भारत को विश्वगुरु बनाने के ‘डंकापति’ के दावों का सच!

विवेक

मोदी सरकार के पिछले 11 वर्षों के कार्यकाल के दौरान गोदी मीडिया के ज़बरदस्त प्रोपेगैण्डा के ज़रिये यह छवि बनायी गयी थी कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत विश्वगुरु बन रहा है, ‘ग्लोबल साउथ’ का नेतृत्व कर रहा है और यहाँ तक कि अमेरिका और यूरोप के साम्राज्यवादी देश भी मोदी के “नेतृत्व क्षमता” और “कूटनीतिक कुशलता” का लोहा मान रहे है। भारत में मीडिया मोदी के विदेश दौरों का उसी तरह से गौरव-गान किया करता था जैसा पौराणिक कथाओं में किसी विजयी सम्राट के अपने जीते हुए क्षेत्रों में अगमान पर दरबारी कवि किया करते थे! यह पूरी कवायद मोदी के ‘कल्ट’ निर्माण का ही हिस्सा थी जो कि फ़ासीवादी विचारधारा की एक अहम चारित्रिक अभिलाक्षणिकता है। मोदी की छवि एक ऐसे करिश्माई व्यक्तित्व वाले नेता के रूप में बनायी गयी थी जिसकी कार्य-कुशलता और अचूक नीतियों के कारण देश का डंका दुनिया में बज रहा था। रही-सही कसर भाजपा के आईटी सेल द्वारा प्रचारित किये गये व्हाट्सएप्प फॉरवर्ड्स और विचित्र क़िस्म के मीम और डिजिटल पोस्टरों ने कर दी थी! हालाँकि यह पूरी क़वायद ज़्यादातर मौक़ों पर हास्यास्पद ही लगती थी; ‘वॉर रुकवा दी पापा’ जैसे विज्ञापन को कौन भूल सकता है जिसमें भक्तों के प्रिय ‘मोईजी’ ने रूस-यूक्रेन युद्ध रुकवा दिया था!

फ़ासीवादी प्रचार में बहने वाली और फ़ासीवादियों के हर झूठ को सच मानने वाली टुटपुंजिया आबादी के एक हिस्से ने मोदी के नेतृत्व का विश्व में डंका बजने के इस झूठे प्रचार पर भी आँख मूँदकर विश्वास किया। विशेषकर, शहरी उच्च-मध्यम वर्ग, मध्यम वर्ग और निम्न-मध्यम वर्ग के हिस्सों में यह प्रचार सबसे ज़्यादा कारगर रहा क्योंकि आम तौर पर भी फ़ासीवादी विचारधारा का सबसे ज़्यादा असर इन्हीं वर्गों पर होता है। हालाँकि, ‘डंकापति’ के विश्व राजनीति में बजने वाले डंके की ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही थी। इससे आज कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि पिछले एक दशक में मोदी के शासनकाल में, बुर्जआ दृष्टिकोण से भी अगर देखा जाये, तो भारत की विदेश-नीति बुरी तरह से असफल रही है।  

वैश्विक स्तर पर भारतीय राज्यसत्ता की गिरती साख

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद 1960 के दशक से लेकर अब तक भारत की अवस्थिति आम तौर पर साम्राज्यवाद के ‘जूनियर पार्टनर’ की रही है। 1960 और 1970 के दशक में ‘गुट-निरपेक्ष आन्दोलन’ के दौर में भारत का शासक वर्ग संशोधनवादी सोवियत साम्राज्यवादियों के धड़े से ज़्यादा नज़दीकी रखता था, हालाँकि ज़रूरत पड़ने पर समय-समय पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों से भी समझौते करता था। कई मौक़े ऐसे भी आये जब भारत ने स्वतन्त्र अवस्थिति भी अपनायी। 1980 का दशक आते-आते वैश्विक स्तर पर साम्राज्यवादी शक्तियों का सन्तुलन बदलने लगा था। 1990 के दशक में सोवियत यूनियन के पतन के बाद, भारत के शासक वर्ग ने अपने हितों के मद्देनज़र तात्कालिक तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों से नज़दीकी बढ़ाना ज़्यादा मुनासिब समझा। वैश्विक असेम्बली लाइन में भारत द्वारा कच्चा माल और सस्ता श्रम मुहैया कराने की क्षमता को यूरोपीय व अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने तरजीह दी। इसके साथ ही पश्चिमी साम्राज्यवादी देश एशिया में चीन की बढ़ती साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के बरक्स भारत की अवस्थिति को अहम मान रहे थे। इस तरह 1990 के दशक से ही भारत का शासक वर्ग पश्चिमी साम्राज्यवादियों का एशिया में प्रमुख साझेदार रहा है। लेकिन इसके बावजूद इसने राजनीतिक तौर पर अपनी स्वतन्त्र अवस्थिति बनायी रखी, फिर चाहे अमेरिका द्वारा लड़े गये इराक़ युद्ध का खुला मौखिक विरोध करना हो, सैन्य मदद मुहैया कराने से इन्कार करना हो या अमेरिकी प्रतिरोध के बावजूद नाभिकीय हथियार परीक्षण करना हो।

कश्मीर मसले पर भी पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों का रुख भारत के प्रति नरम ही रहता था। यह इस बात से झलकता था कि संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर मसले को रखने के बावजूद भी इसे सदस्य देशों द्वारा दो देशों का आपसी मसला क़रार दिया जाता रहा था। संक्षेप में, वैश्विक स्तर पर, विशेषकर दक्षिण एशिया में भारत की अवस्थिति सुदृढ़ बनी हुई थी। लेकिन मोदी के सत्तासीन होने के बाद से इसमें परिवर्तन होने लगा।

इस एक दशक में, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव तक से कूटनीतिक सम्बन्ध बिगड़ते ही रहे। ये तमाम देश भारत के बजाय चीन से अपनी नज़दीकी बढ़ाते गये। चीन ने श्रीलंका में हम्बनटोटा बन्दरगाह सहित अन्य बुनियादी अवसंरचनागत परियोजनाओं के लिए बड़ी मात्रा में ऋण प्रदान किया है। चीन ने नेपाल को कई सड़क परियोजनाएँ देने का वायदा किया है। इसके साथ ही वैकल्पिक व्यापार मार्ग की पेशकश की है जिससे भारत पर नेपाल की निर्भरता कम होगी। बांग्लादेश में हुए सत्ता-परिवर्तन, भारत का शेख हसीना को पनाह दिया जाना, तीस्ता जल बँटवारे का न सुलझना आदि मुद्दों के कारण भारत-बंग्लादेश सम्बन्धों में भी कड़वाहट आयी है। वहीं चीन द्वारा बांग्लादेश में ज़बरदस्त निवेश किया जा रहा है जिसके कारण चीन के साथ वहाँ की सत्ता की क़रीबी बढ़ती जा रही है।

ऐसा सिर्फ़ भारतीय उपमहाद्वीप के देशों के साथ ही नहीं बल्कि पश्चिम के ऐसे देश, जिनसे भारतीय राज्यसत्ता के पारम्परिक तौर क़रीबी रिश्ते रहे हैं, उनके सम्बन्ध में भी हुआ है। जुलाई 2023 में, कनाडा में एक खालिस्तान समर्थक नेता की हत्या में भारत के खुफिया एजेण्टों के शामिल होने की बात सामने आने के बाद से भारत-कनाडा सम्बन्ध बिगड़ने लगे। भारत सरकार ने दावा किया कि कनाडा ने इस हत्या के बारे में किसी तरह का सबूत नहीं दिया है, जबकि कनाडा के अनुसार उसे अमेरिकी खुफिया एजेंसियों द्वारा इस बारे में खुफिया जानकारी दी गयी थी। आज दो सालों के बाद भी भारत-कनाडा सम्बन्धों में सुधार नहीं हुआ है। अगर इन सभी मसलों पर ग़ौर करें तो हम पायेंगे कि हाल के समय में भारतीय राज्यसत्ता द्वारा अपने से कम सामरिक शक्ति वाले देशों के प्रति बेवजह उग्र रवैया अपनाया गया है। 

उरी आतंकी हमले के बाद हुए ‘सर्जिकल स्ट्राइक’, पुलवामा हमले के बाद हुए ‘बालाकोट एयर स्ट्राइक’, पहलगाम में आतंकी हमले के बाद हुए ‘ऑपरेशन सिन्दूर’- इन तीनों ही कार्यवाइयों को भाजपा-संघ परिवार की प्रोपेगैण्डा मशीनीरी और गोदी मीडिया ने जनता के बीच खूब ज़ोर-शोर से प्रचारित किया तथा मोदी की एक मज़बूत नेता की छवि बनाने का प्रयास किया गया। दूसरी तरफ इन आतंकी हमलों की जाँच को लेकर भाजपा सरकार का रवैया हमेशा लीपा-पोती वाला बना रहा। ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के दौरान जिस तरह का युद्धोन्माद भारतीय गोदी मीडिया ने फैलाया, उसे पूरी दुनिया ने भी देखा। इस सैन्य झड़प (जिसे युद्ध बताया जा रहा था) में भारत की सामरिक शक्ति को लेकर भी दुनिया के समक्ष प्रश्न उठने शुरू हुए। भारत द्वारा फ़्रांस से ऊँची क़ीमतों पर ख़रीदे गये अत्याधुनिक राफेल सैन्य-जेट की पाकिस्तान द्वारा ख़रीदे गये चीनी हथियारों के समक्ष विफलता की ख़बर सबसे ज़्यादा पश्चिमी मीडिया ने ही छापी। युद्ध में हुए नुक़सान को भारत की सेना भी दबे सुर में मानती रही। हालाँकि मोदी सरकार का ध्यान तो कहीं और ही था। भाजपा व नरेन्द्र मोदी-अमित शाह द्वारा इस युद्धोन्माद का इस्तेमाल अपनी चुनावी स्थिति मज़बूत करने के लिए किया जा रहा था।

इसके बाद आनन-फ़ानन में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा युद्ध-विराम की घोषणा ने मोदी सरकार की फ़ज़ीहत देश की जनता के सामने भी करवा दी। आज एक माह बीत जाने के बाद देश के प्रधानमन्त्री और उनके सिपाह-सालार विदेशमन्त्री एस.जयशंकर इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रहें कि आखिर युद्ध-विराम कि घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति ने क्यों और कैसे कर दी? आख़िर “मज़बूत छवि वाले देश के 56 इंच के सीने वाले” प्रधानमन्त्री को इस मसले पर क्यों झुकना पड़ा? इसके अलावा ट्रम्प प्रशासन द्वारा ट्रेड टैरिफ़ बढ़ाने के सवाल पर भी अभी तक प्रधानमन्त्री चुप क्यों हैं?

इस पूरी प्रक्रिया में भारत की छवि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पड़ोसी मुल्कों से झगड़ने वाले मुल्क की बनी। बीच-बीच में पश्चिमी साम्राज्यवादियों का विश्वास जीतने के लिए भारत के शासक वर्ग ने कुछ प्रयास भी किये, जैसे कि फिलिस्तीन में युद्ध विराम का मसला जब भी संयुक्त राष्ट्र में उठाया गया तब भारत ने वोटिंग नहीं की। लेकिन इसके परिणामस्वरूप भारत की साख मध्य-पूर्व, अफ्रीका, लातिनी अमेरिका और दक्षिण एशिया के उन देशों के बीच गिरने लगी जो युद्ध-विराम का समर्थन कर रहे थे। भारत की विदेश नीति की असफलता का अनुमान इस बात से ही लग जाता है कि ज़ायनवादी इज़रायल द्वारा ईरान पर 13 जून को किये गये हमलों के बाद भारत ने एस.सी.ओ (शंघाई कॉर्पोरेशन ऑर्गनाइज़ेशन – जिसका भारत भी सदस्य है) की ओर से हमले की निन्दा में दिये गये बयान से अपने को अलग कर लिया।

भारत की इस लगातार गिरती साख का नवीनतम मुज़ाहिरा इस बार ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के बाद सामने आया। ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के बाद वैश्विक स्तर पर सहानभूति पाकिस्तान को मिली। इससे निपटने के लिए मोदी सरकार को सात सर्वदलीय सदस्यीय सांसदों का प्रतिनिधिमण्डल 32 देशों के दौरे पर भेजना पड़ा ताकि दुनिया के समक्ष भारत के पक्ष को रखा जा सके! लेकिन ढाक के तीन पात, हालात वैसे ही बने रहे। इसके उलट, पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के मातहत आतंकवाद-विरोधी कमिटी की उपाध्यक्षता और तालिबान सैंक्शन कमिटी की अध्यक्षता का ज़िम्मा दे दिया गया! हालाँकि ये तमाम समितियाँ वास्तव में सिर्फ नाम गिनाने के लिए ही होती है, पर वैश्विक मंच पर इन समितियों में पाकिस्तान को महत्वपूर्ण पद दिये जाने के क़दमों को भारत की कूटनीतिक पराजय के तौर पर देखा जा रहा है। पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों समेत बाक़ी देश भी इससे सहमत है कि पाकिस्तान खुद आतंकवाद की पनाहगाह रहा है और वहाँ की राज्यसत्ता अपने यहाँ पनप रहे आतंकवाद को नियन्त्रित नहीं कर सकती है, हालाँकि इसमें ख़ुद इन साम्राज्यवादी देशों का हाथ भी रहा है। लेकिन इसके बावजूद वह दक्षिण एशिया और मध्य-पूर्व में पाकिस्तान को अपने साझेदार के तौर पर देखता रहा है और अभी भी वैसे ही देख रहा है। 

और अन्त में….

आज से पहले कभी किसी प्रधानमन्त्री या पार्टी ने इस हद तक जाकर युद्धोन्माद का इस्तेमाल अपने चुनावी फ़ायदे के लिए शायद ही किया हो, जितना नरेन्द्र मोदी और भाजपा ने किया है। पिछले एक दशक में पड़ोसी देशों के प्रति बेवजह की आक्रमकता दिखाकर और वैश्विक स्तर पर निरंकुश सत्ताओं को समर्थन देकर फ़ासीवादी मोदी सरकार ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बेतहाशा फ़जीहत करवायी है। लेकिन जैसा कि हमने लेख की शुरुआत में ही कहा था कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी भद पिटवाने के बावजूद गोदी मीडिया और संघी आई.टी सेल की ट्रोल आर्मी ने मोदी की छवि का आभामण्डल “विश्व-विजयी सम्राट” सरीखा बना रखा है! हालाँकि देर-सबेर सच्चाई की ठोस दीवार से टकराकर यह आभामण्डल भी टूटेगा!  

 

 

मज़दूर बिगुल, जून 2025

 

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