आतंकवाद बहाना है, जनसंघर्ष ही निशाना है!
राष्ट्रीय आतंकवाद-विरोधी केन्द्र (एनसीटीसी) के रूप में एक और खुफ़िया एजेंसी का गठन
गहराते जन-असन्तोष से निपटने के लिए दमनतन्त्र को मज़बूत बनाने में जुटे हैं लुटेरे शासक वर्ग
सम्पादकीय
पिछली 5 फ़रवरी को केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने एक और खुफ़िया एजेंसी राष्ट्रीय आतंकवाद-विरोधी केन्द्र (एनसीटीसी) के गठन की अधिसूचना जारी कर दी। अमेरिका में इसी नाम की एजेंसी की तर्ज़ पर गठित इस एजेंसी का निदेशक ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ निरोधक क़ानून (यूएपीए) नाम के काले क़ानून को लागू करने वाला ”निर्दिष्ट अधिकारी” होगा। इस एजेंसी को खुफ़िया जानकारियाँ जुटाने के साथ-साथ तलाशी और गिरफ्तारी करने के भी अधिकार होंगे और यह तमाम तथाकथित आतंकवाद-विरोधी कार्रवाइयों का नियंत्रण और समन्वय करेगी। इसे राज्यों के पुलिस महकमों सहित किसी भी अधिकारी से जानकारी, कागज़ात और रिपोर्ट तलब करने का अधिकार दिया गया है। इसका प्रशासकीय नियंत्रण इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के पास होगा जो सीधे केन्द्र सरकार के तहत काम करती है और संसद के प्रति भी जवाबदेह नहीं होती।
कई राज्यों की ग़ैर-कांगेसी सरकारें भी इस नयी खुफ़िया एजेंसी के कुछ प्रावधानों को लेकर विरोध जता रही हैं क्योंकि उन्हें डर है कि इसका इस्तेमाल विरोधी पार्टियों के नेताओं के ख़िलाफ़ भी किया जा सकता है। कई राज्य सरकारों और विपक्षी पार्टियों की आपत्तियों के कारण फिलहाल इसे थोड़ा टाल दिया गया है, लेकिन उनकी आशंकाओं को दूर करके इसे जल्दी ही लागू कर दिया जायेगा, यह तय बात है। क्योंकि जिस मक़सद से इसे लाया जा रहा है उस पर शासक वर्ग के सभी धड़ों की आम सहमति है।
एनसीटीसी जिस यूएपीए के तहत काम करेगा वह एक घनघोर जनविरोधी काला क़ानून है। 1967 में बने इस क़ानून में 2009 में संशोधन करके इसे ”आतंकवाद” से लड़ने के लिए नये धारदार दाँतों और नाख़ूनों (सख्त प्रावधानों) से लैस किया गया था। इसके तहत पुलिस किसी को भी महज़ शक़ के आधार पर गिरफ्तार कर सकती है और आरोपियों को 180 दिन तक पुलिस हिरासत में रख सकती है। इसके तहत ज़मानत की प्रक्रिया को बहुत अधिक कठिन बना दिया गया है। दुनिया भर में मौजूद क़ानूनी परम्परा को धता बताकर यह क़ानून किसी आरोपी को तबतक गुनाहगार मानता है जबतक कि वह अपनी बेगुनाही ख़ुद ही साबित न कर दे। इसके अलावा इस क़ानून ने जाँच एजेंसियों और पुलिस अधिकारियों के हाथ में ऐसे अधिकार दे दिये हैं जिनके दुरुपयोग की पूरी आशंका है। सबसे बढ़कर, यह बुनियादी नागरिक स्वतन्त्रताओं पर हमला करता है क्योंकि यह राज्यसत्ता के किसी भी तरीक़े के विरोध और वैचारिक मतभेदों को भी ”अपराध” की श्रेणी में रख देता है। इसके तहत अधिकारियों को मनमाने ढंग से संगठनों पर पाबन्दियाँ लगाने की छूट मिल जाती है। इसमें ”आतंकवाद” और ”ग़ैरक़ानूनी” की परिभाषा इस ढंग से दी गयी है जिससे यथास्थिति को चुनौती देने वाले किसी भी व्यक्ति या संगठन को इसके दायरे में लाकर प्रताड़ित किया जा सकता है। बेशक़, एनसीटीसी की अधिसूचना भारतीय संविधान के तहत राज्यों को दिये गये अधिकारों में कटौती करती है और इसीलिए, तमाम ग़ैर-कांग्रेसी पूँजीवादी पार्टियाँ भी इसका विरोध कर रही हैं, लेकिन ये सभी इस बात पर कुछ नहीं कहतीं कि यूएपीए क़ानून ख़ुद ही अभिव्यक्ति, सभा करने और संगठन बनाने की आज़ादी पर चोट करता है जिसके बिना लोकतन्त्र का कोई मतलब ही नहीं रह जाता।
एनसीटीसी को जिस आईबी की कमान में रखा गया है वह किसी भी क़ानून के तहत संसद या अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं है। इसका गठन अंग्रेज़ सरकार ने रूस की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए 1887 में एक दफ्तरी आदेश के ज़रिये किया था और बाद में इसका काम राष्ट्रीय आन्दोलन के ख़िलाफ़ जासूसी करना हो गया था। 1947 के बाद भी सरकारें इसका इस्तेमाल मुख्यत: सत्ता-विरोधी गतिविधियों पर नज़र रखने और सबसे बढ़कर क्रान्तिकारी आन्दोलनों के ख़िलाफ़ करती रही हैं। लेकिन अब तक इसे तलाशी-छापेमारी और गिरफ्तारी के अधिकार नहीं मिले हुए थे। आने वाले दिनों की आहट पहचानकर अब शासक वर्ग अपने इन जासूसी कुत्तो को अपने ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों पर झपटने और दबोचने के लिए भी तैयार कर रहे हैं।
भारत में रॉ, आईबी, एनआईए, सीबीआई, डीआईए, जेसीआई, एनटीआरओ सहित एक दर्जन से अधिक केन्द्रीय खुफ़िया एजेंसियाँ हैं, हर राज्य में अलग खुफ़िया विभाग और स्पेशल पुलिस, आतंकवाद-विरोधी दस्ते (एटीएस) और अत्याधुनिक उपकरणों से लैस भारी-भरकम तन्त्र मौजूद है। फिर आख़िर एक और एजेंसी के गठन के लिए सरकार इतनी बेसब्र क्यों है। दरअसल, शासक वर्ग अच्छी तरह से जानते हैं कि उदारीकरण-निजीकरण की जो नीतियाँ अन्धाधुन्ध तरीक़े से लागू की जा रही हैं, उनसे देशभर में बढ़ता असन्तोष आने वाले वर्षों में जनता के प्रचण्ड उभार के रूप में फूटेगा। इसी से निपटने के लिए वे पहले से ही पूरी तैयारी कर रहे हैं। बेशक, आतंकवादी संगठनों की कार्रवाइयों से उन्हें इसके लिए माहौल बनाने में मदद ही मिल रही है। भारत सरकार को दुनिया के दूसरे देशों की खुफ़िया एजेंसियों से भी इस काम में पूरी मदद मिल रही है। इज़रायल की कुख्यात खुफ़िया एजेंसी मोस्साद और अमेरिकी एजेंसियाँ सीआईए और एफ़बीआई दमन के हथकण्डों में माहिर बनाने के लिए भारतीय एजेंसियों को प्रशिक्षण, साफ्टवेयर और अरबों डालर के उपकरण मुहैया करा रही हैं। जुलाई 2010 में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह व अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने आतंकवाद विरोधी सहयोग पहल पर दस्तखत किये थे। इसके बाद से अमेरिका का आतंकवाद विरोधी सहायता ब्यूरो भारतीय अफ़सरों के लिए 79 पुलिस प्रशिक्षण कोर्स आयोजित कर चुका है।
उदारीकरण-निजीकरण के वर्तमान दौर में, 93 फ़ीसदी कामगार आबादी ”अनौपचारिक क्षेत्र” में काम करती है, और इसमें से भी 58 फ़ीसदी कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र में काम करती है। इन मज़दूरों को किसी भी किस्म की रोज़गार-सुरक्षा या सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है। ये दिहाड़ी, या ठेका पर काम करने वाले मज़दूर हैं, जो 12-14 घण्टे तक खटकर 70-80 रुपये रोज़ाना कमा पाते हैं। इस स्थिति से पैदा होने वाले जनाक्रोश पर ठण्डे पानी के छींटे मारने के लिए आज सरकार ‘नरेगा’ जैसी योजना और सामाजिक सुरक्षा की कुछ स्कीमें लागू कर रही है तो भ्रष्ट नौकरशाही-नेताशाही और सामाजिक दबंगों के गठजोड़ के चलते उनका लाभ आम लोगों तक बहुत कम ही पहुँच पाता है और इससे स्थिति और अधिक विस्फोटक होती जा रही है। परम्परागत ट्रेडयूनियनें मज़दूरों के हितों की हिफ़ाज़त में बिल्कुल नाकाम साबित हुई हैं। श्रम क़ानूनों और श्रम विभाग का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। गाँवों में पूँजी की पैठ ने छोटे और सीमान्त किसानों को उनकी जगह-ज़मीन से उजाड़ तो दिया है, लेकिन भारी बेरोज़गारी के कारण उनका मज़दूरों की क़तार में शामिल होकर गुज़र-बसर करना भी कठिन होता गया है। कर्ज़ की मार से तबाह किसानों में छोटे-मँझोले किसानों की तादाद ही सर्वाधिक रही है। 1997 से 2010 के बीच 2 लाख से अधिक किसान कर्ज़ के कारण आत्महत्या कर चुके हैं। इससे ग्रामीण समाज के ताने-बाने में बढ़ते तनाव का बस अनुमान लगाया जा सकता है।
इन थोड़े से आँकड़ों से ही समझा जा सकता है कि इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ जनसमुदाय में ग़ुस्सा कितनी तेज़ी से बढ़ रहा है। रही-सही कोर-कसर भारतीय संसदीय जनवाद का बेहद महँगा एवं परजीवी चरित्र और सिर से पाँव तक भ्रष्टाचार में डूबी नेताशाही-नौकरशाही पूरा कर देती है। लेकिन फ़िलहाल कोई क्रान्तिकारी विकल्प जनता के सामने प्रभावी रूप में मौजूद नहीं है, इसलिए जनता के स्वत:स्फूर्त संघर्षों के साथ ”वामपन्थी” उग्रवाद और अन्य विविध रूपों में आतंकवाद का विस्फोट स्वाभाविक है। साथ ही, लोगों से यदि विरोध के अन्य विकल्पों-रास्तों को छीन लिया जायेगा, या उन्हें निष्प्रभावी बना दिया जायेगा, तो आबादी का एक हिस्सा एक वैकल्पिक व्यवस्था बनाने की सांगोपांग तैयारी के बिना भी, दमनकारी सत्ता के विरुद्ध हथियार उठा सकता है। ज़ाहिर है कि शासक वर्ग की आर्थिक नीतियों के नतीजे नंगे रूप में सामने आने के बाद सामाजिक विस्फोट की जो ज़मीन तैयार हो रही है, उसके भविष्य को भाँपते हुए शासक वर्ग अपने दमनतन्त्र को चाक-चौबन्द करने में लग गया है। इसीलिए हमारा कहना है कि ‘आतंकवाद तो बहाना है, जनसंघर्ष ही निशाना है।’ इतिहास ने बार-बार साबित किया है कि आतंकवाद, अपने हर रूप में, पूँजीवादी अन्याय-अत्याचार और राज्य मशीनरी के दमनतन्त्र की प्रतिक्रिया में होता है। उसे दमन के द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमन ने भी एक बार यह स्वीकार किया था कि नवउदारवादी नीतियों को प्रभावी ढंग से अमल में लाने के लिए एक तानाशाही शासन तन्त्र ज़रूरी होगा। यह आश्चर्य की बात नहीं कि नवउदारवादी नीतियों के वर्तमान दौर में न केवल फ़ासीवादी प्रवृत्तियाँ पूरी दुनिया में विविध रूपों में सामने आ रही हैं, बल्कि पूँजीवादी जनवाद और फ़ासीवाद के बीच की विभाजक रेखाएँ भी धुँधली पड़ती जा रही हैं। भारत में भी पूँजीवादी जनवाद का ‘स्पेस’ लगातार सिकुड़ता जा रहा है और क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर पुलिस प्रशासन की भूमिका बढ़ती जा रही है। नवउदारवादी नीतियों को अमल में लाने की प्रक्रिया में छँटनी-बेरोज़गारी, श्रम क़ानूनों की निष्प्रभाविता, दिहाड़ीकरण-ठेकाकरण, 12-14 घण्टे तक के कार्यदिवस, सिंगल रेट ओवरटाइम, हर प्रकार की रोज़गार-सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा के अभाव आदि के चलते मज़दूरों में जो असन्तोष पैदा होगा, बेरोज़गारी और महँगी शिक्षा के कारण छात्रों-युवाओं में जो रोष पैदा होगा तथा विस्थापन एवं कंगालीकरण से ग्रामीण जीवन में जो भारी उथल-पुथल पैदा होगा, उसे सम्हालने के लिए निरंकुश दमनकारी सर्वसत्तावादी शासन की ज़रूरत होगी। आज आतंकवाद से निपटने के नाम पर सरकार जो कुछ कर रही है, वह दरअसल भविष्य के व्यापक जनउभारों से निपटने की दूरगामी तैयारी का एक हिस्सा मात्र है। आतंकवाद विरोध के नाम पर सरकार दरअसल आने वाले दिनों में उठ खड़े होने वाले जनसंघर्षों का मुक़ाबला करने के लिए हर तरह से चाक-चौबन्द हो रही है। यानी पूँजीवादी जनवाद का रहा-सहा दायरा भी व्यवस्था के गम्भीर ढाँचागत संकट के कारण सिकुड़ता जा रहा है।
यह अघोषित आपातकाल की आहट है। यह निरंकुश दमनतन्त्र संगठित करने की सुनियोजित कार्ययोजना का पहला चरण है। मेहनतकश जनसमुदाय को और नागरिक आज़ादी एवं जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए संकल्पबद्ध बुद्धिजीवियों को एकजुट होकर उसके विरुद्ध आवाज़ उठानी होगी। शासक वर्ग ने भविष्य के मद्देनज़र अपनी तैयारियाँ तेज़ कर दी है। मेहनतकश जनसमुदाय की हरावल पाँतों को भी अपनी तैयारियाँ तेज़ कर देनी होंगी।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2012
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