वीवो इण्डिया में मज़दूरों का शोषण और उत्पीड़न
सिजो जॉय और अनुष्का सिंह
सचिव, पीयूडीआर
‘मेक इन इण्डिया’ अभियान और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में निर्माण करने के लिए न्यौता देने से रोज़गार पैदा होने के इसके दावे को काम के भयावह और अमानवीय ‘अवसरों’ के रूप में देखा गया है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण वीवो इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड है। वीवो कम्पनी एक चीनी स्मार्टफ़ोन निर्माता कम्पनी है जिसका भारतीय बाज़ार में प्रवेश दिसम्बर 2015 में ‘मेक इन इण्डिया’ कार्यक्रम के तहत हुआ था और यह इण्डियन प्रीमियर लीग 2017 की प्रायोजक भी थी। उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा में स्थित इसकी निर्माण इकाई उस समय सुर्खियों में आयी, जब कम्पनी ने पिछले महीने आईपीएल सत्र के समापन पर अपने एक हज़ार कर्मचारियों को नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया और इससे नाराज़ कर्मचारियों ने 25 जुलाई 2017 को इसका प्रतिकार करते हुए फै़क्टरी में तोड़फोड़ की। हालाँकि, पीयूडीआर की जाँच में यह पता चला कि 25 जुलाई की घटना कम्पनी की नीतियों और अपने कर्मचारियों के साथ कम्पनी के व्यवहार का परिणाम थी।
मज़दूरों की छँटनी : कम्पनी में इस समय 6000 से ज़्यादा मज़दूर हैं और सभी ठेके पर हैं। कम्पनी केवल आईटीआई पास लोगों को नौकरी देती है, इसलिए सभी मज़दूर कुशल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं। मज़दूरों का दावा है कि मई 2017 में आईपीएल सत्र के अन्त में कम्पनी में लगभग 24000 मज़दूर ठेके पर काम करते थे, जिन्हें दो महीने की अवधि में बिना किसी पूर्व नोटिस के एक-एक करके कम्पनी से बाहर निकाल दिया गया। इस इकाई में मुख्य रूप से काम चीन से आयातित पुर्जों को जोड़कर स्मार्ट फ़ोन बनाना होता है, जहाँ लगभग 70 मज़दूर एक साथ असेम्बली लाइन में काम करते हैं। पिछले दो महीने से कम्पनी लगातार विभिन्न असेम्बली लाइनों से जुड़े मज़दूरों को बाहर का रास्ता दिखा रही है।
काम की परिस्थितियाँ : मज़दूर अलग-अलग शिफ़्ट में काम करते हैं; नियमित शिफ़्ट 9 घण्टे की होती है जबकि दो अन्य शिफ़्टें 8-8 घण्टे की होती हैं। मज़दूरों को बिना किसी छुट्टी के पूरे 30 दिन काम करना पड़ता है, जिसके एवज़ में उन्हें प्रति माह 9300 रुपये मिलते हैं। पीएफ़ और इएसआई काटने के बाद, प्रत्येक मज़दूर को तीस दिन के काम के लिए महज़ लगभग 7100 रुपये मिलते हैं। इसके अलावा, कम्पनी मज़दूरों को फै़क्टरी लाने और ले जाने के लिए बस की सुविधा और कैण्टीन से भोजन की सुविधा मुफ़्त मुहैया कराती है। मज़दूरों का कहना है कि कैण्टीन का खाना बहुत ही घटिया कि़स्म का होता है। कम्पनी की नीति के तहत काम से एक दिन ग़ैर-हाज़िर रहने पर वेतन से 2000 रुपये काट लिए जाते हैं और यदि उपस्थिति पूरी रही, तो वेतन में अतिरिक्त 2000 रुपये जोड़ दिये जाते हैं। यह पुरस्कार वास्तव में दिया नहीं जाता बल्कि महज़ एक दिन ग़ैर-हाज़िर रहने पर वेतन से इस पुरस्कार राशि से 20 प्रतिशत अधिक की कटौती हो जाती है। पूरे दिन काम के दौरान, मज़दूरों को आधे घण्टे की छुट्टी खाने के लिए और 10 मिनट की छुट्टी चाय पीने के लिए मिलती है। इन छुट्टियों के अलावा, यदि कोई मज़दूर यहाँ तक कि बाथरूम जाने के लिए भी असेम्बली लाइन छोड़ता है तो उसे दण्डित किया जाता है। मज़दूर सुपरवाइज़रों द्वारा नियमित रूप से उत्पीड़न और दुर्व्यवहार किये जाने की शिकायत भी करते हैं। मज़दूर प्रति घण्टे 160 फ़ोन असेम्बल करने के लक्ष्य के साथ काम करते हैं। लक्ष्य पूरा नहीं करने पर मज़दूरों की पूरी लाइन को सेवाओं से बर्ख़ास्त कर दिया जाता है। मज़दूर द्वारा पीएफ़ की राशि का दावा छह महीने की सेवा के बाद ही किया जा सकता है, लेकिन कम्पनी पाँच महीने से ज़्यादा किसी मज़दूर को काम पर नहीं रखती। पिछले कुछ महीनों में कम्पनी से निकाले गये सभी मज़दूरों को पीएफ़ की राशि नहीं मिली। हाल के महीनों में मज़दूरों को यहाँ तक कि नियत 7100 रुपये भी नहीं मिल रहे हैं। कुल मिलाकर, मज़दूर बेहद असुरक्षा के माहौल में रहते और काम करते हैं। वे अपनी शिफ़्ट के लिए फै़क्टरी में प्रवेश कर सकते हैं और महज़ इतना बताने पर कि वे “वाम” श्रेणी के हिस्से हैं, उन्हें निकाला जा सकता है। वाम शब्द नौकरी से बर्ख़ास्तगी का प्रतीक है, कोई वजह नहीं बतायी जाती।
25 जुलाई की घटना : कुछ समय से मज़दूर नियमित रूप से निकाले जा रहे थे, जब यह घटना दोहरायी गयी और पूरी असेम्बली लाइन को निकाल बाहर किया गया तो मज़दूरों ने प्रतिकार किया। इसके जवाब में ठेकेदारों और प्रबन्धन के अन्य सदस्यों ने मज़दूरों से दुर्व्यवहार और मारपीट की। दुर्व्यवहार से मज़दूर और भड़क गये और लगभग 400 मज़दूरों ने अपने शारीरिक बल का प्रयोग करते हुए कुछ सम्पत्तियों को नुक़सान पहुँचाया और प्रबन्धन के कुछ सदस्यों को पीट दिया। मज़दूरों के अनुसार, प्रबन्धन ने पुलिस बुला ली और पुलिस ने लगभग 30 से 35 लोगों को गिरफ़्तार किया।
पुलिस कार्रवाई : गौतम बुद्ध नगर के इकोटेक जोन पुलिस स्टेशन, जहाँ पर शिकायत दर्ज की गयी थी, के एसएचओ के अनुसार, पुलिस ने मज़दूरों को शान्त कराया और हिंसा में शामिल सात मज़दूरों को गिरफ़्तार किया। पुलिस का दावा है कि वहाँ से छूटने पर रास्ते में मज़दूरों ने स्मार्टफ़ोन से लदे एक ट्रक को लूट लिया और लगभग 150 हैण्डसेट उसमें से ग़ायब थे। पुलिस ने 7 मज़दूरों और लगभग 250 अज्ञात लोगों के खि़लाफ़ धारा 147 (दंगा करना), 148 (दंगा करना, घातक हथियार लेकर चलना), 149 (ग़ैर-क़ानूनी रूप से इकट्ठा होना), 379 (चोरी) और 427 (‘उपद्रव’ करना और नुक़सान पहुँचाना) के तहत प्राथमिकी दर्ज की। मज़दूरों ने ट्रक लूटने से इनकार किया है। यह भी स्पष्ट नहीं हुआ कि मज़दूरों के खि़लाफ़ घातक हथियारों के साथ हिंसा करने के आरोप कैसे लगे, जबकि उन्हें कम्पनी परिसर में घुसने या वहाँ से निकलने से पहले तीन स्तरीय सुरक्षा जाँच से गुज़रना पड़ता है और ऐसी स्थिति में उनके लिए कोई सामान साथ ले जाना असम्भव होता है। पुलिस की कार्रवाई निश्चित तौर पर एकतरफ़ा है, क्योंकि मज़दूरों के उत्पीड़न, दुर्व्यवहार और उनके साथ हाथापाई करने के लिए उसने प्रबन्धन और उसके कर्मचारियों के खि़लाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की।
प्रबन्धन की चुप्पी : प्रबन्धन ने तो पीयूडीआर से बात करने से इनकार कर दिया, लेकिन पुलिस ने उनका पक्ष रखा। कम्पनी के अनुसार, नौकरी का बेहतर अवसर पाने के कारण लगभग 300 से 400 मज़दूर हर महीने नौकरी छोड़ते हैं और यह कि कम्पनी ने किसी को भी नहीं निकाला। 25 जुलाई को मज़दूरों ने 150 फ़ोन चुराये जिनकी क़ीमत 20 लाख रुपये थी और 10 लाख की सम्पत्ति को नुक़सान पहुँचाया। कम्पनी ने केवल उन्हीं मज़दूरों को काम पर लेने से इनकार किया जो हिंसा में शामिल थे।
उत्पीड़न जारी : 25 जुलाई की घटना और मज़दूरों को निकाले जाने सम्बन्धी ख़बर 4 अगस्त को मीडिया में आने के बावजूद कम्पनी ने वही तौर-तरीक़ा अपनाया। 2000 रुपये का उपस्थिति पुरस्कार ख़त्म कर दिया गया और कुछ मज़दूरों को उनका जुलाई का वेतन 4000 रुपये से कम मिला। मज़दूरों ने प्रबन्धन से इस बारे में पूछा और उनके खि़लाफ़ नारेबाज़ी की, जिसके बाद कई मज़दूरों को फिर निकाल दिया गया। मज़दूर आशंकित थे कि आने वाले दिनों में इस तरह की और बर्ख़ास्तगी होगी।
कम्पनी जहाँ पर स्थित है, वह ज़मीन जगनपुर गाँव की है, लेकिन वहाँ गाँव के मुश्किल से दस युवाओं को नौकरी मिली है। कम्पनी की नीति है कि मज़दूरों को दूर-दराज के क्षेत्रों से लिया जाये, ताकि उनकी यूनियन नहीं बने। इससे मज़दूर आसपास के गाँवों में कमरे लेने के लिए मजबूर होते हैं, जहाँ दो लोगों के रहने के लिए एक कमरे का किराया कम-से-कम 2200 रुपये प्रति माह होता है। अक्सर उन्हें किसी तीसरे व्यक्ति को रखने के लिए अतिरिक्त पैसा देना पड़ता है। ज़ाहिर है कि ज़्यादातर मज़दूरों के लिए नोएडा में अपने परिवार रख पाना असम्भव होता है। वास्तव में, कुछ मज़दूर अपने परिवार के साथ रहने और घर लौटकर खेती बाड़ी करने के मक़सद से बहुत दूर से आते हैं। जिनके पास गाँव में अपनी ज़मीन नहीं होती, उनकी ज़िन्दगी कम पगार और अत्यधिक अनिश्चितता के कारण बहुत ही अस्थिर हो जाती है।
यह सच है कि मेक इन इण्डिया ने प्रस्तावित लाभ हासिल करने के उद्देश्य से बहुत से स्मार्ट फ़ोन निर्माताओं को आकर्षित किया। इस पहल ने स्थानीय निर्मित हैण्डसेट पर कर आयातित पूरी तरह से निर्मित हैण्डसेट पर 12.5 प्रतिशत शुल्क की तुलना में 2 प्रतिशत कम कर दिया। यह सुविधा देने और भारत में बड़े बाज़ार की सम्भावना के कारण भारत में हैण्डसेट का निर्माण लाभदायक हो गया। भारत ने पिछले साल 37 मोबाइल निर्माताओं से निवेश आकर्षित किया जिनमें से छह से अधिक कम्पनियाँ चीनी हैण्डसेट निर्माता थीं। इनमें चीन की सबसे बड़ी टेलीकॉम कम्पनियों में से एक हुआवेई शामिल है। जियाओमी, जियोनी, लिइको, ओप्पो, वीवो, मीजु, वनप्लस, और कूलपैड जैसे ब्राण्ड या तो अपने संयन्त्र स्थापित कर चुके हैं या संयन्त्र स्थापित करने की घोषणा कर चुके हैं।
बहरहाल, वीवो में काम की स्थिित बताती है कि यहाँ बनायी जा रही रोज़गार की प्रकृति बहुत ही हत्प्रभ करने वाली है। काम की भयानक स्थिति, प्रबन्धन द्वारा दुर्व्यवहार, वेतन के नाम पर मूँगफली, महीनों काम करने के बावजूद शून्य वेतन वृद्धि वीवो कम्पनी द्वारा प्रस्तावित नौकरी की प्रकृति को बताती है। यह मज़दूरी दासता की व्यवस्था को प्रतिबिम्बित करती है, जिसमें लोगों को अपनी इच्छा पर रखा और निकाला जाता है। यह भयानक रूप से फ़ॉक्सकॉन कम्पनी (शेनजेन, चीन) की याद दिलाती है जो सन 2010 में अपने कर्मचारियों द्वारा आत्महत्या किये जाने के लिए बदनाम हुई थी।
पीयूडीआर की माँगें :
- मज़दूरों के खि़लाफ़ एफ़आईआर तत्काल वापस ली जाये
- श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने के लिए कम्पनी के खि़लाफ़ कार्रवाई की जाये और काम की उचित स्थिति सुनिश्चित की जाये
- निकाले गये मज़दूरों को वापस लिया जाये
- मज़दूरी की दरें वैधानिक क़ानूनों के अनुसार संशोधित की जायें।
मज़दूर बिगुल,अगस्त 2017
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन