अम्बेडकरनगर के गाँवों के कारख़ानों में खटते मज़दूरों के हालात
बिगुल संवाददाता
कुछ समय पहले तक हमारे गाँवों में मिट्टी के बर्तनों को कुम्हार अपने परिवार वालों के साथ मिलकर चाक पर बनाया करते थे। अब आप जिन कुल्हड़ों में शहरों में, ढाबों पर चाय पीते हैं वह कुम्हार के चाक पर नहीं, बल्कि कारख़ानों में बने होते हैं। अम्बेडकरनगर के ग्रामीण इलाकों में भी ऐसे कई कारख़ाने खुल चुके हैं। लेकिन इन कारख़ानों में चाक की जगह उन्नत मशीनों पर काम करने के बावजूद लोगों का काम आसान होने के बजाय मुश्किल हो गया है क्योंकि मालिकों ने मशीनों का प्रयोग लोगों के काम को सरल बनाने के लिए नहीं बल्कि मुनाफ़ा कमाने के लिए किया है। पहले जब हाथों से चाक पर मिट्टी का बर्तन बनाया जाता था तो उत्पादन कम होता था। परन्तु मशीन का प्रयोग करने से उत्पादन ज़्यादा होता है जिससे मालिकों का मुनाफ़ा बढ़ता जाता है।
इन कारख़ानों में ज़्यादातर महिलाएँ काम करती हैं। जिन महिलाओं की उम्र 18 से 35 वर्ष के बीच होती है, वे मशीनों पर काम करती हैं। 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियाँ फ़िनिशिंग और पैकिंग का काम करती हैं। इन कारख़ानों में काम करने वालों को शुरुआत के 15 दिनों तक ट्रेनिंग दी जाती है। इसका उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता है जबकि ट्रेनिंग के दौरान भी मालिकों के मुनाफ़े की हवस मज़दूरों का पीछा नहीं छोड़ती। मालिकों का कहना होता है कि ट्रेनिंग के दौरान भी रोज़ दो हज़ार बर्तन बनने चाहिए। ज़ाहिर है कि ट्रेनिंग का मतलब और कुछ नहीं, बल्कि 15 दिनों तक मुफ़्त में बेगार करवाना है। क्योंकि चाक पर बर्तन बनाने के परम्परागत तरीक़े में जिस कुशलता को अर्जित करना पड़ता था, उसके विपरीत मशीनों पर कुछ घण्टों में ही काम सीखा जा सकता है। ट्रेनिंग के पन्द्रह दिन बीतने पर 6,000 रुपये मासिक या रुपये प्रतिदिन वेतन देने को कहा जाता है। लेकिन यदि कोई मज़दूर आठ घण्टे में दो हज़ार गिलास बनाता है तभी उसे एक दिन के 200 रुपये दिये जाते हैं। फ़िनिशिंग करने वाली महिलाओं को एक दिन में 8 घण्टे में लगभग 3-4 हज़ार गिलासों की फ़िनिशिंग करनी होती है, जिसका एक दिन का 100 रुपये तथा मासिक 3500 वेतन दिया जाता है। महीना पूरा होने पर वेतन न देकर, अगला माह आधा निकल जाने पर वेतन मिलता है। यदि कोई मज़दूर किसी कारणवश पहले पैसा माँगता है तो सीधा इनक़ार कर दिया जाता है।
मज़दूर लगातार पूरे महीने काम करते हैं, क्योंकि इन कारख़ानों में रविवार को भी छुट्टी नहीं मिलती है। यदि कोई मज़दूर छुट्टी माँगता है, तो भी छुट्टी नहीं मिलती। मालिकों का कहना होता है कि हमारे यहाँ इतना माल नहीं बन चुका है कि तुम लोगों को छुट्टी दें। यदि किसी दिन बर्तन बनाने के लिए मिट्टी नहीं रहती है, तो उस दिन बर्तन नहीं बनता है। लेकिन मज़दूरों को छुट्टी न देकर उन्हें फ़िनिशिंग या पैकिंग जैसे किसी दूसरे काम में लगा दिया जाता है। ये सारा काम मज़दूर खड़े होकर करते हैं। जब भट्टी चलती है तो गिलास को ट्राली पर लगाना और उतारना होता है। ये काम पूरे दिन लगातार चलता रहता है। ऐसे ही एक कारख़ाने में काम करने वाले मज़दूर ने बताया कि “हमारे कारख़ाने में आधे घण्टे का लंच होता है जिसमें मिट्टी से सने हुए हाथों को धोने में ही दस मिनट निकल जाता है। बाकी बचे बीस मिनट में तुरन्त खाना खाओ, और शायद पाँच मिनट भी ठीक ढंग से आराम किये बिना फ़िर कोल्हू के बैल की तरह मशीन पर लग जाओ। यदि कोई मज़दूर ओवरटाइम करता है तो उसे आधे घण्टे काम का मात्र 12 रुपये मिलता है। ओवरटाइम काम निकलवाने से मालिक को मुनाफ़ा होता है जिसके कारण वह अन्य मज़दूरों पर भी ओवरटाइम करने का दबाव बनाता है। इस कारख़ाने में 65 मिली, 70 मिली और 100 मिली के कुल्हड़; 150 मिलीऔर 250 मिली के गिलास; 100 मिली और 150 मिली की कोसिया (कटोरी) तथा 200 मिली की प्लेट बनती है। बाज़ार में मालिक प्रति गिलास 2 रुपये से 5 रुपये तक के दाम पर बेचता है। पर जो मज़दूर उन गिलासों को बनाता है, वह उन्हें प्रति गिलास 25 पैसा भी नहीं देता है।”
वास्तव में पूँजीवादी विकास ने पुराने उत्पादन सम्बन्धों को तोड़कर समाज के हर स्तर पर पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को विकसित किया है। गाँव में मिट्टी के बर्तनों के उद्योग की यह तस्वीर तो केवल इसकी एक बानगी है। खेतों से लेकर ईंट-भट्ठों समेत ग्रामीण इलाकों में उत्पादन का पूरा ढाँचा पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के मातहत हो चुका है। ज़रूरत यह है कि ग्रामीण इलाके में इस मज़दूर आबादी की क्रान्तिकारी लामबन्दी को और तेज़ किया जाये।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2023
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