मेहनतकश अवाम के बजट पर डाका डालने वाला केन्द्रीय बजट

– शिशिर गुप्ता

इस बार पेश किये गये बजट के लिए निर्मला सीतारमण ने ‘ईज़ आफ़ लिविंग’ यानी “जीवनशैली की सुगमता” को विषयवस्तु बनाया। आइए देखें कि क्या वाकई में इस बजट से लोगों की ज़िन्दगी सुगम होने वाली है। अगर होने वाली है, तो क्या सभी लोगों की होने वाली है या कुछ ख़ास लोगों की?

किसानों का वर्गीय विभेदीकरण होगा और तेज़

शुरुआत करते हैं खेती से। इस बार सरकार ने किसानों के लिए 15 लाख करोड़ रुपये के कृषि क्रेडिट का लक्ष्य तय किया है, यानी किसानों को अलग-अलग रूपों में कुल मिलाकर इतने रुपये सूद पर उधार देने का इरादा है। ‘द हिन्दू’ की दिसम्बर, 2018 की एक ख़बर के मुताबिक़ 2017-18 के वित्तीय वर्ष में कर्ज़ के लिए तय की गयी कुल राशि का महज़ 40% ही छोटे और सीमान्त किसानों ने लिया था जो कुल किसान आबादी का लगभग 86.2% हैं। यानी, बड़े और मध्यम किसान जो कुल किसान आबादी का महज़ 13.8% हैं, उन्होंने 60% कर्ज़ लिया। बड़े, मध्यम और अर्ध-मध्यम किसानों में भी मध्यम और अर्ध-मध्यम किसानों के हालात को भी अलग से समझने की ज़रूरत है क्योंकि उन पर भी लगातार बर्बादी की तलवार लटकती रहती है, पर इस तबक़े के बारे में कभी और बात करेंगे। फ़िलहाल कर्ज़ की बात पर वापस आयें, तो स्वाभाविक ही जिसके पास गिरवी रखने के लिए जितनी सम्पदा होती है, उसे उसी हिसाब से कर्ज़ भी मिलता है। इस तरह छोटे और सीमान्त किसान अधिकतम एक-दो लाख से ज़्यादा का लोन नहीं ले पाते, जबकि बड़े किसानों को बड़े कर्ज़ मिलते हैं। छोटे व सीमान्त किसानों का कुल मुनाफ़ा या तो मामूली होता है या कई बार लागत भी नहीं निकल पाती। ऐसे में, छोटे-सीमान्त किसानों के लिए अक्सर कर्ज़ का ब्याज तक चुका पाना नामुमकिन हो जाता है, जिसके चलते वे या तो आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं, या अपनी ज़मीन बड़े किसानों को बेच देते हैं या खेतिहर ग्रामीण मज़दूर बन जाते हैं या शहरों में सेवा या औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूरी करने चले जाते हैं। इसलिए जब इतनी बड़ी रक़म की किसानों के लिए घोषणा की जाती है, तो सुनने में भले ही यह बड़ा प्रगतिशील क़दम लगे, पर वर्गीय दृष्टि से देखने पर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। हम समझ सकते हैं कि कैसे ये सारी योजनाएँ किसानों के मुट्ठीभर धनी तबक़े को फ़ायदा पहुँचाने वाली योजनाएँ होती हैं। यह नाहक़ नहीं है कि साल दर साल ऐसी तमाम ‘किसान-पक्षधर’ योजनाएँ आती रहती हैं, पर किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला जारी रहता है।

शिक्षा और स्वास्थ्य से खिलवाड़ बदस्तूर जारी

सरकार ने इस बार के बजट में शिक्षा के लिए 69,000 करोड़ रुपये और स्वास्थ्य के लिए 99,300 करोड़ रुपये आवण्टित किया है। भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) इस समय लगभग 21 लाख करोड़ रुपये है। आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक़ इस साल यह लगभग 6% की दर से बढ़ेगा (बजट में 10% का अनुमान लगाया गया है), यानी वित्तीय वर्ष 2020-21 के अन्त तक कुल सकल घरेलू उत्पाद लगभग 22.26 लाख करोड़ होगा। इस हिसाब से सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए सकल घरेलू उत्पाद का क्रमशः 3.1% और 4.5% ही आवण्टित किया है। इसकी तुलना अगर रक्षा बजट से की जाये, तो रक्षा के लिए सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 15.14% आवण्टित किया है। यानी रक्षा का बजट शिक्षा और स्वास्थ्य से कई गुना ज़्यादा है। क्या इसमें कोई दिक्कत की बात है? राष्ट्रीय सुरक्षा पर ख़र्च करने से भला किसी को क्या दिक्कत हो सकती है? पर ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ अपने आप में एक अमूर्त और ‘वर्गविहीन’ बात है। हमें पूछना चाहिए कि किसकी सुरक्षा? भारत या पाकिस्तान की आम अवाम ने कब यह आवाज़ उठायी कि इन दोनों मुल्कों को लगातार सीमा पर तनाव बनाये रखना चाहिए? आज़ादी के बाद से ही इन दोनों मुल्कों के शासक वर्गों ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए, यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार जैसे मुद्दों से अवाम का ध्यान भटकाने के लिए लगातार कश्मीर के मुद्दे को अपने-अपने मुल्क की पहचान का सवाल बनाया हुआ है, जिसे अब भारत के सत्तारूढ़ फ़ासिस्ट एक नये मुक़ाम तक ले गये हैं। दूसरी बात, अगर सीमाओं पर तनाव न हो, तो हथियार बनाने वाले कारख़ाने कैसे चलेंगे? इज़राइल, अमेरिका, रूस, फ़्रांस जैसे मुल्कों की कम्पनियों के मुनाफ़ों का क्या होगा, इस सेक्टर में लगी अम्बानी-अडानी की कम्पनियों का क्या होगा, अगर जंग होना बन्द हो जाये? तीसरी बात, आज़ादी से लेकर आज तक के आँकड़े उठाकर देख लिये जायें, तो भारतीय सेना, पैरामिलिट्री, पुलिस इत्यादि बलों के हाथों मरने वाले सबसे ज़्यादा लोग भारत के ही निकलेंगे। ये जवाहरलाल नेहरू ही थे जिन्होंने तेलंगाना विद्रोह को कुचलने के लिए सेना भेजकर आम दलित-आदिवासी-ग़रीब जनता का कत्लेआम करवाया था। ये इंदिरा गांधी थीं, जिनके नाम सबसे पहले मिज़ोरम में अपनी ही अवाम के ऊपर वायुसेना से बम गिरवाने का रेकॉर्ड दर्ज़ है। ये नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ ही हैं, जो इस समय ग़रीब-विरोधी एवं मुसलमान-विरोधी सीएए-एनआरसी-एनपीआर जैसे काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन में दर्जनों लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं। ये मोदी सरकार ही है जो मज़दूरों के छोटे से छोटे आन्दोलन को कुचलने के लिए पैरामिलिट्री और पुलिस भेजकर मज़दूरों पर बेहिसाब लाठियाँ और गोलियाँ बरसाती है। ये मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की सरकारें ही हैं, जो छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक सम्पदा को अपने पूँजीपति आकाओं के हवाले कर देने के लिए वहाँ के आदिवासियों पर ज़ुल्म ढाते हैं और फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में उनकी नृशंस हत्याएँ करते हैं। मतलब साफ़ है, यह ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ असल में इस देश की सम्पदा को लूटने वाले मुट्ठीभर धनपशुओं की सुरक्षा है। इसीलिए यह ज़रूरी है कि हम शिक्षा और स्वास्थ्य के मसले को इस तथाकथित सुरक्षा के बरक्स भी देखें। इतना ही नहीं, सुरक्षा के नाम पर हमें बेवक़ूफ़ बनाने वाली यह सरकार अब शिक्षा और स्वास्थ्य की रही-सही सेवाओं को भी इन्हीं धनपशुओं के हाथों में देने जा रही है।

सरकार ने बजट में कहा है कि वह टियर-2 और टियर-3 शहरों के ग़रीबों के लिए 20,000 सूचीबद्ध अस्पतालों की व्यवस्था करेगी। हालाँकि, अभी स्पष्ट नहीं है कि इन अस्पतालों में आने वाले ख़र्च का कितना हिस्सा सरकार सीधे मरीज़ों के सर पर थोपेगी, पर मान लिया जाये कि सारा ख़र्च सरकार ही उठाती है, तो वह ख़र्च कहाँ से आयेगा? स्वाभाविक है आम लोगों पर और ज़्यादा परोक्ष करों की मार बढ़ेगी, क्योंकि पूँजीपतियों के लिए तो लगातार कर घटाने की व्यवस्था की जा रही है। आख़िर अत्याधुनिक सरकारी अस्पताल क्यों नहीं खोले जा रहे हैं, जिनमें मुफ़्त इलाज की व्यवस्था हो। पर मोदी ऐसा करेंगे, तो उनके पूँजीपति यारों को जनता की बदहाली से मुनाफ़ा कूटने का मौका कैसे मिलेगा? उल्टा मोदी सरकार ने सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) की व्यवस्था के तहत अस्पताल बनवाने की बात की है, जिसका कुल जमाजोड़ यह है कि पहले आम अवाम के ख़ून और पसीने की कमाई से अस्पताल बनाये जायेंगे, फिर उसी अवाम की हड्डियाँ निचोड़ने के लिए उन अस्पतालों को निजी हाथों में दे दिया जायेगा।

दूसरी तरफ़ शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की तैयारी है 150 उच्च शिक्षण संस्थानों के ज़रिये अप्रेंटिसशिप एम्बेडेड कोर्स चालू करना। इसे हमें प्रशिक्षु (संशोधन) क़ानून, 2014 के और श्रम क़ानूनों में किये जा रहे तमाम बदलावों के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। उक्त क़ानून के मुताबिक़ नियोक्ताओं को पूरी छूट है कि वे प्रशिक्षुओं की ट्रेनिंग अवधि पूरी होने के बाद उन्हें काम पर रखें या नहीं – इसके लिए उन्हें अपनी नीति ख़ुद बनाने की छूट दी गयी है। स्पष्ट है कि यह क़ानून महज़ इसलिए लाया गया है ताकि बेहद कम पगार पर मज़दूरों को अप्रेण्टिस के तौर पर रखा जाये और बाद में मनमाने तरीक़े से उन्हें निकाल बाहर किया जाये। सरकार के द्वारा चालू किये जा रहे ये प्रशिक्षु कोर्स पूँजीपतियों के लिए मज़दूरों के पैसों से ही सस्ते मज़दूर तैयार करने की ही क़वायद है।

सबकुछ बेचने की तैयारी

लगता है कि बजट के हर हिस्से को तैयार करते हुए निर्मला सीतारमण यही सोच रही थीं कि हरेक छोटी-मोटी चीज़ को भी कैसे निजी हाथों में सौंप दिया जाये। बजट में सार्वजनिक-निजी साझेदारी के अन्तर्गत “आकांक्षी ज़िलों” में अस्पताल बनाने, पाँच स्मार्ट शहर बनाने, 150 यात्री ट्रेनें चलवाने की बात की गयी है। जैसा कि पहले भी ज़िक्र किया जा चुका है, इस मॉडल का केवल एक ही मतलब हो सकता है – सार्वजनिक पूँजी से खड़े किये गये उपक्रमों से निजी मालिकों द्वारा मुनाफ़ा वसूली।

दूसरी ओर, आईडीबीआई बैंक में सरकार ने अपनी शेष होल्डिंग को निजी, खुदरा और संस्थागत निवेशकों के हाथों बेचने का फ़ैसला किया है। साथ ही, एलआईसी में भी सरकार अपनी होल्डिंग के एक हिस्से को बेचने जा रही है। इसके लिए सरकार ने वजह बतायी है कि स्टॉक एक्सचेंज में कम्पनियों को सूचीबद्ध करने से उनमें अनुशासन आता है, वित्तीय बाज़ारों की पहुँच प्राप्त होती है और उनकी पूरी सामर्थ्य का इस्तेमाल हो पाता है। इन मक्कारी भरे शब्दों के पीछे की सच्चाई यह है कि वित्तीय पूँजी के हवाले करने का मतलब है उपक्रमों को सट्टेबाज़ पूँजी के हवाले कर देना, जहाँ क़ीमतों को आसमान से ज़मीन पर गिरने में घण्टे भी नहीं लगते। साथ ही, यह क़वायद है जनता की गाढ़ी कमाई को निजी मुनाफ़े के लिए निजी हाथों में सौंप देना।

नयी आयकर व्यवस्था : जैसे-तैसे उपभोक्ता व्यय बढ़ाने की बदहवासी

इस बार सरकार एक नयी आयकर व्यवस्था लेकर आयी है जिसके अन्तर्गत प्रत्यक्ष करों को हर आय वर्ग के लिए पाँच-पाँच प्रतिशत कम कर दिया गया है, मगर साथ ही भविष्य निधि, शिक्षा कर्ज़ इत्यादि पर मिलने वाली छूट हटा दी गयी है। फ़िलहाल, लोगों के पास पुरानी या नयी, दोनों में से कोई भी एक व्यवस्था चुनने का विकल्प होगा। स्वाभाविक है कि यह नयी व्यवस्था उन लोगों के लिए ज़्यादा लुभावनी है जिन्होंने तमाम बचत/बीमा/कर्ज़ जैसी योजनाओं में पैसे या तो नहीं लगाये हैं या बहुत कम पैसे लगाये हैं। हालाँकि, कई विशेषज्ञों द्वारा किये गये तुलनात्मक विश्लेषण के हिसाब से यह बचत भी मामूली ही है। पर बड़ा सवाल यह है कि इस क़दम के असल मायने क्या हैं? यह असल में लोगों को पीपीएफ़ जैसी योजनाओं में पैसा लगाने से हतोत्साहित करने की क़वायद है, ताकि मन्दी से जूझ रही भारतीय अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता व्यय को बढ़ाया जा सके। यानी अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने का एक और नीम-हकीमी नुस्खा।

पूँजीपतियों को टैक्स में भारी छूट

सरकार का कहना है कि निवेशकों को पूरी तरह से सहूलियत प्रदान करने के लिए इन्वेस्टमेंट क्लियरेंस सेल बनाया जायेगा। यानी, देश-विदेश के निवेशकों के लिए जल-जंगल-ज़मीन लूटने की प्रक्रिया में आने वाली अड़चनों को दूर किया जायेगा। बाक़ी कॉरपोरेट क्षेत्र को कर छूट तो पहले से ही दी जा रही है। निर्मला सीतारमण ने बिल पेश करते हुए बताया कि मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में नयी कम्पनियों के लिए टैक्स को अप्रत्याशित रूप से कम करके 15% करने का ‘साहसिक ऐतिहासिक फ़ैसला’ लिया गया है। मौजूदा कम्पनियों के लिए भी इसे घटाकर 22% कर दिया गया है। नयी विद्युत उत्पादन कम्पनियों के लिए भी कर को घटाकर 15% कर दिया गया है। विदेशी सरकारों द्वारा स्वायत्त धन निधि के ज़रिये 31 मार्च, 2024 तक किये जाने वाले निवेश से होने वाले फ़ायदे पर शत-प्रतिशत छूट दी गयी है, अगर लॉक-इन अवधि कम से कम तीन साल की हो। 100 करोड़ तक के टर्नओवर वाली स्टार्ट-अप कम्पनियों को भी अब 10 साल तक कोई कर नहीं देना होगा। यानी अम्बानी की जेननेक्स्ट वेंचर्स नाम की कम्पनी किसी स्टार्ट अप में 100 करोड़ तक पैसा लगाती है, तो उसको 10 साल तक उस रक़म से होने वाली आमदनी पर कोई टैक्स नहीं भरना होगा।

यह बजट एक ऐसे समय में आया है, जबकि भारत का ऑटो सेक्टर बुरी तरह मन्दी की मार झेल रहा है और लगभग 10 लाख प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नौकरियाँ दाँव पर लगी हुई हैं। ऑटो सेक्टर के ढेरों छोटे-मोटे डीलरों के धन्धे चौपट होकर बन्द हो चुके हैं। मन्दी का यह हाल ऑटो सेक्टर में कुछ ज़्यादा ही गम्भीर है, मगर ऐसा नहीं कि बाक़ी सेक्टर इससे अछूते रहे हैं। भारत में उपभोक्ता व्यय पिछले 45 सालों का रेकॉर्ड तोड़ते हुए सबसे निचले स्तर पर आ गया है। पर ग़ौर कीजिए कि जनता की इस भयंकर बदहाली के दौर में भी अर्थव्यवस्था को उबारने का पैमाना यह है कि पूँजीपतियों की गिरती हुई मुनाफ़े की दर को कैसे स्थिर किया जाये या कैसे बढ़ाया जाये। यही बदहवासी है जिसके चलते ‘ढाँचागत’ भूमि व श्रम सुधारों की बात की जा रही है। यहाँ पर ढाँचागत सुधारों का मतलब है मज़दूर वर्ग द्वारा अपनी अकूत क़ुर्बानियों के दम पर हासिल किये गये श्रम अधिकारों को ख़त्म कर देना, जिस दिशा में सरकार निर्णायक क़दम बढ़ा चुकी है। इस फ़ासीवादी सरकार के इन “ढाँचागत” सुधारों को टक्कर देने के लिए मज़दूर वर्ग को इस पूरे समाज के ढाँचागत रूपान्तरण के प्रोजेक्ट को लेकर आगे बढ़ना होगा।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2020


 

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