उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य जगहों में भीषण गर्मी और लू से हुई मौतें : ये महज़ प्राकृतिक आपदा नहीं पूँजीवाद की देन हैं!
सार्थक
पिछले महीने उत्तर भारत के मैदानी इलाक़े, ख़ास तौर से उत्तर प्रदेश और बिहार, भयंकर गर्मी और लू की चपेट में रहे। पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो ज़िलों बलिया और देवरिया को लू का सबसे ज़्यादा प्रकोप झेलना पड़ा। कई स्थानीय अख़बारों के अनुसार जून 11 से 23 के बीच लू के कारण इन दोनों जगहों में 100 से ज़्यादा लोग मरे हैं। बताने की आवश्यकता नहीं कि इनमें से अधिकांश आम मेहनतकश ग़रीब लोग थे। बलिया जिला अस्पताल के स्वास्थ्य अधिकारी के प्रारम्भिक रिपोर्ट के अनुसार जून 14 से 16 के बीच लू के कारण 68 लोगों की मौत हुई हैं। बिहार में इस दौरान लू से 50 से अधिक लोगों की मौत हो गयी। इससे पहले, अप्रैल में नवी मुम्बई में भाजपा की एक रैली के दौरान भयंकर गर्मी और उमस से 13 लोगों की जान चली गयी थी। यह याद रखना ज़रूरी है कि ये आँकड़े केवल सरकारी अस्पताल में हुई मौतों के हैं; इनमें निजी अस्पतालों और घरों में हुई मौतें शामिल नहीं हैं। अक्सर पोस्टमार्टम न होने के कारण भी लू से हुई मौत की रिपोर्टिंग नहीं होती है।
ख़ैर, सरकार की लापरवाही और नाकामी से हो रही इन मौतों की सच्चाई को छिपाने के लिए योगी सरकार ने आनन-फानन में बलिया जिला स्वास्थ्य अधिकारी का तबादला कर विशेषज्ञों के टीम का गठन कर दिया। इस टीम ने जल्द ही यह घोषणा कर दी कि बलिया और देवरिया में हो रही अचानक मौतों के लिए लू ज़िम्मेदार नहीं है। कई राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मौसम विज्ञान संस्थानों ने पहले ही उत्तर भारत में जून के महीने में भयंकर गर्मी और लू की चेतावनी दे दी थी। लेकिन इस स्थिति से बचने के लिए उत्तर प्रदेश के योगी सरकार ने कोई क़दम नहीं उठाये। एक-दो दिन में ही सरकारी अस्पताल ठसाठस भर गये। स्थानीय अख़बारों के अनुसार बलिया के ज़िला अस्पताल के कई वार्डों में पंखे और बेड तक की सुविधा नहीं थी और लू से पीड़ित मरीज़ ज़मीन पर लेटे-लेटे ही दम तोड रहे थे। यह है उत्तर प्रदेश के डबल इंजन की सरकार के सुशासन का परिचय। विशेषज्ञों की चेतावनी के बावजूद योगी सरकार द्वारा कोई सूचना, दफ़्तरों व कारखानों में छुट्टी या काम के घण्टे कम करने की सूचना या लू से बचने की आम सूचना नहीं जारी की गयी। अपने राज्य की जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था को जानते हुए भी ऐसा कोई क़दम नहीं उठाना आपराधिक है और लापरवाही के कारण हुई ये मौतें हत्या हैं।
देश में इस साल लू और भीषण गर्मी का दौर कोई अपरिहार्य या आकस्मिक प्राकृतिक परिघटना नहीं है। यह मुनाफ़े की हवस पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था-जनित जलवायु संकट की अभिव्यक्तियाँ हैं। इस जलवायु संकट की जड़ में भूमण्डलीय ऊष्मीकरण (‘ग्लोबल वार्मिंग’) है। मुनाफ़ाखोरी के लिए तेज़ी से कटते जंगल और कार्बन डाइऑक्साइड जैसे ग्रीनहाउस गैसों का बेलगाम उत्सर्जन मुख्यतः ज़िम्मेदार हैं। ‘वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन’ द्वारा हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जून 14-16 के बीच पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में जो भयानक लू चली, उसके पैदा होने की सम्भावना जलवायु परिवर्तन के कारण दुगनी हो गयी थी। इस तरह ही भारत समेत दक्षिण और दक्षिण पूर्वी एशिया में अप्रैल में जो लू की स्थिति पैदा हुई थी उसकी सम्भावना भी जलवायु परिवर्तन के कारण 30 गुना तक बढ़ गयी थी। इस तरीके के भयंकर लू की स्थिति जो पहले सदी में औसतन एक बार आती थी, अब जलवायु परिवर्तन के कारण 5 साल में एक बार आ सकती है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2060 तक देश के ज़्यादातर हिस्सों में लू 12 से 18 दिनों से ज़्यादा समय तक चल सकती है।
गर्मी के मौसम में उत्तरी भारत में पश्चिम तथा मध्य एशिया से हवा चलती है। भूमण्डलीय ऊष्मीकरण के कारण ये दोनों भौगोलिक क्षेत्र तेज़ी से गर्म हो रहे हैं जिसके कारण यहाँ से ज़्यादा गर्म हवा अब भारत आ रही है। भूमण्डलीय ऊष्मीकरण के कारण अरब सागर भी बाकी महासागरों से ज़्यादा जल्दी गर्म हो रहा है। इसकी वजह से अरब सागर से चलने वाली हवा पहले की तुलना में ज़्यादा गर्म और अपने साथ ज़्यादा नमी लेकर आती है। महासागरीय तापमान बढ़ने के साथ उसके ऊपर चलने वाली हवा की आर्द्रता भी बढ़ जाती है। यह नम हवा उत्तरी भारत में अत्यधिक उमस की स्थिति पैदा करती है। हम जानते हैं कि अत्यधिक उमस गर्मी को ज़्यादा असहनीय, पीड़ादायी और प्राणघातक बना देती है। नमी वाली हवा शुष्क हवा के मुकाब़ले कम पसीना सोखती है। जब हवा हमारे त्वचा से पसीना सोखती है तो इससे शरीर का तापमान कम हो जाता है। लेकिन नमी बढ़ने के कारण हवा पसीना नहीं सोख पाती और इसकी वजह से प्राकृतिक तौर पर शरीर को ठण्डा रखने का तन्त्र काम करना बन्द कर देता है। इससे शरीर का आन्तरिक तापमान बढ़ने लगता है और अगर यह स्थिति कुछ घण्टों तक भी बनी रही तो इससे लू लग सकती है। उमस और गर्मी के संयुक्त प्रभाव को वैज्ञानिक शब्दावली में ‘वेट बल्ब टेंपरेचर’ कहते हैं। साधारण तापमान अगर 44 डिग्री भी हो तो यह इन्सानी शरीर के लिए उतना आत्मघाती नहीं है जितना वेट बल्ब टेंपरेचर का 34 डिग्री होना होता है। इसके अलावा, अराजक पूँजीवादी व्यवस्था के तहत होने वाले अनियोजित शहरी विकास के कारण हमारे शहरों का ढाँचा भी कुछ इस प्रकार बन गया है कि ज़्यादातर ऊष्मा इसके अन्दर ही क़ैद रह जाती है। वैज्ञानिक इन शहरी इलाकों को ताप द्वीप (‘हीट आइलैंड’) की संज्ञा देते हैं। इन ताप द्वीपों का औसत तापमान अपने आसपास के इलाक़ों की तुलना में ज़्यादा होता है। ऊँची इमारतें और अत्यधिक संकुलित रिहायशी इलाक़ों के कारण हवा का प्राकृतिक प्रवाह भी बाधित होता है जिससे उमस का प्रभाव बढ़ जाता है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के अनुसार भीषण गर्मी और लू से पिछले 32 सालों में भारत में 26,000 से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। सिर्फ़ भारत या दक्षिण एशिया ही नहीं, यहाँ तक कि यूरोप भी इससे अछूता नहीं है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के रिपोर्ट के अनुसार 2022 में यूरोप में अभूतपूर्व गर्मी के कारण 15,000 लोगों की मौत हुई। सन 1901 में पृथ्वी के औसत तापमान का सटीक रिकॉर्ड रखने की प्रक्रिया शुरू होने के बाद से अब तक के सात सबसे गर्म वर्ष 2015 के बाद के ही रहे हैं। 2022 के मार्च और अप्रैल पिछले 122 सालों में सबसे गर्म मार्च और अप्रैल रहे। 2023 के फ़रवरी और जून अब तक के सबसे गर्म फ़रवरी और जून रहे हैं। विश्व मौसम विज्ञान संस्थान द्वारा मई में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2023-2027 अब तक के सबसे गर्म पाँच साल होने जा रहे हैं।
उक्त रिपोर्ट के अनुसार इस बात की 66 प्रतिशत सम्भावना है कि इन पाँच सालों में औसत भूमण्डलीय तापमान अस्थाई रूप से 1.5 डिग्री सीमा का अतिक्रमण कर सकता है। लेकिन जून के पहले सप्ताह में ही औसत भूमण्डलीय तापमान कुछ दिनों के लिए 1.5 डिग्री के ऊपर चला गया था। ऐसा नहीं है कि इतिहास में पहली बार पृथ्वी का औसत तापमान 1.5 डिग्री के ऊपर गया हो। लेकिन कई दिनों तक लगातार औसत तापमान इस सीमा से ऊपर रहा हो, ऐसा पहली बार हुआ है। यह घटना आगे आने वाले भयानक मंज़र का एक संकेत मात्र है।
ग़ौरतलब है कि जलवायु संकट पर रोक लगाने और पृथ्वी को विनाश से बचाने के लिए 2015 के पेरिस समझौते में भूमण्डलीय ऊष्मीकरण को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने की सीमा तय की गयी थी। लेकिन जलवायु संकट पर रोक लगाने के सभी बुर्जुआ हस्तक्षेपों के समान पेरिस समझौता भी कार्यान्वयन से कोसों दूर एक जुमला मात्र बनकर रह गया है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की पिछले साल प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अगर सभी देश इसी ढर्रे पर चलते रहे तो सदी के अन्त तक पृथ्वी का औसत तापमान 2.8 डिग्री तक बढ़ जायेगा। ‘सीओपी’ जैसे अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कितने प्रयत्नशील हैं इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि संयुक्त अरब अमीरात की राष्ट्रीय तेल कम्पनी के प्रमुख सुलतान अल जबेर को ‘सीओपी-28’ का अध्यक्ष बनाया गया है। यह क़दम बुर्जुआ मानकों के हिसाब से भी इतना लज्जाजनक है कि साम्राज्यवादी भोंपू मीडिया का एक हिस्सा तक इसकी आलोचना करने से ख़ुद को रोक नहीं पाया। एक ओर जहाँ दुनियाभर के पर्यावरणविद जलवायु संकट से निजात पाने के लिए जीवाश्म ईंधन की अन्धाधुन्ध खपत पर रोक लगाने की माँग कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर दुनिया के सबसे बड़े तेल कम्पनियों के अधिकारियों को लाल कालीन बिछा कर ‘सीओपी’ जैसे सम्मेलनों में स्वागत किया जा रहा है।
आज जलवायु परिवर्तन के विकराल होते रूप ने समूची मानवजाति के अस्तित्व को ख़तरे में डाल दिया है। लेकिन तात्कालिक तौर पर जलवायु परिवर्तन से सबसे ज़्यादा नुक़सान मेहनतकशों का ही होता है। झुलसा देने वाली लू, कड़ाके की ठण्ड, बेमौसम मूसलाधार बारिश, नियमित सूखा, बाढ़ और चक्रवात आदि आपदाओं से तात्कालिक बचाव के लिए पूँजीपतियों, धन्नासेठों, धनी किसानों और नेता मन्त्रियों के पास पर्याप्त संसाधन होते हैं। लेकिन हम मेहनतकश जो कारख़ानों, खेतों और निर्माण परियोजनाओं में काम करते हैं, बेलदारी करते हैं, डिलीवरी सर्विस में लगे हैं, रेहड़ी-खोमचे लगाकर पेट पालते हैं, हम इन आपदाओं से कैसे बचेंगे? ‘मैकिंसी ग्लोबल इन्स्टीट्यूट’ के हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत के 75 प्रतिशत मज़दूर, यानी 38 करोड़ मज़दूर, भीषण गर्मी के कारण शारीरिक तनाव झेलते हैं। लू के जानलेवा प्रभाव से निपटने के लिए सरकार का मुख्य नीतिगत उपकरण है हीट एक्शन प्लान। अब तक सिर्फ़ केन्द्र सरकार, कुछ राज्यों और शहरों ने अपने हीट एक्शन प्लान बनाये हैं। जलवायु विशेषज्ञों ने इन नीतिगत योजनाओं में कई बुनियादी ख़ामियों पर विस्तार से लिखा है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मेहनतकश वर्ग इन हीट एक्शन प्लान से पूरी तरह ग़ायब हैं। इन योजनाओं में यह नहीं बताया जाता है कि ग़रीब और मेहनतकश आबादी लू से किस तरह प्रभावित होती है और इससे बचने के लिए उन्हें क्या विशेष सुविधाएँ मिलनी चाहिए।
इसके अलावा, बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई की मार झेलते हम मज़दूर व मेहनतकश वर्ग पहले से ही खाद्य असुरक्षा में जीते हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती गर्मी, सूखा और बाढ़ से हमारे खाद्य सुरक्षा का संकट और ज़्यादा बढ़ जाता है। पिछले साल भीषण गर्मी के कारण देश में गेहूँ के फ़सल में आयी भारी गिरावट और इसके फलस्वरूप गेहूँ, आटा और इनसे बनने वाले अन्य खाद्य पदार्थों की बाज़ार क़ीमतों में आयी उछाल इस प्रक्रिया का एक उदाहरण है। एक रिपोर्ट के अनुसार इस साल भीषण गर्मी के कारण 10 से 30 प्रतिशत फल और सब्ज़ियाँ बर्बाद हो सकती हैं। वैश्विक खाद्य नीति रिपोर्ट 2022 के अनुसार 2050 तक भारत में 7 करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन के कारण भूख का शिकार हो सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती गर्मी और लू और इसके बहुआयामी प्रभाव मज़दूर वर्ग के लिए वर्ग संघर्ष का एक सवाल है। कार्यस्थल में गर्मी से बचने के लिए ज़रूरी प्रबन्ध हमारी जायज़ माँग है। हम जहाँ काम करते हैं वहाँ हमारे लिए अच्छे हवादार कमरे, आराम करने की जगह, ठण्डा पानी, नियमित अन्तराल में ब्रेक, कार्यस्थल से रिहायश तक यातायात की सुविधा, प्राथमिक उपचार के इन्तज़ाम, गर्मी से बचने के लिए उपयुक्त वर्दी, दस्ताने, जूते आदि मुहैया कराना नियोक्ता की बुनियादी ज़िम्मेदारी है।
इसके साथ ही, हमें यह भी जान लेना होगा कि जलवायु परिवर्तन कोई ‘मानवनिर्मित आपदा’ नहीं है जैसा कि इस पूँजीवादी व्यवस्था के भाड़े के कलमघसीट हमें बताते हैं। मुनाफ़े की हवस में पूँजीपति वर्ग श्रम के शोषण के साथ साथ प्रकृति का भी अन्धाधुन्ध दोहन कर रहा है। शोषणकारी वर्ग समाज के सामाजिक सम्बन्धों के तहत मनुष्य का प्रकृति के साथ रिश्ता एक दुश्मनाना रिश्ता बन गया दिखता है, लेकिन वास्तव में यह पूँजीवादी समाज के भीतर श्रम और पूँजी के बीच का दुश्मनाना अन्तरविरोध है, जिसका नतीजा हमें प्राकृतिक विनाश के तौर पर सामने दिखायी दे रहा है। पूँजीवादी समाज की चौहद्दियों के अन्दर इस दुश्मनाना अन्तरविरोध का समाधान नामुमकिन है। एक ऐसी व्यवस्था जो मुनाफ़े के बदले मनुष्य के ज़रूरत को केन्द्र में रखती हो, वैसी व्यवस्था में ही मानव समाज और प्रकृति के आपसी विनाश को रोका जा सकता है। सिर्फ़ ऐसी व्यवस्था में मानव समाज और प्रकृति एक साथ समृद्ध हो सकते हैं।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2023
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