सरकार की मानसिक विकलांगता और आमिर खान की कुपोषित बौद्धिकता
प्रमोद
कोई भी जनता की सरकार और जनता का वास्तविक बुद्धिजीवी देश की मेहनतकश जनता के बीच जाकर उनके दुःख दर्द से जब गहरी तदनुभुति स्थापित करता है। उनके दर्द को अपना दर्द समझता है। तब वह जनता के दुःखों के वास्तविक कारणो का पता लगाकर उसका वास्तविक समाधान प्रस्तुत कर सकता है। मगर पूँजीवादी मीडिया द्वारा ब्राण्ड के रूप में गढ़े गये छद्म बुद्धिजीवी किसी भी समस्या का छद्म समाधान ही प्रस्तुत कर सकते हैं।
आजकल भारत सरकार के कई मंत्रालय, टेलिविजन और अखबारों में विज्ञापन दे रहे हैं जिसमें भोंपू के रूप में आमिर खान नजर आ रहे हैं। यह विज्ञापन सरकार की मानसिक विकलांगता और आमिर खान साहब की कुपोषित बौद्धिकता का अनुपम उदाहरण है। एक विज्ञापन में बताया जा रहा है कि ‘देश का हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है, इसलिए हमें कुपोषण के खिलाफ जंग छेड़ देनी चाहिए,मगर कागज की तलवार लेकर’। परिणाम स्वरूप सरकार कुछ दलिया, कुछ बिस्कुट, कुछ आयरन की गोलियाँ भीख के रूप में जनता में बाँट देती है। मगर विज्ञापन यह नहीं बताता कि कुपोषण का मूल कारण क्या है और उसका निवारण क्या है। क्यूँकि ऐसा करने से सरकार की पूँजीपरस्त नीतियाँ कठघरे में खड़ी हो जायेंगी, जिनका फायदा उठाकर देशी-विदेशी पूँजीपतियों ने देश की मेहनतकश जनता के खून और पसीने को इस कदर लूटा है कि जनता दरिद्रता के उस मुकाम पर पहुँच चुकी है यहाँ पर वह पोषण युक्त भोजन तो दूर कई जगह पीने का साफ़ पानी तक नहीं जुटा पा रही है।
दूसरा विज्ञापन जिसमें बताया जा रहा है कि ‘बाल श्रम एक दण्डनीय अपराध है। 14 साल से कम उम्र के बच्चों से श्रम न करवायें, इनकी जगह यहाँ नहीं स्कूल में है।‘ लेकिन विज्ञापन में कहीं यह नहीं बताया गया कि छोटी उम्र के बच्चे काम क्यूँ करते हैं। क्या उन्हें काम करने का शौक है या माँ-बाप नहीं चाहते कि उनका बच्चा पढ़े-लिखे खेले-कूदे ? फिर बच्चे काम क्यूँ करते हैं ! कई बार श्रम-विभाग जिन बच्चों को छापे मारकर छुडाता है वह फिर कहीं और काम करने लगते हैं और काम न मिलने पर कई अपराध की तरफ भी मुड़ जाते हैं।
तीसरे विज्ञापन में खदानों और कारखानों में सुरक्षा उपकरण न मिलने से मज़दूरों के भारी पैमाने पर सिलिकोसिस व टी.बी. का शिकार होकर मर जाने के बारे में बताया गया है व इन बीमारियों को खत्म करने के बारे में तमाम हवाई बातें की गयी हैं। मगर यह कहीं नहीं बताया गया कि श्रमिकों को सुरक्षा उपकरण क्यों नहीं मिल रहे हैं, इस संबंध में कानून क्या है और उसका पालन न करने वाले पूँजीपतियों पर क्या कार्रवाई हो रही है? इस पर विज्ञापन पूरी तरह चुप है !
अब बात करते हैं कि इन तीनों समस्याओं का वास्तविक क्या है और निवारण क्या है। इन तीनों समस्याओं का एक ही कारण है – उत्पादन और वितरण की मुनाफाखोर नीतियाँ। जिसमे जी.डी.पी. का बढ़ना देश के विकास का मुख्य पैमाना माना जाता है और जी.डी.पी. तब बढ़ती है जब पूँजीपतियों के मुनाफे में वृद्धि हो और मुनाफा तब बढ़ता है जब मेहनत सस्ती हो यानी मज़दूरों की मज़दूरी कम हो। मज़दूरी कम होने का मतलब गरीबी, गरीबी का मतलब कुपोषण, भूखमरी, बाल श्रम, अपराध आदि। दूसरा उसी मुनाफे की अंधी हवस में पूँजीपति सुरक्षा के उपायों पर भी ध्यान नहीं देते। सरकारें खुद भी पूँजीपतियों को आश्वासन देती हैं कि हमारे यहाँ कारखाने लगाइये हम आपको श्रम कानून तोड़ने की पूरी आजादी देंगे और जरूरत पड़ने पर कानून बदल भी देंगे और इस वायदे को वो हर कीमत पर पूरा भी करती है।
अब सवाल उठता है कि सरकार और आमिर खान साहब को यह आसान सी बातें समझ में क्यूँ नहीं आ रही हैं जो हमें समझ में आ रही हैं! जबकि सरकार के मंत्री-मण्डल में उच्च शिक्षा लोगों की भरमार है। कई तो विदेशों से भी शिक्षा प्राप्त किये हैं! फिर ये बात उन्हें समझ क्यों नहीं आती। दरसल वे सब समझते हैं और सबकुछ जानते-समझते हुए भी वे कुछ करना नहीं चाहते केवल घड़ियाली आँसू बहाकर दिखाना चाहते हैं कि हम जनता को लेकर कितने चिंतित हैं।
नब्बे के दशक से जब से भूमण्डलीकरण और उदारीकरण की नीतियाँ लागू की गईं तबसे देश में असमानता लगातार तेजी से बढ़ी है। मुठ्ठी भर लोग अमीर होते जा रहे हैं जबकि देश के मेहनतकश लोग लगातार गरीब होते जा रहे हैं। कुछ वर्षों तक सरकारों ने डबल डिजिट विकास दर, शाइनिंग इण्डिया, फीलगुड जैसे नारों का शोर पैदा कर गरीबों की चीखों को दबा दिया। मगर आज जब तथाकथित विकास का बुलबुला फूट चुका है। खुद सरकार द्वारा बनाई गयी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने चमकते भारत के मुखौटे को फाड़कर असली भारत का चेहरा सामने ला दिया। तब सरकार के सामने कोई चारा नहीं रह गया सच्चाई को स्वीकार करने के अलावा, लेकिन सच्चाई को स्वीकार करने का ये मतलब नहीं कि सरकार समाधान चाहती है। इस पर मुझे हावर्ड फास्ट के प्रसिद्ध उपन्यास आदि-विद्रोही के प्रमुख्य पात्र चालबाघ और राजनीतिज्ञ सिसेरो का संवाद याद आता है। जिसमें वह कहता है कि राजनीतिज्ञ का एक प्रमुख गुण है जिसका लोग बहुत ऊँचा मूल्यांकन करते हैं वह है सच्चाई को खुलेआम मान लेना उसे स्वीकार करना। हमारे इसे यथार्थवादी होने से जनता में हमारे ईमानदार होने का भ्रम फैलता है। विज्ञापन दिखाकर सरकार व उनके भौंपू सिसेरो के रास्ते पर चलकर भ्रम की चादर फैला रहे हैं।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल-मई 2013
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