नेताओं को न्यौता!

शैलेन्द्र

(प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र ने यह गीत 1951-52 में हुए आज़ाद भारत के पहले आम चुनाव के समय लिखा था।)

लीडर जी, परनाम तुम्हें हम मज़दूरों का,
हो न्यौता स्वीकार तुम्हें हम मज़दूरों का;
एक बार इन गन्दी गलियों में भी आओ,
घूमे दिल्ली-शिमला, घूम यहाँ भी जाओ!
 
जिस दिन आओ चिट्ठी भर लिख देना हमको
हम सब लेंगे घेर रेल के इस्टेशन को;
‘इन्क़लाब’ के नारों से, जय-जयकारों से –
ख़ूब करेंगे स्वागत फूलों से, हारों से!
 
दर्शन के हित होगी भीड़, न घबरा जाना,
अपने अनुगामी लोगों पर मत झुँझलाना;
हाँ, इस बार उतर गाड़ी से बैठ कार पर
चले न जाना छोड़ हमें बिरला जी के घर!
 
चलना साथ हमारे वरली की चालों में,
या धारवि के उन गन्दे सड़ते नालों में –
जहाँ हमारी उन मज़दूरों की बस्ती है,
जिनके बल पर तुम नेता हो, यह हस्ती है!
 
हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में,
सुकुमारी बम्बई पली है जिस दुनिया में,
यह बम्बई, आज है जो जन-जन को प्यारी,
देसी-परदेसी के मन की राजदुलारी!
 
हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में,
नवयुवती बम्बई पली है जिस दुनिया में,
किन्तु, न इस दुनिया को तुम ससुराल समझना,
बन दामाद न अधिकारों के लिए उलझना।
 
हमसे जैसा बने, सब सत्कार करेंगे –
ग़ैर करें बदनाम, न ऐसे काम करेंगे,
हाँ, हो जाये भूल-चूक तो नाम न धरना,
माफ़ी देना नेता, मन मैला मत करना।
 
जैसे ही हम तुमको ले पहुँचेंगे घर में,
हलचल सी मच जायेगी उस बस्ती भर में,
कानाफूसी फैल जायेगी नेता आये –
गाँधी टोपी वाले वीर विजेता आये।
 
खद्दर धारी, आज़ादी पर मरने वाले
गोरों की फ़ौज़ों से सदा न डरने वाले
वे नेता जो सदा जेल में ही सड़ते थे
लेकिन जुल्मों के ख़िलाफ़ फिर भी लड़ते थे।
 
वे नेता, बस जिनके एक इशारे भर से –
कट कर गिर सकते थे शीश अलग हो धड़ से,
जिनकी एक पुकार ख़ून से रँगती धरती,
लाशों-ही-लाशों से पट जाती यह धरती।
 
शासन की अब बाग़डोर जिनके हाथों में,
है जनता का भाग्य आज जिनके हाथों में।
कानाफूसी फैल जायेगी नेता आये –
गाँधी टोपी वाले शासक नेता आये।
 
घिर आयेगी तुम्हें देखने बस्ती सारी,
बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी,
पंजों पर हो खड़े, उठा बदन, उझक कर,
लोग देखने आवेंगे धक्का-मुक्की कर।
 
टुकुर-मुकुर ताकेंगे तुमको बच्चे सारे,
शंकर, लीला, मधुकर, धोंडू, राम पगारे,
जुम्मन का नाती क़रीम, नज़्मा बुद्धन की,
अस्सी बरसी गुस्सेवर बुढ़िया अच्छन की।
 
वे सब बच्चे पहन चीथड़े, मिट्टी साने,
वे बूढ़े-बुढ़िया, जिनके लद चुके ज़माने,
और युवकगण जिनकी रग में गरम ख़ून है,
रह-रह उफन उबल पड़ता है, नया ख़ून है।
 
घिर आयेगी तुम्हें देखने बस्ती सारी,
बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी,
हेच काय रे कानाफूसी यह फैल जायेगी,
हर्ष क्षोभ की लहर मुखों पर दौड़ जायेगी।
 
हाँ, देखो आ गया ध्यान बन आये न संकट,
बस्ती के अधिकांश लोग हैं बिलकुल मुँहफट,
ऊँच-नीच का जैसे उनको ज्ञान नहीं है,
नेताओं के प्रति अब वह सम्मान नहीं है।
 
उनका कहना है, यह कैसी आज़ादी है,
वही ढाक के तीन पात हैं, बरबादी है,
तुम किसान-मज़दूरों पर गोली चलवाओ,
और पहन लो खद्दर, देशभक्त कहलाओ।
 
तुम सेठों के संग पेट जनता का काटो,
तिस पर आज़ादी की सौ-सौ बातें छाँटो।
हमें न छल पायेगी यह कोरी आज़ादी,
उठ री, उठ, मज़दूर-किसानों की आबादी।
 
हो सकता है, कड़वी-खरी कहें वे तुमसे,
उन्हें ज़रा मतभेद हो गया है अब तुमसे,
लेकिन तुम सहसा उन पर गुस्सा मत होना,
लायेंगे वे जनता का ही रोना-धोना।
 
वे सब हैं जोशीले, किन्तु अशिष्ट नहीं हैं,
करें तुमसे बैर, उन्हें यह इष्ट नहीं है,
वे तो दुनिया बदल डालने को निकले हैं,
+हिन्दू, मुस्लिम, सिख, पारसी, सभी मिले हैं।
 
फिर, जब दावत दी है तो सत्कार करेंगे,
ग़ैर करें बदनाम, न ऐसे काम करेंगे,
हाँ, हो जाये भूल-चूक तो नाम न धरना,
माफ़ी देना नेता, मन मैला मत करना।


 

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