बल्कि किसी अन्य कारण से हुई है।
एक ओर जहाँ दवा कंपनियाँ मुनाफ़े की हवस में भारत तथा अन्य विकासशील देशों की ग़रीब जनता को बलि का बकरा बना रही हैं, वहीं दूसरी तरफ जब ये दवाएँ बाज़ार में आती हैं तो इन दवाओं की कीमत इतनी अधिक होती है कि आम ग़रीब जनता इन्हें प्राप्त करने के बारे में सोच भी नहीं सकती। दवाओं का उत्पादन, इनको बेचने का तरीका पूँजीवादी बाज़ार में बिकने वाले अन्य किसी भी माल जैसा ही है, जिसके लिए कम्पनियाँ ऐसे देशों की तलाश करती हैं जहाँ उन्हें सबसे सस्ता श्रम मिल सके और मोटा मुनाफ़ा बटोरने का बाज़ार मिल सके। यह वर्तमान पूँजीवादी सम्राज्यवादी व्यवस्था का सबसे घिनौना आपराधिक पहलू है। इस तरह की घटनाओं से आये दिन यह साबित होता है कि कि इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था में जहाँ ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाना ही एकमात्र उद्देश्य हो ऐसे में यह अपेक्षा रखना की वह वैज्ञानिक खोजों को मानवता की सेवा में लगायेगी एक काल्पनिक सोच होगी। आज विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि कल तक जिन बीमारियों को लाइलाज बीमारियाँ समझा जाता था अब उनका इलाज भी सम्भव है, परन्तु जब तक पूँजीवादी व्यवस्था क़ायम रहेगी तब तक विज्ञान के क्षेत्र में किसी भी उपलब्धि का लाभ मुट्ठीभर पैसेवाले लोग ही उठा पायेंगे। वैज्ञानिक प्रयोगों का मानवता के लिए इस्तेमाल तो केवल समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2013
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