गुड़गाँव के कापसहेड़ा से मज़दूरों की रिपोर्ट
बिगुल संवाददाता
अगर आप कभी गुड़गाँव में हैं तो शाम के 5 बजे के बाद गुड़गाँव के कापसहेड़ा में चले जाइए। 5 बजते ही आपको लोगों की एक बाढ़ दिखनी शुरू होगी। यह कोई मेला नहीं होगा और न ही कोई तमाशा! और ऐसा तो हर रोज़ होता है। लोगों की यह भीड़ रात के दस बजे तक दिखेगी। इस भीड़ में 13-14 साल से लेकर 65-70 की उम्र के लोग, पुरुष और महिलाएँ, सब दिख जायेंगे। सभी की वेश-भूषा भी कमोबेश एक जैसी ही दिखेगी। देखकर आश्चर्य होगा कि जिस सड़क पर दोपहर के समय बिल्कुल सन्नाटा पसरा होता है वहाँ अचानक इतने सारे लोग कहाँ से आ गये!
आपको बता दें, यह वह भीड़ है जो अपनी और अपने परिवार की ज़िन्दगी चलाने के लिए हर सुबह ऐसे ही आती है और फिर 10-12 घण्टे कमरतोड़ मेहनत करने के बाद वापस लौटती है। इन 4-5 घण्टों में आपको लाखों-लाख मज़दूर दिख जायेंगे। गुड़गाँव जैसे शहर में भी इन सभी की औसतन कमाई बमुश्किल 8-12 हज़ार की होती है। कापसहेड़ा के इस इलाक़े में सैकड़ों की संख्या में फ़ैक्टरियाँ और कॉल सेण्टर हैं, जिनमें ये मज़दूर काम करते हैं। यहाँ मुख्यतः गारमेण्ट सेक्टर की फ़ैक्टरियाँ हैं, पर साथ में कई सारे ऑटोमोबाइल और दूसरे कारख़ाने भी मौजूद हैं।
अगर अभी की बात करें तो साल के इस समय यहाँ काम सापेक्षिक रूप से ठण्डा पड़ जाता है और इसलिए अभी कई कम्पनियों ने कई मज़दूरों को ब्रेक दे दिया है, यानी फ़िलहाल कई कम्पनियों ने एक महीने की बिना पैसे की छुट्टी दे दी है। वापस आने पर कोई गारण्टी नहीं होती कि फिर से उन्हें काम पर रख ही लिया जायेगा। दशहरा-दिवाली में लगभग हर साल ऐसा ही होता है। कारण यह कि कम्पनियों को इस समय काम करने वाले मज़दूरों को बोनस देना होता है, जिससे बचने के लिए भी वो इन्हें काम से पहले ही ब्रेक दे देते हैं।
कुल मिलाकर अभी स्थिति यह है कि मज़दूरों को कई कम्पनियों में नियमित प्रकृति के काम पर दिहाड़ी पर रखना शुरू कर दिया है। अब ठेके की अवधि धीरे-धीरे घटायी जा रही है। पहले जहाँ 11 महीने के लिए मज़दूरों को काम पर रखा जाता था, अब 7 महीने के लिए ही कॉण्ट्रैक्ट पर रखा जाता है (यह बात अलग है कि काम की कोई गारण्टी तब भी नहीं थी और अब भी नहीं है)। आज स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है कि कारख़ानों में कई मज़दूरों को 40-60 रुपये घण्टे के हिसाब से रखा जाने लगा है! कई बार तो काम पूरा होने पर तयशुदा पैसा भी नहीं मिलता है। पर इन सभी मुद्दों पर कहीं कोई सुनवाई नहीं है। दोबारा काम ढूँढ़ना भी आसान नहीं होता है। कई जगह तो कम से कम 10-12 घण्टे की शिफ़्ट होती है। बहुतेरी कम्पनियों में रविवार को भी छुट्टी नहीं मिलती है। वहीं दूसरी तरफ़ कई कम्पनियों में ब्रेक कब मिल जायेगा कोई पता नहीं होता है। ऐसे में नियमित वेतन और रोज़गार की कोई गारण्टी नहीं है।
यह तब हो रहा है जब अभी नये श्रम क़ानून लागू नहीं हुए हैं। ऐसे भी हरियाणा सरकार तो हमेशा से मज़दूरों के ख़िलाफ़ क़ानून बनाने में और शोषण को लचीला बनाने में एक क़दम आगे ही रही है। साथ में मज़दूरों को बाँटने के लिए धर्म और जाति के नाम पर फ़ैक्टरियों में भी अलग-अलग उपाय लगाये जा रहे हैं। फ़ैक्टरियों में मज़दूरों को राम-राम कहने को बोला जाता है, नहीं बोलने पर अलग-अलग ढंग से नज़र रखी जाती है। हिन्दु त्योहार होने पर रैलियाँ निकाली जाती हैं और जान-बूझकर उन्माद फैलाया जाता है।
यह हालत आज लगभग पूरे देश में है। इससे निजात पाने के लिया सर्वहारा वर्ग को मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों के क्रान्तिकारी जनान्दोलनों को संगठित करना होगा। किसी एक फ़ैक्टरी के बूते आज कोई भी संघर्ष खड़ा करना नामुमकिन है, इसलिए एक सेक्टर के तमाम मज़दूरों को एक यूनियन के तहत संगठित करना होगा। इन बड़े धन्नासेठों के ख़िलाफ़ सेक्टरगत और इलाक़ाई यूनियन बनाकर ही अपनी माँगों के लिए संघर्ष किया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2022
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