करोड़ों मज़दूरों-कर्मचारियों पर क़हर बरपा करने वाले चार लेबर कोड लागू करने की हड़बड़ी में मोदी सरकार
इन काले क़ानूनों के विरुद्ध मज़दूरों को ख़ुद ही लम्बी लड़ाई की तैयारी करनी होगी!
- सम्पादकीय
देश के करोड़ों मेहनतकशों की बदहाल ज़िन्दगी को और भी तबाह करने वाले चार ख़तरनाक क़ानून मोदी सरकार संसद से पारित करवा चुकी है और अब आनन-फ़ानन में उन्हें लागू करने की तैयारी में है। पूँजीपति मनमाने तरीक़े से मज़दूरों की हड्डी-हड्डी निचोड़ सकें और मज़दूर अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित भी न हो पायें, इसका पक्का इन्तज़ाम करने वाले इन क़ानूनों को लागू करने के लिए पूँजीपति इतने उतावले हैं कि मोदी सरकार समय से कई महीने पहले ही इन्हें लागू करने जा रही है।
देशभर की ट्रेड यूनियनों और मज़दूर संगठनों की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए केन्द्र सरकार ने कह दिया है कि वह श्रम “सुधारों” को तेज़ करने जा रही है और चारों लेबर कोड को समय से पहले ही लागू करने की तैयारी कर रही है। इसके लिए नियम जनवरी के अन्त तक ही तैयार हो जाने की घोषणा की गयी थी, हालाँकि अभी तक सरकार ने आगे की कोई जानकारी नहीं दी है। पिछले वर्ष अक्टूबर में श्रम मंत्रालय ने कहा था कि अप्रैल 2021 तक सभी लेबर कोड लागू किये जायेंगे। लेकिन जनवरी में श्रम सचिव अपूर्व चन्द्रा ने कहा कि उनका मंत्रालय 31 जनवरी तक चारों कोड के नियम तैयार कर लेगा। उसके बाद कभी भी इन्हें लागू किया जा सकता है।
कोई पूछ सकता है कि औद्योगिक मज़दूरों की विशाल आबादी अपने लिए विनाशकारी इन क़ानूनों को लेकर उसी तरह सड़कों पर क्यों नहीं उतर रही है जिस तरह धनी किसान और कुलकों के संगठन इस समय आन्दोलन पर हैं।
इसके जवाब में यही कहा जा सकता है कि जिन्हें मज़दूरों को उनके हक़ों के लिए जागरूक और संगठित करना था, वे धनी किसानों-फ़ार्मरों के पुछल्ले बने हुए हैं। मज़दूरों के स्वतंत्र पक्ष को संगठित करने का कार्यभार भुलाकर मज़दूरों के वर्ग हितों के ख़िलाफ़ जाने वाली माँगों पर खड़े आन्दोलन में अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से बैंड और पिपिहरी बजा रहे हैं। बरसों पहले लाल झण्डे का सौदा कर चुकी संसदीय वाम की पार्टियाँ और उनसे जुड़ी यूनियनें तो पिछले तीन दशक के दौरान उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के बुलडोज़र के आगे मज़दूरों को फेंक देने के गुनाह की बराबर की भागीदार रही हैं। विरोध के नाम पर कुछ रस्मी कार्रवाइयाँ करते हुए और संसद के अन्दर-बाहर गत्ते की तलवारें भाँजते हुए उन्होंने बस मज़दूरों के ग़ुस्से को निकलने के लिए सेफ़्टी वॉल्व का काम किया है और कुछ सुधारों के पैबन्दों के ज़रिये इस व्यवस्था के शरीर पर लगे ख़ून के धब्बों को ढँकने-छिपाने का काम किया है। मज़दूरों को आना-पाई की छोटी-छोटी लड़ाइयों में उलझाकर उनकी लड़ाकू क्षमता और जुझारू तेवरों को इन्होंने लगातार कुन्द करने का काम किया है। एक-एक करके मज़दूरों से उनके अधिकार छीने जाते रहे हैं और ये सिर्फ़ गाल बजाते रहे हैं।
इन चारों लेबर कोड के मामले में भी लाल कलगी वाले इन तोतों ने सरकार के कन्धे पर बैठकर कुछ खेंखें-टेंटें करने के अलावा कुछ नहीं किया। श्रम सचिव ने कह दिया है कि सभी पक्षों (यूनियनों सहित) से वार्ताओं के बाद न्यूनतम मज़दूरी तय करने के लिए कमेटी बना दी गयी है। त्रिपक्षीय विचार-विमर्श (यानी सरकार, मालिकान और मज़दूरों के प्रतिनिधियों के बीच) लगभग पूरा हो चुका है और पेशागत सुरक्षा कोड तथा सामाजिक सुरक्षा कोड के बारे में बस एक अन्तिम राउण्ड हो सकता है। पिछली 12 जनवरी को श्रम मंत्रालय में नियोक्ताओं के प्रतिनिधियों, उद्योगपतियों के प्रतिनिधियों और कुछ ट्रेड यूनियनों के नेताओं की मीटिंग हुई जिसके बाद सरकार ने कहा कि उनके सुझाव सुन लिये गये हैं और नियम बनाते समय उनमें से कुछ को ध्यान में रखा जायेगा। वाम पार्टियों की यूनियनों सहित 10 केन्द्रीय यूनियनों ने इस मीटिंग का बहिष्कार किया। बस। और कुछ नहीं! फिर जब ये विनाशकारी क़ानून लागू हो जायेंगे, तब मज़दूर हितों के ये ग़द्दार बेशर्मी से रोना रोयेंगे कि सरकार ने तो हमारी सुनी ही नहीं।
इन क़ानूनों के विरुद्ध मज़दूरों के सड़क पर न उतरने के और भी कारण हैं। सम्पत्तिधारी वर्ग अपने विशेषाधिकार (जैसे कि लाभकारी मूल्य) के खोने पर ज़्यादा जल्दी संगठित होते हैं; कुछ खोने का डर तात्कालिक तौर पर इन वर्गों को जल्दी एकजुट कर देता है। उनके लिए गोलबन्द होना ज़्यादा आसान भी होता है क्योंकि उनके पास इसके लिए आवश्यक संसाधन उन वर्गों की तुलना में ज़्यादा होते हैं जो सबकुछ खो चुके हैं, जैसे कि सर्वहारा वर्ग या जो सबकुछ खोने की कगार पर खड़े हैं, जैसे कि ग़रीब और सीमान्त किसान, अर्द्धसर्वहारा और निम्न मध्यवर्ग। यही वजह है कि सर्वहारा वर्ग, अर्द्धसर्वहारा वर्ग, ग़रीब और सीमान्त किसान व निम्न मध्य वर्ग के निचले संस्तर दूरगामी तौर पर कहीं ज़्यादा निर्णायक, रैडिकल और बड़े पैमाने पर गोलबन्द और संगठित होते हैं, लेकिन तात्कालिक तौर पर छोटा पूँजीपति वर्ग, व्यापारी, धनी किसान-कुलक ज़्यादा जल्दी और आसानी से एकजुट हो जाते हैं। जैसा कि हम आज देख रहे हैं। उन्हें राज्यसत्ता के वैसे बर्बर दमन का भी सामना नहीं करना पड़ता, जैसा मज़दूरों और ग़रीबों के आन्दोलनों को करना पड़ता है। मोदी-योगी और खट्टर की सरकारों ने बेशक किसान आन्दोलन को दबाने के लिए काफ़ी ताक़त झोंक रखी है और कई बार दमनकारी तरीक़े अपनाये हैं। लेकिन क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर हज़ारों मज़दूर इस तरह से राजधानी के मुख्य हाइवे जाम करते तो क्या होता? पन्तनगर, बेलाडीला, दल्ली-राजहरा, भिलाई से लेकर कानपुर, चुनार और बबराला तक दर्जनों गोलीकाण्डों में मज़दूरों के आन्दोलनों को ख़ून में डुबो दिया गया। आदिवासियों और ग़रीब किसानों के आन्दोलनों पर भी गोलियाँ बरसाने में इस देश के शासकों को कभी सोचना नहीं पड़ा। इसका यह क़तई मतलब नहीं कि हम इस आन्दोलन का दमन चाहते हैं; बल्कि हम आन्दोलन को बलपूर्वक ख़त्म करने की मोदी सरकार की हर कार्रवाई की कठोर भर्त्सना करते हैं और आन्दोलन की माँगों से असहमत होने के बावजूद आन्दोलन करने के जनवादी अधिकार का समर्थन करते हैं। हम बस इस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं कि सम्पत्तिशाली वर्गों के मुक़ाबले मज़दूरों के लिए आन्दोलन खड़ा करना ज़्यादा कठिन क्यों होता है।
चार लेबर कोड क्या हैं और मज़दूरों के लिए ख़तरनाक क्यों हैं?
यहाँ बताने की ज़रूरत नहीं है कि काग़ज़ पर मौजूद श्रम क़ानून पहले ही इतने लचीले और निष्प्रभावी थे कि आम तौर पर इनका फ़ायदा मज़दूरों को कम, मालिकों को ही ज़्यादा मिलता था। लेकिन फिर भी ये क़ानून पूँजीपतियों के लिए कभी-कभार सरदर्दी का सबब बन जाते थे, ख़ासकर जब मज़दूर इन्हें लागू कराने के लिए संघर्ष छेड़ देते थे। नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आते “कारोबार की आसानी” के नाम पर पूँजीपतियों को मज़दूरों की श्रम-शक्ति लूटने की खुली छूट देने का ऐलान कर दिया था। यही कारण है कि वर्षों के वर्ग संघर्ष के बल पर मज़दूरों ने जो भी अधिकार श्रम क़ानूनों के रूप में हासिल किये थे उसे फ़ासीवादी मोदी सरकार पूरी तरह से छीन लेना चाहती है ताकि मन्दी की मार से पूँजीपतियों के मुनाफ़े में जो भी रोड़ा है उसे हटाकर पूँजीपतियों को मज़दूरों की हड्डी-हड्डी निचोड़ लेने की छूट दी जा सके।
चुनाव में हज़ारों करोड़ का ख़र्च उठा कर अम्बानी-अडानी आदि ने मोदी को दोबारा सत्ता में इसीलिए पहुँचाया है ताकि जनता को झूठे मुद्दों पर बाँटकर पूँजीपतियों के मुनाफ़े के रास्ते में आने वाले हर स्पीडब्रेकर को पूरी तरह से हटाया जा सके। इसलिए वर्षों से जनता के पैसे पर खड़े सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को कौड़ियों के भाव इन पूँजीपतियों को सौंपा जा रहा है, सार्वजानिक शिक्षण संस्थानों और चिकित्सा संस्थानों को बर्बाद किया जा रहा है ताकि पूँजीपतियों को यहाँ भी लूटने में खुला हाथ दिया जा सके। और इसके साथ ही देश में 60 करोड़ मज़दूरों-मेहनतकशों की लूट को बेहिसाब बढ़ाने, उनके यूनियन बनाने के अधिकार यानी उनके सामूहिक मोलभाव की क्षमता को कमज़ोर करने और उनके संघर्ष को कुचलने की तैयारी को मोदी सरकार बड़े ज़ोर-शोर से अंजाम दे रही है।
इसी मक़सद से 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार कोड या संहिताएँ बनायी गयी हैं – मज़दूरी पर श्रम संहिता, औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता, सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता और औद्योगिक सुरक्षा एवं कल्याण पर श्रम संहिता। कहने के लिए तो श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मक़सद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।
मोदी की पिछली सरकार में श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने पहले ही यह कहकर सरकार की नीयत साफ़ कर दी थी कि “श्रम क़ानूनों का मौजूदा स्वरूप विकास में बाधा बन रहा है, इसीलिए सुधारों की आवश्यकता है।” कहने की ज़रूरत नहीं कि विकास का मतलब पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ना ही माना जाता है। मज़दूरों को बेहतर मज़दूरी मिले, उनकी नौकरी सुरक्षित हो, उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा और परिवार को सुकून की ज़िन्दगी मिले, इसे विकास का पैमाना नहीं माना जाता। इसलिए, विकास के लिए ज़रूरी है कि थैलीशाहों को अपनी शर्तों पर कारोबार शुरू करने, बन्द करने, लोगों को काम पर रखने, निकालने, मनचाही मज़दूरी तय करने आदि की पूरी छूट दी जाये और मज़दूरों को यूनियन बनाने, एकजुट होने जैसी “विकास-विरोधी” कार्रवाइयों से दूर रखा जाये।
मज़दूरी पर कोड – पूँजीपतियों को बेहिसाब मुनाफ़ा निचोड़ने की छूट देने वाला क़ानून
इस क़ानून के लागू होने के साथ ही चार पुराने क़ानूनों – वेतन भुगतान अधिनियम 1936, न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, बोनस भुगतान अधिनियम 1965 और समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 को ख़त्म कर दिया गया है। इसके अन्तर्गत पूरे देश के लिए वेतन का न्यूनतम तल-स्तर निर्धारित किया जायेगा। सवाल है कि तल-स्तर निर्धारित करने के लिए तरीक़ा क्या अपनाया गया है। हालाँकि, सरकार का कहना है कि एक त्रिपक्षीय समिति इस तल-स्तर का निर्धारण करेगी, मगर इस सरकार के श्रम मंत्री पहले ही नियोक्ताओं के प्रति अपनी उदारता दिखाते हुए प्रतिदिन के लिए तल-स्तरीय मज़दूरी 178 रुपये करने की घोषणा कर चुके हैं। यानी, इस न्यूनतम मज़दूरी के हिसाब से महीने में 26 दिन काम करने वाले की मासिक आमदनी होगी महज़ 4,628 रुपये! यह राशि ख़ुद इसी सरकार की विशेषज्ञ समिति द्वारा सुझायी गयी 9,750 रुपये से 11,622 रुपये की न्यूनतम मासिक आमदनी से बेहद कम है, और आर्थिक सर्वेक्षण 2017 में सुझाये गये 18,000 रुपये के मासिक वेतन का एक-चौथाई मात्र है। सातवें वेतन आयोग ने भी सरकारी कर्मचारियों के लिए न्यूनतम मूल वेतन 18,000 रुपये ही तय किया है।
पन्द्रहवें राष्ट्रीय श्रम सम्मलेन (1957) की सिफ़ारिशों के अनुसार न्यूनतम मज़दूरी, खाना-कपड़ा-मकान आदि बुनियादी ज़रूरतों के आधार पर तय होनी चाहिए। आगे चलकर, सुप्रीम कोर्ट के 1992 के एक निर्णय (रेप्टाकोस ब्रेट्ट एण्ड कं. बनाम मज़दूर) के अनुसार इसमें बच्चों की शिक्षा, दवा, मनोरंजन, बुढ़ापे के इन्तज़ाम आदि कारकों को भी शामिल किया गया था। केन्द्र और राज्य सरकारें तो वैसे भी इन निर्देशों का पालन नहीं करती थीं, अब मोदी सरकार ने उसी को क़ानूनी जामा पहना दिया है। यहाँ तक कि सरकार द्वारा नियुक्त की गयी विशेषज्ञ समिति ने भी न्यूनतम मज़दूरी तय करने के लिए इन दिशा-निर्देशों के साथ छेड़छाड़ करते हुए कैलोरी की ज़रूरी खपत को 2700 की बजाय 2400 पर रखा है और तमाम बुनियादी चीज़ों की लागत भी 2012 की क़ीमतों के आधार पर तय की है।
इस कोड में ‘रोज़गार सूची’ (एम्प्लॉयमेण्ट शेड्यूल) को हटा दिया गया है जो श्रमिकों को कुशल, अर्द्धकुशल और अकुशल की श्रेणी में बाँटती थी। इससे कुशल, अर्द्धकुशल मज़दूरों को नुक़सान होगा। पहले ही ज़्यादातर औद्योगिक क्षेत्रों में कुशल मज़दूरों का काम करवाकर अकुशल मज़दूरी दी जाती रही है। अब यही काम क़ानूनी तौर पर कराया जायेगा और मज़दूर इसके विरुद्ध लड़ भी नहीं सकेंगे।
इस कोड में न्यूनतम मज़दूरी की दर समयानुसार (टाइम वर्क) और मात्रानुसार (पीस वर्क) तय होगी और वेतनकाल घण्टे, दिन या महीने के हिसाब से हो सकता है। यह नियम सुप्रीम कोर्ट के न्यूनतम मज़दूरी सम्बन्धी फै़सलों की धज्जियाँ उड़ाता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कई बार दोहराया है कि न्यूनतम मज़दूरी व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं के हिसाब से तय होनी चाहिए, न केवल मज़दूरों की साधारण शारीरिक ज़रूरतों व उत्पादन के आधार पर। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार न्यूनतम मज़दूरी तय करते समय आहार-पोषण, पहनने-रहने, इलाज का ख़र्च, पारिवारिक ख़र्च, शिक्षा, ईंधन, त्योहारों, और समारोहों के ख़र्च, बुढ़ापे और अन्य ख़र्चों का ध्यान रखा जाना चाहिए। मगर इसे कोड में दरकिनार कर दिया गया है।
कोड में मज़दूरों से बेतहाशा काम करवाने का भी क़ानूनी इन्तज़ाम कर दिया गया है। मौजूदा व्यवस्था में दिन में 9 घण्टे से ज़्यादा काम और सप्ताह में 48 घण्टे से ज़्यादा काम ओवरटाइम कहलाता है। ओवरटाइम की इस परिभाषा को ख़त्म करके “पूरक कार्य” और “अनिरन्तर काम” की लच्छेदार भाषा के बहाने ओवरटाइम के लिए मिलने वाली अतिरिक्त मज़दूरी को ख़त्म करने की चाल चली गयी है। इसी तरह 1965 के बोनस भुगतान क़ानून ने नयी कम्पनियों को बोनस न देने की छूट दी थी, लेकिन वर्तमान कोड में ‘नयी कम्पनी’ किसे कहा जा सकता है, इसे अस्पष्ट बनाकर कम्पनियों को बोनस देने से छुटकारा दिलाने की योजना है। इस कोड में कम्पनियों की अनुमति के बिना उनकी बैलेंस शीट उजागर करने पर सरकारी अधिकारियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। तर्क यह दिया गया है कि “कम्पनियों पर विश्वास करना चाहिए!” यानी अब अगर कम्पनी कहेगी कि हमें घाटा हो रहा है, इसलिए हम मज़दूरों-कर्मचारियों को बोनस नहीं देंगे, तो सरकार इस पर विश्वास कर लेगी और बोनस माँगने वाले मज़दूरों को फटकार लगायेगी।
अनुच्छेद 18 काम में असन्तोष होने पर मालिकों को वेतन काट लेने का अधिकार देता है। लेबर इंस्पेक्टर की जगह फ़ैसिलिटेटर की बात करता है। प्रस्तुत कोड ऑनलाइन निरीक्षण पर ज़ोर देता है, जिससे कारख़ाने में अचानक किये जाने वाले निरीक्षण की प्रथा ख़त्म हो जायेगी। यही नहीं इस कोड में इण्टरनेट द्वारा ‘सेल्फ़-सर्टिफ़िकेशन’ का भी प्रावधान है, यानी मालिक ख़ुद ही अपने को सर्टिफ़िकेट दे देगा कि उसके कारख़ाने में सारे श्रम क़ानूनों का पूरा पालन हो रहा है। वेतन में संशोधन के लिए तय समय सीमा जो पहले हर 5 साल में अनिवार्य थी अब उसे समाप्त कर दिया गया है और समीक्षा का विकल्प जोड़ दिया गया है। न्यूनतम मज़दूरी की पाँच-पाँच सालों के अन्तर पर समीक्षा करने की बात की गयी है। जबकि आलम यह है कि देश में साल-दर-साल महँगाई आसमान छू रही है।
नियमों का उल्लंघन करने वाले मालिकों की निगरानी किये जाने के प्रावधानों को बेहद कमज़ोर बना दिया गया है।
समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 यह सुनिश्चित करता था कि वेतन के मामले में या भर्ती करने या नौकरी की शर्तों में किसी तरह का लिंगभेद न हो। मगर वेतन संहिता से यह बात पूरी तरह से हटा दी गयी है और अब मालिकों को स्त्री मज़दूरों को कम मज़दूरी देने की क़ानूनी छूट दे दी गयी है।
व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति संहिता – सरकार को मज़दूरों की जान की कोई परवाह नहीं
‘व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति संहिता’ में तो असंगठित मज़दूरों को कोई जगह ही नहीं दी गयी है। केवल 10 से ज़्यादा मज़दूरों को काम पर रखने वाले कारख़ानों पर ही यह लागू होगा, यानी मज़दूरों की बहुत बड़ी आबादी इस क़ानून के दायरे से बाहर होगी। नाम के उलट, इस कोड में मज़दूरों की सुरक्षा के साथ और ज़्यादा खिलवाड़ किया गया है। इसमें सुरक्षा समिति बनाये जाने को सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जो पहले कारख़ाना अधिनियम, 1948 के हिसाब से अनिवार्य था। इस पुराने क़ानून में स्पष्ट किया गया था कि मज़दूर अधिकतम कितने रासायनिक और विषैले माहौल में काम कर सकते हैं, जबकि नये कोड में रासायनिक और विषैले पदार्थों की मात्रा का साफ़-साफ़ ज़िक्र करने के बजाय उसे निर्धारित करने का काम राज्य सरकारों के ऊपर छोड़ दिया गया है। मालिकों की सेवा में सरकार इस हद तक गिर गयी है कि इस कोड के मुताबिक़, अगर कोई ठेकेदार, मज़दूरों के लिए तय किये गये काम के घण्टे, वेतन और अन्य ज़रूरी सुविधाओं की शर्तें नहीं पूरी कर पाता, तो भी उस ठेकेदार को ‘कार्य-विशिष्ट’ लाइसेंस दिया जा सकता है। हर तरह के उद्योग में अलग-अलग क़िस्म के ख़तरे होते हैं, मगर इस कोड में उन विशिष्टताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।
सामाजिक सुरक्षा संहिता – सारी सुरक्षा मालिकों को, सारी असुरक्षाएँ मज़दूरों के नाम
करोड़ों असंगठित मज़दूर तो पहले ही हर तरह की सामाजिक सुरक्षा से वंचित हैं। बड़ी कम्पनियों में काम करने वाले लगभग 90 प्रतिशत से ज़्यादा मज़दूर ईएसआई, पीएफ़, स्वास्थ्य बीमा, पेंशन आदि से वंचित रहते हैं। इस कोड में सरकार ने बातें तो बड़ी लच्छेदार की हैं जिनसे किसी को भ्रम हो सकता है कि सरकार मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए काम कर रही है। मगर वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। कोड में त्रिपक्षीय वार्ताओं और मज़दूर प्रतिनिधियों की भूमिका को ही ख़त्म कर दिया गया है। इनकी जगह पर मज़दूरों के कल्याण की नीतियाँ बनाने और लागू कराने वाली संस्थाओं के रूप में राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा परिषद, केन्द्रीय बोर्ड और राज्यों के बोर्ड की बात रखी गयी है जिनमें ट्रेड यूनियनों की कोई भूमिका नहीं होगी।
ऐसी ही लच्छेदार बातें करते हुए कोड में कामगार स्त्रियों की बड़ी आबादी को मातृत्व लाभों से वंचित कर दिया गया है। प्रसूति के ठीक पहले और बाद में स्त्रियों से काम कराने पर रोक लगायी गयी है। लेकिन इसी में आगे कहा गया कि जो स्त्री “अपनी प्रसूति के ठीक पहले के 12 महीनों के दौरान कम से कम 80 दिनों तक किसी प्रतिष्ठान में काम कर चुकी होगी” वह मातृत्व लाभ पाने की हक़दार होगी। बताने की ज़रूरत नहीं कि ज़्यादातर मज़दूर स्त्रियाँ इसके दायरे से बाहर हो जायेंगी।
सामाजिक सुरक्षा के लिए फ़ण्ड बनाने के बारे में ढेर सारी जुमलेबाज़ी तो की गयी है लेकिन कुछ भी ठोस नहीं बताया गया है कि इसके लिए पैसे कहाँ से आयेंगे और मज़दूरों के लिए उन्हें कैसे ख़र्च किया जायेगा। पहले से मज़दूरों के लिए जो फ़ण्ड बने हुए हैं उनका हश्र देखने के बाद ऐसे हवाई फ़ण्ड से कोई उम्मीद करना मूर्खता ही होगी।
औद्योगिक सम्बन्ध संहिता – मज़दूरों के बचे-खुचे ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमला
सरकार तीन पुराने श्रम क़ानूनों – औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 और औद्योगिक रोज़गार अधिनियम 1946 को हटाकर उनकी जगह औद्योगिक सम्बन्ध श्रम संहिता लेकर आयी है। नरेन्द्र मोदी का कहना है कि औद्योगिक विवाद सही शब्द नहीं है क्योंकि मज़दूरों और पूँजीपतियों के बीच तो कोई विवाद वास्तव में है ही नहीं! उनके बीच दोस्ताना सम्बन्ध है जहाँ पूँजीपति मज़दूरों के अभिभावक के समान हैं और उनकी हर फ़िक्र को अपना समझते हैं! इसी से साफ़ है कि अपने पूँजीपति-आकाओं को ख़ुश करने में प्रधानमंत्री कितने तल्लीन हैं। वैसे भी सच को झूठ और झूठ को सच कहना फ़ासीवादियों की पुरानी आदत है। सच क्या है?
जिन कारख़ानों में 300 तक मज़दूर हैं, उन्हें लेऑफ़ या छँटनी करने के लिए सरकार की इजाज़त लेने की अब ज़रूरत नहीं होगी (पहले यह संख्या 100 थी)। मैनेजमेंट को 60 दिन का नोटिस दिये बिना मज़दूर हड़ताल पर नहीं जा सकते। अगर किसी औद्योगिक न्यायाधिकरण में उनके मामले की सुनवाई हो रही है, तो फ़ैसला आने तक मज़दूर हड़ताल नहीं कर सकते। इन बदलावों का सीधा मतलब है कि कारख़ानों में हड़ताल लगभग असम्भव हो जायेगी क्योंकि अगर 300 मज़दूरों से कम हैं (जो काग़ज़ पर दिखाना बिल्कुल आसान है), तो कम्पनी हड़ताल के नोटिस की 60 दिनों की अवधि में आसानी से छँटनी करके नये लोगों की भरती कर सकती है।
अब कम्पनियों को मज़दूरों को किसी भी अवधि के लिए ठेके पर नियुक्त करने का अधिकार मिल गया है। इसे फ़िक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेण्ट का नाम दिया गया है। मतलब साफ़ है कि अब ठेका प्रथा को पूरी तरह से क़ानूनी जामा पहनाने की तैयारी हो चुकी है, यानी कि अब पूँजीपति मज़दूरों को क़ानूनी तरीके़ से 3 महीने, 6 महीने या साल भर के लिए ठेके पर रख सकता है और फिर उसके बाद उन्हें काम से बाहर निकाल सकता है।
बुर्जुआ और संसदमार्गी वामपन्थी दलों से जुड़ी यूनियनें मज़दूरों के अतिसीमित आर्थिक हितों की हिफ़ाज़त के लिए भी सड़क पर उतरने की हिम्मत और ताक़त दुअन्नी-चवन्नी की सौदेबाज़ी करते-करते खो चुकी हैं। वैसे भी देश की कुल मज़दूर आबादी में 90 फ़ीसदी से अधिक जो असंगठित मज़दूर हैं, उनमें इनकी मौजूदगी बस दिखावे भर की ही है। अब सफ़ेद कॉलर वाले मज़दूरों, कुलीन मज़दूरों और सर्विस सेक्टर के मध्यवर्गीय कर्मचारियों के बीच ही इन यूनियनों का वास्तविक आधार बचा हुआ है और सच्चाई यह है कि नवउदारवाद की मार जब समाज के इस संस्तर पर भी पड़ रही है तो ये यूनियनें इनकी माँगों को लेकर भी प्रभावी विरोध दर्ज करा पाने में अक्षम होती जा रही हैं। वे अब मज़दूरों और ग़रीब किसानों के शोषक-उत्पीड़क धनी किसानों और कुलक-फ़ार्मरों की बारात में डांस करने लायक़ ही रह गये हैं।
बहरहाल, रास्ता अब एक ही बचा है। गाँवों और शहरों की व्यापक मेहनतकश आबादी को सघन राजनीतिक कार्रवाइयों के ज़रिये, जीने के अधिकार सहित सभी जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से, उनके विशिष्ट पेशों की चौहद्दियों से आगे बढ़कर, इलाक़ाई पैमाने पर संगठित करना होगा। साथ ही, अलग-अलग सेक्टरों की ऐसी पेशागत यूनियनें संगठित करनी होगी, जिसके अन्तर्गत ठेका मज़दूर और सभी श्रेणी के अनियमित मज़दूर मुख्य ताक़त के तौर पर शामिल हों। पुराने ट्रेड यूनियन आन्दोलन के क्रान्तिकारी नवोन्मेष की सम्भावनाएँ अब अत्यधिक क्षीण हो चुकी हैं। अब एक नयी क्रान्तिकारी शुरुआत पर ही सारी आशाएँ टिकी हैं, चाहे इसका रास्ता जितना भी लम्बा और कठिन क्यों न हो।
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बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन