देशभर में 9 जुलाई को हुई ‘आम हड़ताल’ से मज़दूरों ने क्या पाया?
इस हड़ताल से हमारे लिए क्या सबक़ निकलता है?
भारत
बीते 9 जुलाई को एक बार फिर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा एक दिवसीय हड़ताल का आयोजन किया गया। ज्ञात हो कि यह हड़ताल पहले 20 मई को होने वाली थी, पर अचानक 15 मई को हड़ताल स्थगित करने की घोषणा कर दी गयी थी। इसका कारण बताया गया कि देश में युद्ध का माहौल है, आपात स्थिति है, मालिकों को सूचित नहीं किया गया है इसलिए “राष्ट्रहित” में हड़ताल स्थगित की जा रही है! “राष्ट्रहित” वास्तव में किसका हित होता है, यह हम मज़दूर अच्छी तरह से जानते हैं। इसका अर्थ जनता का हित या देश का हित नहीं होता बल्कि शासक वर्ग और उसकी सत्ता का हित होता है। और अगर तमाम पूँजीवादी दलों से जुड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें इस “राष्ट्रहित” के नाम पर अपने पेट में मरोड़ पैदा कर रहीं थीं, तो हमारे लिए इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है। बहरहाल, इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल सिर्फ़ इसलिए वापस ली ताकि शासक वर्ग युद्धोन्माद फैलाकर जनता का ध्यान असल मुद्दों से भटका सके। जबकि यही समय होता है, जब मज़दूर वर्ग इस बात की पहचान करे कि उसका दुश्मन अन्य देशों के मज़दूर व ग़रीब किसान और उन्हीं के वर्दी पहने बेटे-बेटियाँ नहीं, बल्कि स्वयं उनके देश के सरमायेदार और हुक्मरान हैं। ऐसे मौके पर मज़दूर वर्ग को संगठित होकर सरकार और पूँजीपतियों पर दवाब बनाना चाहिए और अपनी न्यायपूर्ण व जायज़ माँगों के लिए संघर्ष करना चाहिए। इतिहास में भी इसके कई उदाहरण मिलते हैं। लेकिन ऐसे मौक़ों पर पूँजीवादी दलों से जुड़ी यूनियनें पूरी तरह से पूँजीपति वर्ग के गोद में जा बैठती हैं और इस बार भी ऐसा ही हुआ। जो भी हो, 9 जुलाई को यह ‘आम हड़ताल’ आयोजित की।
बहरहाल, इस साल भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने सालाना त्योहार की तरह केन्द्र सरकार की मज़दूर-विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ आम हड़ताल की घोषणा की और 9 जुलाई को औद्योगिक क्षेत्रों से लेकर जन्तर-मन्तर पर धरना प्रर्दशन किया। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ही आकलन के अनुसार कुल मिलाकर 25 करोड़ मज़दूरों ने इस हड़ताल में भागीदारी की। इस प्रतीकात्मक कार्रवाई से शायद कुछ को कुछ उत्साह का अहसास हुआ। लेकिन इससे पहले कि कुछ ठोस हासिल होता मज़दूर वापस फ़ैक्टरियों में जा चुके थे और फिर से शोषण के चक्के में अपना हाड़-माँस गला रहे हैं। हम क्या सिर्फ़ इस बात से सन्तोष कर लें कि इस प्रतीकात्मक हड़ताल में मज़दूर वर्ग के एक हिस्से ने भागीदारी की और अपनी ताक़त दिखायी? क्या एक दिन मज़दूरों द्वारा एक बड़ी रैली निकाल लेने से, आंशिक तौर पर काम-बन्दी करने से मज़दूर वर्ग और मालिक वर्ग के बीच संघर्ष में कोई निर्णायक अन्तर आयेगा? क्या इस हड़ताल के बाद राज्य सरकारें तय न्यूनतम वेतन लागू करने लगीं? या बढ़े हुए रेट से वेतन मिलने लगा? ठेका प्रथा ख़त्म हो गयी? फ़ैक्टरियों के हालात सुधर गये? नहीं! ऐसा नहीं होने वाला है। यह बात हम और आप अपनी ज़िन्दगी के हालात को देखकर अच्छी तरह समझते हैं। ठेका प्रथा का दंश झेल रहे मज़दूरों के एक सशक्त आन्दोलन को खड़ा करने या मज़दूरों के अधिकारों को हासिल करने के लिए कोई व्यवस्थित और दीर्घकालिक जुझारू संघर्ष का कार्यक्रम लेने की बजाय ऐसी ग़द्दार ट्रेड यूनियनें एक दिन की हड़ताल की नौटंकी से मज़दूरों के गुस्से को शान्त करने की क़वायद में जुटी हुई हैं। यह भी ग़ौरतलब है कि अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र के ठेका, दिहाड़ी, कैज़ुअल मज़दूरों में इस रस्म-अदायगी का असर न के बराबर रहा क्योंकि वे भी इस बात को समझते हैं कि ऐसी क़वायदों से कुछ वास्तविक हासिल होने वाला नहीं है। पिछले 30 वर्षों से ज़्यादा समय से सीटू, एटक, इण्टक, ऐक्टू, आदि जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें यह सालाना रस्म निभाती आ रही हैं। आप अपने आपसे पूछें कि क्या इन तीन-साढ़े तीन दशकों में मज़दूरों के काम और जीवन के हालात बेहतर हुए हैं या बदतर हुए हैं? निश्चित तौर पर, जब ये एकदिनी हड़तालें होती हैं तो हम भी इसमें शिरक़त करते हैं क्योंकि अगर हमारे औद्योगिक इलाके या कारखाने में एक दिन की भी हड़ताल हो और उसमें मज़दूरों की एक विचारणीय अल्पसंख्या भी शिरक़त कर रही हो, तो हम काम पर कैसे जा सकते हैं? लेकिन इस मौक़े पर हमें अपने आपसे और अपने मज़दूर भाइयों-बहनों से यह पूछने की ज़रूरत है कि क्या हम इस तरह की सालाना रस्म-अदायगी से सन्तुष्ट हो जायें, या फिर हमें इससे आगे जाकर हड़ताल के मज़दूर वर्ग के महत्वपूर्ण हथियार का असल प्रदर्शन करने की तैयारियों में जुटना होगा?
1990 में नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से केवल दिल्ली राज्य के स्तर पर नहीं बल्कि क़रीब 25 बार देश के स्तर पर ‘भारत बन्द’, ‘आम हड़ताल’, ‘प्रतिरोध दिवस’ का आह्वान ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें दे चुकी हैं, पर ये अनुष्ठानिक हड़तालें महज़ मज़दूरों के गुस्से के फटने से पहले प्रेशर को कम करने वाले सेफ़्टी वाल्व का काम कर इस व्यवस्था की ही रक्षा करती हैं। वैसे जब मोदी सरकार संसद में बैठकर श्रम क़ानूनों को तोड़ने-मरोड़ने का काम कर रही होती हैं, तब ये यूनियनें चूँ तक नहीं करतीं। तब इनकी शिकायत महज़ यह होती है कि इनसे इस बात की सहमति नहीं ली गयी! मतलब अगर सहमति ली जाती तो मज़दूर विरोधी क़ानूनों को लागू होने में इन्हें कोई परेशानी नहीं थी! इस प्रकार के दन्त-नखविहीन “विरोध” से फ़ासीवादी मोदी-शाह सरकार को खुजली भी नहीं होती।
इन एकदिनी हड़तालों का आह्वान किन यूनियनों द्वारा किया जाता है? सीटू, एटक, एक्टू से लेकर एचएमएस व अन्य केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के द्वारा, जिनकी पूँछ पकड़कर कुछ अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठन जैसे कि मज़दूर सहयोग केन्द्र या इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र, जो बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बनने के लिए मतवाले रहते हैं। जहाँ तक केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बात है, तो इनसे पूछा जाना चाहिए कि एकदिनी हड़ताल करने वाली इन यूनियनों की आका पार्टियाँ संसद विधानसभा में मज़दूर-विरोधी क़ानून पारित होते समय क्यों चुप्पी मारकर बैठी रहती हैं, या उसके जवाब में सड़कों पर उतरकर अनिश्चितकालीन हड़ताल का आह्वान क्यों नहीं करतीं? जब पहले से ही लचर श्रम क़ानूनों को और भी कमज़ोर करने के संशोधन संसद में पारित किये जा रहे होते हैं, तब ये ट्रेड यूनियनें और इनकी राजनीतिक पार्टियाँ कुम्भकर्ण की नींद सोये होते हैं। भूलना नहीं चाहिए कि माकपा, भाकपा आदि जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और विधानसभाओं में हमेशा मज़दूर-विरोधी नीतियाँ बनाती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं? पश्चिम बंगाल में टाटा का कारख़ाना लगाने के लिए ग़रीब मेहनतकशों का क़त्लेआम हुआ तो माकपा व भाकपा से जुड़ी ट्रेड यूनियनों ने इसके खि़लाफ़ कोई आवाज़ क्यों नहीं उठायी? जब कांग्रेस और भाजपा की सरकारें मज़दूरों के हक़ों को छीनती हैं, तो भारतीय मज़दूर संघ, इण्टक आदि जैसी यूनियनें चुप्पी क्यों साधे रहती हैं? ज़्यादा से ज़्यादा चुनावी पार्टियों से जुड़ी ये ट्रेड यूनियनें इस तरह रस्मी प्रदर्शन या विरोधकी नौटंकी ही करती हैं।
अब यह बात मज़दूरों की एक विचारणीय संख्या के सामने स्पष्ट होने लगी है कि पूँजीवादी दलों व संशोधनवादी दलों से जुड़ी ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें इसी पूँजीवादी व्यवस्था व पूँजीपति वर्ग की रक्षक हैं जो इस तरह के प्रदर्शनों से व्यवस्था को संजीवनी प्रदान करती हैं। दूसरी बात यह कि 5 करोड़ संगठित पब्लिक सेक्टर के मज़दूरों की सदस्यता वाली ये यूनियनें इन मज़दूरों के हक़ों को ही सबसे प्रमुखता से उठाती हैं। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की माँगें इनके माँगपत्रक में निचले पायदान पर जगह पाती है और इस क्षेत्र के मज़दूरों का इस्तेमाल महज़ भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है। देश की 51 करोड़ खाँटी मज़दूर आबादी में क़रीब 90 फ़ीसदी आबादी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की हैं, ये न तो उनके मुद्दे उठाती हैं और न ही उनके बीच इनका कोई आधार है। तीसरी बात, अगर ये वाक़ई न्यूनतम वेतन को नयी ऊँची दर से लागू करवाना चाहती हैं और केन्द्र व राज्य सरकार के मज़दूर-विरोधी संशोधनों को सच में वापस करवाने की इच्छुक हैं, तो क्या इन्हें इस हड़ताल को अनिश्चितकाल तक नहीं चलाना चाहिए? यानी कि तब तक जब तक सरकार मज़दूरों से किये अपने वायदे पूरे नहीं करती और उनकी माँगों के समक्ष झुक नहीं जाती है? मज़दूर इसके लिए तैयार हैं या किये जा सकते हैं, परन्तु ये यूनियनें ऐसा कभी नहीं करेंगी। क्योंकि इनका मक़सद मज़दूरों के हक़-अधिकार जीतना नहीं, बल्कि मज़दूरों का गुस्सा हद से ज़्यादा बढ़ने से रोकना है। एकदिवसीय हड़ताल की नौटंकी इसलिए ही की जाती है ताकि मज़दूर एक दिन अपनी भड़ाँस निकालें और व्यवस्था विरोधी क़दम न उठायें और दूसरी तरफ़ तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियन और उनकी आका संसदमार्गी सामाजिक जनवादी पार्टी सुरक्षा पंक्ति के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखें!
इनके साथ ही इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र और मज़दूर सहयोग केन्द्र जैसे संगठन भी हैं, जो वैसे ख़ुद को क्रान्तिकारी घोषित करते हैं और इन केन्द्रीय यूनियन को दलाल बताते हैं, लेकिन इन एक दिन की हड़तालों में इनकी पूँछ पकड़ कर चलते हैं और रस्म अदायगी में हिस्सेदारी करते हैं, जबकि ज़रूरत है कि इन हड़तालों में भागीदारी करते हुए भी व्यापक मज़दूर आबादी के बीच इस बात का प्रचार किया जाय कि एकदिनी रस्मी हड़तालों के सिलसिले को तोड़कर अनिश्चितकालीन आम हड़ताल को संगठित करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा, क्योंकि तभी मालिकान और उनकी मैनेजिंग कमेटी का काम करने वाली सरकारें हमारे बात सुनेंगी। इनके भी इस दोमुँहेपन को मज़दूरों को समझना चाहिए।
हमें समझना होगा कि हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताक़तवर हथियार है, जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल के नाम पर एक या दो दिन की रस्मी क़वायद से इस हथियार की धार ही कुन्द हो सकती है। ऐसी एकदिनी हड़तालें मज़दूरों के गुस्से की आग को शान्त करने के लिए आयोजित की जाती हैं, ताकि कहीं मज़दूर वर्ग के क्रोध की संगठित शक्ति से इस पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचे को ख़तरा न हो। ये एकदिवसीय हड़ताल इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा रस्मी क़वायद है, जो मज़दूरों को अर्थवाद के जाल से बाहर नहीं निकलने देने का एक उपक्रम ही साबित होती है। यह अन्ततः मज़दूरों के औज़ार हड़ताल को भी धारहीन बनाने का काम करती है। तो फिर इस हड़ताल के प्रति मज़दूरों का क्या रवैया होना चाहिए? सही क़दम यह है कि हमें एकदिवसीय हड़ताल का अनालोचनात्मक समर्थन नहीं करना चाहिए और ना ही इससे दूर रहना चाहिए, बल्कि इस हड़ताल में भागीदारी कर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा हड़ताल के इस बेअसर इस्तेमाल को बेपर्दा करना चाहिए। इसमें भागीदारी कर हमें केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के हाथों से नेतृत्व को छीनने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि हड़ताल सरीखे किसी भी एक्शन में अगर सुधारवादी यूनियनें व नेता मज़दूरों को नेतृत्व देंगे, तो यह हड़ताल के हमारे अहम हथियार को कुन्द करने के साथ मज़दूरों में भी पस्तहिम्मती का माहौल फैलायेंगे। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा व्यवस्था की सुरक्षा पंक्ति के रूप में भूमिका निभाने को भी हमें बेपर्दा करना होगा। इसके ज़रिये ही मज़दूर आन्दोलन को एक नयी दिशा दी जा सकती है, निराशा के घटाटोप को चीरा जा सकता है और अपने हक़ों के लिए संघर्ष को एक नये ऊँचे धरातल पर ले जाया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2025